गोवध पर केन्द्रीय सरकार के आदेश का औचित्य
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हाल ही में केन्द्र सरकार ने पशुओं के वध के लिए बिक्री पर रोक लगा दी है। केन्द्र सरकार का यह निर्णय पूरी तरह से असंवैधानिक और अर्थहीन लगता है। अगर संविधान-निर्माण के दौरान उठे इस सवाल पर नजर डालें, तो पता चलता है कि निर्माताओं में से कुछ सदस्यों ने इसके आर्थिक पक्ष के मद्देनजर ऐसे प्रतिबंध को अव्यावहारिक बताया था। अंततः इस पर आंशिक प्रतिबंध लगाकर इसे अनुच्छेद 48 के नीति निर्देशक तत्वों में शामिल कर लिया गया था।सन् 1959 के मोहम्मद हनीफ कुरैशी मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने गायों तथा भैसों वगैरह के वध को संवैधानिक ठहराया था। परन्तु प्रजनन योग्य पशुओं के वध को असंवैधानिक ठहराया गया था। कुछ राज्यों ने इस संदर्भ में 20 वर्ष से अधिक उम्र के पशुओं के वध के पक्ष में कानून बना दिया। बिहार और उत्तरप्रदेश जैसे राज्यों में मुसलमानों की बहुतायत है। इनका मुख्य पेशा कसाई खानों से जुड़ा हुआ है। साथ ही इन राज्यों के ईसाई, कबायली जातियाँ एवं मुसलमान बहुतायत में गोमांस का सेवन करते रहे हैं। इसलिए राज्य सरकारों ने अपने तरीके से कानून बना लिए।
केन्द्र् सरकार का आदेश अर्थहीन क्यों है?
इस आदेश के पीछे कोई औचित्य दिखाई नहीं देता। सरकार ने इसके व्यावसायिक परिणामों पर कुछ भी विचार नहीं किया है। इस प्रतिबंध से लाखों कसाइयों की रोजी-रोटी का सवाल उठ खड़ा हुआ है। बड़ी मात्रा में होने वाले गोमांस निर्यात पर भी ध्यान नहीं दिया गया है। हमारे चमड़ा उद्योग का क्या होगा? इस आदेश में इस उद्योग से जुड़े लोगों के जनजीवन पर पड़ने वाले प्रभावों की पूर्णतः अनदेखी की गई है। इसलिए यह अर्थहीन लगता है।
- केन्द्र सरकार का यह आदेश प्रिवेन्शन आॅफ क्रूअलिटी टू एनिमल्स एक्ट 1960 में सीधा-सीधा हस्तक्षेप है। कानूनी और संवैधानिक रूप से सरकार का कोई भी आदेश मूल कानून में उल्लिखित विशेष टिप्पणियों और उसकी व्याख्या से परे नहीं जा सकता। इसलिए सरकार का यह आदेश अर्थहीन है।
- अगर पशुओं के प्रति क्रूरता को सरकार रोकना ही चाहती है, तो उसका वर्तमान आदेश केवल मवेशियों और ऊँटों के लिए क्यों है? केवल कुछ पशुओं के लिए सरकार का यह आदेश कानूनी भ्रम की स्थिति पैदा करता है। इसलिए यह अर्थहीन है।
अगर सरकार के इस आदेश के पीछे उसके मंतव्य को जानने की कोशिश की जाए, तो यह उसकी गोवध को रोकने की पारंपरिक कोशिश के अलावा कुछ नहीं लगता। दरअसल, संविधान में ‘कृषि’ और ‘पशुधन का संरक्षण’ दोनों ही तत्व राज्य सरकारों के क्षेत्र में आते हैं। राज्य सरकारें अपने-अपने राज्यों में गोवध के लिए अलग-अलग नियम बनाती आई हैं। यही कारण है कि सरकार ने ‘पशुओं की क्रूरता से संरक्षण अधिनियम’ को चुना है। इसके माध्यम से केन्द्र और राज्य सरकार, दोनों ही कानून बना सकते हैं।सरकार की मंशा जो भी रही हो, परन्तु इस कानून का मसौदा बहुत सी कमियां रखता है। यह संविधान द्वारा नागरिकों को दिए गए आर्थिक और सामाजिक स्वतंत्रता के अधिकार में भी बाधक सिद्ध हो रहा है।
‘द हिन्दू’ में प्रकाशित गौतम भाटिया के लेख पर आधारित।