कुपोषण और शिशु मृत्यु दर
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किसी समाज की खुशहाली उसके वासियों के स्वास्थ्य से जुड़ी होती है। जब हम स्वास्थ्य की बात करते हैं, तो इसका संबंध शिशुओं और माताओं से सबसे पहले होता है। जिस समाज में प्रतिवर्ष नवजात शिशुओं और प्रसव के दौरान माताओं की मृत्यु दर लाखों में हो, उसे खुशहाल नहीं कहा जा सकता।कुपोषण के मामले में विश्व के अनेक देश शर्मनाक स्थिति में हैं। इनमें भारत की स्थिति भी ऐसी ही है। कुपोषण के कारण शिशुओं और माताओं की मृत्यु दर से संबंधित कुछ तथ्य –
- दक्षिण एशिया के कुपोषित देशों में भारत का स्थान अग्रणी है। यूनिसेफ की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में कुपोषण के कारण पांच साल से कम उम्र के करीब दस लाख बच्चों की हर साल मृत्यु हो जाती है। सामाजिक कार्यकर्ताओं का कहना है कि कुपोषण को चिकित्सकीय आपातकाल घोषित कर दिया जाना चाहिए। कुपोषण के आंकड़े आपातकालीन सीमा से ऊपर हैं। कुपोषण की समस्या हल करने के लिए नीति बनाने और उसके क्रियान्वयन के लिए पर्याप्त बजट की आवश्यकता है।
- रिपोर्ट में कहा गया है कि कुपोषण के शिकार बच्चों की संख्या भारत में दक्षिण एशिया के देशों से बहुत ज़्यादा है। भारत में अनुसूचित जाति, जनजाति, पिछड़ा वर्ग और ग्रामीण समुदायों में कुपोषण के सर्वाधिक मामले पाए जाते हैं। यह रिपोर्ट राजस्थान के बारां और मध्यप्रदेश के बुरहानपुर जिले की स्थिति पर आधारित है। राजस्थान में अनुसूचित जनजाति के पांच साल से कम वर्ष के बच्चे गंभीर कुपोषण के शिकार पाए गए हैं।
- स्वास्थ्य विभाग के पास मौजूद वार्षिक सर्वेक्षण के आंकड़ों के अनुसार मां को उचित पोषण न मिलने के कारण बच्चे कमज़ोर पैदा हो रहे हैं। जन्म के समय बच्चे अपने औसत वजन से बहुत कम के पैदा होते हैं।
- गौर करने की बात यह है कि सभी तरह के स्वास्थ्य सर्वेक्षणों में इस बात को रेखांकित किया गया है कि शिशु मृत्यु और प्रसव काल में माताओं की मृत्यु के कारण ऐसे हैं, जिन्हें रोका जा सकता है।
- सेव दि चिल्ड्रन द्वारा एडिंग न्यू-बॉर्न डेथ्स शीर्षक से जारी रिपोर्ट के अनुसार दुनिया भर में हर साल दस लाख से अधिक बच्चे एक दिन से ज़्यादा जीवित नहीं रह पाते।
- खासकर गरीब देशों में तस्वीर और भी खराब है। सूडान और दक्षिण अफ्रीकी देशों में यही स्थिति है।
- रिपोर्ट में कहा गया है कि प्रशिक्षित स्वास्थ्यकर्मियों का अभाव और जन्म से जुड़ी अन्य जटिलताएं ऐसी मृत्यु के प्रमुख कारण हैं। अगर जन्म के समय बच्चों की उचित देखभाल हो सके, तो लगभग आधी मौतों को टाला जा सकता है।
- इथोपिया में सिर्फ दस फीसदी प्रशिक्षित स्वास्थ्य कर्मचारी उपलब्ध हैं, वहीं ग्रामीण अफगानिस्तान के कुछ इलाकों में तो दस हजार लोगों पर सिर्फ एक स्वास्थ्यकर्मिका होती है।
- संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार 1990 के मुकाबले सन् 2013 में भारत में शिशु मृत्यु दर में काफी कमी आई है। स्थिति में सुधार हुआ है, लेकिन अभी भी यह संतोषजनक नहीं है। सरकार का रवैया इस दिशा में कोई खास उत्साहजनक नहीं है। देश के सकल घरेलू उत्पाद का4 प्रतिशत स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च किया जाता है। स्थिति को देखते हुए यह काफी कम है।
देश में स्वास्थ्य सेवाओं को दूरस्थ गांव-देहात तक पहुंचाना होगा और देश के हर नागरिक को समय पर पर्याप्त चिकित्सा सुविधा की व्यवस्था करनी होगी। तभी नवजात शिशुओं की मृत्यु पर रोक लगाई जा सकती है।
समाचार पत्रों पर आधारित
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