कारोबार में सुगमता के रास्ते

Afeias
12 Dec 2019
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Date:12-12-19

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काराबेार में सुगमता सूचकांक के 190 देशों की सूची में भारत का स्थान फिलहाल 63वां है। किसी कारोबार या व्यवसाय की व्यवहार्यता या क्षमता, उस अर्थव्यवस्था की व्यवहार्यता पर निर्भर करती है, जिसमें वह अंतर्निहित होता है। भारत के संदर्भ में इसे तब बेहतर समझा जा सकता है, जब हम देश के लोगों के व्यवसाय की प्रकृति को समझकर, उसके अनुकूल नीतियां बनाने का प्रयत्न करते हैं।

  • भारत में कामकाजी लोगों की श्रेणी में सबसे ज्यादा संख्या स्वरोज़गार वालों की है। इसमें तमाम सेवा-प्रदाता आते हैं, जिनके सशक्तीकरण के बारे में न तो नेहरू सरकार ने सोचा, और न ही मोदी सरकार ने। व्यापार-व्यवसाय का उथान अपने आप से ही नहीं हो जाता। उसका भविष्य और भाग्य, देश की अर्थव्यवस्था के स्वास्थ्य पर निर्भर करता है।
  • व्यवसाय की क्षमता को बढ़ाने के लिए अर्थशास्त्रियों ने कुल माँग को बढ़ाना सबसे महत्वपूर्ण माना है। इसके बगैर न तो नियामकों के अनुपालन का वातावरण बनेगा, और न ही स्व उद्यमिता को नए सोपान मिलेंगे।

फिलहाल भारतीय अर्थव्यवस्था कुल माँग में आई गिरावट के दौर से गुजर रही हे। 2011 में माँग सकल घरेलू उत्पाद में चरम पर थी, जो अब 10 प्रतिशत गिर गई है।

  • विकास में जनता की व्यय शक्ति की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। राजकोषीय घाटे में वृद्धि, जो सार्वजनिक पूंजी निर्माण के बजाय सार्वजनिक खपत में वृद्धि का रूप लेती है; केवल एक अस्थायी प्रभाव हो सकता है। 2008 और 2009 के बड़े राजकोषीय घाटे के दौरान, सार्वजनिक पूंजी निर्माण थोड़ा बहुत ही बढ़ा था।

राजकोषीय प्रोत्साहन से अर्थव्यवस्था की विकास दर पर कोई लंबा प्रभाव नहीं पड़ता है। अगर इसकी गति पूंजी निर्माण की ओर बढ़ जाती है, तो यह कुल मांग को भी बढ़ा देगी और संभावित आपूर्ति को भी। इस माध्यम से हुआ विकास टिकाऊ होता है।

वर्तमान की उपभोक्ता मांग में कमी का सीधा संबंध, कृषि क्षेत्र के धीमे विकास से है। उस पर विडंबना यह है कि हमारी 70 प्रतिशत जनता ग्रामीण है, और 2008 के बाद से ही इस क्षेत्र में विकास दर शून्य रही है।

ठोस उपाय

  • कुल मांग को बढ़ाने के लिए एक सक्रिय मैक्रोइकॉनॉमिक नीति की आवश्यकता है।
  • रिजर्व बैंक की उच्च ब्याज दर वाली मौद्रिक नीति से कोई लाभ नहीं हुआ है। राजकोषीय नीति से ही अकेले कुछ उम्मीद लगाई जा सकती है। परन्तु इसके लिए जांच-पड़ताल आवश्यक होगी।
  • कृषि को लाभ का व्यवसाय बनाने के लिए गैर कृषिकर्म के माध्यम से आजीविका के अधिक साधन जुटाने होंगे। इससे कुल मांग बढ़ेगी।

‘द हिन्दू’ में प्रकाशित पी. बालकृष्ण के लेख पर आधारित। 6 नवम्बर, 2019