ऑटोमेशन से बढ़ती बेरोजगारी
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भारत की अर्थव्यवस्था चाहे विश्व में सबसे तेजी से आगे बढ़ रही हो, लेकिन हमारी खिलती हुई युवा पीढ़ी नौकरियों के लिए निरंतर संघर्ष कर रही है। 15-29 साल के बीच की 30% से अधिक जनसंख्या के पास न तो नौकरी है और न ही वह किसी प्रकार की शिक्षा या प्रशिक्षण ले रही है। मतलब कि वह बेकार बैठी हुई है। इसी वर्ष मार्च में अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा समिति ने इस बात को स्वीकार किया है कि तकनीकी संस्थानों से निकलने वाले आठ लाख इंजीनियर में से 60% से अधिक बेरोज़गार रह जाते हैं। बेरोजगारी की इस बढ़ती दरार को भरना वाकई एक कठिन कार्य है।
- औद्योगिक क्षेत्र में अनेक ऑटोमेशन तकनीकों पर काम किया जा रहा है। इससे कम कौशल की मांग रखने वाले ब्लू कॉलर श्रम आधारित रोजगार खतरे में पड़ जाएंगे। हो सकता है कि इनकी मार व्हाइट कॉलर नौकरियों पर भी पड़े। जे पी मॉरगन चेज़ एण्ड कंपनी ने हाल ही में COIN नामक एक प्रोग्राम तैयार किया है, जो उनके कानूनी दस्तावेजों का पलभर में विवेचन कर देगा। इस काम के लिए कंपनी को पहले 3,60,000 घंटे लगते थे। यह काम उनके वकील और लोन अधिकारी सालाना किया करते थे। इसी प्रकार अमेरिका के एक चिकित्सा विद्यालय ने कैंसर के निदान के लिए आईबीएम की एआई तकनीक का प्रयोग किया है। 99% केस में यह तकनीक सफल पाई गई। यह सब देखते हुए वल्र्ड इकॉनॉमिक फोरम ने अनुमान लगाया है कि ऑटोमेशन के कारण भारत में रोजगार के अवसरों में 69% कमी आ जाएगी।
- अगर इतिहास को पलटकर देखा जाए, तो उन्नत होती तकनीकों के कारण रोजगार के अवसर कम होते जाने का भय बहुत समय से चला आ रहा है। जॉन एफ केनेडी ने 1960 में इसी संदर्भ में कहा था कि ‘चाहे वह कार्यालय का काम हो या उद्योग का, कौशलपूर्ण कार्य हो या सामान्य, सभी प्रकार के उद्यमों में मशीनें इंसान की जगह ले रही हैं और इंसान काम की तलाश में है। हालांकि ऐसा कभी नहीं हुआ, क्योंकि जैसे-जैसे कुछ रोज़गार के अवसर खत्म हुए तो दूसरे पनपने लगे। मशीनों ने व्यय और कीमतों को कम किया, तो मांग बढ़ी। मांग बढ़ी तो रोज़गार के अवसर भी बढ़े।
- अगर भारत का उदाहरण लें, तो यहाँ जैसे-जैसे कृषि में श्रम के अवसर कम हुए, तो निर्माण और सेवा क्षेत्र में नए अवसर तैयार हो गए। लेकिन इसके बाद की स्थिति को देखने पर लगता है कि मशीनें तो कृषि, निर्माण और सेवा क्षेत्र के तीन श्रम आधारित रोज़गारों को लगातार कम करने में लगी हैं, लेकिन हम इनसे इतर नए ऐसे क्षेत्र नहीं ढूंढ़ पाए हैं, जो रोजगार बढ़ा सकें। हमारे लिए यही एक चुनौती है। अगर हम इससे टक्कर लेने की बात सोचते भी हैं, तो किसी समय श्रम की मांग रखने वाले रोजगार के अवसर अब उपलब्ध ही नहीं हैं। अगर हम इसकी पूर्ति सेवा क्षेत्र में बढ़ते रोजगारों से करना चाहें, तो भी वह संभव नहीं लगता, क्योंकि ऐसे रोजगार के लिए सम्प्रेषण क्षमता के साथ-साथ विशेषज्ञता भी चाहिए।वर्तमान सरकार के स्किल इंडिया मिशन से उम्मीद की जा सकती है कि यह हमारी उत्पन्न होने वाली बेरोजगारी के मार्ग पर आने वाली सामाजिक असमानताओं में संतुलन बनाए रखेगा।
‘द हिंदू‘ में प्रकाशित अनिल के एंटनी के लेख पर आधारित।
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