उच्च शिक्षा संस्थानों की विडंबना
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ज्ञान एक शक्ति है। मानव इतिहास केवल मात्र युद्धों की गाथा नही कहता, बल्कि वह ज्ञान-विज्ञान, तकनीक और इंजीनयरिंग के आविर्भाव एवं मानव विकास में उनके योगदान के गीत भी गाता है। कभी आर्यभट्ट, चरक, रामानुजम और रमन जैसी महान हस्तियों की भूमि रहा भारत आज आविष्कार और शोध जैसे क्षेत्रों में इतना रिक्त क्यों हो गया है ? हमारे पास आज ऐसा कोई संस्थान नहीं है, जिसकी तुलना हम तक्षशिला एवं विक्रमशिला जैसे संस्थानों से कर सकें । अभी भी समय है, जब हम अपने इतिहास का मनन कर ज्ञान विज्ञान और विवेक की रिक्तता को पहचानें और सोचें कि आखिर शिक्षा के क्षेत्र में विश्व-शक्ति बनने से हम कहाँ चूक रहे हैं ?
अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी, चीन, जापान, आस्ट्रेलिया और सिंगापुर जैसे देश इंजीनयरिंग महाविद्यालयों की स्थापना में कहीं पीछे नहीं हैं । इसके साथ ही इन देशों की अर्थव्यवस्था विज्ञान, तकनीक, औद्योगीकरण और विकास को बढ़ावा देने का खुला घोषणापत्र भी है। दूसरी ओर हमारा देश ज्ञान आधारित अर्थव्यवस्था के बिल्कुल एक किनारे पर है या शायद इससे भी कहीं नीचे है। भारत ने अपने मूलभूत ढांचे में आमूलचल परिवर्तन पर तो ध्यान दिया है, लेकिन शिक्षा और ज्ञान के बारे में कोई गंभीर सोच नहीं दिखाई है। भारत को यह नहीं भूलना चाहिए कि विश्व में अपना स्थान बनाने और उसे कायम रखने के लिए शिक्षा का विकास बहुत जरूरी है।
हमारे देश के केंद्रीय विश्वविद्यालयों के उपकुलपति, आईआईटी एवं आईआईएम के निदेशक वगैरह अपने प्रकाशन, शोध-निर्देशन एवं शिक्षण जैसी अकादमिक उपलब्धियों के कारण ही इन पदो के लिए चुने जाते हैं। यह अपने आप में ही हैरान करने वाली बात है कि किसी की अकादमिक उपलब्धियों को अकादमिक नेतृत्व के लिए मानदंड कैसे बनाया जा सकता है ? इससें भी ज्यादा चैंकाने वाली बात यह है कि उन्हें प्रशासकीय दक्षता और प्रबंधन का दायित्व दे दिया जाता है।वर्गीकृत संरचना, निर्णय लेने के अधिकार का केंद्रीकरण, लंबी चैड़ी व्यवस्थापिका और नौकरशाही की प्रक्रिया जिस प्रकार उच्च शिक्षा को नियंत्रित करना चाहती है, वह एक बड़़ा रोड़ा है।
हमारे देश के विश्वविद्यालय अनुदान आयोग और (ए.आई.सी.टी.ई.) अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद् जैसे तकनीकी संस्थानों में बहुत ही दफ्तरशाही और अकर्मण्य लोग बैठे हुए हैं। इस पर विडंबना यह कि यही लोग कोर्स के प्रकार, पाठ्यक्रम, शिक्षण के घंटे, प्रवेश परीक्षा आदि का निर्धारण करते हैं। हमारे उच्च शिक्षा विभाग में जडताएं घुसी हुई हैं, जिनको निकालने की जरूरत है। इंजीनियरींग और उच्च शिक्षा की अन्य शाखाओं का पाठ्यक्रम वर्षों पुराना है। यह इसलिए नहीं बदला जाता, क्योंकि इसे बनाने वाले लोगों को विकास से कोई लेना देना नहीं है। वे तो बस एक नियत ढर्रे पर आसानी से किए जाने वाले काम पूरे कर खानापूर्ति करते हैं। यही कारण है कि व्यावसायिक शिक्षा प्राप्त करने वाले नौजवान भी बेरोजगार दिखाई देते हैं। उनकी पढ़ाई की सही कीमत उन्हें नहीं मिल पाती, क्योंकि उनकी पढ़ाई आज की मांग के अनुरूप न होकर पुराने घिसे-पिटे पाठ्यक्रम पर ही चलाई जा रही है।
विश्वविद्यालय अनुदान आयोग और ए.आई.सी.टी.ई. (All India Council for Technical Education) दोनों की ही भूमिका, उत्तरदायित्व , सोच और लक्ष्य के पुनरावलोकन की आवश्कता है। आज देश के लगभग 11 आईआईएम में पूर्णकालिक निदेशक नहीं हैं। आईआईएम राँची के कार्यकारी निदेशक के तौर पर कलकत्ता आईआईएम के निदेशक पिछले तीन वर्षों से काम कर रहे हैं। इसके परिणामस्वरूप यह संस्थान प्रशासन और संचालन की दृष्टि से धराशाई हो चुका है।इन संस्थानों को जिन स्थानों पर बनाया गया है, वह भी इनके लिए अपने आप में ही एक समस्या है। काशीपुर, सिरमौर, गया, उदयपुर आदि स्थानों में बनाए गए नए-नए आईआईएम के लिए वहाँ न तो सुविधाएं उपलब्ध हैं और न ही उद्योग हैं। जैसे एक चिकित्सा महाविद्यालय के साथ विद्यार्थियों के प्रायोगिक परीक्षण के लिए एक अस्पताल का होना जरूरी है, उसी प्रकार किसी प्रबंधन संस्थान के लिए आसपास उद्योगों और कार्पोरेट क्षेत्र का होना बहुत जरूरी है। यह बात समझ से परे है कि इन संस्थानों को खोलने का निर्णय लेने वालों की बुद्धि क्या घास चरने चली गई थी ?
किसी विश्वविद्यालय, आईआईएम और आईआईटी के उपकुलपति या निदेशक के तौर पर काम करने के लिए मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने जिस प्रकार का आवेदन पत्र निकाला है, वह दार्शनिक प्रकृति का है। इन पदों पर काम करने के लिए मानदंड दार्शनिकता नही, बल्कि प्रभावी शोध एवं अनुसंधान के साथ कार्पोरेट, अकादमिक एवं नियामक संस्थानों के गहरे तादत्म्य का संगम होना चाहिए। इस पद पर ऐसे व्यक्ति को नियुक्त किया जाना चाहिए, जिसमें अकादमिक कार्यक्रमों की शुरूआत एवं उनका संचालन करने की अद्भुत क्षमता हो। जो उस विशेष संस्थान को अंतरराष्ट्रीय मान्यता दिलवा सके। विद्यार्थियों को अच्छी नौकरियाँ दिलवा सके।
ऐसा लगता है कि मानव संसाधन विकास मंत्रालय को तत्काल प्रभाव से 7 से 9 सदस्यों की एक समिति गठित करनी चाहिए, जो अकादमिक जगत के जाने-माने लोगों से मिलकर बनी हो। इस सलाहकार समिति का कार्यकाल पाँच वर्षों का हो। यह नीति आयोग की तर्ज पर सरकार और प्रधानमंत्री को समय-समय पर उच्च शिक्षा से संबंधित सलाह देती रहे। यह समिति हर पाँच वर्षों में इसके अंतर्गत आने वाले उच्च शिक्षा संस्थानों को ज्ञान, सृजनात्मकता, परिश्रम और प्रसार के आधार पर तौले। साथ ही इस बात को निश्चित करे कि वे अपने निर्धारित संचालन और उद्देश्य की प्राप्ति में सफल रहे हैं कि नही।
आज भारत अपने विकास पथ पर अग्रसर होने के लिए ज्ञान, उसकी सृजनात्मकता और उसके फैलाव के लिए तरस रहा है।
‘द टाइम्स ऑफ इंडिया‘ में प्रकाशित प्रीतम सिंह और सुबीर वर्मा के लेख पर आधारित