‘ईज ऑफ़ डुईंग बिज़नेस,की बाधाएं’
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‘मेक इन इंडिया‘ को संभव करने में सबसे पहले ‘मेक इन इंडिया‘ की अनुमति आती है। इस अनुमति का मार्ग ‘ईज़ ऑफ़ डुईंग बिज़नेस‘ से होकर जाता है। हमारी नौकरशाही इस मार्ग में सबसे बड़ा रोड़ा है। हमारे नौकरशाह सामान्यतः कानून और प्रक्रियाओं के गठन में तो निपुण हैं, लेकिन समयानुसार उनमें परिवर्तन की क्षमता नहीं रखते।नौकरशाही की लंबी उलझन में नियम-कानूनों का विनियमन कितना महंगा पड़ रहा है, इसके बारे में सोचने का समय शायद सरकार के पास नहीं है। फाइल पर फाइल, नो-ऑब्जेक्शन पत्रों के ढेर, वास्तव में योजनाओं की उत्पादकता में कितनी वृद्धि कर रहे हैं ?
इस मार्ग में पाँच मुख्य अवरोध इस प्रकार हैं :-
- एक विभाग हो
जब भी कभी निवेश को आकर्षित करने की बात आती है, मुख्यमंत्री कार्यालय या उद्योग मंत्रालय इसके लिए बड़े-बड़े आयोजन करता है। लेकिन दूसरे ही दिन निवेशक को स्थानीय प्रशासन, नगर निगम, पुलिस आदि के जाल में फंसना पड़ता है। हमारे कर और श्रम विभाग का काम केवल नियमों के उल्लंघन पर नज़र रखना नहीं है, बल्कि वे उद्योग एवं निवेश की बढ़ोतरी और उनमें सुगमता लाने के लिए भी जिम्मेदार हैं। इस उत्तरदायित्व को ध्यान में रखते हुए कई देशों ने इन विभागों पर ‘ग्रोथ ड्यूटी‘ या ‘विकास भार‘ लगा रखा है।
- नौकरशाहों को भयमुक्त निर्णय करने का अधिकार
‘ईज ऑफ़ डुईंग बिज़नेस‘ से जुड़े नौकरशाहों पर अनेक तरह के दबाव होते हैं। अक्सर सुनने और पढ़ने में आता है कि फलां अधिकारी को कार्यकाल के अंतिम दिनों या सेवानिवृत्ति के बाद किसी प्रकरण में फंसा दिया गया है। दरअसल, निर्णय तो सामूहिक रूप से लिए जाते हैं। लेकिन अंत में बलि का बकरा किसी एक को बनना पड़ता है और वह अधिकतर नौकरशाह ही होता है। इन अनुभवों के कारण नौकरशाह अपने दम पर कोई भी निर्णय लेने में डरते हैं।
- ‘याराना‘ दृष्टिकोण खत्म हो
आए दिन सरकारी कार्यालयों में बड़ी-बड़ी कंपनियों के अधिकारियों को सचिवों या संयुक्त सचिवों के कक्ष में बैठे देखा जा सकता है। ये वे अधिकारी होते हैं, जिनकी सरकारी विभागों के आला अफसरों से व्यक्तिगत जान-पहचान होती है और ये लोग अपने उद्योग में आने वाली बाधाओं को व्यक्तिगत तौर पर दूर करवाने के लिए पहुँचे होते हैं। इस प्रकार ईज ऑफ़ डुईंग बिजनेस को ‘याराना‘ का उपशीर्षक मिल जाता है।सरकार को चाहिए कि सभी उद्योगों के लिए सभी स्तरों पर ऐसी व्यवस्था करे कि कोई भी अपनी शिकायतों या परेशानियों को अधिकारियों के समक्ष खुलकर ले जा सके।
- विनियम संबंधी खुली जानकारी दी जाए
हमारी नियमन प्रणाली सही रूप में नियमों का पालन करने वाले उद्योगों को चिन्हित करके उन्हें प्रकाश में लाना नहीं जानती। मान लीजिए कि एक रासायनिक उद्योग है। वह या तो राज्य संबंधी नियमों का पूर्ण पालन कर रहा होगा या उसका खुला उल्लंघन करते हुए असंसाधित कूड़े को कहीं ठिकाने लगा रहा होगा। इस स्थिति में उसे ‘रेड‘ यानी ‘अत्यधिक खतरनाक‘ उद्योग की श्रेणी में रख दिया जाएगा। जबकि प्रत्येक उद्योग को इस बात की जानकारी होनी चाहिए कि उसका निरीक्षण क्यों किया जा रहा है, और सरकारी हस्तक्षेप से बचने के लिए उसे क्या कदम उठाने चाहिए।
- सरकार–उद्योग–जनता का त्रिकोण बनाया जाए
नियमों का पालन बुरा नहीं होता। यह बात उद्योग भी तब समझते हैं, जब नियमों के पालन के कारण उन्होंने अपने स्तर को ऊँचा उठाकर जनता का विश्वास जीता। वास्तव में जनता भी नियमन प्रक्रिया का सम्मान करती है और उसे सफल बनाने के लिए कष्ट उठाने को भी तैयार रहती है।जब उद्योगों को यह समझ में आने लगता है कि सरकार उनके भविष्य को जनता से जोड़कर निश्चित करेगी, तो वे भी नियमन प्रक्रिया का पालन करने लगते हैं।
‘द इकॉनॉमिक टाइम्स‘ में प्रकाशित अरूदीप नंदी के लेख पर आधारित।