अवसर का जनसांख्यिकी झरोखा
Date:08-08-19 To Download Click Here.
गत माह, संयुक्त राष्ट्र ने विश्व की संभावनाओं पर एक पुनर्रीक्षण करते हुए यह खुलासा किया कि 2027 तक भारत की जनसंख्या चीन से अधिक हो जाएगी। यह सत्य है कि 21वीं शताब्दी में भारत ही सबसे अधिक जनसंख्या वाला देश रहेगा। अपने इस जनसांख्यिकीय प्रारध का उपयोग हम राष्ट्र के कल्याण के लिए कर पाते हैं या नहीं, यह तीन निर्णायक बिंदुओं पर निर्भर करता है।
जनसंख्या – नियंत्रण
1.इस विषय से जुड़ा ज्वलंत प्रश्न है कि क्या जनसंख्या नियंत्रण हेतु कठोर नीतियां अपनाई जाएं? इससे जुड़ा इतिहास बताता है कि एक प्रजातंत्र में जनसंख्या नियंत्रण के लिए जितने उपाय किए जा सकते हैं, वे सब किए जा चुके हैं। इनमें प्रथम दो संतानों तक ही मातृत्व अवकाश व उससे जुड़ी सुविधाएं देना आदि शामिल हैं। कुछ राज्यों में तो दो से अधिक संतान होने पर पंचायत चुनाव के अयोग्य ठहराने की नीति भी बनाई गई है।
जनसांख्यिकी विशेषज्ञ ज्यूडिथ ब्लेक का मानना है कि अगर लोगों के मन में बच्चों की चाहत है, तो उन्हें कोई भी प्रोत्साहन या प्रलोभन रोक नहीं सकता। जमीनी सर्वेक्षण भी यही बताता है कि बड़े परिवार की इच्छा रखने वाले लोग मानते हैं कि उनके बुढापे में उनका परिवार ही उनका सहारा बनेगा, पंचायत नहीं। अतः उन्हें जनसंख्या बढ़ने के परिणामों से कोई सरोकार नहीं है।
2.क्या लोगों को स्वेच्छा से छोटे परिवारों पर सहमत किया जा सकता है ? प्रजनन की संख्या का सीधा संबंध सामाजिक-आर्थिक स्तर से जुड़ा हुआ है। 2015-16 की प्रजनन दर गरीबों में 3.2 है, जबकि अमीरों में यह 1.5 है। 1.5 की कुल प्रजनन दर प्राप्त करने के लिए 40ः जनसंख्या को एक संतान पर ही रुकना होगा।
पश्चिमी समाज में महिलाओं के कामकाजी होने के कारण बच्चों की देखभाल की समस्या रहती है। इसलिए वे संतान की इच्छा नहीं करती। भारत में स्थिति अलग है। यहाँ उतनी महिलाएं कामकाजी नहीं हैं। एक बच्चा रखने वाले दंपति, बच्चे की अच्छी परवरिश पर होने वाले खर्च को देखते हुए परिवार-नियोजन करते हैं। धनी वर्ग भी बच्चों की अच्छी देखरेख, अच्छी शिक्षा और अच्छे रोजगार के भविष्य को देखते हुए छोटा परिवार रखना चाहते हैं। इसका अर्थ है कि शिक्षा का स्तर बढ़ाकर तथा अच्छे रोजगार के अवसरों तक गरीबों की भी पहुँच बढ़ाकर उन्हें यह समझाया जा सकता है कि कम बच्चों के साथ जीवन अधिक सरल और अच्छा बन सकता है।
इसके अलावा सुरक्षित और आसानी से मिलने वाले गर्भ निरोधक भी परिवार नियोजन को कारगर बना देते हैं।
जनसंख्या और नीति –
3.व्यापक विकास नीतियों में जनसंख्या को शामिल किए जाने के सवाल पर भी हमें अपना विचार बदलना चाहिए।
भारत के उत्तरी और मध्य राज्यों में, दक्षिण भारतीय राज्यों की तुलना में जनसंख्या वृद्धि अधिक रही है। 1971 की जनसंख्या नीति के अनुसार राज्यों को जनसंख्या के अनुसार लोकसभा सीटें दी जाती हैं, और केंद्र-राज्य के बीच राशि का आवंटन भी जनसंख्या के आधार पर ही किया जाता है। अब 15वें वित्त आयोग ने 2011 की जनगणना को आधार मानकर राशि के आवंटन का निर्णय लिया है। इससे 1971 और 2011 के बीच जनसंख्या वृद्धि में भारी कमी करने वाले दक्षिणी राज्यों को हानि पहुँचने की संभावना है। यदि हम 1971 से 2011 की जनसंख्या की तुलना करें, तो केरल की जनसंख्या के 56% की तुलना में बिहार की जनसंख्या 140% बढ़ी है। इस नीति से दक्षिण राज्यों को जनसंख्या कम करने का एक प्रकार से दंड़ मिल रहा है।
1971 की जनगणना को आधार बनाना भी एक भूल होगी, क्योंकि क्रास स्टेट सब्सिडी कई रूपों में मिलती हैं। लेकिन केंद्र-राज्य स्थानांतरण एक ही रहता है। एक राज्य में काम करने वालों का कर-राजस्व दूसरे राज्य में रहने वालों को भी लाभ पहुँचाता है।
जनसांख्यिकीय संक्रमण की शुरूआत और समाप्ति की गति अलग-अलग राज्यों के बीच जटिल संबंध बनाती है। काम करने वाले युवाओं की संख्या में बढ़ोत्तरी का समय भी अस्थायी है। इसमें बच्चों पर निर्भरता का अनुपात बहुत कम है। परंतु तमिलनाडु और केरल की वृद्ध होती जनसंख्या के लिए यह सही नहीं ठहरता। संयुक्त राष्ट्र के एक अनुमान के अनुसार कर्नाटक, हरियाणा और जम्मू-कश्मीर जैसे राज्यों में अगले 20 वर्षों तक युवा जनसंख्या की बहुलता रहेगी। इन राज्यों के अवसर समाप्त होते ही यह बिहार, उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों को अवसर देगी। इसका अर्थ है कि 20 वर्षों बाद वृद्ध होती केरल की जनसंख्या का सहारा बिहार के नौजवान बनेंगे।
अधिक से अधिक जनसांख्यिकीय लाभ लेने के लिए हमें शिक्षा और स्वास्थ्य में निवेश करना चाहिए। 1971 के स्थान पर 2011 या वर्तमान जनसंख्या को आधार बनाकर केंद्र की आवंटन नीति का विरोध करना अदूरदर्शिता है। वर्तमान में ज्यादा जनसंख्या वाले राज्य ही भविष्य में हम सबका सहारा बनेंगे। उनकी उत्पादकता बढ़ाने की आवश्यकता है, बशर्तें इन राज्यों में कार्यबल का सही दिशानिर्देशन हो।
‘द हिंदू‘ में प्रकाशित सोनाल्दे देसाई के लेख पर आधारित। 11 जुलाई, 2019