सरकार और नागरिकों के मध्य संवाद का महत्व
Date:21-10-19 To Download Click Here.
प्राचीन भारतीय विद्वानों के बीच वाद-विवाद के मानदंडों में एक ओर बहुत ही शिक्षाप्रद मार्ग; और दूसरी ओर राजाओं और उनके विषयों पर ज्ञान का वर्णन प्राचीन ग्रंथ मिलिंडा-पनशा में पाया जाता है। इसमें इंडो-ग्रीक राजा मिलिंडा (मेनैंडर) और बौद्ध भिक्षु नागसेन के बीच विचारों के आदान-प्रदान को भी दर्शाया गया है। जब नागसेन द्वारा बताए गए बिन्दु को समझने में राजा असफल रहता है, तो वह पूछता है, ‘‘क्या आप मेरे साथ फिर से चर्चा करेंगे?’’ नागसेन कहते हैं : ‘‘यदि आप एक विद्वान के रूप में चर्चा करें तो हाँ, लेकिन यदि आप एक राजा के रूप में चर्चा करेंगे, तो नहीं।’’
‘‘विद्वान कैसे चर्चा करते हैं ?’’
‘‘जब विद्वान एक-दूसरे के साथ बात करते हैं, तो उसमें एक प्रकार के समापन; एक विवृत्ति, भेद और प्रति-भेद; तथा एक दूसरे की त्रुटि के बारे में आश्वस्त किया जाता है। फिर अपनी गलती को स्वीकार किया जाता है। फिर भी कोई क्रोधित नहीं होता। विद्वान इसी प्रकार चर्चा करते हैं।’’
‘‘राजा कैसे चर्चा करते हैं ?’’
‘‘जब एक राजा चर्चा करता है, और किसी बिन्दु को बढ़ाता है; तब कोई यदि उससे मतभेद रखता है, तो वह उस व्यक्ति को दंडित कर सकता है। महामहिम! राजा इस प्रकार से चर्चा करते हैं।’’
प्राचीन भारत में वाद-विवाद शांत एवं तनावमुक्त वातावरण में हुआ करते थे, जिसमें प्रतिभागी अपनी राय बदलने में संकोच नहीं किया करते थे। ये चर्चाएं राजनीतिक शासकों के साथ हुए उन समझौतों से बहुत दूर होती थीं, जहाँ एक बहस को जीतना, जीवन और मृत्यु का प्रश्न हुआ करता था।
वास्तव में, प्रजातंत्र ही सरकार का वह एकमात्र रूप है,जिसमें नागरिकों और सरकार के बीच, विद्वानों और शासकों के बीच होने वाले विवादों का एक सम्मिलित रूप दिखाई देता है। वाद-विवाद तो भयमुक्त वातावरण में ही होते हैं। विवादों के दौरान त्रुटियों को स्वीकारा जाता है, और विचार बदल जाते हैं। किसी की त्रुटि ऊजागर होने पर क्रोध या अपमान की कोई भावना नहीं पनपती है।
सार्वजनिक दलीलें सरकारों को अपनी गलतियों को स्वीकार करने और नीतियों को बदलने के लिए मजबूर करती हैं। लेकिन क्या उचित सुनवाई के बिना यह संभव है ? यह कहा गया है कि शक्तिशाली लोगों को बोलने का विशोषाधिकार प्राप्त है, और बहुत से शक्तिहीन लोग सिर्फ सुनते हैं। प्रजातंत्र की सुंदरता ही इसमें है कि वह शक्तिशाली लोगों को सुनने के लिए बाध्य करता है।
यह दुर्भाग्य है कि प्रजातांत्रिक सरकारें भी हमेशा अपने मतदाताओं को नहीं सुनती है। परन्तु जैसे ही उनके जनता के प्रति बहरेपन के रुख से अपना अस्तित्व संकट में दिखाई देने लगता है, वैसे ही उन्हें श्रवण के महत्व का ज्ञान हो जाता है।
हाल में, भारत में भी ऐसा ही कुछ हुआ है। वर्तमान सरकार किसी की भी सुनने को तैयार नहीं थी। कुछ बड़े कार्पोरेट्स की अंततः सुनी गई। यह विवादास्पद जरूर है, परन्तु सत्य यह है कि महीनों के मौन के बाद किसी की गुहार पर तो सरकार ने कान दिए। इस सुनने को क्या कुछ विस्तार नहीं दिया जा सकता? इसे कृषकों या सामान्य निर्धनों तक विस्तृत किया जाना चाहिए। इससे भी आगे शिक्षकों, विद्वानों, नर्तकों, संगीतज्ञों, कश्मीरियों, दलितों और अल्पसंख्यकों तक भी विस्तार दिया जाना चाहिए। क्या सरकार को उनकी नहीं सुननी चाहिए, जो उसकी नीतियों के विरोधी हैं ?
इन सभी प्रश्नों का उत्तर सकारात्मक होना चाहिए। अच्छी सरकारें अपने नागरिकों की आवाज सुनती हैं। प्रजातंत्र में अस्थायी सत्ता में आने वालों को अच्छे श्रोता होने का गुण विकसित करना चाहिए। उन्हें सुश्रुत बनना चाहिए।
अच्छा श्रोता बनना
श्रवण की पहली शर्त, किसी को बोलने की छूट देना है। दूसरे के बोलने के दौरान चुप रहना, दूसरी शर्त है। कोई सुनने का नाटक भी कर सकता है। परन्तु उसके लिए उसका खाली रहना जरूरी है। हम सब इसे ‘शून्यचित्त श्रवण’ कहते हैं। यह ऐसा सुनना है, जिसमें श्रोता भौतिक रूप से तो उपस्थित है, परन्तु मानसिक रूप से अनुपस्थित होता है। यह कुंठा को बाहर निकालने का अवसर प्रदान करता है।
अच्छे श्रवण के लिए और भी कुछ होना चाहिए। भारतीय आध्यात्मिक गुरू जे.कृष्णमूर्ति ने इस बिन्दु को अच्छी तरह से रखा है। ‘‘श्रवण के दो तरीके होते हैं। एक श्रवण केवल शब्दों तक सीमित होता है, जिसमें आप सुनने में रुचि नहीं रखते हैं या जब आप किसी समस्या की गहराई को समझने की कोशिश नहीं कर रहे होते हैं। दूसरे प्रकार के श्रवण में कही हुई बात का वास्तविक महत्व समझा जाता है।’’ संक्षेप में कहें, तो अच्छा श्रवण सहानुभूतिपूर्ण और आरामदायक होता है। इसमें किसी के लिए स्वयं के दृष्टिकोण से बाहर निकलने की क्षमता शामिल होती है, और दूसरों के दृष्टिकोण से घटनाओं को देखने की समझ होती है। अच्छे श्रवण से दूसरे व्यक्तियों के विचार, अनुभूति, अनुभव और अर्थ को सटीक रूप से समझने में मदद मिलती है। अगर कोई आत्म-केन्द्रित है, और यह समझता है कि सत्य और अच्छाई केवल एक ही तरफ होते हैं, तो वह अन्य व्यक्तियों के विचारों को नहीं समझ सकता।
सुनने का गुण हमें यह बताता है कि दूसरों के पास हमें सिखाने के लिए बहुत कुछ है। ये दूसरे, वे लोग लोग कहे जा सकते हैं, जो हमसे भिन्न दृष्टिकोण रखते हैं।
गहरी असहमति के दौर में इस तरह के अच्छे श्रवण की विशेष रूप से आवश्यकता होती है। कई बार हम यह भूल जाते हैं कि जितने लोग हैं, उतने ही विचार हैं। स्वयं को यह विश्वास दिलाने में असमर्थ हो जाते हैं कि दुनिया दो में विभाजित है : हम और वे। हम मानने लगते हैं कि केवल दो तरह के दृष्टिकोणों का अस्तित्व होता है, और जिसे हम धारण करते हैं, वह सही होता है।
एक ध्रुवीकृत संसार में लोग एक-दूसरे के विचारों को सुनने से परहेज करते हैं। यही वह उचित समय है, जब हमें सुनने की शुरुआत को प्रोत्साहित करना चाहिए। इसके माध्यम से हम अपने अनुभवों के क्षितिज का विस्तार कर सकते हैं, और मतभेदों को खारिज करने की भयानक आदत को छोड़ सकते हैं। श्रवण से एक-दूसरे की समानताओं को खुलासा होता है, और सहयोग बढ़ता है। यह गलत धारणाओं को दूर करता है। यह अधिक से अधिक स्वीकृति लाता है। वर्तमान के बंटे हुए समय में क्या यह लोकतांत्रिक सरकारों का कत्र्तव्य नहीं होना चाहिए कि वे लोगों के बीच की कड़वाहट को दूर करने के लिए प्रयास करें।
अच्छी लोकतांत्रिक सरकारें समावेशी होने का प्रयास करती हैं। सभी का विश्वास जीतने के लिए उन्हें बहुतों की बात माननी चाहिए, बहुश्रुत बनना चाहिए। लोकतांत्रिक लोग जानबूझकर अच्छे तर्कों को महत्व देते हैं, और अपने निर्णयों को निर्धारित करने के लिए उच्च कोटि के तर्कों की कामना करते हैं। लेकिन क्या हम कभी समझ सकते हैं कि अच्छे तर्क कौन से हैं, अगर हमने सभी को ध्यान से न सुना हो। अगर हमने यह सुनिश्चित नहीं किया कि सभी बिन्दुओं को ध्यान में रखा गया है या नहीं। ऐसा समावेश तब तक संभव नहीं है, जब तक दमितों और शक्तिहीनों की पहले दबाई गई आवाजों को न सुना गया हो।
किसी भी प्रजातंत्र में सरकार और नागरिकों के बीच का संवाद, नागरिकों का आपसी विचार-विमर्श खासा मायने रखता है। अच्छा संवाद, हमेशा अच्छे श्रवण पर ही निर्भर करता है। सरकार को अपने न केवल सुश्रुत बल्कि बहुश्रुत होने का कत्र्तव्य याद रखना चाहिए। नागरिकों को भी इन सार्वजनिक गुणों को विकसित करने का दायित्व लेना चाहिए।
‘द हिन्दु’ में प्रकाशित राजीव भार्गव के लेख पर आधारित। 24 सितम्बर, 2019