शक्तिहीन होता राजकोषीय संघवाद
Date:20-11-19 To Download Click Here.
हमारा देश राज्यों का एक संघ है। प्रत्येक राज्य के नागरिक अपने प्रतिनिधियों को स्वतंत्र रूप से चुनते हैं। इन प्रतिनिधियों का प्राथमिक कत्र्तव्य, अपने मतदाताओं को सुःशासन प्रदान करना है। प्रत्येक निर्वाचित सरकार को अपने राजस्व में वृद्धि के लिए नागरिकों से कर लेने की शक्ति मिली हुई है। करों से प्राप्त राजस्व को जनता के कल्याण हेतु व्यय का अधिकार भी सरकार को होता है।
पिछले पाँच वर्षों में राज्य सरकारों के कराधान के अधिकार को लगभग पूरी तरह से समाप्त कर दिया गया है। वस्तु एवं सेवा कर को लागू करके केन्द्र सरकार ने राज्यों की शक्ति को अपने हाथों में केन्द्रित कर लिया है।
राज्यों को कराधान से होने वाले लाभों को तमिलनाडु के “मध्यान्ह भोजन योजना” के उदाहरण से समझा जा सकता है। सन् 1982 में सरकार की इच्छा थी कि इस योजना का विस्तार राज्य के 52,000 सरकारी स्कूलों तक किया जाए। इस हेतु 150 करोड़ रुपये के अतिरिक्त खर्च को वहन करने के लिए तत्कालीन सरकार ने राज्य में एक अतिरिक्त् सेल्स टैक्स लगा दिया था। आगामी वर्षों में इस योजना से तमिलनाडु की साक्षरता दर, 54 प्रतिशत से बढ़कर 83 प्रतिशत हो गई थी। वर्तमान में केन्द्र सरकार ने राज्यों के अप्रत्यक्ष कर लगाने के अधिकार में घुसपैठ कर ली है। अब उन्हें कर-दर और राजस्व के लिए जीएसटी परिषद् पर निर्भर रहना पड़ता है।
केन्द्र सरकार का सुनियोजित षडयंत्र
- केन्द्र ने राज्यों के कर-राजस्व पूल में से एक भाग स्थायी निधि रक्षा पर खर्च करने का निर्देश दिया है।वैसे तो कुल कर-राजस्व पूल में से 58 प्रतिशत केन्द्र और 42 प्रतिशत राज्यों का भाग होता है। केन्द्र सरकार, अपने 58 प्रतिशत में से रक्षा पर खर्च न करके, इसे राज्यों के जिम्मे डाल रही है। इससे आगे राज्यों को अपने खर्च में कटौती करनी पड़ेगी।
- सहकारी संघवाद के प्रारुप को राष्ट्रीयता के नाम पर छिन्न-भिन्न करने के बाद, अब सरकार कर-राजस्व दर को भी कमजोर करना चाहती है।
- संभावना यह है कि जीएसटी परिषद् की तर्ज पर एक व्यय परिषद् बनाया जाएगा। इससे राज्य अपने व्यय के अधिकार को भी समाप्त कर देंगे।
क्या किया जाना चाहिए?
- इसका एक समाधान राज्यों को आयकर की उगाही का अधिकार देना है।
गणतंत्र के गठन के बाद से ही राज्यों को आयकर लगाने का अधिकार नहीं रहा है। उनको कृषि पर लगाए जाने वाले छोटे करों की उगाही का ही अधिकार रहा है।
अमेरिका जैसे बड़े संघीय प्रजातंत्र में भी राज्यों को आयकर की उगाही का अधिकार है।
भारत एक विशाल अर्थव्यवस्था है। यहाँ के राज्यों में कई प्रकार की विभिन्नताएं हैं। केन्द्र सरकार का कोई परिषद् राज्यों के आय-व्यय को निश्चित नहीं कर सकता। निर्वाचित राज्य सरकारों और उनके नेताओं को कठपुतली नहीं बनाया जा सकता। राज्य और केन्द्र के बीच के राजस्व संघवाद से जुड़े तनाव का परिणाम शुभ नहीं हो सकता। अतः उम्मीद है कि केन्द्र सरकार इस दिशा में सोच-समझकर कदम उठाएगी।
‘द हिन्दू’ में प्रकाशित प्रवीण चक्रवर्ती के लेख पर आधारित। 23 अक्टूबर, 2019