प्रभावी संस्थाओं पर 2जी का दुष्प्रभाव
Date:16-01-18
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हाल ही में 2जी घोटाले पर आए ट्रायल कोर्ट के फैसले ने एक तरह से यह सिद्ध कर दिया है कि न्यायिक प्रक्रिया में जनता की धारणा का कोई महत्व ही नहीं है। हो सकता है कि न्यायाधीश ने अपने समक्ष प्रस्तुत साक्ष्यों के आधार पर निर्णय दिया हो। परन्तु इस निर्णय से देश की कुछ सशक्त सरकारी संस्थाओं पर एक प्रश्नचिन्ह लग गया है। साथ ही इस निर्णय से बरी हुए दोषी लोगों के कारण राजनीतिक जगत पर भी गहरा प्रभाव पड़ेगा।
- सर्वप्रथम इस निर्णय ने उच्चतम न्यायालय की सत्ता में सेंध लगा दी है। 9 फरवरी, 2012 को 2जी के आवंटन के बाद उच्चतम न्यायालय इस बात की जाँच-पड़ताल में लगा था कि क्या वाकई इस मामले में राजनैतिक भ्रष्टाचार का सहारा लेकर मनमाना आवंटन किया गया है? उच्चतम न्यायालय ने नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक की एक रिपोर्ट पर दायर की गई याचिका की सुनवाई करते हुए मंत्री ए. राजा को दोषी करार दिया था। उच्चतम न्यायालय ने इस मामले में सी.बी.आई. की रिपोर्ट पर भी पूरा भरोसा करते हुए संलग्न लोगों को दोषी करार दिया था।
- इस पूरे प्रकरण से भारतीय प्रशासनिक सेवा की भी साख गिर गई है। यह निर्णय एक प्रकार से नौकरशाही पर अभियोग लगाता है। ऐसा लगता है, जैसे नौकरशाही उस मसौदे के नियमों से अनभिज्ञ रहती है, जिसे वह बनाती है। मंत्री को दी गई उसकी टिप्पणियाँ भ्रामक रहती हैं। वह अपने तर्कों को जानबूझकर इतना जटिल बना देती है कि पूरा मामला अस्पष्ट सा लगे। पूरे निर्णय से ऐसा भान हो रहा है कि हमारे कुशाग्र और सक्रिय प्रशासनिक सेवा अधिकारियों के बजाय हमारे मंत्री अधिक स्पष्ट और ईमानदार हैं।
- कोयला घोटाले में भी मंत्रियों के बजाय नौकरशाहों को दोषी माना गया था। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को यह कहकर दोषमुक्त कर दिया गया कि तत्कालीन अधिकारी की टिप्पणी मात्र पाँच पृष्ठों की थी, जो अस्पष्ट एवं संक्षिप्त थी। शायद प्रधानमंत्री को प्रकरण का पूरा विवरण ही नहीं दिया गया था। हो सकता है कि यह सच भी रहा हो। परन्तु इससे मंत्री-नौकरशाह संबंधों पर पड़ने वाले प्रभाव के बारे में किसी ने नहीं सोचा। न्यायालयों ने नौकरशाहो की अपेक्षा मंत्रियों को संदेह का लाभ देना अधिक श्रेयस्कर समझ लिया है।
- यह निर्णय कैग (Comptroller and Auditor General of India, CAG) संसद संबंधों के लिए बहुत हानिकारक सिद्ध होगा। हमारी संवैधानिक योजना में नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक की रिपोर्ट को अंतिम नहीं मान लिया जाता। वह संसद को अपनी रिपोर्ट सौंपता है और संसद उस पर विचार करती है। हमें इस मामले में कैग की विश्वसनीयता पर प्रश्न चिन्ह लगाने के साथ ही संसद को भी कटघरे में खड़ा करना चाहिए। संसद ने ही तो कैग और उच्चतम न्यायालय जैसी अनिर्वाचित संस्थाओं को शक्तियां प्रदान की हैं। अतः अगर कोई जवाबदेह है, तो वह संसद है। अगर वह सच्चाई को उजागर करके मंत्रियों को उत्तरदायी ठहराने का साहस नहीं रख सकती, तो निश्चित रूप से अनैतिक कार्यों को बढ़ावा मिलता रहेगा। संसद की सत्यनिष्ठा को बहाल किए बिना समस्या का समाधान नहीं निकाला जा सकता।
- इस निर्णय से कैग की छवि को बहुत नुकसान हुआ है। उसकी रिपोर्ट के आधार पर आम जनता में होने वाली प्रतिक्रिया की गति मंद पड़ सकती है।
- इस निर्णय के दूरगामी राजनैतिक परिणाम होंगे। काँग्रेस पर लगाया जाता रहा भ्रष्टाचार का आरोप अब भाजपा-काँग्रेस के बीच बँट जाएगा, क्योंकि ऐसा अप्रत्याशित निर्णय भाजपा के शासन के दौरान आया है। भाजपा के ऊपर डीएमके के साथ मिलीभगत का आरोप भी लगाया जाएगा।
न्यायाधीश सैनी ने अपना काम किया। उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर निर्णय दे दिया। लेकिन यह निर्णय भाजपा के लिए एक चेतावनी की तरह आया है। उसे यह समझ लेना चाहिए कि वह भ्रष्टाचार के विरोध का जितना भी दावा करती रहे, जब तक आधारभूत संस्थागत सुधार नहीं किए जाएंगे, तब तक लक्ष्य की प्राप्ति असंभव है। ये सुधार भी ऐसे हैं जिनमे कोई विवाद नही है। सी. बी. आई. की स्वायत्तता, प्रवर्तन निर्देशालय में पर्याप्त एवं उपयुक्त कर्मचारियों की नियुक्ति आदि ऐसे कुछ तरीके हैं, जिन पर तत्काल प्रभाव से कदम उठाए जाने की जरूरत है।
‘द इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित प्रताप भानु मेहता के लेख पर आधारित।