नवीकरण ऊर्जा के क्षेत्र में भारत की बाधाएँ

Afeias
30 Jan 2020
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Date:30-01-20

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सन् 2016 के पेरिस सम्मेलन में भारत ने अपने यहाँ 175 गीगावाट नवीकरण योजना के उत्पादन का सन् 2022 तक वायदा किया है। वायदे के बाद से अभी तक केवल 45 गीगावाट नवीकरण ऊर्जा की क्षमता प्राप्त की जा सकी है। यदि हम उत्पादन के इस लक्ष्य की ओर आगे बढ़ते हैं, तो इससे हमारे यहाँ लगभग 2,30,000 रोजगार की संभावनाएँ पैदा होंगी।

ठीक इसी तरह भारत ने अपने यहाँ वन का क्षेत्र बढ़ाकर 2.5 से 3 अरब टन कार्बन के अवशोषण की क्षमता की बात कही है। निश्चित रूप से इससे विश्व के तापमान में वृद्धि को 2 डिग्री सेंटीग्रेड से कम रखने में तो मदद मिलेगी ही, इस देश की वायु गुणवत्ता में भी बढ़ोत्तरी हो सकेगी। वैसे भी नवीकरण ऊर्जा उत्पादन के मामले में चीन, अमेरीका और जर्मनी के बाद विश्व में भारत का चैथा स्थान है।

लेकिन नवीकरण ऊर्जा के इस लक्ष्य को पाने के रास्ते में अनेक बाधाएँ दिखाई दे रही हैं। इनमें सबसे बड़ी बाधा है, भूमि की उपलब्धता। सौर एवं पवन ऊर्जा के उत्पादन के लिए कोयले के प्रति एक मेगावाट विद्युत उत्पादन की तुलना में 3 से 12 गुना अधिक भूमि क्षेत्र की जरूरत पड़ती है। हम जानते हैं कि जनसंख्या के अनुपात में भारत में भूमि की उपलब्धता विश्व की तुलना में काफी कम है।

इसके एक उदाहरण के रूप में हम गुजरात के चारंका सौर पार्क को ले सकते हैं। इस सौर ऊर्जा केन्द्र के कारण वहाँ के मालधारी पशुपालकों के सामने चारागाहों की गंभीर समस्या पैदा हो गई है।

दूसरे उदाहरण के रूप में राजस्थान के ग्रेट बस्टर्ड पक्षियों के सामने उत्पन्न संकट को लिया जा सकता है। ये पक्षी वायु पवन के पंखों तथा विद्युत तारों से टकराकर तेजी के साथ मर रहे हैं। अब इनकी संख्या घटकर लगभग 150 के आसपास ही रह गई है।

अनुमान लगाया गया है कि यदि हमें सन् 2022 तक नवीकरण ऊर्जा का 175 गीगावाट उत्पादन करना है, तो उसके लिए हिमाचल प्रदेश और छत्तीसगढ़ जितने बड़े क्षेत्र वाले भूमि की जरूरत पड़ेगी।

लेकिन यहाँ संतोष की एक बात यह है कि हमें इसके लिए जितने भूमि क्षेत्र की जरूरत है, उससे लगभग 10 गुना भूमि ऐसी है, जो सामाजिक और पर्यावरणीय दृष्टि से ज्यादा महत्व नहीं रखती।

लेकिन इसके लिए आवश्यक होगा कि नवीकरण ऊर्जा से संबंधित परियोजनाओं की रूपरेखा बनाते समय इस बात का विशेष रूप से ध्यान रखा जाए कि वह भूमि ऐसी हो, जहाँ वृक्ष न हो तथा जहाँ कृषि कार्य भी नहीं होता हो। जी.पी.एस. प्रणाली ने परियोजना बनाने वालों के लिए यह एक महत्वपूर्ण उपकरण उपलब्ध करा रखा है। ऐसी स्थिति में पर्यावरण को भी क्षति नहीं पहुँचेगी, कृषि का विकास भी बाधित नहीं होगा तथा नवीकरण ऊर्जा का उत्पादन भी हो सकेगा।

टाइम्स ऑफ इंडिया में प्रकाशित सीमा पाल एवं धवल नेगांधी के लेख पर आधारित। 21 जनवरी, 2020