नदी-जल विवाद के लिए स्थायी ट्रिब्यूनल – II
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नदी-जल विवादों के लिए स्थायी ट्रिब्यूनल शीर्षक के अंतर्गत एक करेंट कंटेंट पहले भी दिया जा चुका है। इसे उसका विस्तार समझें, जिसमें ट्रिब्यूनल की अधिक जानकारी है।सन् 1956 के अंतरराज्जीय जल-विवाद मामलों को सुलझाने के लिए अस्थायी ट्रिब्यूनल बनाने के अधिनियम के स्थान पर अब इन विवादों के लिए स्थायी ट्रिब्यूनल बनाने का प्रस्ताव पारित हो चुका है। नदी जल-विवादों की बढ़ती संख्या को देखते हुए यह संदेह लगातार बना हुआ है कि क्या यह स्थायी ट्रिब्यूनल इन विवादों का बेहतर समाधान निकालने में सफल हो पाएगा ?
दरअसल, स्थायी ट्रिब्यूनल बनने से पहले इस संबंध में बहुत वाद-विवाद हुए हैं। एक दल अंतरराज्जीय जल-विवाद अधिनियम को भंग करना चाहता था। इससे नदी जल विवादों के निर्णय का दायित्व उच्चतम न्यायालय पर आ जाता और यह कहीं न कही संविधान के अनुच्छेद 262 के विरूद्ध है। इस हिसाब से नदी जल विवाद में उच्चतम न्यायालय निर्णय नहीं दे सकता। दूसरा दल, अंतरराज्जीय नदी जल विवाद अधिनियम में ही संशोधन करके इसे अधिक प्रभावशाली बनाना चाहता था। परंतु अधिनियम में पहले भी बहुत सुधार किए जा चुके थे और इनसे कोई मदद नहीं मिली थी।
इन दोनों पक्षों के समर्थकों के लिए स्थायी ट्रिब्यूनल की स्थापना एक बीच का रास्ता है। यह नदी जल-विवाद के लिए एक स्थायी मंच तो है ही, साथ ही यह संवैधानिक मानदण्डों की भी किसी प्रकार अवहेलना नहीं करता। इस ट्रिब्यूनल में कई बेंचों की स्थापना के साथ ही एक विवाद समाधान समिति (Dispute Resolution Committee-DRC) भी होगी। यह समिति विवादों के बेंचों के पास पहुंचने से पहले मध्यस्थता करेगी।इन सब प्रावधानों के बावजूद अगर कोई राज्य अंतरराज्जीय जल-विवाद को अपने राजनैतिक फायदे के लिए इस्तेमाल करना चाहे, तो उसका क्या किया जाएगा ? जैसे अभी हाल में कावेरी जल-विवाद और रावी-ब्यास जल-विवाद सामने आए हैं। इन दोनों में ही ऐसा लग रहा था, जैसे राज्यों ने जानबूझकर विवादों को खींचने के लिए ट्रिब्यूनल के निर्णय के विरूद्ध उच्चतम न्यायालय में याचिका दायर की और फिर उसकी भी नहीं सुनी।
इन दोनों जल-विवादों के उदाहरणों से यह स्पष्ट होता है कि इनका राजनीतिकरण करके विवाद को बढ़ाया गया था। यह सब देखते हुए लगता है कि वर्तमान स्थायी ट्रिब्यूनल में डी.आर.सी. का गठन एक मध्यस्थ की भूमिका निभाते हुए विवादों को कानूनी प्रक्रिया तक पहंुचने से शायद बचा सके। इन सबके लिए डी.आर.सी. को एक सशक्त संस्था की भूमिका निभानी होगी। इसके दो कारण हैं –
- नदी-जल विवाद राज्यों की सीमा पार के विवाद हैं और एक तरह से ये स्थायी रूप से चलने वाले विवाद हैं। विंडबना यह है कि हमारे देश में राज्यों के आपसी विवादों के निपटारे या इनमें आपसी सहयोग को बढ़ावा देने के लिए कोई सशक्त ढ़ांचा नहीं है।
- दूसरे, जल-संसाधन विकास के संबंध में अंतरराज्जीय सहयोग को बढ़ाने के लिए सन् 1956 में जो ‘रिवर बोर्ड एक्ट‘ लाया गया था, वह अभिनीत होने के साथ ही डेड लैटर की तरह पड़ा हुआ है।
अतः अंतरराज्जीय जल विवादों के निपटारे के लिए नीतियों और संस्थाओं के एक पूरे तंत्र की आवश्यकता है।इन संबंध में जो कानूनी प्रक्रिया है, उसके पुनरावलोकन की भी आवश्यकता है। प्रसिद्ध वकील एवं कानूनविद फली नरीमन का कहना है कि अगर हम ट्रिब्यूनल को सामान्य न्यायालय का काम दे सकते हैं, तो उच्चतम न्यायालय को ऐसे विवादों को सुनने से क्यों रोका जाए ? कावेरी जल विवाद में उच्चतम न्यायालय ने जिस प्रकार स्पेशल लीव पेटीशन (SPLs) के अनुरक्षण के बारे में निर्णय दिया था, उसे देखते हुए लगता है कि राज्य सरकारें इस बात का फायदा उठाती रहेंगी और स्थायी ट्रिब्यूनल की शक्तियों में भी सेंध लगाती रहेंगी।
‘इंडियन एक्सप्रेस‘ में प्रकाशित श्रीनिवास चोक्काकुला के लेख पर आधारित।