चुनावी बांड बनाम याराना पूंजीवाद

Afeias
05 Apr 2019
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Date:05-04-19

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देश में राजनीतिक दलों को दिए जाने जाने वाले दान में पारदर्शिता लाने और नकद मुक्त अर्थव्यवस्था की सरकार की इच्छा के चलते गत वर्ष वित्त मंत्री ने चुनावी या इलैक्टोरल बांड्स की योजना का कुछ विस्तार किया था।

एक चुनावी बांड एक तरह का प्रतीज्ञात्मक नोट होता है, जिसका महत्व बैंक नोट के समतुल्य माना जाता है। धारक के मांगने पर इसका भुगतान बिना किसी ब्याज के किया जाता है। इसे भारत का कोई भी नागरिक या देश की कोई भी संस्था खरीद सकती है।

सरकार के इस कदम के विरूद्ध उच्च्तम न्यायालय में याचिका दायर की गई थी।

  • इस प्रकार के चुनावी बांड का याराना पूंजीवाद को बढ़ावा देने का स्रोत माना जा रहा है।

                (1) चुनावी बांड्स में दानकर्ता की पहचान को जनता से गुप्त रखा जाता है। लेकिन सरकार को इसका पता होता है।

               (2) इसके माध्यम से अनेक उद्योगपति सरकार को अनेक प्रकार के लाभ पहुँचाकर अपने पक्ष में नीतियां बनाने के लिए बाध्य कर सकते हैं।

  • बीते वित्त वर्ष में भाजपा को जो दान दिया गया, वह 95 प्रतिशत इन्हें चुनावी बांड के माध्यम से दिया गया है।
  • सरकार ने एक विधायी संशोधन के द्वारा दान देने वाली कंपनियों को यह छूट दे दी कि वे अपने इस दान को वित्तीय विवरण में भी गुप्त रख सकते हैं।
  • गत वर्ष फॉरेन कांट्रीब्यूशन एक्ट में भी संशोधन करके राजनीतिक दलों के लिए विदेशी धन के द्वार खोल दिए गए हैं।
  • गौर करने की बात यह है कि जहाँ अमेरिका और यू.के. ने प्रजातंत्र की रक्षा के लिए चुनावों में विदेशी धन के प्रयोग पर प्रतिबंध लगा दिया है, वहीं भारत इसे बढ़ावा दे रहा है

भारत को भी प्रजातंत्र की रक्षा और पारदर्शिता को बनाए रखने के लिए राजनैतिक दलों को दिए जाने वाले धन के प्रवाह को स्वच्छ बनाना चाहिए। दानकर्ताओं की पहचान छुपाने के पीछे सरकार द्वारा दिया गया निजता का तर्क बेबुनियाद है। इससे भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलेगा। चुनावों में विदेशियों की दखलंदाजी से देश की सुरक्षा भी दांव पर लग सकती है। अमेरिकी चुनावो में ट्रंप की जीत के पीछे रशिया के धन का उपयोग माना जा रहा है। अगर ट्रंप पर यह आरोप सिद्ध हो जाता है, तो महाभियोग चलाकर उन्हें हटाया जा सकता है। भारत में भी ऐसा मामला आने पर कोई समसामयिक कानूनी बाधाएं नहीं हैं। अतः सर्वोच्च न्यायालय को इस मामले की तेजी से सुनवाई करके किसी ऐसे निष्कर्ष पर पहुंचना चाहिए, जिससे प्रजातंत्र के लिए खतरा उत्पन्न न हो सके।

द टाइम्स ऑफ इंडियामें प्रकाशित संपादकीय पर आधारित। 20 मार्च, 2019