प्रवासी महिला कामगारों की समस्याएं

Afeias
13 Jun 2018
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Date:13-06-18

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संयुक्त राष्ट्र की एक ताजा रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत एक प्रकार की नगरीय क्रांति के दौर से गुजर रहा है। इस अनुमान के अनुसार 2031 तक भारत की शहरी जनसंख्या लगभग 60 करोड़ हो जाएगी। विस्थापन के कारण भारत के तीन बड़े शहर; दिल्ली, कोलकाता और मुंबई, विश्व के सर्वाधिक घनत्व वाले शहरों में गिने जाने लगेंगे। 2011 की जनगणना से यह तथ्य ऊजागर होता है कि 80 प्रतिशत विस्थापन महिलाओं द्वारा या महिलाओं के कारण होता है। इसके दो कारण हैं। (1) विवाह के बाद महिलाओं का प्रवास (2) उदारवादी दौर में निर्यात आधारित अर्थव्यवस्था में महिला श्रमिकों की मांग का बढ़ना। इस संदर्भ में अगर आंकड़ों पर नजर डालें, तो आंकड़े बताते हैं कि पुरुषों के 48.7 प्रतिशत विस्थापन की तुलना में 101 प्रतिशत महिला कामगारों ने विस्थापन किया।

विडंबना यह है कि जनगणना एवं राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय दोनों ही महिलाओं के विस्थापन में काम को कारण के रूप में प्रमुखता न देकर केवल विवाह को ही इसका प्रधान कारण मानते हैं। ऐसी सर्वेक्षण संस्थाएं महिलाओं की आर्थिक भागदारी को गौण समझती रहती हैं।

जहाँ निर्धन प्रवासियों को पहचान पत्र, आवास एवं अन्य आर्थिक सेवाओं से वंचित होना पड़ता है, वहीं महिला प्रवासियों के साथ तो पहले दर्जे का भेदभाव किया जाता है। काम के क्षेत्र में इन्हें मूलभूत सुविधाओं के अलावा मातृत्व लाभ एवं देखभाल से वंचित होना पड़ता है। प्रवासी महिलाएं यौन शोषण का शिकार होती रहती हैं। इन्हें पुरुष एवं स्थानीय महिला कामगारों की तुलना में कम वेतन दिया जाता है। अपेक्षाकृत कम कौशल वाली महिला प्रवासियों को तो स्वास्थ्य के लिए खतरनाक कामों में लगा दिया जाता है। सिवीडेप के अध्ययन के अनुसार बेंगलुरू के कपड़ा उद्योगों में काम करने वाली 90 प्रतिशत महिलाएं श्वास समस्याओं, तपेदिक, अवसाद तथा कमर दर्द जैसी शारीरिक और मानसिक समस्याओं से जूझती रहती हैं।

चीन के हुकोऊ तंत्र की तरह भारत के पास प्रवासियों के अलग-अलग वर्ग में पंजीकरण कराने के लिए कोई प्रणाली नहीं है, जिससे वह आसानी से उनका राजनीतिक, प्रशासनिक, श्रम एवं आर्थिक-सामाजिक वर्गों में विभाजन कर सके।

संभव उपाय

  • डाटा एकत्रण की समुचित व्यवस्था हो।
  • महिलाओं की आर्थिक भागीदारी और राष्ट्र में उनके योगदान को संज्ञान में लिया जाए।
  • प्रवासी महिलाओं के आधार-कार्ड प्राथमिकता पर बनाए जाएं। जन-धन योजना का लाभ दिया जाए। राष्ट्रीय स्वास्थ्य सुरक्षा मिशन की सुविधाएं दी जाएं।
  • आस्ट्रिया, बेल्जियम, नार्वे, यू.के. आदि देशों की तर्ज पर प्रवासी महिलाओं के लिए व्यावसायिक प्रशिक्षण की व्यवस्था हो। सहायता सेवाओं तक उनकी पहुंच बनाई जाए।

वियतनाम की ‘वी द वीमेन’ नामक योजना से बहुत कुछ सीखा जा सकता है।

केरल राज्य लगभग 3 करोड़ महिला प्रवासी कामगारों को निशुल्क चिकित्सा सुविधाएं एवं बीमा प्रदान करता है। इसका अनुसरण किया जाना चाहिए।

प्रवासियों के लिए एक पृथक राष्ट्रीय नीति बनाई जा सकती है, जो विशेष तौर पर महिला प्रवासियों की मुश्किलों पर ध्यान दे, और उन्हें हर संभव सहायता पहुंचाने का प्रयास करे। प्रवासियों के राजनैतिक समावेश से नगरीय प्रशासन को अधिक प्रजातांत्रिक और लैंगिक रूप से समान बनाया जा सकेगा।

‘द इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित वैदेईका शेखर के लेख पर आधारित। 22 मई, 2019