आई.ए.एस. बनने की मनोवैज्ञानिक चुनौतियां
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‘‘सर, एक बहुत बुरी खबर है, सर। कल रात में दो लड़कों ने सुसाइट कर लिया।’’ दिन के करीब दस बजे मोबाइल पर यह खबर सुनकर मैं अन्दर से बुरी तरह हिल गया। ‘‘क्यों, क्या हुआ?’’ ‘‘सर, आपको मालूम ही है कि कल सिविल सर्विस प्री का रिजल्ट आया है। उन दोनों का सिलेक्शन नहीं हो पाया। और उन्होंने ऐसा कर लिया।’’ मेरे मुँह से अचानक निकला ‘‘क्या!’’ मित्रो, इस खबर को सुनने के बाद मैं अन्दर से न केवलहिल ही गया, बल्कि बुरी तरह से खाली भी हो गया। मन निराशा से भर उठा और लगा कि ‘‘दुनिया अगर मिल भी जाए, तो क्या है।’’ यदि जिन्दगी खत्म ही हो गई, तो फिर यह दुनिया चाहे जितनी भी सुनहरी हो, हमारे लिए सब कुछ खत्म हो चुका होता है। आखिर उन्होंने इतना मूर्खतापूर्ण कदम उठाया क्यों?
ऐसा नहीं है कि इस तरह की घटनायें आर्थिक उदारीकरण के बाद से बढ़नी शुरू हुई हैं। जिसकी मैं चर्चा कर रहा हूँ, यह सन् 2015 की घटना है। मुझे 1980 की वह घटना याद आ रही है, जब मैं दिल्ली में कोचिंग के लिए गया था। उस समय मैं जिनके यहाँ पेेइंगगेस्ट के रूप में रह रहा था, मेरे बगल के ही एक कमरे में उत्तरप्रदेश का स्टूडेन्ट भी रह रहा था। हम आपस में बातचीत करते थे, तैयारियाँ करते थे। लगभग साल भर बाद मुझे एक दुखद खबर मिली थी कि उसने भी सुसाइट कर लिया। फिर से वही प्रश्न दिमाग में कौंधा कि ‘‘क्यों?’’ इसका उत्तर मिला कि ‘‘क्योंकि उसका आय.ए.एस. में सेलेक्शन नहीं हो पाया था।’’ आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि वह पहले से ही उत्तरप्रदेश में डिप्टी कलेक्टर के पद पर था। फिर उसने ऐसा क्यों किया? दरअसल उसकी अपनी समस्या आय.ए.एस. में सेलेक्ट न हो पाने की उतनी नहीं थी, जितनी इस बात की थी कि उसके सभी चार भाई आय.ए.एस. में थे। उसे शायद लगता होगा कि ‘‘उनके सामने मैं कुछ भी नहीं हूँ। मुझे भी यही होना चाहिए।’’ और जब यही होना चाहिए की सारी संभावनाएं खत्म हो गई, यानी किवह उसका लास्ट अटेम्प्ट था, तो उसने ऐसा बेवकूफी भरा कदम उठा लिया।
मित्रो, मैंने जो इस अध्याय को इस पुस्तक में शामिल करने का फैसला किया है, यह जानते हुए किया है कि यह प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी में आपकी कोई मदद नहीं करेगा। इस अध्याय में आपको ऐसा कुछ नहीं मिलेगा, जो आपको तैयारी करने का तरीका बता सके या फिर आपकी तैयारी ही करा सके। लेकिन विश्वास कीजिए कि अब मुझे लगने लगा है, और बहुत दृढ़ता के साथ लगने लगा है कि सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी एकतरफा या दोतरफा तैयारी नहीं है, यह बहुआयामी तैयारी है। चूंकि इसकी चुनौतियां बहुत अधिक हैं, यह कठिन भी काफी है और सच पूछिए तो 99 प्रतिशत संभावनाएं असफल होने की ही होती है, इसलिए मुझे यह बात बहुत जरूरी लगती है कि इस बाढ़ के प्रवाहमें बहने से खुद को बचाने के लिए जरूरी है कि हमारे पास एक ऐसा मजबूत खूँटा हो, जिससे लिपटकर आप अपने आपको बचा सकें।
इस बारे में कोई भ्रम नहीं होना चाहिए कि आय.ए.एस. इतनी बड़ी चीज नहीं है, बिल्कुल भी नहीं हैकि उसके सामने प्रकृति की सर्वाधिक सुन्दर, महत्वपूर्ण और जटिल हमारे जीवन की संरचना दो कौड़ी की हो जाए। हाँ, ठीक है कि यदि आपने सरकारी नौकरी करने का फैसला किया है, तो उस लिहाज से आय.ए.एस. की नौकरी सर्वोत्तम है। लेकिन ऐसा भी नहीं है कि बाकी इसके सामने कुछ भी नहीं हैं। और सच पूछिए तो जीवन के सामने आय.ए.एस. भी कुछ नहीं है। मैंने ऐसे बहुत से लोगों को देखा है। उनके बारे में सुना भी है। आप भी जानते होंगे कि लोग आय.ए.एस. में सेलेक्ट हुए कुछ दिनों तक नौकरी में रहे। और इसके बाद छोड़-छाड़कर कुछ और करने लगे। और यह आज की बात नहीं है। सुभाषचन्द्र बोस के बारे में आप जानते होंगे। तब आइ.सी.एस. होना एक बड़ी बात होती थी। अंग्र्रेजों के जमाने में सन् 1921 में एक भारतीय आइ.सी.एस. बना था और वह भी मेरिट लिस्ट में चौथे स्थान के साथ। कुछ ही महीनों की ट्रेनिंग करने के बाद उन्होंने अंग्रेजों के द्वारा बार-बार मना किए जाने के बावजूद अपना त्यागपत्र दे दिया।
आय.ए.एस. बनकर उसे छोड़ने की परम्परा तब से लेकर आज तक जारी है। यहाँ सोचने की बात केवल यह है कि आप जिस चीज को पाने के लिए आज इतनी अधिक मेहनत कर रहे हैं, इस समय आप इसके लिए कुछ भी करने को तैयार हैं। लेकिन जब आपको वह मिल जाती है, तो फिर ऐसा क्या होता है कि आप उसे छोड़ने के लिए बैचेन हो जाते हैं? यहाँ मैं आपको डिमोरलाइज नहीं कर रहा हूँ। यहाँ मैं आपको केवल आय.ए.एस. और जीवन के सत्य से अवगत करा रहा हूँ।
निश्चित रूप से कोई भी चीज जब हमें नहीं मिलती है, तो वह हमारे लिए बहुत मूल्यवान होती है। लेकिन क्या जब वह चीज हमें मिल जाती है, तब भी हमारे लिए वह उतनी ही मूल्यवान रह जाती है? नहीं ऐसा नहीं होता और मुझे लगता है कि ऐसा न होना ही बेहतर है। यदि आयएएस में आने के बाद आपको आयएएस छोड़ने का मन कर रहा है, तो इसका मतलब है कि अब आपका कद उस आयएएस की नौकरी के कद से बड़ा हो गया है। उस समय आप खुद को एक आयएएस के सामने बहुत छोटा समझ रहे थे। आज आपने अपने आपको इतना बड़ा बना लिया है कि वह आयएएस आपको छोटा दिखाई देने लगा है।
तो यहां सारा सवाल सापेक्षता का है। एक मुकाम पर पहुंचने के बाद लगने लगता है कि,‘‘नहीं मुझे अब कुछ और करना चाहिए क्योंकि मैं कुछ और कर सकता हूं। और वह कुछ और करना मेरे अभी के करने से कई गुना ज्यादा बेहतर है।’’ बेहतर क्यों है, उसकी परिभाषा सबकी अलग-अलग हो सकती है। किसी को उसमें वेतन ज्यादा मिलता हो, किसी को सुविधाएं ज्यादा मिलती हांे, किसी को काम करने के अवसर ज्यादा मिलते हों, किसी को इत्मीनान ज्यादा मिलता हो, किसी को उसमें अधिक रचनात्मकता दिखाई देती हो, किसी को उस काम का सामाजिक महत्व अधिक मालूम पड़ता हो, किसी को दुनिया भर घूमने का अधिक मौका मिलता हो और सबसे बड़ी बात तो यह कि हो सकता है कि उस काम को करने से उसेे थोडा ज्यादा संतोष मिलता हो। अरूणा राय के बारे में आप जानते होंगे, जो सन् 1974 में राजस्थान कैडर की आयएएस थीं। कुछ ही साल की नौकरी करने के बाद उन्होंने जिस काम के लिए अपनी नौकरी छोड़ दी, उसे सुनकर तो आप दंग रह जाएंगे। नौकरी छोड़ने के बाद उन्होंने कोई दूसरी बड़ी नौकरी ज्वाइन नहीं की। वहीं के एक गांव में रहने लगीं। उन्होंने एक एनजीओ खोला और उसके जरिए गांव के लिए काम करने लगीं। आज जो सूचना का अधिकार भारतीय व्यवस्था को सुधारने में राम बाण का काम कर रहा है, वह उन्हीं अरूणा राय की देन है।
मित्रो, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि आयएएस कुछ है ही नहीं। मैं यहां केवल आपसे यह कहना चाह रहा हूं कि यह बहुत कुछ है। लेकिन इस बहुत कुछ के सामने ऐसा नहीं है कि हमारी अपनी जिन्दगी बौनी है। सच पूछिए तो जिन्दगी के सामने सारी दूसरी चीजें बौनी हैं। यदि जिन्दगी है, तो सब कुछ है। आप कुछ भी कर सकते हैं। सच मानिए तो किसी को यह नहीं मालूम कि भविष्य में उसके लिए कितनी संभावनाएं छिपी हुई हैं। आयएएस में आ जाना जीवन का एक बहुत महत्वपूर्ण और सुखद दौर हो सकता है। यह जिन्दगी की बहुत बड़ी उपलब्धि है। लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं कि इसके बाद उपलब्धियां हासिल करने के लिए कुछ बचता ही नहीं है। हो सकता है कि कोई बड़ी उपलब्धि, इससे कई गुना बड़ी उपलब्धि आपकी प्रतीक्षा कर रही हो। जीवन के गर्भ में जो ये जो अनन्त संभावनाएं छिपी हुई हैं, उनकी अनदेखी कभी भी न करें, किसी भी परिस्थिति में न करें, चाहे आपकी अभी की असफलता कितनी भी बड़ी और कितनी भी बुरी असफलता क्यों न हो।
चूंकि आयएएस की चुनौती बहुत बड़ी होती है, यह अपने आपमें भी बहुत बड़ी होती है इसलिए इसकी असफलता भी अपेक्षाकृत बहुत बड़ी होती है, स्पष्ट है कि इस बड़ी असफलता के झटके को बर्दाश्त करने के लिए आपको अपने दिमाग के नर्वस सिस्टम को मजबूत बनाना पड़ेगा; ठीक वैसे ही जैसे कि मुक्केबाजों के शरीर पर आप मुक्कों का प्रहार करते रहिए, उन्हें पता भी नहीं चलता है कि ऐसा कुछ हो रहा है। और यदि उसके आधे दबाव वाला भी प्रहार आप अपने दोस्त के पीठ पर कर दें, तो बवाल मच जाएगा।
तो दोस्तो, मैं यहां अब आपके सामने सिविल सेवा से जुड़ी उन कुछ मनौवैज्ञानिक चुनौतियों को रखना चाह रहा हूं, जिन्हें आप जान सकें और इन्हें जानकर इससे पहले कि जोरदार तूफान आकर आपको तहस-नहस कर दे, उस तूफान के खिलाफ तटबंध बना सकें। यह कोई मुश्किल काम नहीं है। मुझे तो कभी-कभी यह भी लगता है कि जो इस तरह के कमजोर मानसिकता वाले नौजवान होते हैं, सच पूछिए तो वे आयएएस के लायक होते ही नहीं है। मैं यहां उनकी आलोचना नहीं कर रहा हूं। मुझे ऐसे नौजवानों के प्रति पूरी सहानुभूति है। कभी जीवन के प्रति उनका जो बहुत छोटा नजरिया है, उसके बारे में सोचकर बहुत दुख होता है।
जब आप सिविल सर्वेन्ट बनते हैं, तो याद रखिए कि आप फूलों की सेज पर सोने नहीं जा रहे हैं। सच तो यह है कि आप अपने लिए मुसीबतों को निमंत्रण दे रहे हैं। लोग तो अपनी ही समस्याओं को सुलझाने में त्रस्त हो जाते हैं, और सुलझा भी नहीं पाते। एक आप हैं कि दुनिया भर की समस्याओं को सुलझाने का ठेका लेने जा रहे हैं। यानी कि आप लोगों को यह विश्वास दिला रहे हैं कि मैं तुम सब की समस्याओं को सुलझा दूंगा। आपको क्या लगता है कि राजा बनना आसान काम है? बनने के बाद क्या बने रहना आसान है? और सबसे बड़ी बात तो यह कि क्या अच्छा राजा बनना सरल है? जब इन तीनों सवालों के बारे में आप यथार्थ रूप में सोचेंगे, तो दिमाग फटने लगेगा। सिनेमा में, किताबों में, कहानियों में, राजा- महाराजाओं और महारानियों के हम जब किस्से देखते-सुनते और पढ़ते हैं, तो लगता है कि ये सब कितने खुशकिस्मती हैं। मौज ही मौज है। लेकिन आपको नहीं मालूम कि इन लोगों की जिन्दगी का हर पल कितना कठिन, कितना अधिक आशंकाओं से भरा हुआ, डर से युक्त तथा तनाव और दबाव वाला होता है। इनके जीवन से चैन और इत्मीनान हमेशा के लिए विदा हो चुके होते हैं। यहां तक कि वे यह सोच भी नहीं सकते कि कोई दिन ऐसा आएगा, जब वे इत्मीनान महसूस करेंगे। इनके लिए कोई दिन छुट्टी का दिन नहीं होता, भले ही उस दिन राज दरबार न लगता हो।
आप राजा तो बनने नहीं जा रहे हैं, लेकिन एक लोकतांत्रिक पद्धति में इतने ऊँचे स्तर के नौकरशाही के पद को पाने की आपकी लालसा के केन्द्र में यही है कि आप कुछ ऐसा ही बनना चाहते हैं। इसमें कुछ गलत भी नहीं है। गलत उसमें है, जब आप इसे ऐशोआराम और सुख-सुविधा का माध्यम समझने लगते हैं। यह आपको कुछ सीमा तक मिलेगा, लेकिन आपको इसकी कीमत चुकानी पड़ेगी। वह कीमत आपके द्वारा किए जाने वाले काम की कीमत होगी। अब इसमें गलत भी क्या है। कोई भी समाज किसी को भी मुफ्त में कोई चीज नहीं देता। दिया भी नहीं जाना चाहिए। तो यदि वह आपको कुछ अधिकार देता है, तो वह इसलिए नहीं कि आप उनका उपभोग करें। वह आपको इसलिए दिया जाता है कि आप अपने कर्त्तव्यों को निभाने में उसका उपयोग करें। इसलिए मुझे लगता है कि कोई भी नौजवान; जो सिविल सर्वेन्ट बनने की इच्छा रखता है, उसे अपने-आपको इस बारे में करेक्ट कर लेना चाहिए कि वह सुख भोगने नहीं जा रहा है, बल्कि इसलिए जा रहा ह,ै ताकि वह दूसरों को सुख पहुँचाने का आत्मसंतोष प्राप्त कर सके।
तो यहाँ सवाल यह है कि ऐसा संभव कैसे हो सकेगा? जाहिर है कि लोग अपनी-अपनी समस्याएं लेकर आपके पास आएंगे, चाहे आने वाले ये लोग आम लोग हों या फिर आपके अपने ही ऑफिस के लोग। स्थिति यह रहेगी कि आपके चारों ओर हमेशा समस्याओं का मेला लगा रहेगा। आपको इससे मुक्ति नहीं मिलनी है। हो सकता है कि रात के सपनों में भी आप लोगों की समस्याओं से जूझ रहे हों। लोग अपनी छोटी-छोटी समस्याओं से टूट जाते हैं और आप हैं कि लोगों की समस्याओं के बीच में रहते हुए, उन्हें सुलझाते हुए, उन्हें टूटने से बचाना चाह रहे हैं। अब आप खुद सोचकर देखें कि यदि इस बचाने की प्रक्रिया में आप ही टूट गए, तो बाकी लोगों का क्या होगा। यदि सेनापति ही भाग गया, तो शेष सेना का क्या होगा। आपको नहीं भूलना चाहिए कि आपका टूटना अब किसी एक व्यक्ति का टूटना नहीं रह गया है बल्कि वह उस पूरे समूह का टूटना बन गया है, जो आपके चारों ओर मौजूद है। अब आप एक होने के बावजूद एक नहीं रह गए हैं। आप अनेक बन गए हैं। बहुत से ऐसे मौके आएंगे, जब आपको इन अनेकों के लिए अपने एक को न्यौछावर करना होगा यानि कि आपको अपनी समस्या को छोड़कर दूसरों के समस्याओं के समाधान में लगना पड़ेगा। साथ ही यह भी ध्यान रखें कि आपके सामने आने वाली समस्याएं छोटी समस्याएं नहीं होंगी। यदि वे छोटी होतीं, तो वह व्यक्ति उसे खुद हीसुलझा लिया होता। यदि वे छोटी होतीं, तो आपके अधीन काम करने वाला व्यक्ति उसे निपटा चुका होता। आपके पास जो समस्याएं आएंगी, वे वे होंगी, जो इनसे निपट नहीं सकी हैं। यानि कि जितना बड़ा अफसर उतनी बड़ी समस्याएं।
दोस्तो, यहाँ मैं जो बात मैं आपको बताना चाह रहा हँू या यूं कह लीजिए कि जिस यथार्थ स्थिति के प्रति आपको सतर्क करना चाह रहा हूँ, वह यह है कि आयएएस का रास्ता तो कठिन है ही, बनने के बाद का जो रास्ता है, वह इससे भी अधिक कठिन है। लेकिन जैसा कि एक शायर ने बहुत खूबसूरत तरीके से यूं कहा है –
साहिल के सुकूं से किसे इन्कार है लेकिन,
तूफान से लड़ने का मजा और ही कुछ है।
लेकिन इस कठिन रास्ते पर यात्रा करने का जो सुख है, उससे भीबड़ी बात यह कि इसका जो संतोष है, वह अद्भूत है, विलक्षण है। और यहीवह तत्व है, जो सिविल सर्वेन्ट बनने की आपकी प्रेरणा होनी चाहिए। यदि प्रेरणा कुछ अन्य है, जिनका उल्लेख मैंने ऊपर किया है, तो मैं आपको सजग करना चाहूंगा कि वहाँ पहुँचकर आप निराश होंगे। आपका मोह भंग हो जाएगा। वहाँ आपको सुख तभी मिल सकता है,जब आप एक उद्वेलित होते हुए समुद्र में नाव खे सकते हों,ं और उस नाव को खेने का उत्सव भी मना सकते हों। लहरें उठेंगी। वे कभी नाव को ऊपर उछालेंगी, तो कभी उछलकर नाव के अन्दर घूसेंगी भी। नाव लगातार डोलती रहेगी। उसमें बैठे हुए आपको लगेगा कि यह नाव अब डूबी कि तब डूबी। किन्तु इस बात पर भरोसा रखें कि नाव डूबेगी नहीं। और आप हैं कि इस डूबते हुए नाव पर बैठे हुए आप डर से चिल्लाएंगे नहीं, बल्कि उल्लास की किलकारियां भरेंगे। तब कहीं जाकर सिविल सर्वेन्ट के रूप में काम करने का आपका पूरा समय एक उत्सव में परिवर्तित हो सकेगा, एक ऐसे पवित्र उत्सव में, जो आपके मन को भी सूकून देता है और दूसरों के मन को भी।
मैंने यहाँ जानबूझकर सिविल सेवा की उस चुनौती को आपके सामने रखा है, जो इस बात की मांग करता है कि इन सबको आप तभी झेल पाएंगे, जब आप मनोवैज्ञानिक स्तर पर मजबूत होंगे। यह इस सेवा की सबसे बड़ी चुनौती है। मानसिक रूप से कमजोर व्यक्ति यहाँ टिक ही नहीं सकता। इसलिए आपकी पहली चुनौती यह है कि यदि आप अपने को कमजोर महसूस कर रहे हैं, तो अपने-आपको मजबूत बनाना शुरू कर दीजिए। यह आपको अभी से ही करना पड़ेगा। यह मत सोचिए कि वहाँ जाकर आप अपने-आप मजबूत हो जाएंगे। निश्चित रूप से वहाँ आपकी इस मानसिक मजबूती को और मजबूती मिलेगी। लेकिन लकड़ी को लोहे में बदलना मुश्किल होता है। हाँ, लोहे को जरूर एक मजबूत इस्पात में ढाला जा सकता है। और यदि आपको लगता है कि आप स्वयं को मानसिक रूप से मजबूत नहीं बना सकते, तो बेहतर होगा कि खुद को इससे अलग कर लें।
पहली बात तो यही है कि इससे आपका वहाँ तक पहुँचना मुश्किल हो जाएगा। दूसरे यह कि यदि आप वहाँ पहुँच भी गए, तो वहाँ कुछ विशेष कर नहीं पाएंगे, खासकर वह सब कुछ जो आप सोचकर वहाँ जा रहे हैं। जब कर नहीं पाएंगे तो स्वाभाविक तौर पर फ्रस्टेशन होगा। फिर इसके बाद जिन्दगी की गुणवत्ता इतने निम्न स्तर की हो जाएगी कि इसका कोई मतलब ही नहीं रह जाएगा कि आप एक सिविल सर्वेन्ट हैं। इस तथ्य को आपको पूरी गंभीरता से स्वीकार करना चाहिए। इसलिए मैंने कहा कि एक ऐसा नौजवान, जिसकी उम्र पच्चीस साल के आसपास है, जो ऊर्जा से भरा हुआ है, जिसने जिन्दगी की राह पर अभी चलना शुरू ही किया है और एक लम्बी यात्रा करनी बाकी है, वह यदि अपनी जिन्दगी को खत्म करने जैसा गलत कदम उठाता है, तो उसके कायर होने का इससे बड़ा सबूत और क्या हो सकता है। जो अपनी जिन्दगी की इतनी छोटी-सी असफलता को बर्दाश्त नहीं कर सकता, आगे चलकर जब उसके सामने लोग अपनी समस्याएं रखेंगे, समस्याओं के न सुलझने पर जब हल्ला-गुल्ला मचाएंगे, आलोचना भी करेंगे, तब उन सबको वह कैसे बर्दाश्त कर पाएगा। साफ है कि ऐसे लोग सिविल सर्विस को सही नजरिए से नहीं देख रहे हैं। वे वह नहीं देख पा रहे हैं, जो सिविल सर्विस में है। बल्कि वे वह देख रहे हैं, जो देखना चाह रहे हैं। इसलिए जब उन्हें लगता है कि वे उसे नहीं पा सकेंगे, तो अपने-आपको खत्म कर लेते हैं। आपको क्या लगता है कि किसी को भी ऐसा करना चाहिए? इससे भी बड़ी बात यह कि क्या किसी को भी ऐसा करने की इजाजत दी जा सकती है?
NOTE: This article by Dr. Vijay Agrawal was first published in ‘Civil Services Chronicle’.