प्रारंभिक परीक्षा: सामान्य अध्ययन की मनोवैज्ञानिक चुनौतियाँ

Afeias
06 Jul 2014
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इस साल के 24 अग्रस्त को सिविल सर्विस परीक्षा का महाकुम्भ होगा, जिसमें सिविल सर्वेन्ट बनने के लाखों प्रतियोगी डुबकी लगायेंगे। इन सभी प्रतियोगियों का हार्दिक स्वागत है और उनकी सफलता के लिए शुभकामनाएं भी। काश! कि केवल शुभकामनाओं से ही बात बन जाती। लाखों की इस भीड़ में कुछ ही हजार को यह पुण्य मिलेगा कि वे मुख्य परीक्षा के यज्ञ में आहुति डालेंगे। इसके बाद इनमें से भी कुछ की ही आहुतियों को मान्यता मिलेगी और एक बार फिर से मुख्य पुरोहित यू.पी.एस.सी. उन्हें अपने यहाँ बुलाकर उन्हें अपने सामने बैठाकर उनसे बातचीत करेगा। तब कहीं जाकर इस कुम्भ स्नान के कारण मोक्ष प्राप्त करने वालों के नाम घोषित किए जाएंगे।
सिविल सेवा की परीक्षा की प्रक्रिया से मैं खुद गुजरा हूँ और इससे गुजरने वाले युवाओं से पिछले तीस सालों से लगातार सीधे सम्पर्क में हूँ। भले ही इन तीन दशकों में देश के आर्थिक स्वरूप और सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों में क्रांतिकारी बदलाव आए हों, लेकिन सिविल सर्विस परीक्षा की तैयारी को लेकर युवाओं की चेतना में मुझे किसी तरह के क्रांतिकारी बदलाव के बीज देखने को नहीं मिले, सिवाय इसके कि पहले जहाँ फार्म भरने वालों की संख्या दो लाख के आसपास होती थी, वह अब इसके ढाई गुना होकर पांच लाख के आसपास पहुँच गई है। लेकिन तैयारी करने वालों की, ईमानदारी के साथ तैयारी करने वालों की संख्या इस कुल संख्या के पांच प्रतिशत से अधिक अभी भी नहीं है। यह एक बुरा आंकड़ा है, यह आंकड़ा डराता है कि पांच लाख में केवल एक हजार का चयन। लेकिन एक अच्छी बात यह भी है कि ईमानदारी के साथ तैयारी करने वाले जो पांच प्रतिशत स्टूडेन्ट्स हैं, उन्हें देर-सबेर सफलता मिल ही जाती है। यहाँ नही ंतो कहीं और सही और उनकी यह सफलता सामान्य सफलताओं से बेहतर ही होती है।
जब मैं ‘ईमानदारी से तैयारी’ करने की बात करता हूँ, तो इसका मतलब तैयारी करने की एक पूरी व्यवस्थित फिलासफी से है। निश्चित तौर पर तैयारी करने का यह दर्शनशास्त्र मेहनत से तो जुड़ा हुआ है ही, लेकिन केवल उसी से जुड़ा हुआ नहीं है। लगभग 95 प्रतिशत विद्यार्थी यही मानकर चलते हैं कि अधिक से अधिक पढ़ना और अधिक से अधिक मेहनत करना ही इसकी सफलता का मूल मंत्र है। वे ऐसा करते भी हैं। लेकिन अफसोस कि उन्हें रिजल्ट अपनी इच्छा अनुसार नहीं मिल पाता। दरअसल, वे इस बात को समझ ही नहीं पाते कि इन परीक्षाओं के माध्यम से यू.पी.एस.सी की उनसे क्या-क्या अपेक्षाएं होती हैं। इन अपेक्षाओं के बारे में मैं इसी पत्रिका के इससे पहले के किसी अंक में लिख चुका हूँ इसलिए उसे यहाँ दोहराने का कोई अर्थ नहीं है। लेकिन यहाँ मैं इस बात को पूरे विश्वास के साथ रखना चाहूंगा कि सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी करना ही अपने-आपमें एक प्रकार से अपने-आपको सिविल सर्वेन्ट बनने की प्रक्रिया से गुजारना होता है। यदि इसकी तैयारी करने के दौरान आप अपनी मानसिक क्षमता में परिवर्तन नहीं कर पाते हैं, दक्षता में परिवर्तन नहीं कर पाते हैं, आपके आत्मविश्वास में इजाफा नहीं होता है, तो यह मानकर चलिए कि आपकी तैयारी में कहीं न कहीं, कोई न कोई कमी रह रही है। इस प्रकार इन परीक्षा की तैयारी करना ही अपने आपमें स्टूडेन्ट के आंतरिक परिवर्तन की प्रक्रिया बन जाती है। इस बात को आपको समझना ही होगा। इस समझ के अभाव में इस परीक्षा का सिलेबस, परीक्षा में पूछे गए प्रश्न तथा प्रश्नों के दिए गए जवाब के बदले मिले अंकों के साथ आप न्याय नहीं कर सकेंगे। यह एक अच्छी बात है कि इसके लिए आपको अलग से न तो कुछ पढ़ना पड़ता है और न ही कुछ करना पड़ता है। आपको केवल अपनी तैयारी के तरीके को बदलना होता है और यह तरीका पढ़े जाने वालों किताबों की संख्या, लेखकों के नाम और पढ़ने के घंटों से परे होती है। वस्तुतः यह तैयारी मनोवैज्ञानिक स्तर की तैयारी होती है। अपने इस लेख में मैं इसी बात पर कुछ प्रकाश डालने जा रहा हूँ, ताकि आपको स्वयं को इसके अनुकूल ढालने में मदद मिल सके।
एक सिविल सर्वेन्ट बनने की इच्छा रखने वाले किसी भी युवा को अपने अन्दर किसी भी घटना को व्यवस्थित एवं वैज्ञानिक तरीके से देखने की क्षमता पैदा करनी ही चाहिए। जो काम जितना बड़ा होता है, उसके लिए उतनी ही अधिक वैज्ञानिकता की जरूरत पड़ती है और निसंदेह रूप से सिविल सर्विस की तैयारी एक बड़ा काम है। सवा सौ करोड़ की आबादी वाले इस देश में होने वाले चुनाव यदि सही तरीके से हो पाते हैं, तो केवल एक व्यवस्था के तहत ही। घर को किसी भी तरह से चलाया जा सकता है लेकिन देश को नहीं, क्योंकि वह एक बड़ी ईकाई है और बड़ी ईकाई एक व्यवस्था की मांग करती है। यदि आप मेरी इस बात से सहमत हैं, तो आप मेरे इससे पहले कही गई इस बात से भी सहमत होंगे कि सिविल सेवा की तैयारी के लिए एक व्यवस्था की जरूरत होती है। इसे मैं सिविल सर्विस परीक्षा का विज्ञान कहना चाहूँगा। यहाँ मैं यह स्पष्ट कर दूँ कि मेरे इस लेख का सम्बन्ध केवल प्रारम्भिक परीक्षा की वैज्ञानिक तैयारी से है और वह भी उसके केवल सामान्य अध्ययन के पेपर से।
अब सवाल यह उठता है कि इस वैज्ञानिक तरीके की शुरूआत की कैसे जाए। जी हाँ, यह बहुत कठिन नहीं है। मुझे तब बड़ा आश्चर्य होता है, जब मैं पाता हूँ कि स्टूडेन्ट को यह मालूम ही नहीं कि सन् 2012 की प्रारम्भिक परीक्षा में किस-किस विषय पर कितने-कितने प्रश्न पूछे गए थे और उससे किस-किस तरह के प्रश्न पूछे गए थे। आप भी तैयारी कर रहे हैं। क्या आपको मालूम है? यदि मालूम है तो मैं आपको शाबाशी देता हूँ और यदि नहीं मालूम है, तो मैं सलाह देता हूँ कि आपको मालूम होना चाहिए। और यदि आपको मालूम है भी, तो क्या आपको पूछे गए प्रश्नों की वे बारिकियां मालूम हैं जिन्हें पकड़ने के लिए एक अलग ही तरह की ‘इंटेलिजेंस’ की जरूरत होती है। इस तरह की सूक्ष्मता को पकड़ना केवल तभी सम्भव हो पाता है जब आप उस विषय की गहराई को समझ सकें और उस प्रश्न में निहित उस मनोविज्ञान को पकड़ सकें, जो किसी भी स्टूडेन्ट को भ्रमित करने के लिए पर्याप्त होता है।
अब मैं आता हूँ इसी से जुड़े हुए दूसरे सवाल पर। मेरा दूसरा सवाल यह है कि यदि आपने सन् 2013 की प्रारम्भिक परीक्षा के सामान्य अध्ययन के पेपर को पढ़ा है, तो क्या ध्यान से पढ़ा है? कहीं ऐसा तो नहीं कि एकाध-दो बार सरसरी निगाह डाल ली और फिर उससे हमेशा के लिए छुट्टी पा लिया। और यदि आपने ध्यान से पढ़ा भी है, तो क्या इस तथ्य का विश्लेषण किया है कि सन् 2013 का यह पेपर इससे पहले के सालों से किस प्रकार अलग है, खासकर सन् 2012 और 2011 के पेपर से, क्योंकि सन् 2011 में ही सी-सेट का पेपर लागू हुआ था। यदि आपने ऐसा नहीं किया है, तो फिर आपसे एक चूक हो गई है, और वह भी एक बड़ी चूक।
मैं यह सब क्यों कह रहा हूँ? दरअसल अनसाल्ड पेपर किसी भी स्टूडेन्टस् के लिए लाइट हाऊस का काम करते हैं। यह ध्रुव तारा होता है, जो आपको दिशाओं का ज्ञान कराता है कि इधर आओ। यही बताता है कि आपको किसकी तैयारी करनी चाहिए, उसकी कितनी तैयारी करनी चाहिए और कैसे-कैसे तैयारी करनी चाहिए। उस समय तो यह बात और ज्यादा जरूरी हो जाती है, जब कोई भी प्रतियोगिता परिवर्तन के दौर से गुजर रही हो। और यह न भूलें कि अभी आप इसी दौर से गुजर रहे हैं। यदि आप इन परिवर्तनों को ठीक से पकड़ेंगे नहीं, तो मैं यह कहने की गुस्ताखी तो नहीं करूंगा कि आप सफल ही नहीं हो पाएंगे, लेकिन यह कहने का साहस जरूर करना चाहूंगा कि आपकी सफलता की राह थोड़ी कठिन जरूर हो जाएगी। या यह भी हो सकता है कि आपकी सफलता की ऊँचाई भी थोड़ी कम रह जाए।
अनसाल्ड पेपर आपको दिशा बोध कराते हैं और यदि इस लिहाज से देखेंगे, तो आपको सन् 2013 का पेपर अपने पेटर्न के रूप में तो पहले के दो सालों की तरह ही लगेगा, जो है भी, लेकिन कंटेन्ट के रूप में, अपने आन्तरिक तत्वों के रूप में वह पहले के इन दो सालों से काफी अलग है। यह मैं नहीं कह रहा हूँ। आप इसकी जांच कर सकते हैं। यह अन्तर आना भी चाहिए था, क्योंकि 2013 की मुख्य परीक्षा अपने पहले के सालों की परीक्षा जैसी नहीं रह गई थी। यदि आप यह मानकर चलते हैं कि आई.ए.एस. बनाने के लिए होने वाली तीनों परीक्षाओं का आपस में कोई-न-कोई सीधा-सीधा सम्बन्ध है, तो फिर आप यह कैसे मानकर चल सकते हैं कि यदि मुख्य परीक्षा में बदलाव आ गया है, तो उसके साथ सही तालमेल बैठाने के लिए प्रारम्भिक परीक्षा में बदलाव नहीं होगा। यही तो विज्ञान है और इसे ही आपको जानना है। इन जानकारी के अभाव में स्टूडेन्ट मेहनत तो करता है, लेकिन आउटपुट नहीं दे पाता। जब वह इसके बारे में ऊपरी तौर पर सोचता है, तो पाता है कि सन् 2013 के प्री का सिलेबस पहले जैसा ही है और सन् 2014 के सिलेबस में भी कोई बदलाव नहीं हुआ है। आप सही हैं। वह यह भी पाता है कि जनरल स्टडीज् में पहले भी 100 प्रश्न पूछे जाते थे और अभी भी इतने ही पूछे जा रहे हैं। पहले जिस पैटर्न के विकल्प दिए जाते थे, उसी पैटर्न के विकल्प अभी भी दिए जा रहे हैं। पेपर का निर्धारित समय भी 120 मिनट का ही है। इसलिए यदि वह यह निष्कर्ष निकालता है कि सब कुछ पहले जैसा ही है, तो वह अपनी तैयारी की रणनीति भी पहले जैसी ही रखना चाहेगा। जबकि सच्चाई ऐसी नहीं।
अब मैं जो बात कहने जा रहा हूँ, यदि आप चाहें तो पिछले तीन-चार सालों के प्री के पेपर निकालकर इसकी जांच कर सकते हैं। लेकिन इसके लिए आपको थोड़ा वक्त देना पड़ेगा। हड़बड़ी में की गई जांच आपको सही सिद्ध करेगी। वैसे भी वैज्ञानिक तैयारी इस बात की मांग करती है कि युद्ध शुरू करने से पहले युद्ध की रणनीति बना लें, ठीक वैसे ही जैसे कि क्रिकेट खेलने से पहले कैप्टन विरोधी टीम को मद्देनजर रखते हुए अपने खेलने की रणनीति बना लेता है। अब मैं आपका ध्यान कुछ उन महत्वपूर्ण तथ्यों की ओर दिलाना चाहूंगा, जिन बिन्दुओं पर सन् 2013 के प्री का पेपर मुझे अपने पूर्ववर्ती पेपर्स से अलग लगा। इस बदलाव को निम्न बिन्दुओं से समझा जा सकता है –

  •  सन् 2013 में पूछे गए अधिकांश प्रश्न पुस्तकीय ज्ञान पर आधारित प्रश्न हैं। ये प्रश्न ऐसे हैं, जिन्हें आप तब तक सही-सही से हल नहीं कर सकेंगे, जब तक कि आपको उस विषय की तथ्यगत जानकारी न हो। यानी कि आपको फैक्ट मालूम न हों। जबकि इससे पहले के प्रश्न आपसे तथ्यों की उम्मीद इतनी नहीं करते थे, जितनी कि वे तथ्यों के ज्ञान से निकाले गए सही अनुमानों की उम्मीद करते थे। यानी कि आपकी तैयारी की रणनीति अब यह होनी चाहिए कि सिलेबस के अनुसार विषय को अच्छे तरीके से पढ़ें, समझें और उसे आत्मसात करें। बहुत ही जरूरी बातों को उलट-पुलट करके अच्छी तरह दोहरा लें, ताकि उनके बारे में कोई भ्रम न रह जाए। निश्चित तौर पर यहाँ स्मरण-शक्ति की भूमिका बढ़ गई है। जबकि इससे पहले के पेपर्स में इसकी भूमिका कम थी।

ऐसा क्यों हुआ? वस्तुतः ऐसा होना ही था, क्योंकि मुख्य परीक्षा में सामान्य अध्ययन के पूरे-पूरे तीन पेपर जो शामिल कर दिए गए हैं। इससे भी बड़ी बात यह है कि इन तीनों पेपर में कुल 75 प्रश्न होते हैं और वे सब भी दो-दो सौ शब्दों के। जबकि इससे पहले सामान्य अध्ययन के केवल पौने दो पेपर ही होते थे। आप ‘पौने दो’ सुनकर चौंकें नहीं। पहले सामान्य अध्ययन के दूसरे पेपर का लगभग एक चौथाई भाग ग्राफ तथा आंकड़ों के विश्लेषण आदि से संबंधित होता था, जिसे अब एक प्रकार से सी-सेट में शामिल कर लिया गया है। इसे मैं तर्क का हिस्सा मानता हूँ, ज्ञान का नहीं। इसलिए मैंने ‘पौने दो’ कहा।
ज्ब आप मुख्य परीक्षा के जनरल नॉलेज के प्रश्नों को देखेंगे, तो उसमें भूगोल और इतिहास के थोड़े से प्रश्नों को छोड़कर शेष सारे प्रश्न ऐसे पूछे गए हैं, जो आपसे विश्लेषण क्षमता की अपेक्षा रखते हैं। पहले इस विश्लेषण क्षमता की थोड़ी बहुत जांच प्री के जी.एस. के पेपर में भी कर ली जाती थी। चूंकि अब मुख्य परीक्षा में इसको पर्याप्त स्थान मिल गया है, इसलिए प्री से इसे समाप्त कर देने का औचित्य समझ में आता है।

  •  हांलाकि प्री के सिलेबस में राष्ट्रीय एवं अन्तरराष्ट्रीय घटनाओं से जुड़े करेन्ट अफेयर की बात कही गई है, लेकिन गौर करें कि उस पर आधारित प्रश्न पूछे नहीं गए हैं। यह कहना गलत नहीं होगा कि ऐसे प्रश्न हैं ही नहीं।

तो फिर सिलेबस में इसे रखा क्यों गया है? मुझे लगता है कि यह दो कारणों से किया गया है। पहला तो यह कि जनरल स्टडीज़ कभी भी करेंट अफेयर्स के बिना कम्पलीट हो ही नहीं सकता, फिर चाहे उससे प्रश्न पूछे जाएं या नहीं। दूसरा यह आपकी सुविधा के लिए भी किया गया है। मुख्य परीक्षा के जी.एस. के तीनों पेपर मुख्यतः करेंट अफेयर्स पर ही आधारित है। यदि आप करेंट अफेयर्स के मामले में शुरू से ही सतर्क नहीं रहेंगे, तो क्या आपको लगता है कि माह अंत में प्री देने के बाद दिसम्बर की शुरूआत के बीच के साढ़े तीन महिनों में आप उन तीनों पेपर्स की तैयारी कर लेंगे? ऐसा गलती से भी कभी मत सोचिएगा। ऐसा किया ही नहीं जा सकता इसलिए यू.पी.एस.सी ने प्री में ही करेंट अफेयर्स को रखकर इस बारे में आपको पहले से ही सतर्क कर दिया है।

  •  सन् 2013 के पहले के पेपर्स में सरकारी योजनाओं पर आधारित कुछ प्रश्न होते थे। चूंकि अब ये सब मुख्य परीक्षा के हिस्से बन गए हैं, इसलिए प्री से इसको विदा कर दिया गया है। ऐसे प्रश्नों की यहां पूरी तरह अनुपस्थिति है।
  •  प्री में इन्टरनेशल अफेयर्स पर कोई प्रश्न नहीं पूछा गया है। लेकिन मुख्य परीक्षा में इससे काफी प्रश्न पूछे गए हैं और वे भी आसान किस्म के नहीं हैं।
  •  पहले कुछ प्रश्न, भले ही उनकी संख्या काफी कम ही थी, ऐसे पूछ लिए जाते थे, जिनमें किसी महत्वपूर्ण पुरस्कार, सम्मान, स्थान तथा खेल आदि की घटनाएं होती थीं। जाहिर है कि जब करेंट अफेयर्स के लिए गुंजाइश ही नहीं रह गई है, तो फिर इस तरह के प्रश्नों की उम्मीद नही की जानी चाहिए।

मित्रों, सन् 2013 प्री के सामान्य अध्ययन के पेपर को इससे पहले के दो सालों के पेपर्स के बरक्स रखकर गहरी छानबीन करने के बाद जो महत्वपूर्ण तथ्य मेरी पकड़ में आए हैं, उन्हें मैंने यहाँ आपके सामने रखा है। मैं यह नहीं कहता कि सन् 2013 के प्री के सामान्य अध्ययन के पैटर्न की ही आगे भी ज्यों की त्यों कार्बन कॉपी की जाएगी। कम से कम सिविल सर्विस की परीक्षा से तो हमें ऐसी उम्मीद नहीं करनी चाहिए। लेकिन इतना जरूर है कि इसके आधार पर आप अपनी तैयारी की एक रणनीति जरूर बना सकते हैं। फिर समस्या यह भी तो है कि यदि आप इसके आधार पर रणनीति नहीं बनाएंगे, तो फिर रणनीति बनाने के लिए आपके पास अन्य कौन सा आधार होगा?
अब मैं आता हूँ इस वैज्ञानिक तैयारी के दूसरे चरण पर, जो प्रश्नों के विषयों से संबंधित है। मुझे यह देखकर एक सुखद आश्चर्य हुआ कि सन् 2013 के पेपर्स में सभी महत्वपूर्ण विषयों को काफी कुछ बराबर महत्व दिया गया है। ऐसा नहीं है कि किसी एक विषय से तो बहुत अधिक प्रश्न पूछ लिए गए हों और दूसरे विषय से बहुत ही कम, जैसा कि पहले हो जाता था। अब मैं इसके बारे में आपके सामने कुछ निम्न तथ्य प्रस्तुत करना चाहूँगा-

  •  यदि हम कैमिस्ट्री, फिजिक्स, बॉटनी और बॉयोलॉजी के सभी प्रश्नों को विज्ञान के अन्तर्गत रख लें, तो ऐसे प्रश्नों की संख्या 100 में 29 है। यानी कि 29 प्रतिशत। यह कम नहीं है। जाहिर है कि विज्ञान के विद्यार्थी फायदे में रहेंगे। आटर्स और कामर्स के स्टूडेन्ट्स के लिए ये पूछे गए प्रश्न आसान नहीं हैं। हाँ, यह जरूर है कि जिसने एन.सी.ई.आर.टी. की साइन्स की किताबें समझकर अच्छे से पढ़ ली हैं, उन्हें ये बहुत कठिन भी नहीं लगेंगे।

अब यदि साइन्स के इन प्रश्नों को विषय के आधार पर बाँटकर देखा जाए, तो 29 में से सबसे अधिक 9 प्रश्न बॉटनी से पूछे गए हैं। यह ठीक भी है, क्योंकि वनस्पतिशास्त्र के अंतर्गत ही हम कृषि और पर्यावरण को भी ले सकते हैं। पर्यावरण पर दो प्रश्न अलग से पूछे गए हैं और यदि उसे भी इसमें शामिल कर लें, तो बॉटनी से पूछे जाने वाले कुल प्रश्न 11 हो जाएंगे। अच्छी बात यह है कि बॉटनी के प्रश्न सामान्य से थोड़े ही ऊँचे स्तर के हैं, जो पेड़-पौधों की जीवन प्रणाली से ज्यादा संबंध रखते हैं। इस बात का उल्लेख मैं यहाँ विशेष रूप से इसलिए कर रहा हूँ ताकि आप यह समझ सकें कि आपको बॉटनी के किन पक्षों पर अधिक फोकस करना है।
दूसरा स्थान बायोलॉजी का है। इससे आठ प्रश्न पूछे गए हैं। ऐसा होना भी चाहिए, क्योंकि जीवशास्त्र सीधे-सीधे हमारे शरीर विज्ञान से जुड़ा हुआ विषय है। इसके ज्यादातर प्रश्न बॉटनी की तरह ही सामान्य से थोड़े बेहतर स्तर के हैं। यदि यूपीएसी को सामान्य से थोड़े बेहतर स्तर के केंडिडेट सिलेक्ट करना है, तो स्तर को थोड़ा तो बेहतर बनाना ही होगा। स्टेट सर्विस में इन्हीं विषयों को सामान्य और कभी-कभी तो सामान्य से भी सामान्य स्तर तक देखा जा सकता है। इस तरह यदि हम बॉटनी और बॉयोलाजी के प्रश्नों को जोड़ दें, तो इनकी संख्या 29 में से 17 हो जाती है। एक अच्छी बात यह है कि फिजिक्स और कैमिस्ट्री जितनी विशेषता और मेहनत की मांग करते हैं, बॉटनी और बॉयोलाजी इतनी नहीं, क्योंकि ये हमारे जीवन से सीधे जुड़े हुए विषय हैं और रोजमर्रा के जीवन में येन-केन-प्रकारेण कहीं न कहीं इस पर चर्चा हो ही जाती है। यह आर्टस् और कॉमर्स के स्टूडेन्ट्स के लिए राहत देने वाली बहुत बड़ी बात है। इसलिए घबड़ाने की कतई कोई जरूरत नहीं है।
अब बच जाते हैं-फिजिक्स और कैमिस्ट्र। इससे पूछे गए प्रश्नों की संख्या 7 और 5 है। हो सकता है कि पेपर सेटर इन प्रश्नों को भी सामान्य से थोड़े से ही ऊँचे स्तर का मान रहे हों, और वे सही भी हों। यह स्टूडेन्ट की अपनी तैयारी पर निर्भर करता है। हाँ, फिजिक्स के दो प्रश्न ऐसे जरूर हैं, जिन्हें कामनसेंस से भी हल किया जा सकता है। लेकिन माइनस मार्किंग के इस दौर में ऐसा करना कितना सही होगा, यह इस बात पर निर्भर करेगा कि आपके पेपर को हल करने की नीति क्या है।

  •  दूसरा स्थान इकोनॉमिक्स का है, जिससे 19 प्रश्न आए है। मुझे लगता है कि कुछ सालों से अर्थव्यवस्था जिस तरह से जीवन के केन्द्र में आ गई है, उसको देखते हुए इस विषय पर पूछे गये इतने प्रश्नों का औचित्य बनता है। इसके आगे भी जारी रहने की उम्मीद की जा सकती है। स्पष्ट है कि आपको इस बारे में ढ़िलाई नहीं बरतनी चाहिए।

मैंने इससे पहले आपसे कहा था कि जी.एस. के पेपर में करेंट अफेयर्स गायब सा है। निश्चित तौर पर सीधे-सीधे तौर पर इसकी उपस्थिति नहीं है। लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से यह काफी कुछ पेपर में मौजूद है और खासकर अर्थशास्त्र के प्रश्नों में। अर्थशास्त्र निश्चित रूप से आर्टस् के विषयों में सबसे कठिन विषयों में से एक है। सामान्य तौर पर न केवल इसका सिलेबस बहुत अधिक है बल्कि काफी कुछ कठिन और जटिल भी है। ऐसी स्थिति में 19 प्रश्न पढ़कर आप थोड़े घबड़ा सकते हैं। किन्तु यदि आप इस पेपर को वैज्ञानिक दृष्टि से देखेंगे, तो घबड़ाने का कोई कारण आपको नज़र नहीं आएगा।
चाहे वह प्री का अर्थशास्त्र हो या मेंस का, इस बारे में आप पूरी तरह सुनिश्चित हो सकते हैं कि इस पर पूछे गए प्रश्न एप्लाइड इकोनॉमिक्स से होते हैं। यानी कि व्यावहारिक अर्थशास्त्र से। यह अर्थशास्त्र का वह अंश है, जिससे हमारा साक्षात्कार हमेशा अखबारों में होता रहता है और न्यूज में भी। हाँ, यह बात अलग है कि यहाँ जो हम सुनते और पढ़ते हैं, वह व्यावहारिक होता है, सैद्धान्तिक नहीं और पेपर में जो पूछा जाता है, वह सैद्धान्तिक होता है, व्यावहारिक नहीं। यदि वह व्यावहारिक होता, तो करेंट अफेयर्स का सीधे-सीधे प्रश्न बन जाता जैसे कि ‘‘बारहवीं पंचवर्षीय योजना में आर्थिक विकास की दर कितनी रखी गई है।’’ यह तो और भी अच्छी बात है। व्यवहार के माध्यम से किसी भी सिद्धान्त को समझना अधिक आसान होता है बजाए, इसके कि सिद्धान्त के आधार पर व्यवहार को समझा जाए।
तो आप इसकी तैयारी करेंगे कैसे? यह बहुत सरल है। अर्थशास्त्र की बारहवीं तक की कोई भी ठीक-ठाक किताब लेकर आप उसके उन अध्यायों को अच्छे से समझ लें, जिनका उपयोग व्यावहारिक रूप से अर्थव्यवस्था के लिए होता है। इससे आपकी इस विषय की एक समझ बन जागी। इसके बाद जब आप किसी भी आर्थिक घटना के बारे में पढ़ेंगे, तो पाएंगे कि उस घटना को सैद्धान्तिक परिप्रेक्ष्य में देखना आपके लिए आसान हो गया है। प्री में जब इसी तरह की घटनाएं सिद्धान्त के सांचे में ढालकर पूछी जाएगी, तो आप फट से उसके उत्तर को पकड़ लेंगे। ऐसा करने में समय लगाइए, क्योंकि मुख्य परीक्षा भी यह आपके लिए बहुत अधिक मददगार साबित होगी।

  •  तीसरा स्थान राजनीतिक व्यवस्था का है, जो आगे चलकर इससे ज्यादा स्थान भी घेर सकता है। इससे 17 प्रश्न पूछे गए हैं और इन प्रश्नों के पूछने की प्रकृति भी बिल्कुल अर्थशास्त्र जैसीही है। यानी कि इस पर तथ्यगत प्रश्न अधिक हैं। घटनागत प्रश्न नहीं हैं। हाँ, यह जरूर है कि उन तथ्यों का कुछ संबंध आसपास में घटी घटनाओं में मिल जाता है। लेकिन सभी के साथ ऐसा नहीं है।

इस राजनीतिक व्यवस्था में सबसे बड़ा योगदान भारतीय संविधान का है। इस प्वाइंट को आपको नोट कर लेना चाहिए। यह स्वाभाविक भी है, क्योंकि सम्पूर्ण राजनीतिक व्यवस्था हमारे संविधान के चारों ओर ही परिक्रमा करती रहती है। संविधान की आपके पास न केवल अच्छी तथ्यगत जानकारी ही होनी चाहिए बल्कि उस पर बहुत अच्छी आत्मगत पकड़ भी होनी चाहिए। ‘आत्मगत पकड़’ से मेरा अर्थ है कि आप संविधान को केवल उसके शब्दों, उसके कंटेन्ट में ही न जानें बल्कि उसकी आत्मा में भी जानें। यानी कि शब्दार्थ ही पर्याप्त नहीं है। आपको उसका भावार्थ भी जानना चाहिए।
यह राजनीतिक परिदृष्य आपके जी.एस. का बहुत बड़ा भाग है। इसका वजन केवल मुख्य परीक्षा में ही नहीं है, बल्कि इन्टरव्यू तक में होता है। शायद ही कोई विद्यार्थी ऐसा होता होगा, जिससे इन्टरव्यू के दौरान राजनीतिक व्यवस्था से संबंधित प्रश्न न पूछे जाते हों। इसलिए यह आपकी अपनी इच्छा पर नहीं है कि आप इसकी थोड़ी कम तैयारी करें। यह आपके लिए अनिवार्य ही है कि इस विषय पर आपकी बहुत अच्छी तैयारी होनी चाहिए। निश्चित रूप से इसमें किताबंे तो आपकी मदद करेंगी ही, उससे कहीं अधिक मदद अखबार और समाचार करेंगे। किसी भी दिन का अखबार राजनीतिक घटनाओं से महरूम नहीं होता है। बस, पढ़ते समय आपको थोड़ा सतर्क रहना है और आप जब भी किसी राजनीतिक घटना के बारे पढ़ते हैं, उसे संविधान के आइने में देखने की कोशिश करें। यह देखें कि उससे जुड़ा संवैधानिक प्रावधान क्या है। तैयारी की इस प्रणाली से भारतीय संविधान पर धीरे-धीरे आपकी पकड़ अच्छी होती जाएगी, जो होनी ही चाहिए।

नोट:- यह लेख सबसे पहले ‘सिविल सर्विसेज़ क्रॉनिकल’ पत्रिका में प्रकाशित हो चुका है। 

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