अपने ही उत्तर को जाँचना-2
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संकट सही है कि आपको भी कोई ऐसा ही कोच चाहिए। यहाँ मैं आपको एक ऐसे कोच से परिचित कराने जा रहा हूँ, जिसे ढूंढना आसान है और जो विश्वसनीय भी है, बशर्ते कि आप उस पर विश्वास कर सकें। मैं आपको उस कोच का पूरा पता, पूरा परिचय और उसका मोबाइल नम्बर भी उपलब्ध कराने जा रहा हूँ। फिर से वही बात कि बशर्ते कि आप उस पर विश्वास कर सकें। वैसे मैं कहना चाहूंगा कि आप इस पर विश्वास कीजिए भी, क्योंकि इस कोच के सिवाय मुझे दूसरे किसी कोच की जानकारी भी नहीं है। यह वह कोच है, जिससे मैंने सहायता ली थी। इस कोच से केवल मैंने ही सहायता नहीं ली थी, बल्कि सेलेक्ट होने के बाद जब मैंने अपने दूसरे साथियों से बातचीत की, तो मैं यह सुनकर दंग रह गया कि उनमें से लगभग नब्बे प्रतिशत नौजवानों ने भी उसी से कोचिंग ली थी। यहाँ तक कि आज भी जब मैं किसी से पूछता हूँ कि ‘‘तुमने किससे निर्देशन लिया’’, तो ज्यादातर आज भी उसी का नाम लेते हैं। हालांकि अब वे उसका नाम लेने के साथ-साथ धीमी आवाज में कुछ दूसरों के भी नाम ले देते हैं, जिसमें कुछ के नाम व्यक्तिवाचक होते हैं, तो कुछ के नाम जातिवाचक यानी कि संस्थागत। लेकिन यह कहना कभी नहीं भूलते कि ‘‘उस कोच का जवाब नहीं।’’ क्या आप भी उसका नाम और पता जानना चाहेंगे?
शायद आपको अब तक पता लग गया होगा कि वह कौन है। जी हाँ, यदि पता नहीं लगा है, तो पता लगाने की कोशिश कीजिए, आप पता लगा लेंगे। मित्रो, यहाँ स्थिति लगभग-लगभग वैसी ही है, जैसे कि जब कस्तूरी मृग को कस्तूरी की सुगंध आने लगती है, तो उस सुगंध को पाने की बैचेनी में वह जंगल में पता नहीं यहाँ वहाँ कहाँ-कहाँ भटकती रहती है। वह कस्तूरी उसे मिलती ही नहीं है, क्योंकि उसे पता ही नहीं है कि वह तो उसके अपने ही अन्दर है। जी हाँ, वह कोच आप ही हैं। आप अपना नाम, पता और मोबाइल नम्बर नोट कर लीजिए। यही मेरे द्वारा बताया गया कोच है।
मैं जानता हूँ कि मेरे इस उत्तर ने आपको बहुत निराश किया होगा। इस पूछिए तो झिंझोड़ कर रख दिया होगा। यहाँ तक कि मेरे प्रति क्रोध का भाव भी आ रहा होगा। आने दीजिए। मैं आपके आक्रोश को अपने सिर-माथे पर लेने को तैयार हूँ, बशर्ते कि आप इस सत्य को तुरन्त खत्म न कर दें। प्लीज, थोड़ी देर इस पर विचार करें और खुद को ढूंढने की कोशिश करें। जब भी कोई ऐसी बात आती है, तो बजाए इसके कि उस पर रिएक्ट करें, थोड़ी देर के लिए सोचें तो सही। जो कहा जा रहा है, उसमें कुछ तो सार होगा ही। क्या सत्य केवल आपकी ही सहमति और असहमति पर टिका होता है? जिसे आप माने वह सत्य, और न माने वह असत्य। क्या सचमुच सत्य आपका ही मुंह देखता रहेगा?
मित्रो, हम सबका अपना-अपना सत्य होता है। मैं आपके भी सत्य का सम्मान करता हूँ। इसलिए चाहता हूँ कि आप भी मेरे सत्य का सम्मान करें। इस पर विचार करें। थोड़ी देर के लिए उसे करें भी। यदि एक दो बार में नहीं सध रहा है, तब भी न छोड़ें। कुछ और वक्त दें। हो सकता है कि हीरा आपको मिल ही जाए। वैसे भी जहाँ हीरे की खदानें हैं, वहाँ जाकर देखिए। आपको सैकड़ों ऐसे गड्डे खुदे हुए मिलेंगे, जिन्हें खोदा गया था, लेकिन मिला कुछ नहीं। कुछ ही ऐसे गड्डे होंगे, जिनसे अभी भी हीरा निकल रहा है। लेकिन यदि सैकड़ों गड्डे खोदने के बाद एक में भी हीरा निकल गया, तो वह पिछले सारे की भरपाई कर देता है। मुझे लगता है कि सही-सही कोच का मिल जाना कहीं न कहीं हीरे का मिल जाना ही है।
सही गलत, अच्छा-बुरा, तथा सामान्य-उम्दा, इन सबकी पहचान करने की क्षमता हम सभी में नैसर्गिक तौर पर होती है। आप स्वयं विचार कीजिए कि इसी को आधार बनाकर आप एक दिन में न जाने कितने निर्णय लेते हैं। जब आप बाइक पर जा रहे हैं, तब आप सोचते हैं कि इस रास्ते से नहीं उस रास्ते से जाऊँ। क्यों? जब आप सब्जी खरीदने जाते हैं, तो जब आप सब्जियाँ छांट-छांटकर तराजू पर रखते हैं, तो उस छांटने का आधार क्या होता है? फिल्म देखकर निकलने के बाद जब आप दूसरों को सलाह देते हैं कि उन्हें यह फिल्म देखनी चाहिए या नहीं, तो उस सलाह का आधार क्या होता है? एक ही साल में एक ही शिक्षण संस्थान के कई शिक्षक आपको पढ़ाते हैं। वह कौन सा आधार होता है, जो किसी शिक्षक के प्रति आपके मन में प्रशंसा और श्रद्धा का भाव पैदा करता है और कुछ शिक्षकों के लिए नहीं? आप किताब की दुकान पर अपने लिए एक किताब खरीदने जाते हैं। दुकान वाला आपको उसी विषय पर पांच किताबें पकड़ा देता है। लेकिन आपको लेनी उनमें से एक ही है। आप दुकानदार से पूछते हैं कि कौन-सी लूँ। दुकानदार जवाब देता है कि ‘‘कोई भी ले लो, सब एक जैसी है’’। लेकिन आप इस उत्तर से संतुष्ट नहीं होते। आप इन पांचों किताबों को थोड़ा-बहुत उलटते-पलटते हैं। उनके साथ दस मिनट बिताते हैं। फिर उनमें से एक किताब लेने का फैसला कर लेते हैं। आपके इस फैसले का आधार क्या होता है?
यहाँ मैंने एक ही तरह के उदाहरण नहीं दिए हैं, हालांकि उन सबका आधार एक ही है। यहाँ मैंने रोजमर्रा के जीवन के साधारण से साधारण प्रसंगों से लेकर बौद्धिक प्रसंगों तक के उदाहरण दिए हैं। जीवन के छोटे से छोटे निर्णय से लेकर बड़े से बड़े निर्णयों का आधार यही होता है कि कौन सा निर्णय सही होगा, इसे जानने की क्षमता प्रकृति ने हमें जन्मजात दे रखी है। इस गुण के अभाव को ही मूर्खता और पागलपन कहा जाता है। अब यह आपके ऊपर है कि आपने अपने इस गुण को कितना विकसित किया है। विकसित करने का एकमात्र उपाय यह होता है कि आप उसका ज्यादा से ज्यादा उपयोग करें। यदि आप स्वयं के लिए फैसला करने का अधिकार दूसरों को दे देंगे, तो निश्चित रूप से आपके ये गुण धीरे-धीरे कमजोर पड़कर एक दिन इस स्थिति में पहुँच जाएंगे कि आपको लगेगा ही नहीं कि वे आपके पास थे भी। लेकिन यह जरूर है कि जहाँ विशेषज्ञता की जरूरत पड़ती है, वहाँ हम इस तरह के अधिकार दूसरों को सौंपते भी हैं। इसीलिए तो हम डॉक्टर के पास जाते हैं, क्योंकि वहाँ हम खुद निर्णय नहीं ले पाते।
यहाँ आपका संबंध आपके लिखे हुए उत्तर के मूल्यांकन करने से है। यह ज्ञान का क्षेत्र है। इसके विशेषज्ञ होते हैं। लेकिन क्या आप इसके विशेषज्ञ नहीं हैं? जो शिक्षक क्लास में आपको पढ़ाने आते थे,, वे उस विषय को आपसे कई गुना ज्यादा जानते थे। यानी कि वे उस विषय के विशेषज्ञ हैं, तो फिर आप कौन होते हैं इस बात का फैसला करने वाले कि वे अच्छे हैं या नहीं। लेकिन आप फैसला करते हैं और इस बात का फैसला करते है कि वे अच्छा पढ़ा रहे हैं या नहीं पढ़ा रहे हैं। तो क्या यह फैसला ज्ञान के बारे में किया गया फैसला नहीं है?
यदि आप इस बात का फैसला कर सकते हैं, तो फिर इस बात का फैसला क्यों नहीं कर सकते कि जो उत्तर लिखा गया है, वह अच्छा है या नहीं, सही है या नहीं? मैंने किताब का उदाहरण दिया। आप निर्णय लेते हैं कि यह किताब अच्छी है, यह किताब बुरी है। किताब को पूरी तरह पढ़ने के बाद तो निर्णय लेते ही हैं। किताब में भी कुछ लिखा हुआ है और उत्तर के रूप में भी आप कुछ लिखते ही हैं। यहाँ फर्क केवल दो हैं। पहला यह कि किताब में किसी दूसरे ने लिखा है और इस कॉपी में आपने लिखा है। दूसरा अन्तर यह है कि किताब में जो कुछ भी लिखा गया है, वह छपे रूप में हैं और आपकी अपनी कॉपी में जो कुछ लिखा गया है, वह हस्तलिपि के रूप में है। इनके सिवाय आप खुद मुझे बताएं कि दोनों में फर्क क्या है। दोनों का विषय एक है। दोनों का संबंध ज्ञान से है। दोनों में कंटेन्ट हैं। दोनों में भाषा है। दोनों में लिखने की शैली है। वे सारी चीजें दोनों में एक ही हैं, जिनकी जरूरत इस बात को जांचने और परखने के लिए पड़ती है कि जो लिखा गया है, वह कैसा है। क्या आप मुझसे सहमत नहीं हैं?
मैं जानता हूँ कि आपकी सहमति को हासिल करना उतना आसान नहीं होगा। आसान इसलिए भी नहीं होगा, क्योंकि अभी तक आपने ऐसा कुछ करके देखा ही नहीं है। ऐसी स्थिति में विश्वास करना काफी कठिन हो जाता है। लेकिन इसकी शुरूआत आपको विश्वास से ही करनी पड़ेगी; इस विश्वास से कि परीक्षक का वह बीज आपके अन्दर मौजूद है। आपने अभी तक उसे पहचाना नहीं है। मैंने आपकी उससे पहचान कराई है। अब आपको उसका पोषण करना है। आप ऐसा कैसे करेंगे, इसके बारे में हम अभी बात करने जा रहे हैं।
यहाँ मैं इस मूल समस्या की तरफ भी आपका ध्यान आकर्षित करना चाहूँगा कि क्या कारण है कि हम दूसरों के बारे में तो अपना जजमेंट तुरन्त दे देते हैं, लेकिन अपने बारे में कोई भी जजमेंट देने में खुद को असमर्थ पाते हैं। या यूं कह लीजिए कि खुद के बारे में जजमेंट देने की जरूरत ही नहीं समझते, क्योंकि हम स्वयं के लिए यह मानकर चलते हैं कि हम सही ही हैं। यहाँ मैं आपसे कुछ उन बातों की संक्षिप्त में चर्चा कर रहा हूँ, जिनके कारण हम अपने बारे में सही-सही निर्णय नहीं कर पाते, खुद की जांच-परख करने में चूक जाते हैं। यही बात तब लागू होती है, जब हम खुद के लिखे हुए प्रश्नों को जांचने की कोशिश करते हैं।
पहली बात तो यह कि बहुत कम लोग ऐसे होते हैं, जिनके मन में स्वयं के प्रति कोई संदेह होता है। ‘‘मैंने उत्तर लिखा है, तो वह सही ही होगा’’ यह उनका दृढ़ विश्वास होता है। ऐसी स्थिति में इस बात की जरूरत ही महसूस नहीं होगी कि मैं अपने लिखे पर संदेह करूं। यदि मेरी शैक्षणिक पृष्ठभूमि अच्छी है, तब तो संदेह करने की गुंजाइश बिल्कुल बचती ही नहीं।
दूसरी बात यह कि हम स्वयं के प्रति हमेशा सद्भाव रखते हैं। खुद के प्रति निर्मम होने के लिए जो साहस चाहिए, वह बहुत ही कम लोगों में होता है। अपने उत्तर की जांच करते समय यदि मुझे यह निष्कर्ष निकालना पड़े कि मेरा उत्तर गलत है, तो इस निष्कर्ष को बर्दाश्त करने का साहस गिने-चुने लोगों में ही होता है। यह तभी संभव है, जब मैं अपने बारे में निर्मम होऊँ। स्वयं के प्रति करूणा का भाव इसमें बाधा पैदा करता है।
लेकिन जब दूसरों के बारे में निर्णय लेने की बारी आती है, तो सच पूछिए तो हम कुछ ज्यादा ही निर्मम हो जाते हैं। चूंकि उसका कोई प्रभाव हमारे ऊपर नहीं पड़ना है, इसलिए अपना कोई भी निर्णय घोषित कर देना आसान होता है और हम घोषणा कर देते हैं।
निर्णय चाहे स्वयं के बारे में लेना हो अथवा दूसरों के बारे में, तटस्थता का सिद्वान्त जबर्दस्त रूप से काम करता है। यही हमें सही निर्णय तक पहुंचा सकता है। दूसरों के प्रश्नों के उत्तर जांचते समय तो हो सकता है कि हम थोड़े तटस्थ रह भी जाएं, लेकिन स्वयं के प्रति तटस्थ रह पाना काफी कठिन होता है। यदि मैं अपने अनुभव के आधार पर कहना चाहूँ, तो मैं पूरे विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि एक बड़े उद्देश्य से प्रेरित होकर जब आप कोई काम करते हैं और उसे बार-बार करते हैं, तो कहीं न कहीं तटस्थता का भाव अपने-आप आने लगता है। यह करना पड़ेगा। जैसे ही आप तटस्थता के इस भाव को अपने अन्दर ले आएंगे, स्वयं के उत्तर को जांचने के योग्य बन जाएंगे।
शेष अगले अंक में………..
NOTE: This article by Dr. Vijay Agrawal was first published in ‘Civil Services Chronicle’.