विविधता से मुक्त होती सिविल सेवा (Dainik Jagran)
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अब जबकि देश में एक बार फिर से हंिदूी एवं क्षेत्रीय भाषाओं के प्रति सकारात्मक विचार एवं संवेदनशीलता रखने वाली मोदी सरकार आ गई है तब यह उम्मीद की जाती है कि भारतीय भाषाओं के उत्थान के लिए सभी आवश्यक कदम भी उठाए जाएंगे। इसकी जरूरत इसलिए महसूस हो रही है, क्योंकि भारतीय प्रशासनिक सेवा उत्तीर्ण करने वाले भारतीय भाषा भाषी अभ्यर्थियों की संख्या में गिरावट आती दिख रही है। यह गिरावट कोई शुभ संकेत नहीं। गिरावट के कारणों की तह तक जाने और उनका निवारण करने की आवश्यकता है। पिछले दस वर्षो से सिविल सेवा परीक्षा में, जो लोगों के बीच आइएएस की परीक्षा के नाम से ज्यादा लोकप्रिय है, धीरे-धीरे दो बड़े बदलाव आते रहे। इन बदलावों ने अब एक स्थायी रूप ले लिया है। पहला तो यह कि इस परीक्षा के जो द्वार सन् 1979 से हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषाओं के लिए खोले गए वे अब एक बहुत छोटे से झरोखे में तब्दील हो गए हैं। सिविल सेवा परीक्षा अंग्रेजीमय हो चुकी है। गैरअंग्रेजी भाषा से चयनित होने वाले परीक्षाथियों की संख्या जो आठवें दशक में लगभग 40-50 प्रतिशत के आसपास हुआ करती थी अब अनुमानत: पांच प्रतिशत के आसपास रह गई है। जब आप सफल परीक्षार्थियों की अकादमिक पृष्ठभूमि देखेंगे तो आप भ्रम में पड़ जाएंगे कि कहीं यह इंजीनियरिंग प्रशासनिक सेवा तो नहीं बन गई है। सफल अभ्यर्थियों में जिसे देखो वही इंजीनियर।
अब यह प्रवृत्ति राज्यों की सिविल सेवा परीक्षाओं में भी दिखाई देने लगी है। ऐसी स्थिति में गैरअंग्रेजी एवं गैर इंजीनियर युवाओं का चिंतित होना स्वाभाविक है। उनकी चिंता को महसूस करने के बाद मैंने सूचना अधिकार के जरिये इस बारे में सूचना एकत्र कराने की कोशिश की। इसके लिए संघ लोकसेवा आयोग को जो आवेदन किया गया उसमें दो मुख्य बिंदुओं पर जानकारी मांगी गई। पहली यह कि सिविल सेवा परीक्षा के अभ्यार्थियों की परीक्षा का माध्यम कौन सी भाषा थी? दूसरी यह कि इनमें से सफल या चयनित अभ्यार्थियों की संख्या कितनी रही? यूपीएससी से जवाब तो आया, लेकिन उसे संतोषजनक नहीं कहा जा सकता। पहली बात तो यह कि आवेदन हिंदी में किया गया था जबकि जवाब केवल अंग्रेजी में आया। दूसरी और सबसे महत्वपूर्ण बात यह रही कि जो जवाब आया वह अत्यंत अफसोसजनक था। यूपीएससी ने अंग्रेजी में यह तो बता दिया कि 2015 तक हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषाओं से कितने विद्यार्थी शामिल हुए। यह आयोग की वार्षिक रिपोर्ट में भी है, लेकिन 2016, 2017 एवं 2018 के बारे में सूचित किया गया कि अभी जानकारी एकत्र की जा रही है। इसके बारे में आयोग ने पूरी तरह चुप्पी साध ली कि 2015 तक कितने गैर अंग्रेजी भाषी विद्यार्थी सफल हुए? सच तो यह कि जिसे आयोग भी अच्छी तरह जानता है कि मुख्य प्रश्न उन सफल प्रतियोगियों की संख्या जानना था जो गैर अंग्रेजी भाषी थे। यह जानकारी न देकर आयोग ने स्वयं को बेवजह संदेह के घेरे में डालने का काम किया। आखिर जब आयोग 1980 से ही अपनी वार्षिक रिपोर्ट में भाषावार सफल प्रतियोगियों के आंकड़े उपलब्ध कराता था तो ऐसा क्या हुआ कि अब उसे अचानक बंद कर दिया गया? ऐसा क्यों किया गया, मुङो नहीं मालूम, लेकिन यह पक्का है कि 2015 से तो बंद है ही।
आयोग अपनी रिपोर्ट विशेषकर सिविल सेवा परीक्षा के बारे में बहुत ही विस्तार के साथ तैयार करता है। वह सफल अभ्यर्थियों की उम्र, शिक्षा, लिंग, शहरी-ग्रामीण, विषय, प्रयास यानी अटेंप्ट, विश्वविद्यालयों के साथ-साथ अन्य भी कई जरूरी एवं रोचक जानकारी उपलब्ध कराता है। वह यह भी बताता है कि मुख्य परीक्षा के किस-किस वैकल्पिक विषय में भाषानुसार कितने-कितने प्रतियोगी बैठे। इनकी कुल संख्या दस-बारह हजार के करीब होती है। जब ये आंकड़ें मौजूद हैं तो फिर भाषा के आधार पर सफल प्रतियोगियों के आंकड़े होंगे ही। चूंकि सफल युवाओं की संख्या घटकर एक हजार से भी कम रह जाती है इसलिए इस आंकड़े को तैयार करना (यदि तैयार नहीं किया जाता है तो) सबसे आसान है। समझना कठिन है कि यूपीएससी के लिए इसे सार्वजनिक करना इतना कठिन क्यों है? वह क्यों अकारण ही अपनी विश्वसनीयता पर प्रश्नचिह्न् खड़ा कर रहा है? जैसे अन्य आंकड़े सार्वजनिक हो रहे हैं वैसे ही ये आंकड़े भी सार्वजनिक होने चाहिए कि भाषा के आधार पर सफल प्रतियोगियों की संख्या कितनी रही?
सिविल सेवा परीक्षा इस देश की सर्वोच्च परीक्षा है। इसके जरिये ही उच्च स्तर के प्रशासनिक अधिकारियों की भर्ती होती है। इस प्रशासन का सीधा संबंध देश के लोगों के दैनिक जीवन और देश की व्यवस्था और विकास से है। इस प्रशासन को एक ही प्रकार के फूलों का (बतौर उदाहरण इंजीनियर्स का) गुलदस्ता नहीं बनाना है। इसकी शक्ति, इसकी क्षमता और इसकी विश्वसनीयता इसकी विविधता में निहित है, फिर चाहे वह भाषा एवं क्षेत्र की विविधता हो या फिर शैक्षणिक पृष्ठभूमि की विविधता हो, लेकिन यह स्पष्ट है कि इस परीक्षा की वर्तमान प्रणाली ने इस विविधता की संभावना को पूरी तरह कुचल दिया है।
जब समाज के पास भाषावार आंकड़े आएंगे तभी सही मायनों में इस विषय पर समाजशास्त्रीय दृष्टि से विचार किया जा सकेगा। ऐसा करना व्यक्तिगत रूप से किसी के भी विरोध में न होकर सार्वजनिक हित में ही होगा। बेहतर होगा कि यूपीएससी संबंधित आंकड़े सार्वजनिक करे ताकि वस्तुस्थिति से अवगत हुआ जा सके। सभी जरूरी आंकड़ों का सार्वजनिक होना इसलिए भी अपेक्षित है, क्योंकि कुछ ही दिनों पहले उच्चतम न्यायालय ने भारतीय रिजर्व बैंक को इस बात के लिए कड़ी फटकार लगाई थी कि उसने न्यायालय के आदेश के बावजूद बैंकों संबधी कुछ सूचनाएं सार्वजनिक नहीं कीं। हाल में केंद्रीय सूचना आयोग ने भी यूपीएससी की इस मामले में खिंचाई की है कि उसने भूगर्भशास्त्र के एक परीक्षार्थी को उसकी उत्तर पुस्तिका दिखाने से इन्कार कर दिया। समय के जिस दौर में पारदर्शिता के प्रति इतना अधिक आग्रह हो उस दौर में यूपीएससी का भ्रम पैदा करने वाला रवैया समझ से परे है। यूपीएससी प्रतियोगी परीक्षाएं आयोजित करता है। परीक्षा में सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि प्रश्नों के उत्तर कितने सही और सटीक तरीके से दिए गए। ऐसा लगता है कि इस मामले में आयोग ने या तो प्रश्न को सही तरह से समझा या फिर समझने के बावजूद उसने सही उत्तर देना जरूरी नहीं समझा।
– डाॅ॰ विजय अग्रवाल
(आप पूर्व प्रशासनिक अधिकारी एवं afeias.com के संस्थापक हैं।)
Note: This article of Dr. Vijay Agrawal was published in “Dainik Jagran” dated 02-July-2019.