बेसिक्स की अवधारणा एवं तैयारी-1

Afeias
15 Dec 2014
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‘‘प्रधान परीक्षा का उद्देश्य उम्मीदवारों के समग्र बौद्धिक गुणों तथा उनके गहन ज्ञान का आकलन करना है, मात्र उनके सूचना के भण्डार तथा स्मरण शक्ति का आकलन करना नहीं। सामान्य अध्ययन के प्रश्न-पत्रोंं के प्रश्नों का स्वरूप तथा इनका स्तर ऐसा होगा कि कोई भी सुशिक्षित व्यक्ति बिना किसी विशेष अध्ययन के इनके उत्तर दे सके। प्रश्न ऐसे होंगे, जिनसे विविध विषयों पर उम्मीदवार की सामान्य जानकारी का परीक्षण किया जा सके और जो सिविल सेवा में कैरियर से संबंधित होंगे। प्रश्न इस प्रकार केे होंगे, जो सभी प्रारम्भिक विषयों के बारे में उम्मीदवारों की आधारभूत समझ तथा परस्पर विरोधी सामाजिक-आर्थिक लक्ष्यों, उद्देश्यों और मांगों का विश्लेषण तथा इस पर दृष्टिकोण अपनाने की क्षमता का परीक्षण करें। उम्मीदवार संगत, सार्थक तथा सारभूत उत्तर दें ।’’

यह यू.पी.एस.सी. का महत्वपूर्ण और यहाँ तक कि सबसे महत्वपूर्ण वक्तव्य है, जिसकी आमतौर पर परीक्षार्थी अनदेखी कर जाते हैं। तभी तो वे दूसरों से अक्सर यह पूछते हैं कि ‘‘हम तैयारी कैसे करें’’ तथा यह भी कि ‘‘इस तैयारी की शुरुआत कैसे करें?’’

संघ लोक सेवा आयोग का यह वक्तव्य सिविल सेवा परीक्षा में बैठने वाले परीक्षार्थियों की तैयारी की दिशा ही नहीं दिखाता है, बल्कि उस दिशा में बने रास्ते पर प्रकाश भी डालता है। यू.पी.एस.सी. के इस कथन में आखिर ऐसा क्या है कि इसे मैं इतना महत्वपूर्ण मान रहा हूँ? मैं बताता हूँ। आप इस अंश में निहित कुछ शब्द और वाक्यों पर गौर कीजिए। इसका एक पक्ष सकारात्मक है और दूसरा पक्ष नकारात्मक। हम जिन्हें सकारात्मक पक्ष के अन्तर्गत शामिल कर सकते हैं, वे हैं-

  • समग्र बौद्धिक गुणों एवं गहन ज्ञान का आकलन करना,
  • सामान्य जानकारी का परीक्षण,
  • प्रासंगिक विषयों की आधारभूत समझ,
  • परस्पर विरोधी सामाजिक-आर्थिक लक्ष्यों, उद्देश्यों और मांगों का विश्लेषण, तथा
    दृष्टिकोण अपनाने की क्षमता।

बहुत स्पष्ट है कि यू.पी.एस.सी. आपसे क्या-क्या अपेक्षाएं कर रहा है। यहाँ न तो शब्दों का मायाजाल है, और न ही किसी तरह की अस्पष्टता ही। हम सरल शब्दों में कह सकते हैं कि यू.पी.एस.सी. इस बात की खुलेआम घोषणा कर रहा है कि हमें विषय के विशेषज्ञ नहीं चाहिए। हमें सामान्यज्ञ चाहिए और ऐसे सामान्यज्ञ चाहिए, जिनके पास विश्लेषण की क्षमता हो और साथ ही अपने मौलिक विचार भी।’

अब हम आते हैं इसके नकारात्मक पक्ष की ओर। इसके अन्तर्गत जो शब्द शामिल किए जा सकते हैं, वे हैं-

  • सूचना के भण्डार का संकलन नहीं,
  • स्मरण शक्ति का आकलन नहीं, तथा
  • बिना किसी विशेष अध्ययन के।

हमारी शिक्षा मूलतः दो बातों पर आधारित है-दिमाग में ढेर सारी सूचनाओं को ठूसना तथा उन्हें कम से कम परीक्षा होने तक अपने दिमाग में सम्हालकर रखना। यू.पी.एस.सी. इस तथ्य को जानता है। इसीलिए उसने साफ-साफ चेतावनी दी है कि उसे इसकी कतई आवश्यकता नहीं है। स्पष्ट है कि वह इससे बचने की बात कर रहा है, ताकि कहीं ऐसा न हो कि परीक्षार्थी इसी के चक्कर में पड़कर अपने जीवनकाल के सर्वोत्तम क्षणों को यूँ ही बर्बाद कर दें।

अब सवाल उठता है कि यू.पी.एस.सी. की इन उम्मीदों पर खरा उतरा कैसे जाए? यह सौ फीसदी बहुत ही संगत और सार्थक सवाल है और मुझे लगता है कि इस बारे में प्रत्येक विद्यार्थी के पास बहुत गहरी और स्पष्ट समझ होनी चाहिए। वैसे तो सिविल सेवा परीक्षा में सफल होने वाला हर उम्मीदवार यही बात कहता है, लेकिन मैं यहाँ वर्ष 2014 के टॉपर गौरव अग्रवाल की बात को रखना चाहूँगा, जिसे उन्होंने बार-बार हर जगह दोहराया है। सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी करने के मंत्र के रूप में उनका वक्तव्य था कि ‘‘विषय के बेसिक्स की अच्छी तैयारी होनी चाहिए।’’ मित्रो, यह वाक्य है बहुत छोटा, लेकिन यह ठीक उसी तरह बहुत शक्तिशाली है, जैसे कि यूरेनियम के एक कण में लाखों टन उर्जा भरी रहती है। हम इस लेख में इसी ‘बेसिक तैयारी’ के विभिन्न आयामों और उसके विभिन्न स्तरों को भिन्न-भिन्न कोणों से समझना चाहेंगे। और मुझे विश्वास है कि यदि आप इसे समझ जाते हैं, तो आपकी यह समझ आपको सिविल सर्वेन्ट बनने के काफी करीब पहुँचा देने में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगी।

सच बताऊँ तो मुझे बहुत आश्चर्य होता है, और काफी कुछ दुख भी, जब मेरे पास इस बारे में मेल आते हैं कि ‘‘सर, बेसिक होता क्या है।’’ जब मैं इसका उत्तर भेज देता हूँ, तो फिर आने वाले मेल इस प्रश्न से संबंधित होते हैं कि ‘‘तो फिर इस बेसिक की तैयारी की कैसे जाती है?’’ यह पढ़कर मैं दंग रह जाता हूँ। दंग इसलिए कि एक विद्यार्थी, जिसने ग्रेज्यूएट किया है और जो आय.ए.एस. के लिए तैयारी कर रहा है, और यहाँ तक कि दो-तीन साल से तैयारी कर रहा है, को यह तक नहीं मालूम कि बेसिक होती क्या है और उसकी तैयारी कैसे की जाती है। तो फिर वह तैयारी कर कैसे रहा है? साथ ही यह भी कि तो वह तैयारी कर किसकी रहा है? जब बहुत ज्यादा मेल आने लगे, तो मुझे लगा कि इसका समाधान किया ही जाना चाहिए। मैंने इस पर लगभग आधे घंटे का एक आॅडियो तैयार करके उसे www.afeias.com पर डाला और इसी क्रम में अब यह लेख यहाँ आपके लिए प्रस्तुत है।

बेसिक का अर्थ
जैसे शरीर में रीढ़ की हड्डी होती है और जैसे किसी भी मकान की नींव होती है, ठीक वैसे ही किसी भी विषय के बेसिक्स होते हैं। भाषा के बेसिक्स की शुरूआत अक्षर ज्ञान से होती है। फिर वाक्य बनाना सीखते हैं। व्याकरण की मदद से आप इसे मजबूत बनाते हैं। समझ लीजिए कि भाषा के बेसिक्स की आपनकी तैयारी हो गई। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं हुआ कि अब आप उस भाषा के विशेषज्ञ ही हो गए। अब आपको अपनी भाषा के ज्ञान को बढ़ाने और गहरा बनाने के लिए अलग से मेहनत करनी पड़ेगी। यहाँ दो बातें सबसे अधिक ध्यान देने की है। पहली बात तो यह कि जब आप अपने भाषा के ज्ञान को बढ़ाएगें, तब आपको उसके बेसिक्स पर कोई मेहनत नहीं करनी होगी। वह तो आपकी चेतना में आॅटोमेटिक तरीके से रच-बस चुकी है। दूसरी बात यह कि यदि आपको बेसिक्स की जानकारी नहीं है, तो फिर आप मेहनत चाहे कितनी भी क्यों न कर लें, भाषा के विद्वान नहीं बन सकते। बेसिक्स के अभाव में भाषा का विद्वान बनने के लिए आपके पास केवल एक ही उपाय बचता है, वह यह कि आप उस भाषा के छोटे-छोटे वाक्यों को रट लें और जरूरत पड़ने पर उनका इस्तेमाल करें। लेकिन सामने वाला तुरन्त समझ जाएगा कि आप रटी हुई टकसाली भाषा बोल रहे हैं।

पहली कक्षा से लेकर दसवीं कक्षा तक हम जो कुछ भी पढ़ते हैं, दरअसल वह सारी पढ़ाई उन विषयों की बेसिक पढ़ाई ही होती है। इसीलिए इसे प्रायमरी एज्यूकेशन कहा जाता है और थोड़ा-सा आगे बढ़ने पर उसे मिडिल का नाम दे दिया जाता है। दसवीं के बाद ही आपको विषयों की कोई एक ब्रांच चुननी पड़ती है। स्पष्ट है कि बेसिक्स और कुछ भी नहीं, दसवीं तक पढ़े गये सभी विषयों की अच्छी समझ का ही दूसरा नाम है।

स्टूडेन्टस् को भ्रम होता कहाँ है? उन्हें भ्रम यह होता है कि ‘‘मैंने तो दसवीं के बाद पांच साल और पढ़ाई की है। तो फिर मुझे बेसिक्स तो आती ही है। बल्कि जरूरत से कुछ ज्यादा ही आती है।’’ सच पूछिए तो यही सच मनोवैज्ञानिक स्तर पर बेसिक्स के प्रति आपकी पकड़ को कमजोर कर देता है। निश्चित रूप से आपने दसवीं तक जो कुछ भी पढ़ा है, यदि वह सब कुछ आपको ज्यों का त्यों याद हो या कि अचानक याद आ जाए, तो इसका अर्थ यह होगा कि आपको बेसिक्स मालूम हैं। दुर्भाग्य से हमारी-परीक्षा प्रणाली बेसिक्स के मालूम होने पर टिकी हुई प्रणाली है। यह बेसिक्स को जानने पर जोर देने वाली प्रणाली है, न कि बेसिक्स की समझ की पड़ताल करने वाली प्रणाली। काश! ऐसा होता, और यदि ऐसा होता, तो आज आपके सामने वह संकट उपस्थित नहीं होता, जिसे आप महसूस कर रहे हैं।

शायद मैं यहाँ थोड़ा अस्पष्ट हो गया हूँ। मेरे कहने का अर्थ यह है कि बेसिक्स न तो याद करने की चीज हाती है और न ही जानने की। सच यह है कि यह समझने की चीज होती है। इसका पढ़ने से केवल इतना ही लेना-देना है कि यदि आप पढ़ेंगे नहीं तो फिर समझेंगे कैसे। मुश्किल यह है कि हम पढ़ने को ही मेहनत करना मान लेते हैं और उसे रट लेने को समझ लेना समझ लेते हैं। जबकि आपने शुरूआत में ही देखा कि यू.पी.एस.सी इसके प्रति आपको खुलेआम सतर्क कर रहा है। लेकिन क्या आप सचमुच में सतर्क हैं?

तो सवाल यह है कि समझना किसे कहते हैं? जी हाँ, ज्ञान का अर्थ मूलतः दिमाग में सूचनाओं केे भण्डार को बढ़ाना नहीं होता, बल्कि सच पूछिए तो उन्हें कम करना होता है, इस सीमा तक कम कर देना कि वहाँ ज्ञान के लिए जगह बन सके। यह ज्ञान बेसिक्स की समझ से आता है। आपको यह महसूस सकता है कि ‘‘तो फिर मैं यह समझूँ कैसे कि मेरे पास सूचना का भण्डार है या ज्ञान की पूंजी?’’ यदि सच में आपके दिमाग में यह प्रश्न आया है, तो इसके लिए मैं आपकी तारीफ करना चाहूँगा, क्योंकि आपके दिमाग में इस प्रश्न का उठना इस बात का प्रमाण है कि आपके दिमाग की जमीन उपजाऊ है और उसमें कुछ भी बोया जा सकता है। मैं आपको इसकी एक कसौटी बताता हूँ। आप इस कसौटी का इस्तेमाल करके इस बात की परख कर सकते हैं कि आपके पास उस विषय की बेसिक समझ है या नहीं।

एक प्रश्न है- निम्नलिखित में से कौन-सी विषुवतीय वनों की अद्वितीय विशेषता@विशेषताएं हैं?
(1) ऊंचे, घने वृक्षों की विद्यमानता, जिनके किरीट निरन्तर वितान बनाते हों।
(2) बहुत सी जातियों का सह अस्तित्व हो।
(3) अधिपादकों की असंख्य किस्मों की विद्यमानता हो।

नीचे दिए गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिए-
(ए) केवल एक (बी) केवल दो और तीन (सी) केवल एक और तीन (डी) एक, दो और तीन।

यहाँ आपके सामने चुनौती यह है कि इस प्रश्न का सीधा-सीधा उत्तर आपको भूगोल की किसी भी किताब में नहीं मिलेगा। तो फिर आप उत्तर देंगे कैसे? जाहिर है कि आपको इसके उत्तर की तलाश करनी पड़ेगी। ऊपरी तौर पर देखने से यह प्रश्न काफी कठिन, कुछ-कुछ उलझावों से भरा हुआ तथा निराश करने वाला मालूम पड़ता है, क्योंकि सूचनाओं से भरा हुआ दिमाग जब अपने भण्डार में इसके उत्तर की तलाश करेगा, तो वह वहाँ इसका उत्तर न पाकर निराश ही होगा। फलस्वरूप या तो आप इसे छोड़ देंगे या फिर गलत कर देंगे। ऐसा करना सबसे आसान है। लेकिन यदि आपको भूगोल की बेसिक्स मालूम हैं, तो बड़ी आसानी के साथ, प्रश्न में दिए गए विकल्पों को केवल एक बारे पढ़ने के बाद ही आप सही उत्तर तक पहुँच जाएँगे। इसका बेसिक क्या है? इसका बेसिक है-विषुवत रेखा के चरित्र को जानना, यह जानना कि यहाँ तापक्रम, आद्र्रता, भौगोलिक स्थिति, भूमि तथा वायु आदि की स्थितियाँ क्या हाती हैं। यदि इन बातों पर आपकी पकड़ है, तो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आपसे पूछा क्या जा रहा है। यदि आपको अक्षांश और देशान्तर रेखाओं के चरित्र का ज्ञान है और यािद आपने भूगोल को विज्ञान की तरह पढ़ा है (जो विज्ञान ही है) यदि तो आपसे यह भी पूछ लिया जाए कि ‘‘एक स्थान, जो 22.5 अंश उत्तरी अक्षांश तथा 78.75 अंश पश्चिमी देशांतर पर स्थित है, उसकी आर्थिक स्थिति पर दो सौ शब्दों में एक लेख लिखें’’, तो आप लिख लेंगे। लेकिन आपको लिखने के लिए सोचना पड़ेगा और सोचने के लिए भूगोल की बेसिक समझ ही आपकी मदद करेगी। दूसरा कोई उपाय आपके पास नहीं है।

यहाँ मैं आपको एक पैमाना बता रहा हूँ। पैमाना यह है कि यदि आप अपने पढ़े गए विषय को अपने आसपास होने वाली घटनाओं पर एप्लाय कर सकते हैं, तो आप समझ लीजिए कि आपको उस विषय की बेसिक जानकारी है। उदाहरण के लिए सन 2014 के समाजशास्त्र के पेपर में एक प्रश्न पूछा गया ‘‘सामाजिक परिवर्तन के चलते समाजों द्वारा अनुभूत संघर्षों एवं तनावों को सोदाहरण स्पष्ट कीजिए।’’ प्रश्न बहुत सरल है और शायद इसीलिए सबसे अधिक कठिन भी है। इसका हल क्या है? हल बहुत सरल है। सरल इस मायने में कि यदि आपको समाज में होने वाले परिवर्तन की प्रक्रिया मालूम है, तो आप इसे हल कर लेंगे और बहुत अच्छी तरह हल कर लेंगे। अन्यथा मुश्किल हो जाएगी और यदि आपने उत्तर लिखा भी, तो वह एक प्रकार से सतही उत्तर होगा, जिसके लिए यू.पी.एस.सी. आपको नम्बर नहीं देती है।

अब मैं यहाँ एक बहुत महत्वपूर्ण तथ्य की स्थापना करना चाहूँगा और यह महत्वपूर्ण तथ्य किसी भी विषय के प्रति आपके नजरिए से है। किसी भी विषय के प्रति आपका दो में से कोई एक नजरिया हो सकता है। पहला नजरिया विषय को स्थैतिक यानी कि मृत मानने का नजरिया है और दूसरा उसे निरन्तर गतिशील अर्थात जीवन्त मानने का नजरिया है। 95 प्रतिशत विद्यार्थी किसी भी विषय को एक मृत विषय की तरह लेते हैं, जो केवल किताबों में कैद होता है। उनके लिए यह समझ पाना मुश्किल होता है कि दरअसल किताबों में कैद विषय एक जीवन्त समाज के सिद्धान्तों का लेखा-जोखा होता है। विषय चाहे कोई भी क्यों न हो, वे या तो प्रकृति से जुड़े होते हैं या समाज से। और न तो प्रकृति मृत होती है न समाज ही। इनमें न केवल सतत रूप से परिवर्तन ही होते रहते हैं, बल्कि आपस में अन्तक्र्रियाएं (इंटरेक्शन) भी चलती रहती हैं। आखिर आप स्वयं सोचिए कि किसी भी विषय का जन्म और विकास कैसे हुआ है? उत्तर बहुत स्पष्ट है कि जो कुछ भी प्रकृति और समाज में हो रहा है, उसका अवलोकन करने के बाद जब लगा कि ऐसा-ऐसा करने से ऐसा-ऐसा होता है, तो उसे ही किताबों में दर्ज कर दिया गया और वह उस विषय की किताब बन गई। मुझे लगता है कि यदि यह बात स्टूडेन्टस् के दिमाग में उसी समय बैठा दी जाए, जब वह प्रायमरी स्कूल में है, तो इसका एक चामत्कारिक प्रभाव हो सकता है। इसका असर यह होगा कि विद्यार्थी जो कुछ भी पढ़ेगा, वह अपने पढ़े हुए को समाज और प्रकृति में होता हुआ देखना शुरू कर देगा। इसके बाद एक ऐसी स्थिति आएगी कि वह समाज और प्रकृति में होता हुआ देख तो रहा है, लेकिन उसे इसके उत्तर किताब में नहीं मिल रहे हैं। तब उसके अन्दर उसका उत्तर पाने कि बैचेनी पैदा होगी और उत्तर पाने की यही बैचेनी उससे किसी न किसी उत्तर की खोज करवा लेगी। ऐसा नहीं था कि न्यूटन के द्वारा गुरूत्वाकर्षण की खोज करने से पहले सेब वृक्ष से टूटकर आसमान की ओर जाते थे। सेब पृथ्वी पर ही क्यों गिरते हैं, इसी के उत्तर की तलाश नेे न्यूटन को वैज्ञानिक बना दिया।

मित्रो, सिविल सर्वेन्ट बनने के लिए आपको वैज्ञानिक बनने की जरूरत तो नहीं है, लेकिन कहीं न कहीं समाज-वैज्ञानिक बनने की जरूरत तो है ही। परीक्षा में आपसे प्रश्न पूछे जाएंगे और उन प्रश्नों के ज्यों के त्यों जवाब आपको किताबों में नहीं मिलेंगे। तब आपको उत्तर पाने की बैचेनी होगी और यही बैचेनी आपसे एक मौलिक उत्तर की रचना करवा लेगी। यही समाज-वैज्ञानिक का होता चरित्र है और इसे ही यू.पी.एस.सी. ने ‘दृष्टिकोण अपनाने की क्षमता’ कहा है। यहाँ पैमाना यह हुआ कि जब आप अपने पढ़े हुए विषय को समाज में होने वाली घटनाओं पर एप्लाय करने की क्षमता हासिल कर लें, तो समझ लें कि ‘‘मुझे उस विषय की बेसिक मालूम है।’’

बेसिक के चरण
मुझे ऐसा लगता है कि किसी भी विषय के साथ हमारे मस्तिष्क के निम्न चार प्रकार के संबंध होते हैं-

  • पहली वह स्थिति है, जब हम कुछ भी पढ़ते हैं, सुनते हैं और देखते हैं, किन्तु हमारे मस्तिष्क में उससे संबंधित कोई प्रश्न नहीं उठते। यानी कि हम उन सारी स्थितियों को ज्यों का त्यों स्वीकार कर लेते हैं।
  • दूसरी स्थिति वह होती है, जब अपने आसपास की घटना तथा बातचीत को देख-सुनकर मन में प्रश्न तो उठते हैं, लेकिन उनके उत्तर नहीं सूझते। यह पहले की तुलना में थोड़ी बेहतर क्वालिटी के मस्तिष्क का प्रमाण है। चलो कम से कम प्रश्न तो उठे। यह एक अच्छी शुरूआत है।
  • तीसरी स्थिति इससे थोड़ी आगे की स्थिति होती है। पढ़ने, देखने और सुनने के बाद मन में प्रश्न उठते हैं। उत्तर भी मिल जाते हैं, लेकिन उसके लिए जद्दोजहद करनी पड़ती है। सोचना पड़ता है और सोचने में समय लगता है। लेकिन कम से कम उत्तर तो मिल जाते हैं।
  • चैथी और सर्वोत्तम स्थिति वह होती है, जब देखने, सुनने और पढ़ने के बाद मन में तड़ाक से प्रश्न उठते हैं और फटाक से उसके उत्तर भी मिल जाते हैं। यह सब कुछ इतना जल्दी हो जाता है, मानो कि दिमाग में कोई आॅटोमेटिक मशीन लगी हुई हो।

यदि आप एक बार भी सिविल सेवा परीक्षा में बैठे हों, और खासकर मुख्य परीक्षा देने का अवसर मिला हो, तो आपको मेरे इस प्रश्न का उत्तर देने में कोई कठिनाई नहीं होगी कि इन चारों स्थितियों में से वह कौन-सी स्थिति है, सिविल सेवा में सफलता के लिए जहाँ तक आपको पहुँचना होगा? जहिर है कि वह स्थिति चैथी स्थिति होती है और यही स्थिति मस्तिष्क की सर्वोत्तम स्थिति होती है। तो आपको बेसिक की समझ है या नहीं और यदि है भी तो वह कितनी है, इसका एक पैमाना यह भी हो सकता है कि किसी प्रश्न को पढ़ने के बाद आप आपके मस्तिष्क में इन चार स्थितियों में से कौन-सी स्थिति बनती है। यह केवल मूल्यांकन के लिए है। जहाँ तक सिविल सेवा में सफलता की बात है, तो वह आपको अन्ततः चैथी स्थिति तक पहुँचने के बाद ही मिल पाएगी। हाँ, यह जरूर है कि आप इस चैथी स्थिति तक पहले, दूसरे और तीसरे चरण को क्रमशः पार करने के बाद ही पहुँच सकेंगे।

मित्रो, इस लेख को अब मैं यहीं समाप्त कर रहा हूँ। यह पूरा नहीं हुआ है, क्योंकि अभी आपके दिमाग में यह कुलबुलाहट तो पैदा हो ही गई होगी कि ‘‘तो फिर बेसिक्स की तैयारी की कैसे जाए।’’ इसके बारे में हम अगले अंक में बातें करेंगे।

NOTE: This article was first published in ‘Civil Services Chronicle’.

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