पहला कदम-मानसिक मजबूती
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यदि आपने आई.ए.एस. बनने का फैसला कर ही लिया है, तो देश के इस सबसे बड़े और काफी कुछ कठिन दंगल में आपका स्वागत है। मेरी शुभकामनाएं भी हैं, और ईश्वर से आपके लिए प्रार्थना भी है कि वह लम्बे समय तक आपके धैर्य, आपके आत्मविश्वास और आपके जोश को बनाए रखे, क्योंकि ये बातें इसके लिए बहुत जरूरी होती हैं।
फिर भी, इससे पहले कि मैं आपको यह बताऊं कि आप आई.ए.एस. कैसे बन सकते हैं, मैं आपसे एक प्रश्न पूछने की, बहुत ही जरूरी और मूलभूत प्रश्न पूछने की इजाजत चाहूँगा। मैं आपसे यह प्रश्न इसलिए पूछना चाह रहा हूँ, क्योंकि मैंने आई.ए.एस. के विद्यार्थियों का मार्गदशन करने के अपने लम्बे अनुभव में यह पाया है कि हमारे नौजवान जोश में आकर पर्याप्त सोचे-समझे बिना ही इस दंगल में कूद पड़ते हैं, और कुछ सालों तक पटखनी खाने के बाद पस्त होकर इससे बाहर आ जाते हैं। इसलिए मुझे लगता है कि इस प्रतियोगिता में उतरने से पहले प्रत्येक स्टूडेन्ट को खुद से वह प्रश्न करना ही चाहिए, जो अभी मैं आपसे पूछने जा रहा हूँ।
मैं आपसे यह पूछने कतई नहीं जा रहा हूँ कि ‘आप आई.ए.एस. क्यों बनना चाहते हैं?’ इसके वही घीसे-पीटे उत्तर सुनते-सुनते मेरे कानों ने अपना धैर्य खो दिया है। वैसे भी चाहे आप पावर्स के लिए बन रहे हों आई.ए.एस., या सोशल स्टेटस के लिए या शान- शौकत और लालबत्ती वाली गाड़ी के लिए, इससे आपकी तैयारी का कुछ भी लेना-देना नहीं है। आप किसी भी नौकरी में जाने की सोचें, उसमें कुछ न कुछ तो ऐसा होता ही है, जो आपको आकर्षित करता है। तभी तो आप वहाँ जाना चाहते हैं, बशर्ते कि जाना आपकी मजबूरी न हो। हाँ, आई.ए.एस. इस मायने में अभी भी सबसे अलग इसलिए है, क्योंकि इसमें ढेर सारे आकर्षण हैं। सच पूछिए तो आकर्षण ही आकर्षण हैं। इसलिए यदि इस देश के अधिकांश स्टूडेन्ट इसमें जाना चाहते हैं, तो मैं इसे गलत नहीं मानता। हाँ, अब यह बात अलग है कि यदि हम राष्ट्र के परिपेक्ष्य में सोचें, तो एक डॉक्टर का या एक इंजीनियर का आई.ए.एस. में जाना हमारी राष्ट्रीय हानि है, क्योंकि देश ने उसे डॉक्टर या इंजीनियर बनाने में जो खर्च किया है, उसका उसे कोई फायदा नहीं मिल सकेगा। आई.ए.एस. तो कोई भी बन सकता है, लेकिन डॉक्टर-इंजीनियर हर कोई नहीं बन सकता। फिर भी जब तक यूपीएससी ने इसमें शामिल होने की इजाजत दे रखी है, तब तक आपका भी, यानी कि डॉक्टर्स और इंजीनियर्स का भी इस दंगल में स्वागत है।
तो अब मैं आता हूँ, अपने इस मूल सवाल पर, जो मैं आपसे पूछना चाहता हूँ, और चाहता हूँ कि आप मेरे इस सवाल का जबाव पूरी गम्भीरता के साथ दें, और काफी विचार करने के बाद दें। तो मेरा सवाल यह है कि “आपने अपने आप में ऐसा क्या देखा है कि आपको लगा कि आप एक आई.ए.एस. अफसर बन सकते हैं?” बस एक यही छोटा सा सवाल।
इससे पहले कि आप इस लेख को आगे पढ़ना शरू करें, आपको चाहिए कि आप अपना उत्तर ढूँढ लें। दूसरे के उत्तर से आपका काम नहीं चलेगा। इस रास्ते पर, आई.ए.एस. के रास्ते पर आगे बढ़ने के लिए और आगे बढ़ते ही रहने के लिए आपको खुद के उत्तर की जरूरत पड़ेगी।
मैं जब मेरे पास आए या फोन पर मार्गदर्शन माँग रहे युवाओं से यह प्रश्न करता हूँ, तो पहले तो उन्हें यह प्रश्न ही समझ में नहीं आता। दरअसल वे इस प्रश्न को सुनकर सन्नाटे में आ जाते हैं, क्योंकि उनसे कभी किसी ने इस तरह का उटपटांग प्रश्न किया ही नहीं था। हर एक से वे अब-तक यही सुनते आ रहे थे कि ‘तुम कुछ भी कर सकते हो।’ दरअसल, कोई कुछ भी कर सकता है, यह एक आदर्शवादी उपदेश है, और उकसाकर काफी कुछ मिसगाइड करने वाला भी। मैं यह बिल्कुल नहीं मानता कि ‘कोई कुछ भी कर सकता है।’ हाँ, यह जरूर मानता हूँ कि ‘ऐसा कोई नहीं है, जो कुछ भी न कर सकें। हरेक के पास कुछ न कुछ करने की क्षमता जरूर होती है, लेकिन सब कुछ करने की नहीं। मैंने इसीलिए आपसे यह प्रश्न किया है, ताकि इस सवाल का फैसला यहीं पर हो जाए कि कहीं आप भी इसी तरह के किसी उकसावे में तो नहीं आ गए हैं।
बहुत सोचने-विचारने के बाद और कुछ ने तत्काल ही जो उत्तर दिए, उनमें से कुछ प्रमुख उत्तर इस प्रकार थे-
मैं थ्रू-आउट फर्स्ट क्लास रहा हूँ। इसलिए मुझे लगता है कि मैं यह कर लूंगा।
मैं खूब मेहनत कर सकता हूँ।
लोग कहते हैं कि तुम्हारी याददास्त बहुत अच्छी है। तुम आई.ए.एस. बन सकते हो।
मुझे यह करना ही है, क्योंकि मेरे पापा-मम्मी चाहते हैं, और मैं उन्हें निराष नहीं करना चाहता, चाहे कुछ भी क्यों न हो जाए।
मैं रट्टा मारने में माहिर हूँ। मैं कुछ भी रट सकता हूँ, यहाँ तक कि मैथमैटिक्स तक।
मैंने कसम खा रखी है कि मुझे यह करना ही है।
दोस्तो, कुछ इसी तरह के उत्तर बदले हुए शब्दों में मुझे मिलते रहते हैं, और मुझे यह लिखते हुए अफसोस हो रहा है कि ये उत्तर मुझे संतुष्ट नहीं कर पाते, और मुझे अपने उन नौजवान साथियों से कहना पड़ता है कि “तुम अपने उद्देश्य के बारे में एक बार फिर से सोचो।” ऐसा इसलिए, क्योंकि इनमें से कोई भी गुण ऐसा नहीं है, जो आपको आई.ए.एस. बना सकेगा और न ही इनमें से कोई गुण ऐसा है, जिसके न रहने पर आप आई.ए.एस. नहीं बन सकेंगे। आप परेशान न हों, मेरे इस कथन को पढ़कर। आगे चलकर आप अच्छी तरह जान जाएंगे कि तो फिर आई.ए.एस. बनने के लिए चाहिए क्या।
अब मैं आपके सामने कुछ जीती-जागती कहानियां पेश करने जा रहा हूँ, ताकि आप अपनी यात्रा को शुरू करने से पहले, या यदि यात्रा शुरू कर चुके हों, तो उसे खत्म करने से पहले अपना सही-सही मूल्यांकन कर सकें कि आप आई.ए.एस. के इस रास्ते पर चलने वाले किस तरह के राहगीर हैं। यह मूल्यांकन आपके सामने आपके यथार्थ को, आपकी सच्चाई को प्रस्तुत करके आपको अधिक स्पष्ट और ठोस बनाएगा। इससे अंततः आपको फायदा ही होगा।
मेरे पास एक लड़का आया- स्मार्ट, जोशीला और पढ़ने-लिखने में काफी कुछ ठीक-ठाक सा ही। वह मुझसे जानने आया था कि आई.ए.एस. की तैयारी कैसे करनी चाहिए। जब मैं उसे तैयारी करने के कुछ सूत्र बता रहा था, उसी दौरान वह बार-बार यह कहे जा रहा था कि ‘सर, इसके लिए मुझे कुछ भी क्यों न करना पड़े, मैं करूंगा। यहाँ तक कि मैं अपना सर तक कटवा सकता हूँ। मुझे यह बनना है।”
मैंने उसे एक महिने बाद फिर से आने को कहा, और वह आ गया। बात की शुरुआत उसने इस प्रश्न से की, ‘सर मैंने सुना है कि आई.ए.एस. अफसरों की तनख्वाह कुछ ज्यादा नहीं होती।’ मैंने कहा, ‘तुमने ठीक सुना है।’ उसका अगला प्रश्न था, ‘सर, मैंने यह भी सुना है कि उनके ट्रांसफर भी काफी जल्दी-जल्दी होते रहते हैं, जिसके कारण उनके बच्चों की पढ़ाई ठीक से नहीं हो पाती।’ उसकी यह बात भी ठीक थी। तीसरा प्रश्न उसने थोड़ा सकुचाते हुए किया कि ‘सर, क्या यह सही कि एमपी एमएलए जैसे लोग कलेक्टर को डॉटकर चले जाते है।’ मैंने कहा कि हमेशा तो ऐसा नहीं होता है, लेकिन मैं यह भी नहीं कह सकता कि ऐसा हो ही नहीं सकता।’
इतनी बातचीत के बाद अब आप उस नौजवान का फाइनल उत्तर सुनिए, जो एक महिना पहले आई.ए.एस. बनने के लिए अपनी गर्दन तक कटवाने को तैयार था। ‘तो सर मैं सोच रहा हूँ कि जब आई.ए.एस. बनने के बाद भी इतनी सारी झंझटें रहेंगी, तो फिर बनने से फायदा ही क्या है।’ मैंने उसके निर्णय का सम्मान करते हुए उससे मुक्ति पा ली, क्योंकि उसको आई.ए.एस. बनाया ही नहीं जा सकता था।
एक लड़की थी। एम बी बी एस के आखिरी साल में थी। उसका दावा था कि ‘मैं फर्स्ट अटैम्प में ही क्वालीफाई करूंगी, और वह भी टॉप टेन के रैंक के साथ।’ मैं उसके इस उबाल में पानी के छींटें डालता, किन्तु बेकार। दुर्भाग्य से तीन अटैम्प देने के बाद चौथा उसने न देने का फैसला किया। लेकिन सबसे दुर्भाग्यजनक बात उसकी यह रही कि वह प्रारम्भिक परीक्षा तक क्वालीफाई नहीं कर पाई।
एक लड़के ने बीए तक की अपनी सभी परीक्षाएं कम्पार्टमेंट के साथ पास की थी। फिर भी उसे लगता था कि वह आईएएस कर सकता है, क्योंकि उसने सुन रखा था कि इसे कोई भी कर सकता है। और मजेदार बात तो यह है कि उसे अपने सुने हुए पर न केवल विश्वास ही था, बल्कि उसने उस पर चलना भी शुरू कर दिया था। अच्छा हुआ कि सच्चाई को जानने में उसने अपनी जिन्दगी के दो साल से अधिक नहीं गवाएं। अब उसने अपना रास्ता बदल दिया था।
स्टूडेन्ट्स को भाषा नहीं आती। जो आती भी है, वह शुद्ध रूप से गलत होती है। वे ग्रेजुएट हो गए हैं। लेकिन किसी भी विषय का उन्हें कोई भी और कुछ भी ज्ञान नहीं है। यहां तक कि उन्हें आईएएस परीक्षा की पद्धति तक नहीं मालूम। और ऐसे विद्यार्थी फैसला कर बैठे होते हैं कि “मैं आईएएस बनुँगा।” और दुखद बात यह है कि वे इस दुष्चक्र में फँसकर अपने जीवन के सबसे कीमती तीन-चार साल बर्बाद भी कर देते हैं।
मैंने अभी तक जितने भी लोगों को आईएएस के लिए गाइड किया, उनमें से कितने इसके लायक थे, इसका कोई विशेष मतलब नहीं है। मतलब तो इस बात का है कि उसमें से कितनों ने स्वयं को इसके लायक बनाया, और यही सब कुछ है। मेरा यह मानना है कि ‘लायक कोई होता नहीं है। लायक बनना पड़ता है।’ इसमें प्रथम श्रेणी वाले रह जाते है, क्योंकि वे स्वयं को इसके लायक समझने की गलतफहमी में रहते है। जबकि सेकेन्ड डिविज़नर और यहाँ तक कि थर्ड डिविजनर तक बाजी मार ले जाते हैं, क्योंकि वे जानते है कि “मैं इसके लायक नहीं हूँ, और मुझे इसके लायक बनना है।”
हाँ, मैं इस बात का जवाब जरूर दे सकता हूँ कि कितने प्रतिषत लोगों ने स्वयं को इसके लायक बनाया? मेरा उत्तर आपको निराश ही करेगा, क्योंकि यह एक प्रतिशत का भी आधा है। जी हाँ, अधिक से अधिक आधा प्रतिशत यानी कि दो सौ विद्यार्थियों में ज्यादा से ज्यादा एक विद्यार्थी, और इस एक विद्यार्थी का सफलता पक्की होती है।
मैं जानता हूँ कि आपको मेरे इस आँकड़े पर यकीन नहीं आएगा, और आप इसे मेरे द्वारा अपने पक्ष में पेश किया गया एक खूबसूरत तर्क समझ सकते हैं, क्योंकि सफलता का प्रतिशत भी तो लगभग यही रहता है। लेकिन आपको मुझ पर विश्वास करना ही चाहिए। उदाहरण के लिए मेरा यह मानना है कि आईएएस की परीक्षा की सबसे बड़ी और कड़ी चुनौती होती है-सटीक उत्तर लिख पाना। मैंने लड़कों को (इनमें लड़कियां भी स्वयं को शामिल समझें) प्रश्नों को समझने और उनके उत्तर लिखने का ढँग बताने के बाद उनसे जोर देकर कहा, और न करने पर बार-बार याद भी दिलाया कि वे मुझे कुछ उत्तर लिखकर दिखाएं, ताकि मैं उनके उत्तरों का मूल्यांकन करके उन्हें सही तरीके से गाइड कर सकूं। आपको शायद विष्वास नहीं होगा कि इसका प्रतिशत तो आधे का भी आधा रहा। वे स्वयं को उत्तर लिखने की ज़हमत में डालना नहीं चाहते थे। हांलाकि वे जानते थे कि उनके उत्तर लिखने में काफी खामियां हैं। फिर भी उन्हें लगता था कि परीक्षा में वे अच्छा कर लेंगे। उनके इस लगने का तार्किक आधार क्या था, वे खुद नहीं जानते। लेकिन प्रैक्टिस करके अपनी इस कमी को दूर करना उन्हें गँवारा नहीं हुआ। मैं अपने विद्यार्थियों से कहता हूँ कि वे रोजाना रेडियो पर समाचार सुना करें। किन्तु इसे निभा पाने की अधिकतम अवधि डेढ़ माह की ही रही है। वे किसी न किसी बहाने की आड़ लेकर न्यूज सुनने से बचना चाहते हैं। यही लगभग अखबारों के साथ भी होता है।
मैं उनसे कहता हूँ कि इसके लिए रोजाना पौन घंटा पर्याप्त है। केवल महत्वपूर्ण खबरों को पढ़ो, और फिर उस पर भिन्न-भिन्न कोणों से सोचों। इस मामले में वे मुझसे आगे निकल जाते है। अखबारों को वे रोजाना दो घंटे से भी अधिक देते हैं। बाद में उनसे पूछिए कि ‘तुमने क्या पढ़ा’, तो उनके पास बताने के लिए कुछ विशेष नहीं होता है, क्योंकि वे थोड़ा-थोड़ा सब कुछ पढ़ते है। किसी भी एक का सब कुछ नहीं पढ़ते। फलस्वरूप वे कुछ भी नहीं पढ़ते।
कुल मिलाकर यह कि वे पूछते हैं कि हम तैयारी कैसे करें? उन्हें वह तरीका भी बताया जाता है, जो होना चाहिए। वे सुनते हैं। उन्हें अच्छा लगता है। वे प्रभावित भी होते हैं। लेकिन करते वे वही हैं, जो वे अब तक करते रहे हैं। यदि कुछ दिनों तक मेरी बात मान भी लेते हैं, तो कुछ दिनों बाद अपने ही ढर्रे पर लौट लगते हैं। ऐसे लोग एक-दो नहीं होते। सच्चाई तो यह है कि एक-दो लोग ही ऐसे होते है, जो ऐसे नहीं होते। अब ऐसों का भला आप क्या करेंगे?
मैंने यह महसूस किया है, और बिल्कुल भी गलत महसूस नहीं किया है कि आईएएस की तैयारी करना आज कैरियर का विकल्प नहीं, बल्कि जीवन का एक फैषन बन गया है, तथा सबसे सम्मानजनक फैषन। जब कोई पूछता है कि ‘तुम आजकल क्या कर रहे हो?’ तो यह बताने में सीना थोड़ा फूल जाता है कि ‘आईएएस की तैयारी कर रहा हूँ।’ जबकि ज्यादातर लोग तैयारी के बहाने टाइम पास कर रहे होते हैं, क्योंकि उन्हें मालूम ही नहीं रहता है कि तैयारी करनी कैसे चाहिए। यदि इन्हें बताया भी जाए, तो ये सुनेंगे सबकी, किन्तु करेंगे अपने मन की ही।
मुझे लगता है मित्रों कि जब आप यह सोचंे कि ‘मुझमें ऐसा क्या है कि मैं आईएएस बन जाऊंगा’, तो आपको अपने अन्दर उसी तत्व की तलाश करनी चाहिए कि आप स्वयं को इसके अनुकूल कितना ढाल सकते हैं। आप जो हैं, वह तो हैं ही। हो सकता है कि आपका मैटल आईएएस से भी बेहतर हो। लेकिन इस बात को कतई न भूलें कि ‘जहाँ सुई की जरूरत होती है, वहाँ तलवार व्यर्थ है।’ आपको स्वयं को आईएएस के अनुकूल बनाना होगा।
तो ऐसा कैसे है संभव? यह संभव है मानसिक ठोसपन से, विचारों की दृढ़ता से, और ठानकर उस पर डॅटे रहने की क्षमता से। ठानने की क्षमता तो बहुतों में देखी है मैंने, लेकिन ठानकर उस पर डटे रहने वालों की गिनती उंगलियों पर ही होती है। मैं यह मानता हूँ कि जो ठान सकता है, और ठानकर उस पर अमल कर सकता है, वह कुछ भी कर सकता है, फिर चाहे वह र्थर्ड डिविज़नर ही क्यों न हो।
मानसिक मजबूती के बिना आईएएस की तैयारी न केवल दूर का एक सपना ही होगा, बल्कि यदि एकदम असंभव नहीं तो बहुत कठिन जरूर हो जाएगा। इसके अभाव में, मानसिक मजबूती के अभाव में आपका दिमाग ‘बहानों की उपज-स्थली’ बन जाएगा और आप हर उस काम को टालने लगेंगे, जिन्हें किया जाना जरूरी होता है। उदाहरण के लिए एक लड़की ने मुझसे पूछा कि ‘सर, आपकी क्लास कहाँ लगती है?’ मेरे बताने के बाद उसका उत्तर था कि ‘सर, मैं तो ज्वाइन नहीं कर सकती।’ क्या आप जानना चाहेंगे कि क्यों? इसलिए नहीं कि उसके लिए फीस ज्यादा थी, या उसके पास टाइम नहीं था, या उसे क्लास की जरूरत नहीं थी। कारण केवल यह था कि मेरी क्लास और उसके घर के बीच तीन किलोमीटर का फासला था। अब आप इसे क्या कहेंगे?
नई दिल्ली में मैं हर महिने लड़कों को तीन दिन का मार्गदर्षन देने लगा, पूरे तीन दिन का कि उन्हें आईएएस की तैयारी करनी कैसे चाहिए। पूरे देश के विद्यार्थी इसमें आने लगे। बहुत से लोग मुझसे फोन करके पूछते कि ‘सर, आपकी अगली क्लास कब लगेगी?’ मैं यह जानते हुए भी कि मेरी अगली क्लास अगले महिने लगने वाली है, मैं उनसे कहता था, ‘मुझे मालूम नहीं’, क्योंकि मैं जानता था कि अगले महिने भी उनका फिर से यही प्रष्न होगा कि “सर, आपकी अगली क्लास कब लगेगी?” क्या इस तरह के प्रश्नों के सिलसिले का कोई अंत होता है? कभी नही।
आइडेंटीफाइ कीजिए, पहचानिए कि वह कौन है, जो आपसे इस तरह की बातें करवाता है, जैसे कि उस लड़की ने की और जो अक्सर ज्यादातर लड़के करते हैं। मुष्किल नहीं है इसे पहचानना। बहुत जरूरी है इसे पहचानना, अन्यथा यह आपको हमेषा गच्चे देता रहेगा। आपको लगेगा कि आप वह सब कुछ कर रहे हैं, जो किया जाना चाहिए। जबकि आप कर वह रहे होते है, जो आप करना चाहते हैं। इन दोनों में बहुत फर्क हैं- ‘जो होना चाहिए’ में तथा ‘जो मैं चाह रहा हूँ कि होना चाहिए’ में और यही फर्क आपकी सफलता और असफलता का निर्धारण करता है। आईएएस की परीक्षा को इस बात से तनिक भी लेना-देना नहीं है कि आप क्या चाहते हैं। वह तो केवल यह जानता है कि ‘वह क्या चाहता है’।
तो विष्वास कीजिए कि यूपीएससी (जो आईएएस की परीक्षा लेती है) के चाहने और आपके चाहने के बीच न केवल एक खाई ही है, बल्कि एक टकराव भी है। इस खाई को, इस टकराव को केवल मानसिक मजबूती से ही दूर किया जा सकता है। मुझे अन्य कोई रास्ता दिखाई नहीं देता।
जब एक बार आपके पास यह मानसिक मजबूती आ जाती है, तो विष्वास कीजिए कि आपके अन्दर अपने-आप ही कुछ ऐसा घटने लगता है, होने लगता है कि आप स्वयं को अपने लक्ष्य के करीब महसूस करने लगते हैं। सच यह है कि रहस्य का सिद्धांत काम करने लगता है, और आप पाते हैं कि आपके चारों तरफ का वातावरण धीरे-धीरे आपके अनुकूल होने लगा है। इसी बात को लेखक पाएलो कोएलो ने अपने उपन्यास ‘दि अलकेमिस्ट’ में इस तरह कहा है कि ‘पूरी कायनात आपको सफल बनाने के लिए षडयंत्र रचने लगती है।’ अन्यथा तो आपको यही लगता है कि सब कुछ उल्टा-पुल्टा हो रहा है, और पूरी दुनिया आपकी दुश्मन बनी हुई है।
नोट:- यह लेख सबसे पहले ‘सिविल सर्विसेज़ क्रॉनिकल’ पत्रिका में प्रकाशित हो चुका है।