मानसिक मजबूती का जादू

Afeias
12 Jan 2014
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पिछले महिने की ‘सिविल सर्विसेज क्रॉनिकल’ में प्रकाशित इस श्रंखला के पहले ही लेख पर मेरे प्रिय प्रतियोगी पाठकों की जो जबर्दस्त प्रतिक्रिया मिली, उसने मेरे इस विश्वास को और भी मजबूत बनाया कि मेरी उंगलिया उनके सही नब्ज पर है। यकीन कीजिए कि शुरुआत करनी ही पड़ती है मानसिक मजबूती के साथ, जबकि अधिकांश लोग शुरुआत करते हैं किताबों के साथ। इस धारणा को तोड़ना आसान नहीं है। हाँ, आपको पूरी तैयारी कैसे करनी चाहिए, इस कॉलम से धीरे-धीरे पता चलता रहेगा।

मेरे पास फोन आए, बहुत-बहुत फोन आये और उनमें से लगभग 95 प्रतिशत परीक्षार्थी मुझसे यही पूछते थे कि ‘सर, बताइये कि तैयारी कैसे शुरु करें?’ मुझे दुख है कि लेख को भरपूर सहारने के बाद भी एक ने भी यह प्रश्न नहीं किया कि ‘सर, क्या इस मानसिक मजबूती के लिए भी कोई तरीका है?’ यही होता है। अच्छा लगना एक बात है, उस पर विशवास करना अलग बात है, और विष्वास करके उसे अमल में लाना बिल्कुल ही अलग बात होती है। आप देखें कि मेरे लेख आपको इन तीन स्तरों में से किस स्तर तक ले जाने में सफल हो पा रहे हैं।
मैं एक उदाहरण देना चाहूँगा। मेरे पास एक विद्यार्थी का फोन आया कि ‘सर, मैंने क्रॉनिकल में आपका एडवरटाइजमेंट पढ़ा है।’ मैंने उसे तुरंत रोका ‘मैंने तो कोई विज्ञापन नहीं दिया है क्रॉनिकल में।’ ‘सर, दिया है न आपने। मैंने स्टेटमेंट पढ़ा है, और अभी-अभी पढ़ा है।’ मुझे फिर से कहना पढ़ा कि ‘‘मैंने कोई स्टेटमेंट भी नहीं दिया है उसमें। शायद आपको कोई गलतफहमी हुई है।’’ ‘‘सर, आप डॉ. विजय अग्रवाल ही बोल रहे हैं न?’’ मेरे ‘हाँ’ कहने पर उधर से आवाज आई, ‘‘सर, क्रॉनिकल में आपका दो पेज का स्टेटमेंट मैंने पढ़ा है, और पत्रिका अभी मेरे सामने ही रखी हुई है।’’ मैं तो शुरु में ही उस विद्यार्थी की मानसिक संरचना को समझ चुका था। ‘‘अच्छा तो तुम उस लेख के बारे में कह रही हो। लेकिन वह तो तीन पेज का है।’’ ‘‘हाँ सर, मेरे कहने का मतलब वही था।’’ बात खत्म हो गई।
अधिकांष परीक्षार्थियों के पढ़ने का और बताने का ढंग कुछ ऐसा होता है कि उन्हें उसका समापन इस वाक्य के साथ करना पड़ता है कि ‘‘मेरे कहने का मतलब वही था।’’ जी नहीं, आईएएस बनने के लिए ‘मतबल था’, और ‘मतलब है’ कहने वाले मस्तिष्क नहीं चाहिए। देश के सर्वोच्च प्रशासन को ऐसा मजबूत मस्तिष्क चाहिए जो जो कुछ देखे, उसे वैसा ही समझे और जैसा समझे, उसे वैसा ही बता सके। हिलते हुए पानी पर चेहरे की परछाई साफ नहीं बनती है। उसके लिए थमा हुआ पानी चाहिए। मजबूत मस्तिष्क यही काम करता है, और एक जादू की तरह करता है। यह जादू मनोविज्ञान का जादू है।
तो आइए, अब मैं बताता हूँ कि जब आप एक बार फैसला कर लेते हैं, और उस पर अडिग हो जाते है, खासकर आईएएस की तैयारी करने का फैसला (बनने का फैसला नहीं), तो आपके साथ क्या-क्या होता है-
1. सबसे बड़ी और महत्वपूर्ण बात यह होगी कि आपके दिमाग में बहानेबाजी के सारे तरह के खर-पतवार झाड़-झंखाड़ उगने और पनपने बंद हो जायेंगे? बस एक ही बात दिमाग में रहेगी कि ‘करना है, तो करना है।’ आईएएस की तैयारी आपकी दिनचर्या की सूची में पहले स्थान पर आ जाएगी, न कि यह कि ‘जब टाइम मिलेगा, तब देखेंगे।’ आईएएस इतना आसान काम नहीं है कि आप इसे पार्ट टाइम या एक्स्ट्रा टाइम में कर सकें। यदि आप ऐसा समझते हैं, तो बेहतर है कि यहाँ अपना समय खराब न करें।
2. कुछ दिनों के बाद ही आईएएस की तैयारी करने वाले विद्यार्थी ऊबने की, बोर होने की, थकने की तथा पढ़ने के दौरान नींद आने की शिकायतें करने लगते हैं, जो सही होता है। यदि आप मानसिक रूप से कमजोर हैं, और आपने इसे बतौर एक फैषन ओढ़ रखा है, तो ऐसा होना ही है। जिस दिन ये शिकायतें खत्म हो जाएं, समझ लीजिए कि अब आप आईएएस की तैयारी के लिए मानसिक रूप से फिट हो गए हैं। हांलाकि थकेंगे तो आप अभी भी, लेकिन केवल दो स्थितियों में- या तो तब, जब बहुत पढ़ चुके होंगे, या फिर तब, जब किसी कारण से पढ़ ही नहीं पाए होंगे। ऐसा आपके मन में पैदा हुए अपराधबोध के कारण होगा।
3. विषय की आपकी समझ और आपकी स्मरण शक्ति, दोनों धीरे-धीरे तेज होती जाएंगी। इसका एक स्थापित विज्ञान है। विज्ञान यह है कि आपकी मानसिक दृढ़ता पढाई के प्रति आपके मन में रुचि पैदा कर देगी, और जिस चीज में हमारी रुचि हो जाती है, वह हमें अपेक्षाकृत जल्दी और ज्यादा समझ में आने लगती है। जब कोई विषय समझ में आने लगता है, तो वह स्वाभाविक रूप से लम्बे समय तक याद भी रहता है। यही कारण है कि क्यों आपको अपनी पसंद की फिल्म की कहानी एक बार में ही याद हो जाती है और फिर लम्बे समय तक याद भी रहती है।
4. आप सक्रिय हो उठते हैं, क्योंकि आपकी मानसिक मजबूती आपके अन्दर की ऊर्जा के चारों चैनलों को उन्मुक्त कर देती है। आप शारीरिक रूप से स्वयं को चुस्त-दुरुस्त तथा मानसिक रूप से प्रसन्न महसूस करते है। आपमें सकारात्मक सोच के आने की शुरूआत हो जाती है, जिसके कारण आपका आत्म-विश्वास क्रमषः बढ़ता जाता है। अपने उद्देष्य से आप भावनात्मक रूप से इतनी गहराई से जुड़ जाते हैं कि भावना की ऊर्जा आपको लगातार कुछ न कुछ करते रहने को प्रेरित करती रहती है, और यह एक अच्छी बात होती है। जब आपको इन तीनों ऊर्जाओं का संयुक्त रूप से सहारा मिलता है, तो तीनों मिलकर आपके लिए एक चौथी ऊर्जा का निर्माण करती हैं, जिसे मैं आध्यात्मिक ऊर्जा कहता हूँ। यह ऊर्जा आपके अंदर ‘नाइस फिलिंग’ लाती है, हल्कापन लाती है, और आपके लिए ऐसे संयोगों की रचना करती है, जिससे लक्ष्य तक पहुँचने में आपको मदद मिलती है। इस पर संदेह मत कीजिए। आगे चलकर आप इसे महसूस करेंगे।
5. निःसंदेह रूप से आई.ए.एस. बनना कोई गुड्डे-गुड्डियों का खेल नहीं है। परीक्षा कठिन है। इसलिए सफलता के लिए अक्सर संदह बना रहता है। यह आपके साथ ही नहीं हो रहा है। सबके साथ होता है। आपके मुँह पर तो लोग यही कहेंगे कि, ‘मेहनत करो, तुम्हारा हो जाएगा।’, लेकिन पीठ पीछे या मन ही मन वे सोचते यही हैं कि ‘बच्चू, पता चलेगा, जब ऊँट पहाड़ के नीचे आएगा तब।’ यानी कि आप एक तरह की अदृष्य नाकारात्मक ऊर्जाओं से घिरे रहते हैं। यह नकारात्मक ऊर्जा आपकी चेतना पर अपना आघात करती रहती है। इससे आप डिप्रेशन में आ सकते हैं। दबाव में आकर टूट सकते हैं। मानसिक मजबूती में यह क्षमता होती है कि वह इस नकारात्मक ऊर्जा को एक चुनौती में तब्दील करके इसे आपकी शक्ति बना देती है। चुनौती जितनी प्रबल होती है, उसका मुकाबला करने वाली शक्ति को उससे कही ज्यादा प्रबल होना पड़ता है। यह आपके साथ भी होगा।
यहाँ मैं यह भी बताना चाहूँगा कि मानसिक मजबूती का जादू केवल आईएएस की तैयारी में ही काम नहीं करता, बल्कि जिन्दगी के हर क्षेत्र में काम करता है। वहाँ तो उसकी बहुत ही ज्यादा जरूरत पड़ती है, लगभग अनिवार्य ही, जहाँ उद्देष्य बड़ा एवं कठिन होता है, और जाहिर है कि आईएएस बनने का उद्देष्य एक बड़ा और कठिन उद्देष्य है।
ध्यान रखें कि मैं जिस मानसिक मजबूरी की बात कर रहा हूँ, वह महज उत्तेजना में आकर लिया गया एक निर्णय नहीं है कि ‘मुझे आईएएस बनना ही है।’ ज्यादातर लोग ऐसा ही तो करते हैं, जो बाद में काम नहीं आता है। यह एक उफान होता है, जो थोड़े समय बाद ही बैठ जाता है। यह केवल कह देने भर में नहीं हो जाता है। बल्कि पहले सोच-समझकर कहना पड़ता है, यानी कि निर्णय लेना पड़ता है। और जब एक बार निर्णय ले लिया, तो फिर उस निर्णय को सिद्ध करने के लिए जुटना पड़ता है, कुछ करना पड़ता है।
लोगों को मैंने अक्सर यह कहते हुए सुना है कि ‘गलत निर्णय हो गया।’ निर्णय गलत नहीं होते हैं। उस निर्णय को सही सिद्ध करने के लिए अपनाई गई प्रक्रिया गलत होती है। यदि आप में इतना दम नहीं है कि आप इस सही प्रक्रिया को जानकर (यह आपको आगे चलकर बताई जाएगी) उसे निभा सकें, तो बेहतर है कि इसका निर्णय ही न लें। यदि आप निर्णय ही नहीं लेते हैं, तो कोई आपसे यह नहीं कहेगा कि ‘देखो, यह कैसा लड़का है। इसने आईएएस की परीक्षा ही नहीं दी।’ लेकिन यदि आपने देने का निर्णय ले लिया और उसके अनुकूल कर्म नहीं कर पाए, तो पक्का है कि असफलता हाथ लगेगी, और तब लोग कहेंगे कि ‘बच्चू, और दो आईएएस की परीक्षा। बड़े बनने चले थे आईएएस।’ इसलिए, मुझे लगता है कि इस बारे में निर्णय बहुत सोच-समझकर ही लिया जाना चाहिए। अन्यथा मगन रहिए अपनी वर्तमान दुनिया में। सोच-समझकर लिया गया निर्णय ही आपको मानसिक मजबूती दे सकता है।
तो अब सवाल यह है कि सोचा-समझा कैसे जाए। इस बारे में मैं आपसे कुछ बातें करना चाहूँगा। ये बातें मेरे अपने अनुभव, मेरे प्रयोग, मेरे निरीक्षण तथा अध्ययन पर आधारित हैं। इसलिए मैं इनके व्यावहारिक हाने का दावा कर सकता हूँ।
(क) आंतरिक जरूरत-
आपको बड़ी बारीकी के साथ इस तथ्य की जाँच-पड़ताल करनी पड़ेगी कि आईएएस बनना आपका ऊपरी दिखावा है, या आपकी आंतरिक जरूरत है। यदि यह आपकी आंतरिक जरूरत है, तो आपको उसकी हर चीज सुहावनी लगने लगती है, वह चीज भी, जिससे दूसरे लोग चिढ़ते हैं। आप उससे मिलने को बेचैन रहते है और आपको लगता है कि यदि वह नहीं मिली/मिला, तो पूरी जिंदगी अधूरी रह जाएगी। इसलिए आप उसे पाने के लिए कुछ भी करने को तैयार हो जाते हैं। नहीं क्या?

(ख) पढ़ने में रुचि-
आईएएस बनने के लिए आपको ग्रेजुएट होना होता है। यानी कि इसकी पढ़ाई करने से पहले आप कम से कम चौदह सालों तक पढ़ाई कर चुके होते हैं। पढ़ाई के अनुभव की यह पूंजी आपके पास मौजूद है। आप जानते हैं, और आप ही अच्छी तरह से जानते हैं कि पढ़ने में आपको मजा आता है या नहीं। यदि यह आपको बोझ लगता है, तो फिर यह आपके लायक नहीं है। आपको पढ़ने में कम से कम तब तक तो मजा आना ही चाहिए, जब तक आप आई.एस.एस के मैदान में डटे हुए हैं।
‘पढ़ने में रुचि’ से मेरा मतलब रोजाना 15-15 घण्टे और इस तरह लगभग तीन-चार साल तक पढ़ते रहने की क्षमता से नहीं है। मेरा मतलब तो सिर्फ इस बात से है कि फिलहाल आप इसको एन्ज्वाय करते हैं, या नहीं। बाद में भले ही जिन्दगी भर किताबों का मुँह मत देखिएगा, लेकिन फिलहाल तो आपकी उनसे मुहब्बत होनी ही चाहिए, और उनमें स्वाद भी आना ही चाहिए, क्योंकि यही काम तो आपको मुख्य रूप से करना है। आईएएस बनने का सारा काम ही पढ़ना और पढ़े हुए को लिखने का है।
यह कतई जरूरी नहीं है कि आप खूब पढ़ें, और पढ़ते ही रहें। यह फालतू की बात है, और जो लोग ऐसा करते हैं, वे मूलतः अपनी बातों से स्टूडेन्ट्स के दिमाग में एक आतंक पैदा करना चाहते हैं। मैं समझता हूँ कि यदि कोई प्रतियोगी पूरी गम्भीरता और प्रतिबद्धता के साथ रोजाना पाँच से छः घंटे पढ़ता है, तो वह पर्याप्त है। हाँ, यह पढ़ाई पूरी रुचि के साथ होनी चाहिए, खानापूर्ति के रूप मे नहीं। यदि आप जानना चाहते हैं कि आपको किस प्रकार वैज्ञानिक तरीके से पढ़ाई करनी चाहिए, तो आप मेरी पुस्तक ‘पढ़ो तो ऐसे पढ़ो’ पढ़ सकते हैं।

(ग) निरंतरता का निर्वाह-
खरगोश और कछुए की वह कहानी तो आपने पढ़ी ही होगी, जिसमें बहुत ही धीमी चाल से चलने वाला कछुआ जीतता है, और वह भी तेज दौड़ लगाने वाले खरगोष के मुकाबले। कछुए की जीत हमारी जिंदगी में निरंतरता की शक्ति को प्रतिपादित करती है। कछुआ जीता ही इसलिए था, क्योंकि उसने चलना बन्द नहीं किया, धीरे-धीरे ही क्यों न सही।
आईएएस में अध्ययन की निरंतरता की बहुत अधिक जरूरत पड़ती है, क्योंकि इसके विषयों और उसकी तैयारी की प्रकृति कुछ ऐसी है कि उसके बिना बात बनती नहीं है। यहां यूनिवर्सिटी की वह रणनीति काम नहीं करती कि परीक्षा के दो महिने पहले जमकर पढ़ लिए, और आ गए फर्स्ट डिविजन।
उदाहरण के लिए सामान्य ज्ञान की तैयारी। इसका आईएएस बनने में बहुत महत्वपूर्ण रोल रहता है। यह प्रारम्भिक परीक्षा में भी है, मुख्य परीक्षा में भी है, और इन्टरव्यू में भी रहता है। इसकी तैयारी आप अखबार, समाचार और पत्रिकाओं के बिना नहीं कर सकते। जाहिर है कि इसके लिए आपको रोजाना समय निकालना ही होगा, फिर चाहे आप कैसे भी निकालें। यह आपके ऊपर है। यूपीएससी को आपके बहानों से कुछ लेना-देना नहीं है।
मुख्य परीक्षा में जिस तरह के प्रश्न पूछे जाते है, उनका पर्फेक्ट उत्तर तभी दिया जा सकता है, जब विषय पर आपकी पकड़ अच्छी हो। यह पकड़ विषय को रटने से नहीं बल्कि विषय को समझकर अपने दिमाग में पचा लेने से बनती है। ऐसा होना तभी संभव होता है, जब विषय को थोड़ा-थोड़ा रोजाना पढ़ा जाए और उस पर सोचा भी जाए।
एक बात और। आईएएस की तैयारी एक सौ मीटर की दौड़ की बजाए एक मैराथन दौड़ है, जिसमें फर्राटे से भागने वाला धावक बहुत जल्दी थककर बैठ जाता है। यह मंथर गति से, स्थिर तरीके से पूरी की जाने वाली दौड़ है, जिसे निरंतरता की नीति से ही निभाया जाना मुमकिन होता है।

(घ) मानसिक क्षमता-
यह प्रतियोगिता ही मुख्यतः मानसिक है। इस दंगल में हिन्दुतान के अच्छे-अच्छे मस्तिष्क आपस में टकराते हैं, और अपनी-अपनी क्षमता के अनुसार अपनी-अपनी जीतें दर्ज़ कराते हैं। तो ज़ाहिर है कि आखिर मानसिक क्षमता का एक स्तर तो होना ही चाहिए। यह बात अलग है कि फिलहाल न हो। लेकिन उसे बढ़ाने की दृढ़ इच्छाशक्ति और कर्म करने का साहस तो जरूरी ही है। उस लड़के की तरह फालतू का दुस्साहस करने से अंततः आपको क्या मिलेगा, जो मेरे मना करने के बावजूद आईएएस की तैयारी के लिए पाँच साल तक दिल्ली में जाकर रहा। उसका छोटा गरीब भाई जूस बेच-बेचकर उसके लिए खर्च भेजता रहा। ईश्वर ने उस पर कृपा करने में पाँच साल ले लिए, और अंततः उसने अपने घर लौटने का निर्णय ले लिया।

‘मानिसिक क्षमता’ कहने का मेरा आशय क्या है? यही कि-
1. आपमें विषय को समझने की क्षमता हो।
2. किसी टॉपिक को सझने के बाद आप उसे दूसरे को भी समझा सकते हों, उस पर बातचीत कर सकते हों।
3. आप किसी विषय पर अपने विचार दे सकते हों।
4. आपकी स्मरण शक्ति बहुत अच्छी न सही, लेकिन अत्यंत सामान्य भी न हो। तथ्य कुछ समय तक आपको याद रहते हों, और दुहराने पर तो तुरंत याद आ जाते हों।
5. भाषा भी ठीक-ठाक तो हो ही। ठीक से लिख भी लेते हों, और बोल भी लेते हों। यदि अभी बोल न भी पा रहे हों, तो कोई बात नहीं। यदि अभी से अभ्यास करना शुरू कर देंगे, तो बोलने लगेंगे।

(ड़) बाहरी सपोर्ट-
चूंकि मैं आईएएस बनने की प्रक्रिया को अपेक्षाकृत एक लम्बी प्रक्रिया मानकर चलता हूँ, इसलिए मुझे लगता है कि आपके साथ कुछ बाहरी मदद और समर्थन तो होने ही चाहिए। लड़कियों के लिए इस तरह का समर्थन तो बहुत ही जरूरी होता है, क्योंकि उन्हें जहाँ अपने परिवार वालों की इच्छा-अनिच्छा के साथ तालमेल बैठाना पड़ता है, वहीं विवाह के लिए बढ़ती हुई उनकी उम्र उनके माता-पिता के सामने एक परेशानी खड़ी करने लगती है।
एक बहुत ही अच्छी बात यह है कि जब मैं बाहरी सपोर्ट की बात कह रहा हूँ, तो सौभाग्य से उसमें धन के सपोर्ट की जरूरत नहीं है, जबकि आज यदि आप कोई भी प्रोफेशनल कोर्स करें, तो आपको काफी रुपयों की जरूरत पड़ेगी। थैंक्स गॉड कि फिलहाल इसके लिए इस तरह की कोई अनिवार्यता नहीं है। केवल थोड़े से रुपये चाहिए किताबों के लिए और हर महिने कुछ सौ रुपये न्यूज पेपर्स और गिनी-चुनी कुछ पत्रिकाओं के लिए। बस, इतना ही। जहाँ तक कोचिंग के खर्च का प्रष्न है, उसको यूपीएससी ने अनिवार्य नहीं किया है। यह पूरी तरह आपके ऊपर है कि आपको उसकी कितनी जरूरत है। हाँ, यह जानना एक अनिवार्यता है कि तैयारी की कैसे जानी चाहिए। दरअसल यही सब कुछ है। आपको यह तो जानना ही पढ़ेगा कि पढ़ाई कैसे करनी है, और उत्तर कैसे लिखने हैं। हांलाकि बाहरी सपोर्ट अनिवार्य तो नहीं होते, फिर भी ये प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से हमारी क्षमता को बढ़ाकर हमें सफल होने में हमारी कुछ मदद तो करते ही हैं। इस तरह के कुछ बाहरी सपोर्ट हो सकते हैं-

1. परिवार वालों का समर्थन एवं सहयोग। इसके कारण हमारे दिमाग पर तनाव कम हो जाता है, और हम धैर्य के साथ तैयारी कर पाते हैं। आर्थिक मदद तो मिलती ही है।
2. यदि आप नौकरी में हैं, तो बॉस का सहयोग।
3. कॉलेज के प्रोफेसर्स एवं परीक्षा में सफल लोगों के अनुभव का लाभ। प्रत्येक जिले में कलेक्टर और एसपी इसी सेवा से आए हुए लोग होते हैं। आप उनसे मदद ले सकते हैं। राज्य की राजधानियों में सिविल सेवा परीक्षा से आए हुए अन्य अधिकारी कई अलग-अलग विभागों में पदस्थ होते हैं। आप उनसे मिल सकते हैं। विष्वास रखिए कि अधिकांश अधिकारियों को आपकी मदद करके खुशी मिलती है।
4. मित्रों का सहयोग-विषय पर डिस्कशन करने के लिए तथा हौसला आफज़ाई के लिए भी।
यदि आपको लगता है कि इन पैमानों पर आप खरे उतर रहे हैं और यदि नहीं भी उतर रहे है, किन्तु बाद में स्वयं को इन पैमानों के अनुकूल ढाल लेंगे, तो आईएएस के इस दंगल में एक बार फिर से आपका स्वागत है।

नोट:- यह लेख सबसे पहले ‘सिविल सर्विसेज़ क्रॉनिकल’ पत्रिका में प्रकाशित हो चुका है। 

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