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You are here: Home >> Resources >> Articles (Hindi) >> सिविल सेवा परीक्षा में कॉमन सेंस-4

सिविल सेवा परीक्षा में कॉमन सेंस-4

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पिछले अंक से निरंतर….

आप इस टॉपिक के शुरू के हिस्से को याद करने की कोशिश कीजिए, जिसमें मैंने बताया था कि हम भारत के लोगों के पास बोध का स्तर दूसरों की तुलना में अधिक है। जहाँ तक मुख्य परीक्षा के सामान्य अध्ययन के चौथे पेपर के लिए बोध का सवाल है, वह तो हम सबके डीएनए में ही शामिल है। बचपन से ही दादा-दादियां और नाना-नानियाँ, वेद-पुराणों से लेकर जंगल के जानवरों तथा पक्षियों तक की हजारों कहानियाँ सुनाते हैं। यहाँ बताने की जरूरत नहीं कि इन कहानियों के केन्द्र में जो मूल संदेश होता है, वह वही होता है, जिसकी जरूरत इस चौथे पेपर के लिए पड़ती है। बचपन से ही रामलीला और कृष्ण-लीला देखना, घर-परिवार के तीज-त्यौहारों एवं व्रत-उपवासों में शामिल होना, भागवत की कथाएँ सुनना, हमारे समाज के अनेक शिष्टाचार; जिनमें माता-पिता के पैर छूने से लेकर अतिथियों को देवता मानने तक की भावनाएँ शामिल हैं; हम इन सबसे गुजरते हैं। हमारा मानस इन्हीं सभी संदेशों से मिलकर बना है।

इसका मतलब यह हुआ कि इस पेपर की हमारी तैयारी तब से ही शुरू हो जाती है, जब से हम अपने होश सम्हालकर कुछ सोचने-समझने लायक बनते हैं। यह लगातार विकसित होती जाती है और अनुभव इसे लगातार समृद्ध करते रहते हैं। इस प्रकार भले ही हमें इस पेपर में पूछे गए प्रश्नों की बहुत सैद्धांतिक और व्यवस्थित जानकारी न हो, लेकिन व्यावहारिक जानकारी तो होती ही है, क्योंकि हम उसे शुरू से लेकर अब तक जी रहे होते हैं। यही हमारी सबसे बड़ी ताकत है, साथ ही हमारी मौलिकता भी।

अब हम इसी बात को चौथे पेपर में पूछे गए प्रश्नों के आधार पर समझने की कोशिश करेंगे। इस पेपर के दो भाग होते हैं। खण्ड-अ में सीधे-सीधे प्रश्न पूछे जाते हैं। खण्ड-ब में कुछ स्थितियाँ दी जाती हैं। उन स्थितियों पर आपकी राय और आपके फैसले जानने की कोशिश की जाती है। हम इन दोनों ही खण्डों को यहाँ अलग-अलग देखेंगे ।

इस एक प्रश्न को जरा गौर से पढ़ें। प्रश्न है-‘‘सभी मानव सुख की आकांक्षा करते हैं। क्या आप सहमत हैं? आपके लिए सुख का क्या अर्थ है? उदाहरण प्रस्तुत कीजिए।’’ (150 शब्द)

इस प्रश्न को अच्छी तरह हल करने के लिए आपको इसके कुछ शेड्स पर ध्यान देना होगा। ये शेड्स हैं –

  • सुख की आकांक्षा.
  • सुख की आकांक्षा पर आपकी राय
  • सुख का अर्थ, लेकिन आपकी दृष्टि से। यानी कि समाजशास्त्रियों, नैतिकवादियों और इस विषय पर विचार करने वाले बुद्धिजीवियों की दृष्टि से नहीं।
  • उदाहरण द्वारा।

जब आप इस प्रश्न को सरसरी निगाह से पढ़ते हैं, तो आपको यह काफी सरल मालूम पड़ता है। वैसे यह सरल है भी। दरअसल चौथे पेपर के प्रश्नों को हल करने में जो चुनौती होती है, वह तथ्यों की उतनी नहीं होती, जितनी कि उन तथ्यों को लिखने की होती है। जैसे ही आप सोचना या लिखना शुरू करते हैं, दिमाग में तथ्यों की धक्का-मुक्की होनी शुरू हो जाती है। वे कागज पर जल्दी से जल्दी उतरने की बेताबी में एक-दूसरे से झगड़ने लगते हैं। पहले तो यह संकट होता है। फिर दूसरा संकट यह आता है कि आपको अपनी बात केवल कुछ शब्दों की सीमा में ही कहने की मजबूरी है। यदि शब्दों की छूट होती, तो शायद आपको अपने दिमाग में उठ रहे विचारों के आपसी झगड़े इतने परेशान नहीं करते। लेकिन सच पूछिए, तो यही चुनौती तो इस पेपर में अधिक से अधिक नम्बर लाने की चुनौती है। अन्यथा तो इसके बारे में हर कोई कुछ न कुछ जान ही रहा होता है।

मेरा आपसे पहला सवाल यह है कि ‘‘आप यह बताएं कि इस प्रश्न को हल करने में किताबी ज्ञान आपकी कितनी मदद करने की स्थिति में है?’’ यहाँ बात केवल इसी एक प्रश्न की नहीं है, बल्कि इस एक प्रश्न के माध्यम से सभी प्रश्नों की है, क्योंकि सभी प्रश्न लगभग-लगभग इसी प्रकृति के होते हैं। निश्चित रूप से आपका उत्तर होगा ‘‘कुछ विशेष नहीं’’। लेकिन उत्तर तो आपको लिखना ही है। तो आप लिखेंगे कैसे? फिर से आपका जवाब होगा कि ‘‘अपने अनुभव के आधार पर’’। क्या यह अनुभव ‘बोध’ से परे है?

जितने भी प्रश्न पूछे जाते हैं, उन सभी प्रश्नों में विशेष रूप से ‘आप’ निश्चित रूप से होते हैं। यदि इस ‘आप’ को हटा दिया जाए, तो वही प्रश्न एक किताब का प्रश्न बन जाएगा; जैसे यह न पूछकर कि ‘‘आपके लिए सुख का क्या अर्थ है?’’ यह पूछा जाना कि ‘‘सुख का क्या अर्थ है?’’ जैसे ही ‘आप’ गायब होते हैं, उस जगह पर किताब आ जाती है। लेकिन जैसे ही ‘आप’ आते हैं, वैसे ही किताब को गायब करना पड़ता है। यदि तब भी किताब बनी रही, तो मान लें कि आप पूछे गए प्रश्न के दिए गए उत्तर के साथ न्याय नहीं कर रहे हैं। और यह ‘आप’ ही अनुभव है, व्यवहार है, जिसे यहाँ ’बोध’ कहा जा रहा है, ‘कॉमन सेंस’ कहा जा रहा है।

आप यह मानने की भूल बिल्कुल मत कीजिएगा कि किताब में कही गई बातों को अपनी बात बनाकर बात कही जा सकती है। लोग ऐसा करते हैं। लेकिन परीक्षक की पकड़ में यह ट्रीक आसानी से आ जाती है, क्योंकि ऐसी स्थिति में आपकी भाषा और आपके लिखने की स्टाइल अपने आप ही थोड़ी अलग हो जाएगी। जब आप अपनी बात कहेंगे, तो उसका तरीका अलग होगा। और जब आप दूसरों की बात को अपनी बात बनाकर कहेंगे, तो उसका तरीका अपने-आप ही अलग हो जाएगा। यह सब अवचेतन के स्तर पर होता है।

जनरल स्टडीज के पहले तीन पेपर्स में आपको दूसरे के विचारों को लिखने या उनका विश्लेषण करके अपने निष्कर्ष निकालने की काफी छूट रहती है। लेकिन इसमें ऐसा नहीं होता। इसमें दूसरे होते ही नहीं। याद रहे कि यह पेपर पूरी तरह आपका अपना पेपर है, जो आप पर ही केन्द्रित है। सही मायने में इसकी तैयारी अपने-आपको किताब में परिवर्तित करके खुद को पढ़ने से ही हो सकती है। आप ही खुद की किताब हैं। इसलिए आप पाएँगे कि अक्सर अधिकांष प्रश्नों के अंत में आपकी राय जानी जाती है। वह राय भी कोई शुद्ध बौद्धिक राय न होकर एक व्यावहारिक राय होती है। बात यहाँ शायद कुछ आब्स्ट्रक्ट हो रही है। इसलिए मैं यहाँ परीक्षा में पूछे गए कुछ प्रश्नों को उदाहरण के रूप में रख रहा हूँ, ताकि आपके दिमाग में वह बात स्पष्ट हो सके, जो मैं कहना चाह रहा हूँ। कुछ प्रश्न –

  • लोक जीवन में ‘सत्य-निष्ठा’ से आप क्या अर्थ ग्रहण करते हैं? आधुनिक काल में इसके अनुसार चलने में क्या कठिनाइयाँ हैं? इन कठिनाइयों पर किस प्रकार विजय प्राप्त कर सकते हैं? (150 शब्द)
  • जीवन में नैतिक आचरण के संदर्भ में किस विख्यात व्यक्तित्व ने सर्वाधिक प्रेरणा दी है? उसकी शिक्षाओं का सार प्रस्तुत कीजिए। विशिष्ट उदाहरण देते हुए वर्णन कीजिए कि आप अपने नैतिक विकास के लिए उन शिक्षाओं को किस प्रकार लागू कर पाएँ हैं। (150 शब्द)
  • वर्तमान समाज व्यापक-विश्वास की न्यूनता से ग्रसित है। इस स्थिति के व्यक्तिगत कल्याण और सामाजिक कल्याण के संदर्भ में क्या परिणाम हैं? आप अपने को विश्वसनीय बनाने के लिए व्यक्तिगत स्तर पर क्या कर सकते हैं? (150 शब्द)

मैं यहाँ बता दूँ कि ये सभी प्रश्न एक ही वर्ष के प्रश्न-पत्र से लिए गए हैं। यह भी कि इसी तरह के अन्य कई प्रश्न हैं, जिनका उल्लेख करना यहाँ जरूरी नहीं समझा गया है। इन प्रश्नों को दिए जाने का उद्देश्य आपको केवल यह बताना था कि किस प्रकार आपके उत्तर आपसे व्यक्तिगत ईमानदारी की अपेक्षा करते हैं। यहाँ आपको यह जानना ही चाहिए कि इस नए पेपर को परीक्षा में शामिल करने का उद्देश्य ही है-आपकी नैतिकता, सत्यनिष्ठा और अभिवृत्ति की जाँच करना। यह आपके ही जीवन के पन्नों को उलटने से सम्भव हो सकता है, किताबों के पन्नों को उलटने से नहीं।

इस चौथे पेपर के खण्ड-अ से लगभग 120-130 नम्बर के प्रश्न पूछे जाते हैं। इनमें कुछ ही प्रश्न ऐसे होते हैं, जिनकी संख्या बहुत कम होती है, जिनमें किसी सामाजिक समस्या के बारे में आपके दृष्टिकोण को जानने की कोषिष होती है। यहाँ आपको ध्यान इस बात का रखना होगा कि इस पेपर में पूछा गया आपका दृष्टिकोण सामान्य अध्ययन के शेष तीन पेपर में पूछे गये आपके दृष्टिकोण से थोड़ा भिन्न होता है। दोनों में मूल अन्तर यह होता है कि चौथे पेपर में आपको अपनी बात कहनी होती है। जबकि अन्य पेपर्स में आप दूसरों की बात भी कह सकते हैं।
उदाहरण के तौर पर एक प्रश्न पूछा गया था, ‘‘हमें देश में महिलाओं के प्रति यौन उत्पीड़न के बढ़ते हुए दृष्टांत दिखाई दे रहे हैं। इस कुकृत्य के विरूद्ध विद्यमान विधि उपबन्धों के होते हुए भी ऐसी घटनाओं की संख्या बढ़ रही है। इस संकट से निपटने के लिए कुछ नवाचारी उपाय सुझाएं।’’ (150 शब्द)

इसमें आपको ‘नवाचारी’ शब्द पर ध्यान देना होगा। ‘नवाचारी’ का अर्थ है- बिल्कुल नया, वह जो अब तक नहीं किया जा रहा हो। इसे अंग्रेजी में Innovative कहा जाता है। यह ‘नवाचारी’ शब्द ही इस प्रश्न की आत्मा है। यदि आपने वे उपाय सुझाए, जो पहले से ही किए जा रहे हैं, तो जाहिर है कि यह प्रश्न का सही उत्तर नहीं होगा। यहाँ सोचने की बात यह है कि ये नवाचारी उपाय आएँगे कहाँ से? फिर से वही उत्तर है, जो इस अध्याय में उठाये गए सभी प्रश्नों के उत्तर हैं-बोध से, व्यावहारिकता से।

चौथे पेपर का खण्ड ‘ब’ पूरी तरह से स्टूडेन्ट का खण्ड होता है। भारतीय प्रबंध संस्थान की अधिकांश पढ़ाई इसी पैटर्न पर होती है। सच पूछिए तो मैं इस शैली का मूरीद हूँ। मुझे यह पैटर्न बेहद पसन्द है। मुझे तो लगता है कि पढ़ाई होनी ही इस पैटर्न पर चाहिए। हालांकि एन सी ई आर टी की किताबों का स्वरूप काफी-कुछ इसी तरह का है। लेकिन अफसोस कि उसके व्यावहारिक पक्ष पर ध्यान नहीं दिया जाता और केवल तथ्यों पर ही सारी मेहनत होती है। यदि उसके व्यावहारिक पक्ष पर ध्यान दिया जाने लगे, तो मुझे लगता है कि हमारा देश जिस तरह की प्रतिभाओं को जन्म देगा, वह वर्तमान प्रतिभाओं से भिन्न होगी। निश्चित रूप से यह भिन्नता अत्यन्त व्यावहारिक होगी। जीवन और समाज अन्ततः प्रेक्टिकल ही हैं। सिद्धान्त तो केवल उस प्रेक्टिकल को एक निश्चित रूप में ढालने का काम करते हैं। यदि आपने अपनी पढ़ाई की शुरूआत में एन सी ई आर टी की उन किताबों के साथ न्याय किया होगा, तो मानकर चलिए कि इस चौथे पेपर का खण्ड-ब आपके लिए अंकों के खजाने लुटा देगा-खुले हाथों से।

खण्ड-ब को हम एक प्रकार से ‘निर्णयन’ भी कह सकते हैं-डिसीजन मेकिंग। भले ही आपसे किसी मामले पर आपकी राय जानी गई हो, लेकिन वह प्रकारान्तर से आपका निर्णय ही होगा, जो यह बताएगा कि यदि आपको इस मामले से जूझना पड़े, तो आप उससे जूझेंगे कैसे। इस प्रकार यह एक प्रकार से आपके व्यक्तित्व, आपके सोचने-समझने की शैली, कार्य करने की प्रणाली, जीवन की व्यावहारिक समझ तथा वृहत्तर मानवीय गुणों को उसी तरीके से स्पष्ट कर देती है, जैसे कि खून की एक बूँद से शरीर के न जाने कितने सारे टेस्ट के बारे में जानकारी हासिल हो जाती है। तो सबसे पहले हम मामले को लेते हैं, जो परीक्षा में पूछा गया था।

प्रष्नः- मान लीजिए कि आपके निकट मित्रों में से एक, जो स्वयं सिविल सेवा में जाने के लिए प्रयत्नशील है, वह लोक-सेवा में नैतिक आचरण से सम्बन्धित कुछ मुद्दों पर चर्चा करने के लिए आपके पास आता है। वह निम्नलिखित बिन्दुओं को उठाता है:

  1. आज के समय में, जब अनैतिक वातावरण काफी फैला हुआ है, नैतिक सिद्धान्तों से चिपके रहने के व्यक्तिगत प्रयास, व्यक्ति के कैरियर में अनेक समस्याएँ पैदा कर सकते हैं। वे परिवार के सदस्यों पर कष्ट पैदा करने और साथ ही साथ स्वयं के जीवन पर जोखिम का कारण भी बन सकते हैं। हम क्यों न व्यावहारिक बनें और न्यूनतम प्रतिरोध के रास्ते का अनुसरण करें, और जितना अच्छा हम कर सकें, उसे ही करके प्रसन्न रहें?
  2. जब इतने अधिक लोग गलत साधनों को अपना रहे हैं और तंत्र को भारी नुकसान पहुँचा रहे हैं, तब क्या फर्क पड़ेगा, यदि केवल कुछ-एक लोग ही नैतिकता की चेष्टा करें? वे अप्रभावी ही रहेंगे और निश्चित रूप से अन्ततः निराश हो जाएँगे।
  3. यदि हम नैतिक सोच-विचार केे बारे में अधिक बतंगड़ बनाएँगे, तो क्या इससे देश की आर्थिक उन्नति में रुकावट नहीं आएगी? असलियत में, उच्च प्रतिस्पर्धा के वर्तमान युग में, हम विकास की दौड़ में पीछे छूट जाने को सहन नहीं कर सकते।
  4. यह तो समझ में आता है कि भारी अनैतिक तौर-तरीकों में हमें फँसना नहीं चाहिए, लेकिन छोटे-मोटे उत्पादों को स्वीकार करना और छोटी-मोटी तरफदारियाँ करना सभी के अभिप्रेरण में वृद्धि कर देता है। यह तंत्र को और भी अधिक सुचारु बना देता है। ऐसे तौर-तरीकों को अपनाने में गलत क्या है?

उपरोक्त दृष्टिकोणों का समालोचनात्मक विश्लेषण कीजिए। इस विश्लेषण के आधार पर अपने मित्र को आपकी क्या सलाह रहेगी? (250 शब्द)
इस प्रश्न में आपके सामने चार तर्क प्रस्तुत किए गए हैं। आपको इन चारों पर अपनी राय देनी है कि आप इनसे सहमत हैं या नहीं और यदि हैं तो क्यों तथा यदि नहीं तो क्यों? यदि आप ध्यान से देखें, तो इन चारों विकल्पों में कहीं भी ‘विधि’ का प्रश्न नहीं है। यदि यही समस्या लॉ के पेपर में दी जाती, तो उसका निराकरण कानून के आधार पर होता। लेकिन यहाँ आपको इसका निराकरण नैतिकता के आधार पर करना है, जिसके लिए कानून की पढ़ाई की कोई जरूरत नहीं है। हाँ, आपको समाज के कानून और जीवन के कानून की जानकारी होगी, ऐसी अपेक्षा जरूर की जाती है।

इस समस्या की बिल्कुल अंतिम पंक्ति को पढ़िए। उसमें लिखा गया है कि ‘इस विश्लेषण के आधार पर’। किस विश्लेषण के आधार पर? वह विश्लेषण, जो आपने ऊपर के चारों विकल्पों के बारे में किया है। यदि आप उनमें से ही किसी एक विकल्प को अपनी सलाह के रूप में चुनना चाहते हैं, तो आप चुनने के लिए स्वतंत्र हैं। लेकिन यदि आप इससे हटकर कोई अलग से अपनी राय देना चाहते हैं, तो उसका आमंत्रण भी आपके पास है। जाहिर है कि इस बारे में आपकी जो राय होगी, वह एक ऐसी राय होगी, जो आप स्वयं अपने लिए चुनते। यानी कि यहाँ आपकी राय ही आप हैं।

बहुत ही मजेदार है यह पेपर-जरूरत से कुछ ज्यादा ही मजेदार। ऐसा लगता है, मानो कि हम जिन्दगी की भीड़-भाड़ में मोहल्ले की उलझी हुई संकरी गलियों से गुजर रहे हों और उन गलियों के बीच से ही हमें अपना रास्ता निकालना है। क्या यह वाकई बहुत मजेदार बात नहीं है? मजेदार है, बशर्ते कि आप जिन्दगी की गलियों से गुजरे हुए हों। आपको गुजरना ही चाहिए। यह गुजरना ही ‘बोध’ कहलाता है, क्योंकि बोध गुजरने के बाद ही आता है।

इन्टरव्यू में

मुख्य परीक्षा में सफल होने के बाद आप अन्ततः नई दिल्ली के हरे-भरे पेड़ों से ढ़की शाहजहाँ रोड नाम की साफ-सुथरी सड़क के किनारे गोल आकार के बने लोक-सेवा आयोग के मनमोहक भवन में अपना साक्षात्कार देने पहुँचते हैं। साक्षात्कार के बारे में मैंने अपनी पुस्तक ‘आप आय ए एस कैसे बनेंगे’ में बहुत विस्तार से लिखा है। यहाँ मैं केवल उन बातों का थोड़ा-सा जिक्र करना चाहूँगा, जो कॉमन सेंस से जुड़ी होती हैं। यहाँ ये आपके लिए सहायक होंगी।

मुझे लगता है कि आपको यह बात तो बहुत अच्छी तरह से समझ ही लेनी चाहिए कि साक्षात्कार का सम्बन्ध आपके ज्ञान के परीक्षण से नहीं है। वह तो हो चुका है, तभी तो आप यहाँ हैं। इसे आप एक प्रकार से अपनी जनरल स्टडीज के चौथे पेपर का ‘पर्सनल प्रजेन्टेशन’ कह सकते हैं। चौथे पेपर में लिखकर आपने अपने व्यक्तित्व के जिन मूल्यों का परिचय दिया था, अब उन्हीं मूल्यों का फिर से परिचय देने के लिए आप व्यक्तिगत तौर पर उपस्थित हैं।

आपका इन्टरव्यू बेहतर हो, यह इस बात पर निर्भर करता है कि आपका अपने प्रति विश्वास कितना है, जिसे आप आत्मविश्वास कहते हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि आप इसको लेकर भयभीत हैं? संवेदनशील होना अलग बात है, जो यहाँ पहुँचने के बाद हर कोई हो जाता है। लेकिन भयभीत होना इससे बिल्कुल अलग है। यह भय आता कहाँ से है, खासकर वह भय; जो इस समय आपको एक खतरनाक भूत की तरह सता रहा है? दरअसल यह भय अव्यावहारिकता का ही भय है। यह भय इसलिए पैदा हुआ है, क्योंकि आपने अभी तक खुद को जिन्दगी की जद्दोजहद से बचाए रखने की कोशिश की है। आप किसी से बात करने में डरते हैं। आपके सामने यदि छोटी-सी भी समस्या आ जाती है, तो आप घबड़ाने लगते हैं। इस छोटी-सी समस्या से घबड़ाते इसलिए हैं, क्योंकि आपके पास इस अनुभव की कमी है कि ऐसी समस्याओं के हल होते क्या हैं।
अब दूसरी बात। हालांकि इन्टरव्यू की शुरूआत तो प्रश्नोत्तर शैली में होती है, लेकिन वह बहुत जल्दी ही डिश्कशन में बदल जाती है। आपको ऐसा लगेगा कि प्रश्न किसी विषय पर पूछा जा रहा है। लेकिन आप पाएँगे कि वह किसी विषय की जानकारी पर नहीं, बल्कि उस विषय से जुड़ी समस्या पर है। यानी कि यहाँ फिर आपके सामने समस्या एक दूसरे रूप में उपस्थित है। चूँकि समस्याओं को सुलझाने का अनुभव आपके पास नहीं है, इसलिए यही आपकी यहाँ सबसे बड़ी समस्या बन गई है। अन्यथा तो वह कोई समस्या है ही नहीं।

यहाँ महत्व इस बात का अधिक होता है कि आप समस्याओं के जो समाधान सुझाने जा रहे हैं, वे व्यावहारिक कितने हैं। जब आप यही समाधान परीक्षा की कॉपी में लिखकर आते हैं, तब परीक्षक आपसे आपके समाधान के बारे में कोई प्रतिप्रश्न नहीं कर सकता। लेकिन यहाँ हालात दूसरे हैं। अब आपकी स्थिति संसद में खड़े होकर पूछे गए प्रश्न का उत्तर देने वाले देश के उस मंत्री की तरह है, जिसके दिए गए उत्तर को आधार बनाकर उससे फिर प्रश्न पूछे जा सकते हैं और वह भी कई-कई प्रश्न, प्रष्नों के दिए गए उत्तरों पर भी प्रष्न। आपको इन सभी प्रश्नों को झेलना है और उनके ऐसे उत्तर भी देना है कि पूछने वाला संतुष्ट हो जाये। अब आपको इस बात का अनुमान हो ही गया होगा कि अनुभवी लोगों से बने इस इन्टरव्यू बोर्ड के सामने बैठे हुए एक भावी प्रषासक को मदद कहाँ से मिलेगी।

अब मैं एक अलग ही तरह के प्रष्न पर आात हूँ, जो पहले तो काफी पूछे जाते थे, लेकिन अब ऐसे प्रष्नों की संख्या कम हो गई है। यह उदाहरण मेरे ही एक बैचमेट का है। उनसे पूछा गया था कि ‘‘मान लीजिए कि आप जिले के कलेक्टर हैं। आपको फोन पर सूचना मिलती है कि आपके जिले में एक ट्रेन का एक्सीडेंट हो गया है। इस सूचना के बाद आपका सबसे पहला कदम होगा?‘‘ इससे पहले कि आप आगे पढ़ना शुरू करें, बेहतर होगा कि आप अपना उत्तर सोच लें। सामान्यता हमारे दिमाग में यही बात आती है कि किस तरीके के लोगों की जान बचाई जाए। और इसी विचार के अनुकूल हमारे कदम होंगे कि डॉक्टर का दल भेजेंगे, सहायता पहुँचाने और राहत कार्य करने वालों को भेजेंगे आदि-आदि। मैं यहाँ आपको वह उत्तर बता रहा हूँ, जो उन्होंने दिया था। उनका उत्तर था, ‘‘सर, मैं सबसे पहले यह जानने की कोषिष करूँगी कि वह ट्रेन यात्री-गाड़ी थी या मालगाड़ी।’’ उन्हें इन्टरव्यू में काफी अच्छे नम्बर मिले थे।

यहाँ सवाल यह है कि उनके दिमाग में यह उत्तर आया कहाँ से? मैंने उनसे यह तो नहीं पूछा था। लेकिन मैं अपनी ओर से अनुमान लगा रहा हूँ कि निष्चित रूप से जीवन की व्यावहारिकता का ज्ञान होने से। तो ऐसे मामलों में  भी कॉमनसेंस हमारी बहुत बड़ी ताकत बनता है।

NOTE: This article by Dr. Vijay Agrawal was first published in ‘Civil Services Chronicle’.

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