18-05-2023 (Important News Clippings)
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Date:18-05-23
Timely caution
The top court has rightly cautioned probe agencies against crossing limits
Editorial
The Supreme Court’s exhortation to the Enforcement Directorate (ED) not to create an atmosphere of fear indicates how much the agency needs to temper its zeal in investigating allegations against political opponents of the current regime. Responding to complaints that the ED is harassing employees of the Excise Department in Chhattisgarh in the name of investigating the money-laundering aspects of an alleged liquor scandal, a Bench has made the pertinent point that even a bona fide cause would seem suspect if a law enforcement agency conducted itself in a way that created fear. The observation is both a caution against transgressing the limits of a lawful investigation and a warning against letting a perception gain ground that the agency would go to any lengths to implicate someone. Given that several leaders and Ministers from States ruled by parties other than the BJP have been summoned by the ED, or arrested and imprisoned, not many will be surprised at the charges levelled on behalf of the Chhattisgarh government that the agency is running amok and that its officers were threatening State officers, in an alleged bid to implicate the State’s Chief Minister, Bhupesh Baghel. These charges may or may not be accurate, but the core problem is that the number of political adversaries under the agency’s adverse notice is unusually high.
A major complaint from the Opposition concerns the alleged politicisation of investigations and the personnel heading the agency. Some parties fear that the money-laundering law is being used for a political witch-hunt. The list of offences that may attract a money-laundering probe, over and above the police investigation into them, is quite long. Corruption allegations being quite common against politicians holding public office, each time a scam or a scandal is uncovered, the ED follows closely on the heels of the agency conducting the anti-corruption probe, to register a separate case under the Prevention of Money Laundering Act. While there is no problem with a stringent law on the subject, its executors have to be cautious about excessive zeal and expansive probes without identifying specific payoffs or following a money trail. The current Director of Enforcement was appointed for a two-year term in 2018, but continues to this day, thanks to extensions and a change in the law governing such extensions. The government has now assured the Supreme Court that he will not continue beyond November 23. The government often says the agency is only doing its duty and holding lawful investigations, but the perception of others is unlikely to be positive in the backdrop of the way it controls the agency’s leadership.
एमएसएमई को कार्बन टैक्स से मुक्ति की पहल
संपादकीय
27 सदस्यीय यूरोपियन यूनियन (ईयू) द्वारा आगामी 1 अक्टूबर से लगाए जाने वाले ‘कार्बन टैक्स’ से एमएसएमई सेक्टर को मुक्ति दिलाने के लिए सरकार ने सराहनीय पहल की है। स्टील, सीमेंट, फर्टिलाइजर, एल्युमिनियम और हाइड्रोकार्बन उद्योगों को कार्बन-बहुल उपक्रम माना जाता है। लेकिन भारत सरकार डब्ल्यूटीओ पर बहुपक्षीय स्तर पर और ईयू से द्विपक्षीय स्तर पर दबाव डाल रही है कि वे कार्बन क्रेडिट ट्रेडिंग स्कीम (सीसीटीएस) में भारत के प्रयासों को देखते हुए इस सेक्टर को कार्बन टैक्स से मुक्त कर दे। टैक्स लागू होने की स्थिति में भारत की निर्यात करने वाली कंपनियों को कार्बन निस्तारण के मामले में प्रमाण-पत्र लेना होगा और 1 जनवरी, 2026 से 20 से 35 प्रतिशत टैक्स देना होगा। भारत का 12 करोड़ रोजगार देने वाला यह सेक्टर टैक्स देगा तो निर्यात संभव नहीं हो सकेगा। भारत का तर्क है कि जब ईयू इस टैक्स से स्विट्जरलैंड, यूक्रेन और ब्रिटेन जैसे देशों को मुक्त कर सकता है तो भारत को क्यों नहीं? दरअसल पर्यावरण के नाम पर ईयू कुछ विकासशील देशों को ट्रेड से बाहर करना चाहता है। जबकि प्रदूषण में बड़े देशों की ही मुख्य भूमिका रही है। लिहाजा उनकी नैतिक जिम्मेदारी बनती है ‘जीरो- ‘कार्बन’ अभियान में विकासशील देशों को आर्थिक मदद करें।
परमाणु नीति पर हो पुनर्विचार
हर्ष वी. पंत, ( लेखक आब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन में अध्ययन एवं विदेश नीति प्रभाग के वाइस-प्रेसिडेंट हैं )
भारत 25 वर्ष पहले एक परमाणु शक्तिसंपन्न देश के रूप में स्थापित हुआ। भले ही थार रेगिस्तान में हुए उन परमाणु परीक्षणों के 25 वर्ष बीते हों, लेकिन असल में भारतीय परमाणु कार्यक्रम की शुरुआत स्वतंत्रता के तुरंत बाद हो गई थी। प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने 1948 में होमी जहांगीर भाभा के नेतृत्व में भारत के परमाणु अभियान को हरी झंडी दिखाई। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने मई 1974 में शांतिपूर्ण परमाणु परीक्षण कराए। इसके बावजूद परमाणु हथियारों तक पहुंचने में भारत को करीब पांच दशक लग गए। परमाणु युग के इतिहास में किसी अन्य देश ने इसके लिए इतना समय नहीं लिया। हालांकि, परमाणु विकल्प को लेकर भारत के ईमानदारी से अपनाए गए धैर्य का कोई भौतिक या कूटनीतिक लाभ नहीं मिला। अमेरिका के नेतृत्व वाले पश्चिमी देश, जो खुद को वैश्विक परमाणु ढांचे का संरक्षक समझते आए हैं, उन्हें भारत के परमाणु इरादों को लेकर संदेह रहा। इसका परिणाम भारतीय परमाणु और रक्षा उद्योग पर भारी तकनीकी प्रतिबंधों के रूप में पड़ा। जबकि वे अपने विरोधियों के परमाणु कार्यक्रमों पर अंकुश लगाने में नाकाम रहे। पिछली सदी के सातवें दशक में न केवल चीन ने परमाणु बम बनाने में सफलता हासिल की, बल्कि बाद में पाकिस्तान को इस मामले में मदद भी पहुंचाई।
वर्ष 1989 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी दबाव के कारण परमाणु हथियार बनाने की दिशा में आगे बढ़े। परमाणु नि:शस्त्रीकरण को लेकर अपनी पुरानी नीति के चलते भारत तब भी इसके लिए पूरी तरह तैयार नहीं था। कतिपय कारणों से हिचक बनी रही। अंतत:, 1998 के परमाणु परीक्षणों ने भारत को अपने अंतरराष्ट्रीय संबंधों के आदर्शवाद से मुक्त किया। परमाणु हथियारों को लेकर भारत की आत्मस्वीकृति ने विदेश नीति आदर्शवाद की जड़ता दूर करने में मदद करने के साथ ही गुप्त परमाणु कार्यक्रम को लेकर जुड़ी मनोवैज्ञानिक बाधाओं से भी मुक्ति दिलाई। तब भले ही विश्व भारत को परमाणु शक्तिसंपन्न देश की मान्यता देने के लिए तैयार न हो, लेकिन भारत स्वयं अपनी यह पहचान घोषित करने को तैयार था। भारत-अमेरिका संबंधों की दृष्टि से परमाणु परीक्षण मुश्किल में एक वरदान सिद्ध हुए। यदि भारत की परमाणु अनिश्चितता से वाशिंगटन की ऐसी उम्मीदें बंधी हुई थीं कि आखिरकार नई दिल्ली परमाणु अप्रसार के उसके एजेंडे पर सहमत हो जाएगी तो नई दिल्ली ने अमेरिका की परमाणु अप्रसार की वकालत को वैश्विक ढांचे में उसके उभार की राह में एक बाधा के रूप में देखा। परीक्षणों ने भारत की इस ग्रंथि को दूर किया और अमेरिका को अपने परमाणु अप्रसार का एजेंडा छोड़कर आगे बढ़ना पड़ा। परमाणु परीक्षणों के एक दशक के भीतर ही भारत ने तीन मूलभूत कूटनीतिक लक्ष्य प्राप्त किए। कारगिल युद्ध में भारत ने परमाणु मोर्चे पर जिम्मेदार एवं संयमित व्यवहार का परिचय दिया। इसने भारत-अमेरिका रणनीतिक साझेदारी की बुनियाद रखने के साथ ही अमेरिका की दक्षिण एशियाई नीति में भारत को पाकिस्तान से अलग किया। दूसरा, आर्थिक-सैन्य शक्ति के रूप में भारत के उभार ने उसे एशियाई शक्ति संतुलन में चीन के साथ खड़ा किया। आज भी हिंद-प्रशांत क्षेत्र में अमेरिकी सहयोगियों-रणनीतिक साझेदारों में भारत ही इकलौती परमाणु शक्ति है। तीसरा, भारत-अमेरिका नागरिक परमाणु समझौते ने भारत को परमाणु शक्तिसंपन्न देश की मान्यता दिलाई।
परमाणु दर्जे की रजत जयंती के मौके पर हमें कुछ बड़ी चुनौतियों को अनदेखा नहीं करना चाहिए। भारत का जिम्मेदार परमाणु व्यवहार उसके परमाणु संयम की बुनियाद पर टिका है। यही संयम उसकी परमाणु रणनीति और हथियारों के विस्तार में भी दिखा। हालांकि, भारत की ओर से हमले की पहल न करने वाली रणनीति पाकिस्तान पर कोई खास असर नहीं डाल पाई, जो यदाकदा परमाणु घुड़की देता रहता है। लगातार उकसावे के मामलों ने भारत को अपने खोल में धकेल दिया। इसके चलते चाहे 2001 में संसद पर हमला हो या फिर 2008 का मुंबई आतंकी हमला, भारत पाकिस्तानी प्रपंचों को मुंहतोड़ जवाब देने में अक्षम रहा। अब हिमालयी क्षेत्र में चीन के लगातार बढ़ते दुस्साहस को देखते हुए भारत में कुछ सामरिक विश्लेषक मानने लगे हैं कि देश को ‘नो फर्स्ट यूज’ वाली नीति का परित्याग करना चाहिए। भले ही परमाणु तकनीक के मामले में भारत ने भारी प्रगति की हो, लेकिन चीन के मुकाबले में दूसरे आघात की क्षमता में वह कुछ पीछे रह गया। ऐसे में केवल पहली बार हमला करने की नीति से परहेज करना ही पाकिस्तान और चीन के विरुद्ध भारत की चिंताएं दूर नहीं कर पाएगा। चीन के साथ टकराव की स्थिति में परमाणु विकल्प नीतिगत या सामरिक रूप से प्रभावी नहीं होगा। हिमालयी क्षेत्र में परमाणु हथियारों का प्रयोग न केवल भारत के लिए भौगोलिक रूप से विध्वंसक सिद्ध होगा, बल्कि चीन के जवाबी हमले से यहां स्थिति और विकराल हो सकती है। ऐसे में, भारत-चीन सैन्य टकराव मुख्यत: सीमित युद्ध या क्षेत्र विशेष तक ही सिमटा रहेगा। भारत के लिए सीमा पर पारंपरिक सैन्य बल को सशक्त करना ही श्रेयस्कर होगा, जिसके चलते चीन को किसी भी दुस्साहस की भारी कीमत चुकानी पड़े।
पाकिस्तान के मामले में भी भारत को पारंपरिक सैन्य विकल्प सशक्त करते हुए उसकी परमाणु हेकड़ी निकालने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। सर्जिकल स्ट्राइक और बालाकोट स्ट्राइक से यह सिद्ध हुआ कि दक्षिण एशिया में सैन्य तनातनी बढ़ने के बावजूद परमाणु युद्ध छिड़ने से रहा। भारत को चीनी चुनौती से निपटने पर ही विशेष ध्यान देना होगा। जब तक भारत अपनी अंतर महाद्वीपीय बैलिस्टिक मिसाइलों के निशाने पर समूचे चीनी क्षेत्र को निशाना बनाने में सक्षम नहीं होगा तब तक उसकी क्षमताओं पर सवाल उठेंगे।
बहरहाल, यह स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं कि 1991 के आर्थिक सुधारों के साथ ही 1998 के परमाणु परीक्षणों ने भी वैश्विक मंच पर भारत के उभार की राह खोलने में अहम भूमिका निभाई। इससे भारत को भारी कूटनीतिक बढ़त मिली है। हालांकि, अपनी सैन्य रणनीति में परमाणु क्रांति के समावेश की आवश्यकता को पूरा किया जाना अभी भी शेष है।
Date:18-05-23
एआई का नियमन
संपादकीय
यूरोपीय संसद की एक समिति ने आर्टिफिशल इंटेलिजेंस (एआई) कानून के मसौदे पर मुहर लगा दी है। अब इस मसौदे पर चर्चा होगी और संसद के आगामी सत्र में इस पर मतदान होगा। इस मसौदे में निहित प्रावधान इसके पारित होने से पहले बदल सकते हैं। यह अधिनियम न केवल यूरोपीय संघ में एआई यानी कृत्रिम मेधा के उपयोग से संबंधित मानक तय करेगा बल्कि यह उन सभी इकाइयों के मामले में भी उसी तरह काम करेगा जिस तरह यूरोपीय संघ का जनरल डेटा प्रोटेक्शन रेग्युलेशन (जीडीपीआर) करता है। जीडीपीआर की तरह ही एआई अधिनियम अन्य जगहों के लिए विधान तैयार करने में मानक साबित होगा। एआई की कई श्रेणियां गोपनीयता का हनन कर रही थीं और भेदभाव को बढ़ावा दे रही थीं। इन पर पाबंदी लगा दी गई है। सरल शब्दों में कहें तो जोखिम के आधार पर एआई का वर्गीकरण किया जाएगा। यह जोखिम न्यूनतम से सीमित, उच्च और अस्वीकार्य हो सकते हैं। हालांकि, कुछ अधिक जोखिम वाली कुछ तकनीकों पर प्रतिबंध नहीं लगाए जाएंगे मगर इनका इस्तेमाल करने वाली इकाइयों को पारदर्शिता बरतनी होगी और ये सख्त निगरानी एवं अंकेक्षण के दायरे में होंगी।
समिति ने कहा कि कि वह यह सुनिश्चित करना चाहती है कि लोगों द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली एआई प्रणाली सुरक्षित, पारदर्शी, बिना भेदभाव वाली हो और इन तक लोगों की पहुंच आसान हो। समिति एआई के लिए एक सार्वभौम परिभाषा तय करना चाहती है जो तकनीक के लिहाज से तटस्थ रहे ताकि इनका इस्तेमाल भविष्य की एआई प्रणाली में किया जा सके। जिन प्रणालियों पर प्रतिबंध लगाए गए हैं उनमें सार्वजनिक स्थानों पर इस्तेमाल होने वाले रियल टाइम बायोमेट्रिक आइडेंटिफिकेशन शामिल हैं। फेशियल रिकग्निशन इसका एक उदाहरण है जिसका इस्तेमाल हाल में लंदन पुलिस ने राजतंत्र का विरोध करने वाले लोगों की पहचान के लिए किया था। इस अधिनियम में रिमोट बायोमेट्रिक आईडी सिस्टम (उदाहरण के लिए भीड़ में सीसीटीवी से किसी सदस्य की तलाश) को भी प्रतिबंधित किया गया है। हालांकि, अपवाद स्वरूप न्यायालय की अनुमति के बाद पुलिस प्रशासन गंभीर मामलों में इस प्रणाली का इस्तेमाल कर सकता है। जिन अन्य प्रणालियों पर प्रतिबंध लगाए गए हैं उनमें लिंग, प्रजाति, जातीयता, नागरिकता की स्थिति, धर्म, राजनीतिक झुकाव जैसी संवेदनशील बातों का इस्तेमाल करने वाला बायोमेट्रिक कैटिगराइजेशन सिस्टम भी शामिल है। इसी तरह, व्यक्ति से जुड़ी जानकारियों, स्थान या पिछले आपराधिक व्यवहार के आधार पर तैयार प्रिडिक्टिव पुलिसिंग सिस्टम पर भी पाबंदी लगा दी गई है।
अधिनियम में सोशल मीडिया या सीसीटीवी से प्राप्त व्यक्तिगत जानकारियां एकत्र कर सूचना भंडार तैयार करने पर भी प्रतिबंध लगा दिया गया है। ऐसा इसलिए कि इससे लोगों की निजता का हनन होता है। अधिनियम में तथाकथित इमोशनल रिकग्निशन प्रणाली पर भी प्रतिबंध लगा दिया गया है जिसका इस्तेमाल कानून लागू करने, सीमा प्रबंधन, कार्य स्थल और शैक्षणिक संस्थानों में लोगों की पहचान के लिए इस्तेमाल होता है। समिति ने ऊंचे जोखिम वाली एआई तकनीक को ऐसी तकनीक के रूप में परिभाषित किया है जो लोगों के स्वास्थ्य, उनकी सुरक्षा, मौलिक अधिकार या पर्यावरण को नुकसान पुहंचा सकती हैं। समिति ने राजनीतिक अभियानों में मतदाताओं को प्रभावित करने वाली और 4.5 करोड़ से अधिक उपयोगकर्ताओं वाली सोशल मीडिया कंपनियों द्वारा इस्तेमाल होने वाली सिफारिशी प्रणाली को ऊंचे जोखिम वाली एआई के रूप में परिभाषित किया है। इनका इस्तेमाल जारी रह सकता है मगर इन पर निगरानी सख्त रहेगी। जीपीटी जैसे मॉडलों को भी पारदर्शिता के मामले में सख्त नियमों का अनुपालन करना होगा। जीपीटी जैसे मॉडलों को यह भी बताना होगा कि एआई से कौन सी सामग्री तैयार की गई है। इसके अलावा अवैध सामग्री का प्रकाशन रोकने के लिए तैयार ढांचे की भी जानकारी देनी होगी।
ओपन-सोर्स लाइसेंस के तहत शोध गतिविधियों के लिए कुछ रियायतें होंगी। इसके अलावा सरकार द्वारा स्वीकृत नियंत्रित जांच आदि में इस्तेमाल में लाए जाने से पहले किसी एआई तकनीक की जांच की अनुमति होगी। अधिनियम में एक ऐसे प्रावधान का भी प्रस्ताव है जिससे नागरिकों के लिए शिकायत दर्ज कराना और उन एआई प्रणालियों के आधार पर लिए गए निर्णयों पर स्पष्टीकरण मांगने का अधिकार होगा जो उन्हें प्रभावित करते हैं। इन नियमों के क्रियान्वयन के लिए यूरोपीय संघ के एआई कार्यालय एवं संबंधित राष्ट्रीय प्राधिकरणों को अपनी क्षमता बढ़ानी होगी। मगर ऐसी सीमाएं तय करना महज एक शुरुआत मानी जा सकती है क्योंकि एआई तकनीक कानून की जद से कहीं आगे निकल गई है।
Date:18-05-23
अधिकार और सीमा
संपादकीय
जांच एजंसियों का यह दायित्व होता है कि अगर कहीं से किसी गड़बड़ी की शिकायत आई है और उसकी पड़ताल करने की जिम्मेदारी उन्हें सौंपी गई है तो उसे अंजाम देते हुए वे अपने अधिकारों और सीमा का खयाल रखें। लेकिन ऐसी शिकायतें अक्सर आती हैं कि जांच के क्रम में किसी एजंसी के अधिकारियों के पेश आने का तरीका कई बार भयादोहन की तरह लगने लगता है। सर्वोच्च न्यायालय ने मंगलवार को प्रवर्तन निदेशालय यानी ईडी के बर्ताव को लेकर आई शिकायत पर सुनवाई करते हुए इसी प्रवृत्ति पर एक अहम टिप्पणी की कि एजंसी अपना काम जरूर करे, लेकिन डर का माहौल न पैदा करे। दरअसल, मामला छत्तीसगढ़ सरकार से संबंधित है, जिसमें सुप्रीम कोर्ट में यह शिकायत की गई कि दो हजार करोड़ रुपए के शराब घोटाले से जुड़े धनशोधन के आरोपों की पड़ताल करते हुए ईडी बहुत आपाधापी में काम कर रहा है और उसका मकसद मुख्यमंत्री भूपेश बघेल को फंसाना है। ईडी पर लगाए गए आरोपों के मुताबिक राज्य के आबकारी विभाग के कई अधिकारियों को गिरफ्तारी की धमकी भी दी गई है। किसी घोटाले की जांच के दायित्व को पूरा करना ईडी के अधिकार क्षेत्र में है, लेकिन अगर उस पर लगे आरोप सही हैं तो यह उचित तरीका नहीं है।
हालांकि ईडी की ओर से अदालत को यह सफाई पेश की गई कि जांच एजंसी सिर्फ शराब घोटाले से जुड़े मामले में हुई अनियमितताओं की जांच कर रही है। निर्धारित प्रक्रिया के तहत होने वाली जांच से किसी को एतराज नहीं होना चाहिए। लेकिन अगर इस क्रम में आरोपों के दायरे में आए संबंधित पक्षों के सामने भय का वातावरण बनाया जाता है, धमकी का इस्तेमाल किया जाता है तो यह अपने आप में जांच की प्रक्रिया को कठघरे में खड़ा करता है। सुप्रीम कोर्ट ने भी इस पक्ष पर अहम टिप्पणी की कि अगर जांच के क्रम में इस तरह का व्यवहार किया जाता है तो एक वास्तविक कारण भी संदिग्ध हो जाता है। कायदे से देखें तो छत्तीसगढ़ में शराब घोटाले का जो स्वरूप अब तक सामने आ सका है, उसकी उचित तरीके से पड़ताल होनी चाहिए और सभी तथ्य सामने आने चाहिए, ताकि असली दोषियों को सजा के अंजाम तक पहुंचाया जा सके। ईडी का भी मकसद यही होगा। लेकिन इतने भर से किसी को अधिकारों और दायित्वों की सीमा का खयाल न रखने की छूट नहीं मिल जाती।
विडंबना यह है कि इससे पहले भी ईडी की कार्यशैली को लेकर सवाल उठ चुके हैं और अदालतों की ओर से उसकी सीमा को लेकर स्पष्ट टिप्पणियां की गई हैं। इसके बावजूद अगर किसी पक्ष से ईडी पर भय पैदा करके मनमानी करने के आरोप लग रहे हैं और अदालत को हस्तक्षेप करना पड़ रहा है तो इससे जांच एजंसी की साख को नुकसान ही पहुंचेगा। यों भी पिछले कुछ सालों में प्रवर्तन निदेशालय, आयकर विभाग और सीबीआइ की ओर से लक्ष्य करके डाले गए छापों के बारे में यह कहा जाने लगा है कि ये एजंसियां सरकार के इशारे पर काम कर रही हैं; कई बार वे दायरे से बाहर जाकर भी काम करती हैं और इस तरह उनका मकसद जांच करने के बजाय किसी को परेशान करना ज्यादा हो जाता है। हालांकि इस तरह के आरोप सभी सरकारों के दौर में लगते रहे हैं। लेकिन अगर किसी मामले में हो रही कार्रवाई में बदले की भावना रखने के आरोप सामने आने लगते हैं तो इससे जांच की विश्वसनीयता भी प्रभावित होती है। जरूरत इस बात की है कि किसी भी जांच एजंसी के दायित्वों या कार्यशैली को लेकर सभी पक्षों के बीच भरोसा मजबूत हो।
Date:18-05-23
ईडी को नसीहत
संपादकीय
सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को केंद्रीय जांच एजेंसी प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) को ‘भय का माहौल’ नहीं बनाने की सलाह दी। छत्तीसगढ़ में कथित रूप से 2000 करोड़ रुपये के शराब घोटाले से जुड़े मनी लॉन्ड्रिंग के मामलों में मुख्यमंत्री भूपेश बघेल को फंसाने की कोशिश के राज्य सरकार के आरोपों के जवाब में सुप्रीम कोर्ट ने यह टिप्पणी की है. गौरतलब है कि मनी लॉन्ड्रिंग का यह मामला आयकर (आईटी) विभाग द्वारा 2022 में दिल्ली की एक अदालत में दायर चार्जशीट पर आधारित है। ईडी ने कोर्ट को बताया था कि छत्तीसगढ़ के शराब कारोबार में एक सिंडिकेट ने बड़ा घोटाला किया है. एजेंसी ने आरोप लगाया कि सिंडिकेट में राज्य सरकार के उच्च पदस्थ अधिकारी, निजी व्यक्ति और राजनीति से जुड़े लोग शामिल हैं, जिन्होंने 2019-22 के बीच दो हजार करोड़ रुपये से अधिक का भ्रष्टाचार किया। जस्टिस एसके कौल और जस्टिस ए. जस्टिस एसके कौल और जस्टिस ए अमानुल्लाह की पीठ के समक्ष छत्तीसगढ़ सरकार ने आरोप लगाया कि जांच एजेंसी मुख्यमंत्री भूपेश बघेल को फंसाने की कोशिश कर रही है, और राज्य के आबकारी विभाग के अधिकारियों और उनके परिवारों को गिरफ्तार करने की धमकी दी जा रही है. उनसे खींचे गए या टाइप किए गए दस्तावेजों पर हस्ताक्षर करने की कोशिश करना। राज्य सरकार के वकील कपिल सिब्बल ने अदालत को बताया कि जांच एजेंसी के ‘खराब व्यवहार’ से चिंतित अधिकारियों ने कहा है कि वे विभाग में काम नहीं करेंगे. निःसंदेह हैरानी की बात यह है कि सरकारी कर्मचारी इस कदर परेशान हैं कि वे अपने दायित्वों के निर्वहन से भी पीछे हटने लगते हैं। राज्य में जल्द ही विधानसभा चुनाव होने वाले हैं और जैसा कि सरकार द्वारा ईडी, सीबीआई, आयकर विभाग जैसी एजेंसियों के दुरुपयोग के आरोप जारी हैं, उन्हें संदेह है कि ईडी दबाव में काम कर रही है। यहां बिंदु ईडी की कार्रवाई पर टिप्पणी करने का नहीं है, बल्कि चुनाव अधिनियम से पहले अधिकारियों पर इस तरह से दबाव डालना केवल संदेह पैदा करता है। कोर्ट ने यह भी कहा है कि जांच एजेंसी जिस तरह का बर्ताव कर रही है, उसकी जायज वजह भी संदिग्ध हो जाती है. इससे भी ज्यादा जब ऐसे आरोप लगते हैं कि सरकार गैर-बीजेपी सरकारों को डराने और परेशान करने और उनके सामान्य कामकाज को बाधित करने के लिए केंद्रीय एजेंसियों का इस्तेमाल करती है। इसलिए यह जरूरी है कि जांच एजेंसी को अपनी विश्वसनीयता बनाए रखने की जानकारी हो।
Date:18-05-23
पीछे रह गए बड़े शहर
पंकज चतुर्वेदी
दिल्ली से सटे गाजियाबाद का ऊंची इमारतों वाला एक इलाका है क्रोसिंग रिपब्लिक। यहां 29 हाऊसिंग सोसायटी हैं। साक्षरता दर लगभग शत प्रतिशत। यहां कुल 7358 मतदाता पंजीकृत हैं। उत्तर प्रदेश में दूसरे चरण के नगर निगम चुनाव में इनमें से महज 1185 लोग वोट डालने गए। कोई 16 फीसदी मात्र। वैसे तो पूरे नगर निगम क्षेत्र में मतदाताओं की संख्या किसी लोक सभा सीट से कम नहीं है 15 लाख 39 हजार 822, लेकिन इनमें से भी 36. 81 प्रतिशत लोग ही वोट डालने पहुंचे। यहां से विजेता मेयर पद की प्रत्याशी को 350905 वोट मिले अर्थात कुल मतदाताओं के महज 22 फीसदी की पसंद की मेयर।
देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में स्थानीय निकायों के चुनाव में दो चरणों में संपन्न 17 नगर निगमों के चुनाव का मतदान बेहद निराशाजनक रहा। अयोध्या में मतदान हुआ- 47.92 प्रतिशत और विजेता को इसमें से 48.67 प्रतिशत वोट ही मिले। बरेली 41.54 वोट गिरे और विजेता को उसमें से भी साढ़े सैतालिस प्रतिशत मत मिले। कानपुर में 41.34 प्रतिशत मतदान हुआ और विजेता को उसका भी 48 प्रतिशत मिला। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के शहर गोरखपुर में तो मतदान 34.6 प्रतिशत ही हुआ और विजेता को इसका आधा भी नहीं मिला। प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र बनारस के शहर के मात्र 38.98 लोग वोट डालने निकले और मेयर बन गए नेता जी को इसका 46 प्रतिशत मिला। देश की सियासत का सिरमौर रहे इलाहाबाद अर्थात प्रयागराज में तो मतदान महज 31.35 प्रतिशत रहा और इसमें से भी 47 प्रतिशत पाने वाला शहर का मेयर हो गया। राजधानी लखनऊ के हाल तो और भी बुरे रहे, वहां पड़े-मात्र 35.4 प्रतिशत वोट और विजेता को इसमें से मिले 48 प्रतिशत। सभी 17 नगर निगम में सहारनपुर के अलावा कहीं आधे लोग भी वोट डालने नहीं निकले और विजेता को भी लगभग इसका आधा या उससे भी कम मिला। जाहिर है विजयी मेयर भले ही तकनीकी रूप से बहुमत का है, लेकिन ईमानदारी से शहर के अधिकांश लोगों का प्रतिनिधित्व करता ही नहीं। गौर करने वाली बात है जो शहर जितना बड़ा है, जहां विकास और जन सुविधा के नाम पर सरकार के बजट का अधिक हिस्सा खर्च होता है, जहां साक्षरता दर, प्रति व्यक्ति आय आदि औसत से बेहतर हैं, वहीं के लोग वोट डालने नहीं निकले। विदित हो कि उत्तर प्रदेश में कुल 17 नगर निगम में 1420 वार्ड हैं, जिनमें मतदाताओं की संख्या एक करोड़ नब्बे लाख सत्तासी हजार सात सौ चौतीस (1,90,87734) है, जो देश के कई राज्यों से अधिक है। नगर पालिकाओं की संख्या 199 है, जिनमें 5327 वार्ड और एक करोड़ 79 लाख 1176 मतदाता हैं। नगर पंचायतों की संख्या 544, इनमें वाडरे की संख्या 7177 और मतदाताओं की संख्या 93,50541 है।
पहले चरण में नौ मंडलों में कुल 390 स्थानों पर चुनाव हुए। सर्वाधिक निराशा महानगरों में मतदान को लेकर है, जो लोकतंत्र के लिए बड़ा खतरा है। भले ही कुछ लोग जीत जाएं लेकिन वे कुल मतदाता के महज पंद्रह से बीस प्रतिशत लोगों के ही प्रतिनिधि होंगे। यह भी समझना होगा कि जिन बड़े शहरों में कम मतदान हो रहा है, वहां विकास के नाम पर सबसे अधिक सरकारी धन लगाया जाता है, और अधिक मतदान वाले छोटे कस्बे गंदगी, नाली जैसी मूलभूत सुविधाओं पर भी मौन रहते हैं। एक बारगी आरोप लगाया जा सकता है कि पढ़ा-लिखा मध्यम वर्ग घर बैठ कर लोकतंत्र को कोसता तो है, लेकिन मतदान के प्रति उदासीन रहता है। विचारणीय है कि क्या वोट न डालने वाले आधे से अधिक प्रतिशत से ज्यादा लोगों की निगाह में चुनाव लड़ रहे सभी उम्मीदवार या मौजूदा चुनाव व्यवस्था नालायक थी?
जिन परिणामों को राजनैतिक दल जनमत की आवाज कहते रहे हैं, ईमानदारी से आकलन करें तो यह सियासी सिस्टम के खिलाफ अविास मत था। जब कभी मतदान कम होने की बात होती है, तो प्रशासन और राजनैतिक दल अधिक गरमी या, छुट्टी न होने जैसे कारण गिनाने लगते हैं लेकिन इस बार तो मौसम भी सुहाना था। कड़वे सच को सभी राजनेताओं को स्वीकारना होगा कि मत देने न निकलने वाले लोगों की बड़ी संख्या उन लोगों की है, जो स्थानीय निकायों की कार्य प्रणाली से निराश और नाउम्मीद हैं। यह भी दुखद पहलू है कि आम लोग नहीं जानते कि स्थानीय निकाय के प्रतिनिधि से उन्हें क्या उम्मीद है, और विधायक व सांसद से क्या। वे सांसद से सड़क, नाली की बात करते हैं, और पाषर्द चुनाव में पाकिस्तान को मजा चखाने के भाषण सुनते हैं। एक बात और, हजारों लोग सड़क पर ऐसे मिले जिन्होंने लोक सभा और विधानसभा में वोट डाला, उनके पास मतदाता पहचान पत्र हैं, लेकिन उनके नाम स्थानीय निकाय की मतदाता सूची में थे ही नहीं। मतदाताओं की बढ़ती संख्या के साथ-साथ उम्मीदवारों की संख्या अधिक हो रही है, लेकिन इसकी तुलना में नये मतदान केंद्रों की संख्या नहीं बढ़ी है। मतदाता सूची में नाम जुड़वाना जटिल है, और उससे भी कठिन है मतदाता पहचानपत्र पाना। एक आंकड़े को बारीकी से देखें तो मतदाता सूची तैयार करने या उसमें नाम जोड़ने में आने वाली दिक्कतों का आकलन हो सकता है। उत्तर प्रदेश में नगर निगम वाले 17 शहरों में पुरुष मतदाता तो एक करोड़ 27 हजार 203 हैं, लेकिन महिला मतदाताओं की संख्या है महज 88 लाख 17 हजार 531-बड़े शहरों में इतना अधिक लैंगिक विभेद का आंकड़ा होता नहीं, लेकिन स्पष्ट है कि महिला मतदाता के पंजीयन के काम में उदासी है। चुनाव से बहुत पहले बड़े-बड़े रणनीतिकार मतदाता सूची का विश्लेषण कर तय कर लेते हैं कि हमें अमुक जाति या समाज या इलाके के वोट चाहिए ही नहीं यानी जीतने वाला क्षेत्र का नहीं, किसी जाति या धर्म का प्रतिनिधि होता है। चुनाव लूटने के ये हथकंडे कारगर हैं, क्योंकि चाहे एक वोट से जीतो या पांच लाख वोट से, दोनों के ही सदन में अधिकार बराबर होते हैं।
नगरीय निकायों में कुल मतदान और जीत के अंतर के हिसाब से इलाके की जनसुविधा और पाषर्द की हैसियत तय करने का कानून आए तो प्रतिनिधि न केवल मतदाता सूची में लोगों के नाम जुड़वाएंगे, बल्कि मतदाता को वोट डालने के लिए भी प्रेरित करेंगे। राजनैतिक दल कभी नहीं चाहेंगे कि मतदान अधिक हो क्योंकि इसमें उनके सीमित वोट बैंक के अल्पमत होने का खतरा बढ़ जाता है। वस्तुत: हमारा लोकतंत्र अपेक्षाकृत आदर्श चुनाव पण्राली की बाट जोह रहा है, जिसमें मतदाताओं का पंजीयन हो और मतदान ठीक तरीके से होना सुनिश्चित हो सके।
अपने रोगों का इलाज मांगता मणिपुर
रविशंकर रवि, ( पूर्वोत्तर स्थित वरिष्ठ पत्रकार )
सुरक्षा बलों की मौजूदगी और केंद्र सरकार की तत्परता से भले मणिपुर में स्थिति सामान्य दिख रही है, लेकिन भीतर ही भीतर तनाव बरकरार है। इसीलिए इंफाल घाटी और म्यांमार से सटे पहाड़ी जिलों में सुरक्षा बलों की चौकसी और पेट्रोलिंग अब भी जारी है। यह बात भी अब साफ होती जा रही है कि इस हिंसा के पीछे अफीम की खेती और म्यांमार से होने वाली अवैध घुसपैठ एक बड़ी वजह थी।
मणिपुर सरकार का मानना है कि चुराचांदपुर जिले में भड़की हिंसा के पीछे संघर्ष विराम में शामिल कुकी उग्रवादी समूहों का हाथ है। यह हिंसा सुनियोजित थी और मैतेई समुदाय के गांवों व धार्मिक स्थलों की पहचान पहले ही कर ली गई थी। अगले दिन उसकी प्रतिक्रिया में इंफाल घाटी में हिंसा भड़की और कुकी समुदाय के लोगों व कुछ चर्च को निशाना बनाया गया। इस हिंसा को मैतेई बनाम कुकी संघर्ष का रूप देने की साजिश की गई, जबकि यह सच नहीं है। हकीकत तो यह है कि हिंसा के दौरान दोनों समुदाय के लोगों ने बड़े पैमाने पर एक-दूसरे की मदद की है। इतना ही नहीं, इंफाल घाटी में बसे मैतेई समुदाय के ज्यादातर लोग अनुसूचित जनजाति (एसटी) का दर्जा पाने के पक्ष में नहीं हैं।
दरअसल, इस हिंसा की बुनियाद पिछले कुछ दिनों से बन रही थी। इसमें नशे के सौदागरों और संघर्ष विराम कर केंद्र सरकार से वार्ता करने वाले कुकी उग्रवादियों का बड़ा हाथ है। मणिपुर सरकार द्वारा ड्रग्स के खिलाफ शुरू किया गया अभियान बड़ा कारण माना जा रहा है, क्योंकि राज्य की सीमा से सटे पहाड़ी जिलों में बड़े पैमाने पर अफीम की अवैध खेती होती है। कुकी उग्रवादी और नशे के सौदागर अफीम को बाहर भेजने का काम करते हैं। मणिपुर पुलिस के अभियान की वजह से नशीले पदार्थों का यह कारोबार बुरी तरह प्रभावित हुआ है।
दिक्कत यह भी है कि मणिपुर से सटी भारत-म्यांमार सीमा पूरी तरह खुली हुई है। सीमावर्ती इलाके में सुरक्षा बलों की मौजूदगी नहीं के बराबर है। सीमा के दोनों ओर कुकी समुदाय के लोग रहते हैं, और वे बिना रोक-टोक आते-जाते रहते हैं। म्यांमार की राजनीतिक और आर्थिक स्थिति के कारण वहां के कुकी मणिपुर की सीमा में आकर बस भी रहे हैं। उनके बीच उग्रवादी भी आम आदमी बनकर छिपकर रहते हैं। भले ही वे केंद्र सरकार से बातचीत कर रहे हैं, लेकिन अपनी आय बढ़ाने के लिए वे अफीम की खेती को बढ़ावा देते हैं।
एक बड़ी समस्या म्यांमार से होने वाला अवैध प्रवेश है। इसके खिलाफ मणिपुर सरकार सर्वेक्षण करा रही है, ताकि अवैध नागरिकों की पहचान हो सके। इन घटनाक्रमों से संघर्ष विराम कर चुके कुकी उग्रवादी खुश नहीं हैं। उधर, कुकी समुदाय के राजनीतिक नेता अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए म्यांमार से आने वाले अवैध नागरिकों को बसाने में मदद कर रहे हैं। यही वजह है कि म्यांमार सीमा से सटे इलाकों में कुकी समुदाय की कई नई बस्तियां उग आई हैं। इस हिंसा में भी प्रभावित कुकी लोगों के लिए राहत शिविर के नाम पर बैरक बनाने की जगह, अलग-अलग झोपड़ियां बनाई जा रही हैं, ताकि नई बस्तियां बसाई जा सकें। बीरेन सिंह सरकार की सख्ती की वजह से कुकी समुदाय के वैसे तत्वों में पहले से गुस्सा था। राज्य सरकार के आंकड़ों के अनुसार, अवैध नागरिकों की पहचान के लिए बनी कैबिनेट उप-समिति ने पहले चरण में टेंग्नौपाल जिले के 13 गांवों में 1,147, चंदेल जिले के तीन गांवों में 881, चुराचांदपुर जिले के एक गांव में 154, कामजोंग जिले के 24 गांवों में 500 अवैध प्रवासियों की पहचान की थी, जो राज्य में म्यांमार से हो रही घुसपैठ की भयावहता को दर्शाता है।
इस आग में पहाड़ी जिले से निर्वाचित कुकी समुदाय के कुछ विधायक भी घी डालने का काम कर रहे थे। वे कुकी बहुल इलाके के लिए अलग प्रशासनिक तंत्र की मांग कर रहे हैं। इसमें सत्तारूढ़ पार्टी के नेता भी शामिल हैं। उनका आरोप है कि मणिपुर सरकार उनके हितों की रक्षा नहीं कर रही है, इसीलिए उनकी आबादी के क्षेत्रों को छठी अनुसूची का दर्जा मिले। उन्हें एसटी का दर्जा प्राप्त है और एसटी कोटे में सरकारी नौकरी पाने वालों में उनकी संख्या सर्वाधिक है। कुकी समुदाय के कुछ विधायकों ने अलग राज्य की मांग उठाकर स्थिति को राजनीतिक संकट की ओर मोड़ दिया है। मगर इसके लिए मणिपुर सरकार तैयार नहीं है। इस पूरी साजिश का मकसद बीरेन सिंह को हटाना भी है।
मुख्यमंत्री ने अलग प्रदेश की मांग ठुकराते हुए अवैध हथियार रखने वाले उग्रवादियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की चेतावनी दी है। मैतेई समुदाय किसी भी हाल में राज्य की भौगोलिक स्थिति में बदलाव को स्वीकार नहीं करेगा, इसलिए मणिपुर के पहाड़ी जिलों को ग्रेटर नगालैंड में शामिल करने की मांग का मुखर विरोध होता रहा है। अभी यह जरूरी है कि मणिपुर के पड़ोसी राज्य संयम और सतर्कता बरतें। फिलहाल, मामले को शांत करने के लिए सुरक्षा बलों की चौकसी बढ़ाने के साथ-साथ राज्य सरकार को मणिपुर उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ अपील करनी चाहिए, जिसमें उसने मैतेई समुदाय के लोगों को एसटी का दर्जा देने की मांग को आगे बढ़ाने के लिए कहा था। एक भाजपा विधायक ने सुप्रीम कोर्ट में अपील भी की है। इसके साथ, केंद्र सरकार को म्यांमार से होने वाली अवैध घुसपैठ को रोकने के लिए ठोस कदम उठाने होंगे। इस दिशा में सुरक्षा बलों की चौकसी सीमावर्ती इलाकों में बढ़ानी होगी।
अब सेना और असम राइफल्स रिमोट एयरक्राफ्ट और एरियल सर्वे भी कर रही हैं। संघर्ष विराम समझौते पर हस्ताक्षर करने वाले कुकी उग्रवादी समूह को उनके शिविर में रहने को बाध्य करना होगा। उनके हथियारों को जब्त करना होगा। साथ ही, अफीम की खेती को बंद करने की व्यवस्था करनी होगी। अफीम की खेती करने वाले तमाम समुदायों के लोगों के खिलाफ समान रूप से कार्रवाई होनी चाहिए। सीमावर्ती इलाके में वनक्षेत्रों में अतिक्रमण रोककर अवैध घुसपैठ को रोकना होगा। कम से कम तीन पक्षों या राज्यों से जुड़ी इस समस्या का समाधान आसान नहीं है, क्योंकि इसमें सबकी अपनी-अपनी राजनीति शामिल है। देश या पूर्वोत्तर की राजनीति पर इसका क्या असर होगा, अभी यह आकलन मुश्किल है। अभी सरकार व राजनीतिक दलों की प्राथमिकता यह होनी चाहिए कि तनाव जल्द दूर हो, ताकि लोग अपने घर लौट आएं।