14-08-2021 (Important News Clippings)

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14 Aug 2021
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Date:14-08-21

आवश्यक मुद्दे पर भारत का ध्यानाकर्षण

विवेक काटजू, ( लेखक विदेश मंत्रालय में सचिव रहे हैं )

बीते नौ अगस्त को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद यानी यूएनएससी बैठक की अध्यक्षता की। उन्होंने ‘सामुद्रिक सुरक्षा को बढ़ाना-अंतरराष्ट्रीय सहयोग के लिए एक केस’ विषय पर अपना अध्यक्षीय संबोधन दिया। वर्चुअल माध्यम से हुई बैठक में वैश्विक महत्व के इस विषय पर दुनिया के अन्य नेताओं ने भी भाग लिया। इनमें रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन, वियतनाम के प्रधानमंत्री फाम मिन चिन, केन्या के राष्ट्रपति उहुरु केन्यात्ता और अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन शामिल रहे। सुरक्षा परिषद की अध्यक्षता का दायित्व अगस्त में भारत के पास रहेगा। परिषद के एजेंडे को निर्धारित करने में अध्यक्ष की महत्वपूर्ण भूमिका होती है, जिसे अन्य सदस्यों विशेषकर पांच स्थायी सदस्यों को साधना पड़ता है।

अधिकांश भारतीयों के लिए सुरक्षा चुनौतियों पर ध्यान केंद्रित करना एक साझा चिंता है। विशेषकर उत्तरी सीमा से सटे राज्यों पर यह बात और प्रभावी ढंग से लागू होती है। ऐतिहासिक रूप से भारत में आक्रांताओं ने खैबर और बोलन दर्रों के जरिये ही घुसपैठ की है, जो अब अफगानिस्तान और पाकिस्तान को अलग करते हैं। हमारे प्राचीन और मध्यकालीन इतिहास पर इसकी छाप है। उन आततायियों की कटु स्मृतियां आज भी भारतीय मानस पटल पर अंकित हैं। वहीं अंग्रेज समुद्री मार्ग से व्यापारी के वेश में आए और बाद में आक्रांता बन गए। इसके बाद ही हमारी चेतना में यह बात बैठी कि समुद्री सीमाओं से भी देश की सुरक्षा को खतरा हो सकता है। यहां तक कि स्वतंत्रता के बाद भी भारत की सुरक्षा को स्थल सीमा से ही संकट झेलने पड़े। इन सीमाओं पर पाकिस्तान और चीन हमें परेशान करते रहे। हम यह भी नहीं भूल सकते कि भारत 7,516 किमी लंबी तट रेखा वाला देश है। इस सीमा से लगे सागर अवसरों की खान होने के साथ ही चुनौतियों का सबब भी हैं।

मोदी को इसका श्रेय जाता है कि वह भारत की अर्थव्यवस्था और सुरक्षा में सामुद्रिक मोर्चे की महत्ता पर ध्यान दे रहे हैं। उन्होंने न केवल सामुद्रिक सुरक्षा के वैश्विक पहलुओं पर ध्यान केंद्रित किया, बल्कि भारतीयों को भी देश के राष्ट्रीय जीवन में महासागरों की महत्ता समझाई। अपने संबोधन में वैश्विक सामुद्रिक सुरक्षा को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए मोदी ने पांच महत्वपूर्ण बिंदु गिनाए। उन्होंने समुद्री व्यापार की सुरक्षा को प्राथमिकता में रखा। उन्होंने आह्वान किया कि वैधानिक व्यापार की राह में कोई बाधा नहीं आनी चाहिए, क्योंकि सभी देशों की समृद्धि वस्तुओं की निर्बाध आवाजाही पर निर्भर करती है। एक बेहद उल्लेखनीय बिंदु की ओर संकेत करते हुए मोदी ने यथार्थ ही कहा कि देशों के बीच किसी भी सामुद्रिक विवाद का समाधान अंतरराष्ट्रीय कानूनों के आधार पर ही किया जाना चाहिए। उन्होंने चीन का नाम नहीं लिया, पर उनका इशारा उसकी ही ओर था, जो दक्षिणी चीन सागर में दूसरे देशों पर दबंगई दिखा रहा है। मोदी ने सभी देशों से आह्वान किया कि वे उन शरारती तत्वों के खिलाफ मुहिम छेड़ें, जो समुद्रों में खतरे पैदा करते हैं। इनमें खास तौर से वे समुद्री दस्यु शामिल हैं, जो न सिर्फ जहाजों से सामान चुरा लेते हैं, बल्कि फिरौती के लिए उनका अपहरण भी कर लेते हैं। मोदी ने महासागरों से उपजी प्राकृतिक आपदाओं की चुनौती का सामना करने के लिए अंतरराष्ट्रीय सहयोग की अहमियत का भी उल्लेख किया। एक अन्य बिंदु सामुद्रिक पारिस्थितिकी तंत्र के संरक्षण पर केंद्रित था, जिसके लिए सामुद्रिक संसाधनों के अत्यधिक दोहन से बचना होगा। उन्होंने महासागरों में तेल के रिसाव और प्लास्टिक के जमावड़े से जुड़े खतरों की ओर भी सही संकेत किया, जिसके सामुद्रिक जीवन पर बेहद खतरनाक प्रभाव पड़ रहे हैं।

प्रधानमंत्री मोदी का अंतिम बिंदु भी चीन पर निशाना साधने वाला रहा। उन्होंने कहा कि बंदरगाह जैसे समुद्री कनेक्टिविटी से जुड़े बुनियादी ढांचे के विकास में देशों को इस पर भी ध्यान देना चाहिए कि जहां उन्हेंं विकसित किया जा रहा है वहां संबंधित देश ऐसे ढांचे को समायोजित कर सकते हैं या नहीं? यह बात चीन के संदर्भ में सटीक बैठती है, जो विभिन्न देशों में बंदरगाह और उनसे जुड़ी अवसंरचना विकसित कर रहा है। इसके कारण श्रीलंका जैसे कई देश उसके कर्ज जाल में फंस गए हैं। असल में ये परियोजनाएं र्आिथक रूप से उतनी फलदायी नहीं होतीं और इन देशों के लिए चीन से लिए कर्ज को चुकाना मुश्किल हो जाता है। नतीजतन वे अपनी परिसंपत्तियां चीन के हाथों गंवा बैठते हैं। स्वाभाविक है कि इससे मुश्किलें पैदा होंगी।

राष्ट्रपति पुतिन ने एक महत्वपूर्ण वैश्विक मुद्दे पर अध्यक्षता को लेकर मोदी को धन्यवाद दिया। उन्होंने कहा कि सामुद्रिक क्षेत्र को लेकर सभी देशों को अंतरराष्ट्रीय कानूनों के दायरे में रहना चाहिए। हालांकि समुद्रों को लेकर देशों के बीच विवाद सुलझाने के मसले पर पुतिन ने कहा कि इसका दारोमदार संबंधित देशों पर ही होना चाहिए। यह तो मौजूदा अंतरराष्ट्रीय पंचाटों वाली व्यवस्था से गंभीर विचलन है, जो इन विवादों को सुलझाने के लिए स्थापित की गई है। स्पष्ट है कि पुतिन चीन को कुपित नहीं करना चाहते थे, जो इन पंचाटों के फैसले को अस्वीकार करता आया है, क्योंकि दक्षिण चीन सागर से जुड़े विवादों में वे बीजिंग के खिलाफ ही गए हैं। इसीलिए पुतिन ने संबंधित पक्षों के बीच संवाद की बात कही। दूसरी ओर अमेरिकी विदेश मंत्री ब्लिंकन ने चीन का नाम न लेते हुए भी दक्षिण चीन सागर में उसकी गतिविधियों की कड़ी आलोचना की। उन्होंने कहा कि अमेरिका ऐसे देशों के खिलाफ है, जो दूसरे देशों और उनकी समुद्री संपदा के बीच बाधा खड़ी करते हैं। अनुमान के अनुसार बैठक में उपस्थित चीनी प्रतिनिधि ने दक्षिण चीन सागर के मामले में अमेरिकी हस्तक्षेप को आड़े हाथों लिया। यह भी उल्लेखनीय है कि इस बैठक में चीन का प्रतिनिधित्व संयुक्त राष्ट्र में उसके राजदूत ने नहीं किया। भारत इस संकेत को बखूबी समझता है।

समुद्री सुरक्षा में वास्तविक अंतरराष्ट्रीय सहयोग और सभी देशों द्वारा जिम्मेदारी का परिचय देते हुए अंतरराष्ट्रीय कानूनों का सम्मान सुनिश्चित करने संबंधी मोदी का आह्वान बेहद महत्वपूर्ण और अत्यंत समीचीन रहा। बहरहाल दूसरे कई अंतरराष्ट्रीय मामलों की तरह इस पहल के भी चीन और अमेरिका के बीच बढ़ती प्रतिद्वंद्विता की ही भेंट चढ़ने के आसार हैं।


Date:14-08-21

नए सुधारों के लिए जरूरी है केंद्र-राज्यों के बीच तालमेल

ए के भट्टाचार्य

गत माह उन बड़े आर्थिक सुधारों का यशोगान किया गया जिन्हें नरसिंह राव सरकार ने तीन दशक पहले जुलाई 1991 में शुरू किया था। मीडिया में सरकार के नेताओं, अर्थशास्त्रियों और विश्लेषकों ने गत 30 वर्षों में सुधारों के सफर पर काफी कुछ लिखा। संक्षेप में कहें तो इन टिप्पणियों ने दो रुझानों को रेखांकित किया।

पहला, राव सरकार के शुरुआती 100 दिनों में व्यापार, उद्योग और राजकोषीय नीतियों को लेकर की गई जोरदार पहलों के रूप में हुए आर्थिक सुधारों के बाद मोटे तौर पर इनकी गति काफी ज्यादा धीमी रही है। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि बाद की सभी सरकारों ने इन्हें जारी रखा।

दूसरा, सुधारों और उनके क्रियान्वयन को लेकर विभिन्न सरकारों का रुख एक जैसा नहीं रहा है। यही कारण है कि संयुक्त मोर्चा सरकार ने तेजी से स्थिर और कम प्रत्यक्ष कर व्यवस्था पेश की जबकि वाजपेयी सरकार ने अप्रत्यक्ष कर सुधारों को धीमी गति से अंजाम दिया। संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार ने अधिकार आधारित नीतिगत सुधार किए और ऐसे कानून बनाए जिन्होंने नागरिकों को सूचना, खाद्य, ग्रामीण कार्य और शिक्षा के क्षेत्र में पहुंच सुनिश्चित की।

मोदी सरकार निजीकरण की जरूरत को स्वीकारने में बहुत धीमी रही। वह कई वर्षों से एयर इंडिया के निजीकरण का प्रयास कर रही है और अब उसने सार्वजनिक क्षेत्र को लेकर एक नीति बनाई है जो गैर रणनीतिक क्षेत्र के कई सार्वजनिक उपक्रमों के निजीकरण की इजाजत देती है। परंतु केंद्र में सात वर्ष से होने के बावजूद उसने अब तक एक भी कंपनी का निजीकरण नहीं किया। इसके विपरीत वाजपेयी सरकार ने राजनीतिक विरोध के बावजूद एक दर्जन से अधिक सरकारी उपक्रम बेच दिए थे।

पहले कार्यकाल में मोदी सरकार ने वस्तु एवं सेवा कर प्रणाली शुरू की लेकिन क्रियान्वयन में कई कमियां रह गईं। अर्थव्यवस्था में बैलेंस शीट की दोहरे घाटे की समस्या दूर करने के लिए सरकार ने झटपट ऋणशोधन अक्षमता एवं दिवालिया निस्तारण कानून की शुरुआत की। हालांकि इस पहल का भी अब विरोध हो रहा है। दूसरे कार्यकाल में मोदी सरकार ने कई क्षेत्रों में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के मानक शिथिल किए लेकिन सुधारों को इस तरह अंजाम दिया गया कि पर्यवेक्षक उसे संरक्षणवादी और मनमाना मानते हैं। सरकार ने कई क्षेत्रों में आयात शुल्क बढ़ा दिया ताकि घरेलू उद्योग को कारोबार का उचित अवसर मिल सके तथा चुनिंदा क्षेत्रों में घरेलू निवेशकों को वित्तीय प्रोत्साहन मिले।

इन टीकाओं में एक पहलू गायब था और वह था यह आकलन कि आखिर क्यों विगत 30 वर्षों के आर्थिक सुधारों की पहुंच अर्थव्यवस्था के कुछ क्षेत्रों तक सीमित रही। किसी ने भी इस बात का विस्तृत विश्लेषण नहीं किया है कि आखिर क्यों स्वास्थ्य और शिक्षा, कृषि, श्रम, भूमि, नियमन एवं चुनावी फंडिंग जैसे अहम सामाजिक क्षेत्रों में जरूरी सुधार या तो धीमे हैं या नदारद।

दूसरे दौर के सुधार आरंभ कर पाने में विफलता का स्पष्टीकरण यह हो सकता है कि ये पहले दौर के नीतिगत बदलावों की तुलना में बहुत कठिन थे। मसलन 1991 के सुधारों में ऐेसे कदम उठाए गए जो आसान थे। व्यापार, उद्योग और राजकोषीय नीति में सुधार के लिए साहस और स्पष्ट दृष्टिकोण जरूरी था लेकिन वे सब केंद्र सरकार के अधीन थे। अब यदि निजीकरण में देरी हो रही है तो शायद इसलिए कि सरकार इसके राजनीतिक असर को लेकर हिचकिचा रही है। जबकि वाजपेयी सरकार ने उनका सामना किया था।

नियमन और चुनावी फंडिंग में सुधारों का नसीब भी ऐसा ही रहा। सरकारें विभिन्न क्षेत्रों में स्वतंत्र नियामकीय संस्थाएं बनाने में विफल रहीं। चुनावी फंडिंग में भी सार्थक पहल नहीं हो सकी।

बीते कई दशकों में नियामकीय संस्थाओं पर सेवानिवृत्त अफसरशाहों को काबिज कर दिया गया जो तत्कालीन सरकार के करीबी रहे। विभिन्न पंचाट और अपील पंचाट भी कमजोर हुई हैं और सदस्यों तथा चेयरपर्सन स्तर पर पद रिक्तियां लगातार बढ़ रही हैं। कई अपील पंचाट के काम को उच्च न्यायालयों में स्थानांतरित करने का प्रस्ताव भी है जबकि वे पहले से मामलों के बोझ तले दबे हैं।

चुनावी फंडिंग के कानून बदले हैं लेकिन हालात और बिगड़े हैं। चुनावी बॉन्ड से जुड़ा नया कानून राजनीतिक दलों को दिए जाने वाले चंदे में अपारदर्शिता लाता है। विभिन्न चुनावी वर्षों के फंडिंग संबंधी आंकड़े बताते हैं सत्ताधारी दल को सबसे अधिक चुनावी चंदा मिलता है। संक्षेप में कहें तो इस सुधारों का लक्ष्य सीमित रहा है। नियामकों के लिए न तो मजबूत ढांचा बना है और न ही उनकी स्वतंत्रता बढ़ी है। चुनावी फंडिंग की प्रक्रिया भी पारदर्शी और पूर्वग्रह से मुक्तनहीं हुई है।

परंतु सुधारों की कोशिश में अन्य प्रमुख क्षेत्रों की उपेक्षा निराश करने वाली है। दशकों की प्रतीक्षा और मंत्रणा के बाद मोदी सरकार ने तीन कृषि कानूनों के जरिये सुधार पेश किए। महामारी के बीच इन कानूनों को संसद के जरिये पारित किया गया लेकिन उनका व्यापक इरादा और लक्ष्य अस्पष्ट रहा। इनके जरिये जो भी सुधार होने थे वे लंबे समय से लंबित थे। इसके बावजूद किसानों के लगातार विरोध और सर्वोच्च न्यायालय के हस्तक्षेप के बाद इन कानूनों को स्थगित रखा गया है। नए श्रम कानून एक वर्ष से ज्यादा पहले पारित हुए थे लेकिन इनके लिए नियम बनाने और अधिसूचना जारी होने का काम बाकी है क्योंकि राज्य एकमत नहीं हैं।

अब मोदी सरकार ने बिजली क्षेत्र के अगले चरण के सुधारों की पेशकश की है। इसके तहत बिजली वितरण को लाइसेंसमुक्त किया जाना है। कुछ राज्यों ने पहले ही इसका विरोध किया है क्योंकि उन्हें लग रहा है कि यह राज्यों की बिजली वितरण कंपनियों की वित्तीय स्थिति पर बुरा असर डालेगा। मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में भूमि अधिग्रहण कानून को शिथिल बनाने की कोशिशों का तीव्र राजनीतिक विरोध हुआ था। बाद में वह पहल त्यागनी पड़ी।

भूमि, श्रम, कृषि और बिजली क्षेत्र के सुधारों के इस सफर से यह साफ है कि जब तक कोई बड़ा सुधार न हो, इन्हें अंजाम देना संभव नहीं है। इस सुधार को केंद्र और राज्यों के बीच मजबूत रिश्ते के निर्माण के साथ अंजाम देना चाहिए। इस दौरान ऐसे नीतिगत बदलाव के लिए सहयोग और मशविरे की प्रक्रिया का पालन होना चाहिए। याद रहे कि भारतीय संविधान केंद्र को इन क्षेत्रों में कानून बनाने का एकाधिकार नहीं देता। केंद्र जब भी इन क्षेत्रों में योजना बनाए उसे राज्यों से मशविरा करना चाहिए।

जिस तरह जीएसटी को पेश किया गया उससे मिलने वाले सबक आसानी से नहीं भुलाए जा सकते। तत्कालीन वित्त मंत्री अरुण जेटली ने मशविरा प्रक्रिया के जरिये इसे पेश किया था जिससे राज्यों को वस्तुओं और सेवाओं के कर की दर तय करने का अधिकार छोड़ने के लिए मनाया जा सका। ऐसी भावना दोबारा पैदा करनी होगी। जब तक केंद्र और राज्यों के बीच ऐसा विश्वास नहीं पनपता स्वास्थ्य, शिक्षा, भूमि, श्रम, बिजली और कृषि क्षेत्र के सुधार समस्याओं से घिरे रहेंगे और इनका विरोध और इनमें देर होती रहेगी।


Date:14-08-21

उम्मीदों का बसेरा

संपादकीय

समाज की जटिलताओं पर नजर रखने वाले विशेषज्ञों का यह मानना रहा है कि अगर व्यवस्था में वंचित समुदायों के लिए उचित जगह हो और उनके जीवन से जुड़े अधिकार और न्याय सुनिश्चित किए जाएं, तो ज्यादातर लोग कानून-व्यवस्था के दायरे से टकराव के रास्ते पर जाने से बच जाएंगे। लेकिन आमतौर पर सरकारों को ऐसे विचारों पर समय पर ध्यान देने की जरूरत नहीं लगती। शायद यही वजह है कि व्यवस्था से भरोसा टूटने जैसी समस्याएं खड़ी होती हैं और ज्यादा लंबा खिंचने पर जटिल शक्ल अख्तियार कर लेती हैं। हमारे देश में नक्सलवाद या फिर माओवाद को एक ऐसी ही समस्या के रूप में देखा जाता रहा है। मगर अब तक सरकारें ऐसे समूहों से निपटने के लिए मुख्य उपाय के तौर पर उनके साथ संघर्ष का रास्ता अपनाती रही हैं। जबकि हिंसा से हिंसा को खत्म करने का तरीका आमतौर पर अस्थायी परिणाम देने वाला रहा है। इसके बरक्स पुनर्वास के वैकल्पिक उपाय शायद ज्यादा बेहतर नतीजे देने वाले साबित हों। अब छत्तीसगढ़ के नक्सल प्रभावित दंतेवाड़ा जिले में सरकार जिस योजना पर काम करने जा रही है, अगर वह सही दिशा में चला तो उसके जरिए बेहतर परिणामों की उम्मीद की जा सकती है।

दंतेवाड़ा के पुलिस अधीक्षक के मुताबिक जिले में ‘लोन वर्राटू’ यानी ‘घर वापस आइए’ का अभियान चल रहा है। लेकिन अब उसके बाद के चरण पर काम शुरू हुआ है। इसके तहत आवासीय कॉलोनी विकसित की जा रही है, जहां आत्मसमर्पण कर चुके नक्सलियों को आवास के साथ-साथ रोजगार का प्रशिक्षण भी दिया जाएगा, ताकि वे समाज में बेहतर जीवन जी सकें। इस योजना के तहत आत्मसमर्पण करने वाले नक्सलियों के पूर्व समूहों की ओर से उन पर खतरे सहित ग्रामीण आबादी में उनके सामने खड़ी होने वाली मुश्किलों का खयाल रखना भी एक मकसद है। इसके लिए गांवों और उनकी आबादी में जोखिम के लिहाज से अलग-अलग इलाकों को चिह्नित करके उसी मुताबिक सुरक्षा के इंतजाम भी किए जाएंगे। यों भी अगर व्यवस्था से निराश व्यक्ति अगर फिर से उस पर भरोसा करता है तो उसे बनाए रखने की जिम्मेदारी सरकार की ही है। इसलिए अगर नक्सलवाद या फिर माओवाद का रास्ता छोड़ कर कोई व्यक्ति मुख्यधारा में लौटना चाहता है तो उसके सामने अनुकूल परिस्थितियां भी होनी चाहिए। जाहिर है, ऐसी इच्छा रखने वालों के लिए अगर सरकार पुनर्वास सहित रोजगार आदि की व्यवस्था कर रही है, तो इन्हें सकारात्मक इंतजाम माना जा सकता है।

यह किसी से छिपा नहीं है कि आमतौर पर सरकारी तंत्र या व्यवस्था में उपेक्षा और वंचना के शिकार लोग जब उम्मीद खो देते हैं तो इसका नतीजा कई बार उनके राह भटकने के रूप में सामने आता है। इस क्रम में ऐसे लोग कई बार सरकार से बगावत का रास्ता अख्तियार करने वाले समूहों के प्रभाव में भी आ जाते हैं। इसके बाद न केवल सरकार के सामने ऐसे तत्त्वों से निपटने की परेशानी खड़ी होती है, बल्कि ये लोग खुद अपनी जिंदगी को भी कई तरह के उलझनों और मुश्किलों में डाल लेते हैं। यह सब उनके सामने वर्तमान के संकट और भविष्य के अनिश्चित या धुंधले होने की वजह से होता है। दरअसल, मुख्य समस्या अभाव और वंचना से जुड़ी रही है। अगर सरकार सामाजिक और आर्थिक न्याय सुनिश्चित करने के सिद्धांत को व्यवहार में लागू करने पर जोर दे, तो शायद नक्सलवाद या माओवाद जैसी धाराएं अपनी जड़े नहीं जमा सकें। बहरहाल, हिंसा और विद्रोह का रास्ता छोड़ कर मुख्यधारा में लौटने वालों के लिए बेहतर जीवन-स्थितियां बनाई जा रही हैं, तो यह स्वागतयोग्य है, लेकिन ध्यान रखने की जरूरत होगी कि यह पहल समस्या के दीर्घकालिक हल की ठोस इच्छाशक्ति के साथ आगे बढ़े।


Date:14-08-21

ट्विटर पर निर्भरता क्यों

संपादकीय

माइक्रो ब्लागिंग प्लेटफार्म ट्विटर ने कांग्रेस नेता राहुल गांधी के बाद उनकी पार्टी कांग्रेस का खाता भी ब्लॉक कर दिया। पार्टी के 23 बड़े नेताओं सहित 5000 कार्यकर्ताओं के अकाउंट पर भी कार्रवाई की गई है। ट्विटर के अनुसार नियमों के उल्लंघन के बाद ऐसा किया गया है। राहुल गांधी ने दिल्ली में एक नौ वर्षाय बालिका की बलात्कार और हत्या के बाद उसके परिजनों से सांत्वना मुलाकात की तस्वीर बिना उनकी पहचान छिपाए पोस्ट कर दी थी। उनकी पोस्ट को पार्टी के तमाम नेताओं ने रीट्वीट किया था। ट्विटर की कार्रवाई के बाद राहुल गांधी सहित पूरी कांग्रेस ट्विटर के खिलाफ खड़ी हो गई है। कांग्रेस का कहना है कि ट्विटर सरकार के दबाव मे आकर कांग्रेस नेताओं के खिलाफ कार्रवाई कर रहा है। ट्विटर भारत में भाजपा सरकार द्वारा लोकतंत्र का गला घोटने में उसका साथ दे रहा है। कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी के अनुसार असली मुद्दा नौ साल की बच्ची से बलात्कार और उसके जबरन अंतिम संस्कार का है और यह भी है कि दिल्ली पुलिस ने प्राथमिकी दर्ज करने से 15 घंटे तक इनकार किया। ट्विटर ने साफ किया है कि यदि कोई ट्वीट उसके नियमों का उल्लंघन करता पाया जाता है और अकाउंट होल्ड़र की तरफ से उसे डिलीट नहीं किया जाता तो माइक्रोब्लागिंग प्लेटफार्म एक नोटिस देने के बाद ट्वीट को छिपा देता है और अकाउंट तब तक ब्लॉक कर दिया जाता है जब तक कि वास्तविक अकाउंट होल्ड़र संबंधित ट्वीट नहीं हटा देता या अपील की प्रक्रिया सफलतापूर्वक अंजाम तक नहीं पहुंचती। इस सारे घटनाक्रम से ऐसा लगता है कि भारत में ट्विटर को कुछ ज्यादा ही भाव दिया जा रहा है और वह अपने नियमों से चीजों को संचालित करना चाहता है। पूर्व आईटी तथा विधि मंत्री रविशंकर प्रसाद का अकाउंट बंद करना और भारत सरकार के नए सोशल मीडिया नियमों को मानने से पहले जोरदार नानु्कुर करना इसी का उदाहरण है। ट्विटर भारत में व्यवसाय करने आई एक कंपनी मात्र है। देश के नेताओं की इस पर बढ़ती जा रही निर्भरता उसकी गलतफहमी बढ़ा रही है। देखा जाए तो ट्विटर के जरिए अपनी राजनीति चमकाने के चक्कर में हमारे नेता चाहे वे सत्ता पक्ष के हों या विपक्ष के अपना सही काम भूलते जा रहे हैं जबकि दो तिहाई भारतीय तो आज तक यह जानते ही नहीं कि ट्विटर किस चिड़िया का नाम है।