शक्तियों के पृथक्करण की धुंधली पड़ती लकीरें – 2

Afeias
24 May 2021
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Date:24-05-21

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लोकतांत्रिक व्यवस्था में सरकार जनता के प्रति जवाबदेह होती है। महामारी से निपटने की व्यवस्था में सरकार की विफलता के प्रति उच्च न्यायालयों का आक्रोश , लोगों की व्यथा को संबोधित कर रहा है। ऐसा करना न्यायालयों की सहानुभूति को दर्शाता है। परंतु न्यायालयों द्वारा अमुक राज्यों को चिकित्सा ऑक्सीजन की निर्धारित मात्रा का आवंटन किया जाना या उच्चतम न्यायालय का सरकार को निश्चित कदम उठाने के निर्णय का पालन मुश्किल है। भले ही न्यायालयों के ऐसे आदेश, विशेषज्ञ समितियों द्वारा अनुमोदित किए गए हों, परंतु ये न्यायपालिका के अधिकार क्षेत्र में नहीं आते हैं। ऐसे कार्य कार्यपालिका का क्षेत्र हैं, और इन्हें सरकार को संपन्न करना है।

हाल ही में उच्चतम न्यायालय ने कर्नाटक सरकार को वहां के उच्च न्यायालय के 1200 टन ऑक्सीजन के कोटे का उपलब्ध कराने के निर्देश का कड़ाई से पालन करने का आदेश दिया है। मान लें कि प्रत्येक उच्च न्यायालय, प्रत्येक राज्य के लिए ऑक्सीजन की मात्रा निर्धारित करता है, और वह केंद्र को आदेश देता है कि वह अधिक ऑक्सीजन प्रदान करे। इस स्थिति में अगर कुल उपलब्ध मात्रा, मांग से ज्यादा हो जाए या क्षेत्रीय कमी हो या अधिशेष क्षेत्रों से ऑक्सीजन परिवहन के पर्याप्त साधन न हों, तो सरकार न्यायालयों के निर्देश को पूरा करने में असमर्थ रहेगी। ऐसी स्थिति में क्या न्यायालय सभी संबंधित अधिकारियों को अवमानना का दोषी पाते हुए कारावास का दण्ड देगी ?

न्यायालय ऐसा क्यों मानती हैं कि वे अपने स्वयं के टास्क फोर्स गठित कर सकती हैं ? या फिर पहले से काम कर रही राष्ट्रीय स्तर की टास्क फोर्स, चुनौती को पूरा करने में असमर्थ है ?

कुछ राज्यों ने अपनी ऑक्सीजन खपत का अनुमान बढ़ा दिया। लेकिन फिर भी यह आवश्यकता से कम हो सकती है। सम्बद्ध चुनौतियों का अनुमान लगाने में विफलता के बिंदु पर सजगता से काम किए जाने की आवश्यकता है। इससे वर्तमान में चल रही आपाधापी जैसी स्थिति से बचकर, समय पर जनता के प्राण बचाए जा सकते हैं। इसके लिए न्यायिक के बजाय लोकतांत्रिक प्रक्रिया से काम किया जाना चाहिए।

न्यायालय सरकार के काम में बाधा डाल रही हैं। महामारी से चल रही लड़ाई के बीच न्यायालय का कोई भी निर्देश, सरकार को अपनी दिशा से मोड़ देता है। ऐसा नहीं किया जाना चाहिए। सरकार, न्यायालय के हाथ का खिलौना नहीं है। उसे अपना काम एक निर्धारित समय से पूरा करने की छूट दी जानी चाहिए।

‘द इकॉनॉमिक टाइम्स’ में प्रकाशित सम्पादकीय पर आधारित। 10 मई, 2021