शक्तियों के पृथक्करण की धुंधली पड़ती रेखांए – 1

Afeias
21 May 2021
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Date:21-05-21

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भारत के संविधान ने त्रिपक्षीय सरकार की कल्पना की थी, जिसमें, कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका शामिल हैं, ये भले ही शक्तियों में अलग-अलग हैं, लेकिन जाँच और संतुलन की एक प्रणाली द्वारा संचालित हैं। इन तीनों संस्थानों की स्वतंत्रता पवित्र है, और संविधान में शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत द्वारा संरक्षित है। तीनों ही अपने अलग-अलग शासनादेशों का निर्वहन कर रहे हैं। इनमें न्यायपालिका की स्थिति कार्यकारी और विधायी कार्रवाई की समीक्षा करने और सत्ता के दुरुपयोग को रोकने का काम करती है। जब व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर आंच आने लगती है, तब लोगों को प्रदत्त संवैधानिक कवच की रक्षा के लिए एक स्वायत्तता न्यायपालिका की आवश्यकता होती है।

संविधान की मूल संरचना में शक्तियों के पृथक्करण का सिद्धांत है। आज यह सिद्धांत ही दांव पर लगा हुआ है। वर्तमान विधायिका, न्यायपालिका के अधिकार क्षेत्र में लगातार दखल बनाए हुए है, और उसकी संप्रभुता को कमजोर कर रही है। कार्यपालिका द्वारा किए जाने वाले अत्याचार के विरूद्ध, अदालतों के पास जमानत देने की शक्ति होती है। आज संसद न्यायालयों की इस शक्ति को विनियमित करने के प्रावधानों को अधिनियमित करके इसे कमजोर कर रही है। न्यायपालिका को अपने संवैधानिक कर्तव्यों का पालन करने से रोका जा रहा है।

इस प्रकार के प्रयास ब्रिटिश राज के दौरान के भारत की याद दिलाते हैं। इस काल में स्वतंत्रता सेनानियों को सलाखों के पीछे डालने और अत्याचार करके न्यायालय से बरी होने के लिए ब्रिटिश अधिकारी अग्रिम जमानत प्राप्त करते थे, और प्रताड़ना के आरोप से दोषमुक्त हो जाते थे।

स्वतंत्र भारत में संसद ने इस प्रावधान को सही करने के प्रयास किए हैं। लेकिन हमेशा इसके लाभ के प्रलोभन का शिकार हुए। इस कड़ी में 1987 का आतंकवादी और विघटनकारी गतिविधि अधिनियम लागू किया गया, जिसके परिणामस्वरूप अनेकों गिरफ्तारिया हुई, और अंतत 1995 में मानवाधिकार का हवाला देकर इसे समाप्त किया गया था।

2002 में फिर से विवादास्पद आतंकवाद निरोधक अधिनियम लागू किया गया, जिसके तहत जमानत नहीं दी जा सकती थी। संसद को इसे 2004 में निरस्त करना पड़ा। विधायिका ने बार-बार इस प्रकार के कठोर कानूनों को लागू करने का प्रयास किया है।

दूसरी ओर, न्यायलय ने कम से कम हस्तक्षेप के संवैधानिक मार्ग का पालन किया है। हालांकि, कुछ अवसरों पर जब भी न्यायालय ने जमानत की बाधओं को असंवैधानिक ठहराया है, संसद ने असंगत रूप से उन्हें पुनर्जीवित किया है। 2017 में निकेश ताराचंद शाह के मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने धन शोधन निवारण अधिनियम 2002 के तहत जमानत वाले प्रावधान को रद्द कर दिया था। बिना किसी देरी या बहस के विधायिका ने प्रावधान को पारित करके फिर से लागू कर दिया।

व्यक्तिगत स्वतंत्रता हमारे मौलिक अधिकारों के सर्वोच्च स्थान पर है। लेकिन आज इसकी रक्षा के लिए बेलगाम शक्ति का सामना करना पड़ रहा है। किसी भी न्यायालय की शक्तियों में, जमानत के मुद्दे पर वैधानिक हस्तक्षेप करना संविधान का उल्लंघन है। न्यायपालिका को इस प्रकार के अतिक्रणों के खिलाफ बचाव करना चाहिए। ऐसा न हो कि विधायिका न्यायपालिका को नपुंसक मानकर अपने दखल को गति देती जाए।

के ए नजीब मामले में पारित एक ऐतिहासिक फैसले में, गैर कानूनी गतिविधि निरोधक कानून के तहत, जमानत देते हुए उच्चतम न्यायालय ने वैधानिक प्रतिबंधों के बावजूद अपनी शक्ति को बहाल किया है। यह रोशनी कितनी दूर तक पहुंचेगी, अभी कहा नहीं जा सकता। लेकिन विशेष कानून की बढ़ती संख्या के मद्देनजर यह याद रखा जाना चाहिए कि सत्ता की शक्ति का दुरूपयोग करने का चलन रहा है, जिसे केवल एक मजबूत न्यायपालिका द्वारा ही रोका जा सकता है।

‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित मनु शर्मा के लेख पर आधारित। 22 अप्रैल, 2021

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