सार्क को पुनर्जीवन देने की आवश्यकता
Date:02-02-21 To Download Click Here.
36 वर्षों की अपनी लंबी यात्रा के बाद साउथ एशियन एसोसिएशन फॉर रिजनल कॉपरेशन (सार्क) आज निर्जीव सा पड़ गया है। आठ देशों के इस समूह संगठन की बैठक हुए छः वर्ष बीत चुके हैं। भारत के प्रधानमंत्री ने अपना स्पष्ट रुख बता दिया है कि सीमा पार प्रवर्तित पाकिस्तानी आतंकवाद और घुसपैठ का भारत आज भी उसी प्रकार विरोधी है, जितना 2016 में इस्लामाबाद की सार्क बैठक का विरोध करते हुए था। इस विरोध को देखते हुए ऐसा लगता है कि निकट भविष्य में भी इस संगठन की कोई बैठक नहीं हो पाएगी।
बैठकों पर विरोध का साया क्यों ?
भारत-पाकिस्तान के आपसी मतभेदों के चलते, सदस्य देशों ने दक्षिण एशिया में अन्य छोटे समूहों को दस्तक दी है। इस विरोध ने अन्य अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों के लिए भी एक सहूलियत पैदा कर दी है, क्योंकि उन्हें एक संगठित दक्षिण एशिया की जगह बिखरे हुए अलग-अलग समूहों से दो-चार होना आसान लग रहा है।
इस दौर में यह सोचे जाने की आवश्यकता है कि क्या इस्लामाबाद में सार्क बैठक हेतु भारत के विरोध ने पाकिस्तान को संगठन की प्रक्रिया पर वीटो पावर दे दिया है। भारत का यह रवैया भ्रम में डालने वाला है, क्योंकि शंघाई कार्पोरेशन ऑर्गेनाइजेशन की बैठकों में भारतीय और पाकिस्तानी प्रतिनिधि दोनों एक साथ भाग लेते रहे हैं। यहाँ तक कि नवम्बर में हुई इस संगठन की बैठक के लिए भारत ने पाकिस्तानी प्रधानमंत्री को आमंत्रित भी किया था।
भारत का चीन के साथ भी सीमा विवाद चल रहा है। परंतु उसके साथ होने वाली तमाम बैठकों और सम्मेलनों में भारत की बराबर हिस्सेदारी रही है। नेपाल के साथ हुए विवाद के बावजूद भारत ने उसके साथ भाग लेने से कभी मना नहीं किया। अतः पाकिस्तान के संदर्भ में यह समझना मुश्किल है कि महामारी के चलते होने वाली वर्चुअल बैठकों में भागीदारी से भारत को एतराज क्यों हो सकता है ?
चुनौतियों के मद्देनजर
महामारी के चलते उभरी चुनौतियों ने सार्क को पुनर्जीवित करने की जरूरतें खड़ी कर दी हैं। अध्ययनों से पता चलता है कि इस महामारी ने दक्षिण एशिया के लिए विश्व से अलग कुछ चुनौतियां खड़ी की हैं, जिनके समाधान और भविष्य में आने वाली महामारियों की तैयारी के लिए दक्षिण एशियाई देशों का सामंजस्य बहुत जरूरी है।
महामारी के दौर ने दक्षिण एशिया की अर्थव्यवस्था में आपसी साझेदारी की जरूरत को भी उजागर किया है। इन देशों के सकल घरेलू उत्पाद में कमी के साथ ही वैश्विक स्तर पर हुई रोजगार की कमी से प्रवासी श्रमिकों द्वारा जनित राजस्व में 22% की कमी दर्ज की जा रही है। इसके अलावा पर्यटन पर बहुत ही विपरीत प्रभाव पड़ा है।
विश्व बैंक की रिपोर्ट का अनुमान है कि इस क्षेत्र के देशों को अंतर्क्षेत्रीय रवैया अपनाते हुए, अपने-अपने देश के दायरे को तोड़कर आगे आना होगा। अफ्रीका के संयुक्त वीजा की तर्ज पर दक्षिण एशिया में भी कोई पहल होनी चाहिए। इससे पर्यटन को बढ़ावा मिलेगा।
क्षेत्रीय सहयोग का समय
आने वाले समय में देशों की प्राथमिकताएं बदलेंगी। ये स्वास्थ सुरक्षा, खाद्य सुरक्षा और रोजगार की सुरक्षा पर आधारित होंगी। इन सबके लिए भी दक्षिण एशियाई देशों का आपसी सहयोग जरूरी है।
वैश्वीकरण के महामारी पूर्व स्वरूप से शायद देश आशंकित होंगे और क्षेत्रीय गठबंधनों में ज्यादा सुरक्षित महसूस करेंगे। आज जहाँ पूरा विश्व क्षेत्रीय व्यापार समझौतों में बंटा हुआ है, भारत वहाँ सार्क के व्यापार समझौते (साउथ एशियन फ्री ट्रेड एरिया) के अलावा अन्य देशों से अलग-थलग खड़ा है।
चीन का संकट
चीन के साथ चल रहे सीमा विवाद और उसके पडोसी देश के रूप में चीन के अस्तित्व से आने वाली परेशानियों में भारत को दक्षिण एशियाई देशों के किसी संयुक्त मंच से ही सबसे प्रबल सहायता मिल सकती है। दूसरे, पाकिस्तान और नेपाल से समय-समय पर होने वाले विवादों के संदर्भ में भी भारत को सार्क देशों से सहायता की उम्मीद रखनी चाहिए। लेकिन इनमें भूटान के अलावा सभी देश आर सी ई पी का हिस्सा हैं, और वे व्यक्तिगत तौर पर मदद करने में समर्थ नहीं होंगे।
चीन, शुरू से ही सार्क का सदस्य बनने की कोशिश कर रहा है। हर अवसर पर भारत व अन्य कुछ देशों ने इस तर्क पर चीन का प्रस्ताव ठुकरा दिया कि चीन एक दक्षिण एशियाई देश नहीं है। बावजूद इसके चीन लगातार सार्क एवं अन्य दक्षिण एशियाई देशों के साथ निवेश, व्यापार, पर्यटन और शिक्षा जैसे सांख्यिकीय सूचकों पर संबंध बनाने का प्रयास करता रहा है।
भारत की नीति क्या हो ?
इससे उलट भारत सार्क देशों से संयुक्त समझौते करने की बजाय द्विपक्षीय समझौते कर रहा है। भारत को चाहिए कि वह दक्षिण एशियाई देशों को एक ऐसी इकाई के रूप में देखे, जो वैश्विक मंच पर उसकी महत्वकांक्षाओं को बल देती रह सकती है।
‘द हिंदू’ में प्रकाशित सुहासिनी हैदर के लेख पर आधारित। 13 जनवरी, 2021