सामाजिक विश्वास स्थापित करने का समय
Date:27-04-20 To Download Click Here.
महामारी का प्रभाव लगभग हर व्यक्ति पर होता है। परंतु यह प्रभाव सब पर समान नहीं होता है। वायरस ने हमारी सामाजिक और दैनिक दीनता को उजागर कर दिया है। इसने हमारे सामाजिक ढांचे के विभाजन और विश्वास पर प्रश्न चिन्ह् लगा दिया है।
कोविड-19 ने कुछ मूल प्रश्न खड़े कर दिए है। हम अन्य लोगों के लिए क्या सोचते हैं ? क्या ये लोग एक ऐसी समस्या हैं, क्या ये संक्रमण के मानव बम हैं, जिन्हें भय और आतंक के आधार पर नियंत्रित किया जाना चाहिए ? यह सरकार के सत्तावादी दृष्टिकोण को दिखाता है। जहाँ सरकार लोगों की सहमति के बिना उन पर नियंत्रण रखना चाहती है। इसका उद्देश्य जनता की शक्ति पर प्रभुत्व स्थापित करना है।
इसी का एक प्रजातांत्रिक रूप है, जो लोगों को सूचनाएं उपलब्ध कराता है, शामिल करता है, उनकी बुद्धिमत्ता का आदर करता है और उनकी क्षमताओं को कवच देता है। हम में से कोई ऐसा मूर्ख नहीं है, जो जानबूझकर दूसरों को संक्रमित करना चाहेगा। अतः प्रशासन के लिए इस माहौल में सबसे अच्छा यही है कि वह विभिन्न समूहों के साथ मिलकर लोगों को भोजन और जरूरत का सामान उपलब्ध कराए। जरूरत के अनुसार उनके लिए सुविधांए जुटाए।
अगर हमें लगातार यह कहा जाता रहे कि अन्य लोग विश्वास योग्य नहीं हैं, तो धीरे-धीरे यही हमारी वास्तविकता बन जाती है। अमेरिकी लेखिका रेबेका सोलनिट ने भूकंप, महामारी आदि के बाद जन्मी लोगों की दयालुता का वर्णन करते हुए, आपदा समाज विज्ञानियों द्वारा दिए गए शब्द ‘संभ्रांत वर्ग का भय‘ (एलिट पैनिक) को काफी लोकप्रिय बना दिया है। उनके अनुसार किसी आपदा के दौरान डरना एक सामान्य सी बात है। परंतु जब संभ्रांत वर्ग अपनी समस्त शक्ति को इसके अति के रूप में झोंक देता है, तो अव्यवस्था फैला जाती है। एलिट पैनिक के विचार को इस तथ्य से हवा मिलती है कि लोग स्वार्थी और मूर्ख होते हैं, और इन्हें शक्ति से ही नियंत्रित किया जा सकता है। सिनेमा में भी हम अक्सर ऐसा ही कुछ देखते है कि महामारी या आपदा के समय कुछ हीरो टाइप लोग नगर को बचा लेते हैं। इन सबके कारण अधिकारियों का दृष्टिकोण ही ऐसा बन गया है कि वे जनता को बच्चों की तरह नियंत्रित करना चाहते हैं, उनसे सूचनाएं छुपाते हैं, उन्हें वही बताते हैं, जो बहुत जरूरी है, और बाकी का काम पुलिस पर छोड़ देते हैं।
सोलनिट ने 19वीं सदी के चेचक महामारी की चर्चा करते हुए बताया है कि उस दौरान किस प्रकार से उच्च और मध्य वर्ग को क्वारांटाइन करने की छूट दी थी, जबकि प्रवासी-निर्धन लोगों को जबर्दस्ती आइसोलेशन वार्ड में रखा गया था। इससे डरकर लोगों ने अपने को घरों में बंद कर लिया था, और बीमारी की सूचना देना ही बंद कर दिया था। वहीं 1947 में अमेरिका ने सद्भाव दिखाया। इससे लोग स्वयं ही चेचक का टीका लगवाने के लिए आगे आए।
अगर आप लोगों पर विश्वास नहीं करेंगे, तो वे भी आप पर विश्वास नहीं करेंगे। अगर सरकार किसी का अपराधीकरण कर देती है, और मीडिया उसे भयभीत करने वाली “कोरोना जिहाद” जैसी सांप्रदायिक भावना का तमगा पहना देता है, तो निश्चित ही लोग स्वयं को बचाने की दौड़ में लग जाएंगे।
धर्म, रूप और आकार के आधार पर किसी पर संदेह करने या जबर्दस्ती करने से सामाजिक विश्वास समाप्त होता जाता है। सामाजिक विश्वास ही वास्तव में समाज को बांधे रखने का जादुई मंत्र है।
कोविड-19 का यह दौर हमें समझाने का प्रयत्न कर रहा है कि एक समाज में रहते हुए हमारा प्रारब्ध भी एक-दूसरे से जुड़ा हुआ है। विदेश भ्रमण से लौटा एक समृद्ध परिवार उसके घरेलू सहायक के लिए खतरा है। और दूसरी ओर सुविधाओं और साफ पानी के अभाव में जीवन बिता रहा घरेलू सहायक भी उनके लिए खतरा है। यहां अपनी सुरक्षा या आइसोलेशन का मतलब दूसरों के प्रति सोच रखने से भी है।
इस मामले में केरल सरकार द्वारा उठाए गए कदम सराहनीय हैं। उनके यहां सामूहिक एक्शन लेने की एक परंपरा है। उसकी सार्वजनिक स्वास्थ प्रणाली बेहतर है। उसके आधारभूत संस्थान सक्रिय हैं। उसके समुदायों में एकता है। जहां समूहों में सामाजिकता की भावना होती है, वहां भय और आशंका का संचार नहीं होता है। संकट के दौरान एकजुटता दिखाना, एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया है। यही कारण है कि प्रवासी नागरिकों की बहुतायत होते हुए भी केरल ने जंग जीत ली है।
सामाजिक विश्वास से चीजें आसान हो जाती हैं। दक्षिण कोरिया की सफलता से इस तथ्य को समझा जा सकता है। इससे लोगों को यह स्मरण रहता है कि दुर्दिनों में लोग दयालु हो जाते हैं। जीवन के नाजुक दौर में साथ की भावना सहज होती है। कोविड-19 के संकट में भी मध्य-वर्ग के अधिकांश लोग दिहाडी कमाने वाले मजदूरों और प्रवासी श्रमिकों के लिए व्यथित रहे हैं।
दान के मामले में एक प्रकार की बाढ़ सी देखी जा रही है। निजी, धार्मिक और सामाजिक स्तर पर लोग मदद के लिए आगे आए हैं। दिल्ली या अन्य क्षेत्रों में हाल ही में हुए सांप्रदायिक दंगों के बाद भी यही दिखाई दे रहा है।
निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता है कि महामारी की भय उत्पन्न वाली खबरों के बीच भी आपसी सहयोग और साझेदारी की झांकी मन को ठंडक देने वाली है। सरकार को चाहिए कि वह लोगों में विश्वास को बढ़ावा दे। हम सब का भी यही कर्त्तव्य है।
‘द टाइम्स ऑफ इंडिया‘ में प्रकाशित अमूल्य गोपालकृष्णन के लेख पर आधारित। 15 अप्रैल, 2020