30-11-2019 (Important News Clippings)

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30 Nov 2019
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Date:30-11-19

अपराध न नापें, हैवानियत की हद पर सवाल तो करें?

संपादकीय

हैदराबाद की महिला डॉक्टर को जलाकर मार डाला गया। दुष्कर्म की आशंका भी जताई है। हैदराबाद जैसे शहर में ये घटना देश में महिला सुरक्षा के लिए बने तमाम नियमों का जलकर राख हो जाना साबित करती है। जिस हाल में उनका शव मिला है उसमें भी तो राख से ज्यादा कुछ बाकी नहीं है। उन्होंने जानवरों के इलाज की पढ़ाई की थी लेकिन बेचारी इंसानी जानवरों का इलाज नहीं ढूंढ पाई।किसी अपराध को नापा नहीं जा सकता, लेकिन इंसानी हैवानियत की हद पर सवाल तो उठाया जाना चाहिए? दुष्कर्म पीड़िता के कपड़ों पर सवाल उठाने वालों से पूछें, इस पीड़िता के कपड़े तो ठीक थे, फिर उसे ये सजा क्यों? गलती सिर्फ इतनी कि गाड़ी गलत जगह पार्क कर दी थी। कुछ हैवानों ने उनका पीछा किया और जबरन मदद की कोशिश की। बहन से फोन पर आखिरी बात की थी उन्होंने। और फिर हमेशा के लिए चुप कर दी गई। सवाल यह कि महिलाओं की सुरक्षा पर सरकार कब तक चुप रहेगी?कब तक सुरक्षा के लिए उठी आंदोलन की चीखों को दिखावटी पैबंदों से ढंकने की कोशिश होगी? कब तक सड़कों पर अकेली निकलने में औरतें डरती रहेंगी? और कब तक दानव से ये अपराधी यूं ही खुल्ला घूमते रहेंगे? देश के बड़े शहरों में शुमार है हैदराबाद। जहां हादसा हुआ वह एयरपोर्ट का इलाका है। क्या पुलिस और सुरक्षा जैसी कोई मौजूदगी वहां नहीं थी? यदि मान भी लें कि जो अपराधी थे उनकी मति और इंसानियत दोनों मारी गई थी तो भी क्या उन्हें रोकने एक भी जिंदा इंसान नहीं था वहां?रात भी कोई ज्यादा नहीं हुई थी, 9 बजे के आसपास की यह घटना है। पैट्रोलिंग के लिए तेलंगाना पुलिस की गाड़ियों को कई बार यहां से गुजरना था, जो शायद गुजरी नहीं। और अगर गुजरी भीं तो भीतर सुरक्षा के लिए जिम्मेदार पुलिसवाले नहीं, बुत बैठे थे। जिनसे सुरक्षा की उम्मीद अब कम ही बाकी रह गई है। उन तमाम योजनाओं और अभियानों से क्या आस लगाई जाए जो चीख-चीखकर नारी सुरक्षा के कसीदे पढ़ते हैं?एहसान होगा यदि एक बार समाज अपनों से हैवानियत की हदों पर सवाल पूछ ले। वरना देश के हालात तो ऐसे हैं कि चार में से एक अपराधी ही दुष्कर्म करने की सजा पाता है। 1973 में 44% अपराधियों को सजा हो जाती थी और 2016 में आंकड़ा 25% तक गिर गया। शायद यही वजह है कि देश में हर 15 मिनट में एक महिला के साथ दुष्कर्म होता है।


Date:30-11-19

सूचना और निजता, दो अधिकारों की गाथा

रीतिका खेड़ा

पूर्व न्यायाधीश गोगोई के खिलाफ दायर यौन उत्पीड़न का मामला कोर्ट ने इन-हाउस समिति बनाई, जिसकी रिपोर्ट कभी सार्वजनिक नहीं की गई। क्या आप चाहते हैं कि वह रिपोर्ट सार्वजनिक हो? उसे प्राप्त करने में सूचना का अधिकार नागरिकों का हथियार है। उससे जुड़ा दूसरा सवाल भी अहम है- यदि उस केस में आप आरटीआई के तहत उस रिपोर्ट की प्रति मांगते हैं, तो क्या आप चाहते हैं कि आपकी पहचान सबके सामने हो?यह सवाल लोकतंत्र में सूचना के अधिकार या आरटीआई और निजता के अधिकार की अहमियत को उजागर करते हैं, साथ ही इन दो अधिकारों के बीच के तनाव को भी। कुछ दिनों पहले, सुप्रीम कोर्ट में, अप्रैल से रिज़र्व किया गया आरटीआई से सम्बंधित निर्णय आया। मांग यह थी कि चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया का दफ्तर भी सूचना के अधिकार के दायरे में हो। दस साल पहले, 2009 में, दिल्ली हाईकोर्ट के जस्टिस भट्ट ने निर्णय दिया था कि चीफ जस्टिस का दफ्तर अन्य जजों की निजी संपत्ति की जानकारी को शेयर करने से इनकार नहीं कर सकता।उस निर्णय को सुप्रीम कोर्ट के सेक्रेटरी जनरल ने चुनौती दी और मामला दिल्ली हाईकोर्ट के तीन न्यायाधीशों के सामने आया। तीनों ने जनवरी 2010 में जस्टिस भट्ट के निर्णय को सही करार दिया। जब जस्टिस भट्ट ने निर्णय दिया तब उन्होंने अहम टिप्पणी की- हर तरह की सत्ता (न्यायिक, राजनीतिक) की संविधान के प्रति जवाबदेही बनती है। तीन जजों की पीठ ने भी माना कि अदालती निष्पक्षता उनका विशेषाधिकार नहीं, बल्कि न्यायिक फर्ज है। फिर मामला सर्वोच्च न्यायालय पहंुचा जहां दिल्ली हाईकोर्ट के निर्णय को चुनौती दी गई।हा गया कि यदि न्यायाधीशों की निजी जानकारी सूचना के अधिकार के अधीन आ गई तो न्यायिक निष्पक्षता कमजोर होगी। 13 नवंबर को पांच जजों की पीठ ने इस दस साल पुरानी बहस पर निर्णय देते हुए कहा कि दिल्ली हाईकोर्ट के निर्णय सही थे। जजों की निजी संपत्ति की जानकारी और कॉलेजियम की कार्यप्रणाली अब सूचना के अधिकार के अधीन हैं।

निर्णय में जज की निजी जिंदगी/पद और मुख्य न्यायाधीश के दफ्तर के बीच का अंतर बेहद अहम है। इस निर्णय में जस्टिस चंद्रचूड़ ने माना कि निजता का अधिकार असीम नहीं होता, चूंकि जज संवैधानिक पद पर हैं, इसलिए उनकी निजी संपत्ति की जानकारी को बताने से उनकी निष्पक्षता पर बुरा असर नहीं पड़ेगा। मुख्य न्यायाधीश को आरटीआई के अधीन लाने से एक अहम तनाव उजागर होता है। सूचना के अधिकार और निजता के अधिकार के बीच का तनाव।एक (आरटीआई) कानूनी हक़ है और दूसरा (निजता का) संवैधानिक हक है। दोनों ही मज़बूत लोकतंत्र के लिए जरूरी हैं। आरटीआई से सरकार नागरिक के प्रति पारदर्शी होती है, जिससे आम नागरिक सत्ता को कुछ हद तक अपने काबू में रख सकते हैं। 2005 में जब सूचना का अधिकार पारित हुआ, कुछ समय बाद मेरा बड़वानी (मध्य प्रदेश) जाना हुआ। वहां, एक साधारण ग्रामीण ने मुझे बताया की किस तरह, पहले जानकारी प्राप्त करने के लिए उन्हें पंचायत सचिव के पीछे-पीछे भागना पड़ता था।आरटीआई के तहत आवेदन करने के बाद पंचायत सचिव उनके पीछे-पीछे भाग रहे हैं। जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए आरटीआई एक बड़ा हथियार है। इसके उपयोग से नीति के स्तर पर कई बड़े खुलासे हुए हैं। उदाहरण के तौर पर 2008 में हमें आरटीआई के तहत मिली जानकारी से पता चला कि कुछ निजी कंपनी वाले सांसदों के स्कूलों में गरम मध्यान्ह भोजन की जगह बिस्कुट देने के प्रस्ताव का प्रचार कर रहे थे। साथ ही कई निजी मामलों में भी जानकारी प्राप्त करने में मदद मिली है, जैसे कहीं किसी का दाखिला क्यों नहीं हुआ, या नौकरी से इनकार क्यों किया गया?

हालांकि पिछले कुछ सालों से आरटीआई को भी अलग-अलग तरीकों से कमज़ोर किया गया है। जो जानकारी सरकार को कानून की धारा 4 के तहत वेबसाइट पर उपलब्ध करवानी होती है, उसे नहीं डाला जाता। आरटीआई के तहत मांगने पर भी नहीं मिलती, पहली अपील के बाद (यदि आप भाग्यशाली हैं तो) उपलब्ध करवाई जाती है। इस सब के बीच सुप्रीम कोर्ट का फैसला फिर से उम्मीद कायम करता है।दूसरी तरफ, निजता का अधिकार है, जिससे आम नागरिक अपने आपको सरकार द्वारा अपने निजी जीवन में बेधड़क तांक-झांक से बचाता है। निजता को 2017 में नौ जजों की पीठ ने संवैधानिक हक माना। इस दशक के सबसे बड़े मुकदमों में से एक निजता के अधिकार का केस था। निजी और सार्वजनिक जीवन में इसकी अहमियत उजागर करना कुछ हद तक मुश्किल भी है।कुछ लोगों का मानना है कि उनका जीवन खुली किताब की तरह है और इसमें किसी भी तरह की, किसी के द्वारा (सरकारी तंत्र समेत) तांक-झांक से कोई हानि नहीं होगी। यदि किसी को तांक-झांक से आपत्ति है तो जरूर वे व्यक्ति कुछ गलत कर रहे हैं। यह समझना कि यह क्यों गलत है, मुश्किल नहीं। यदि आप कपड़े बदल रहे हैं तो क्या आप चाहेंगे कि कोई आपको देखे? आप कुछ गलत नहीं कर रहे, फिर भी आपने एक सीमा तय की है जिसके अंदर आप किसी और को नहीं आने देना चाहते।यदि निजता का हनन होता है, तो वह हमारी स्वतंत्रता का हनन है। निजता के कई पहलू हैं- शारीरिक निजता और वैचारिक निजता जो और भी ज़रूरी है और इसे संविधान में भी मौलिक अधिकार के रूप में माना है। खुले मन से, बिना रोक-टोक के, सोचने पर, सवाल उठाने पर देखरेख होने से ह्यूमन रेस की प्रगति पर रोक लग जाएगी।

दोनों हक लोकतंत्र को मज़बूत करते हैं, आरटीआई और निजता का अधिकार। यदि आप आरटीआई के तहत अर्जी लगाते हैं, तो क्या चाहेंगे कि आपसे आधार या पैन नंबर मांगे? इन्हें आपके जीवन के अन्य पहलुओं से जोड़ा गया है, जिससे आप सवाल पूछने में संकोच करेंगे। निजता का अधिकार हमारे सूचना के अधिकार को सशक्त करता है। दोनों का दायरा तय करना कोई आसान सवाल नहीं। जरूरत है कि दोनों की अहमियत को समझें और इस जाल में न फंस जाएं कि एक हक़ दूसरे से ऊपर है। सूचना का अधिकार नागरिक के हाथ में सत्ता के खिलाफ आक्रामक हथियार है, तो निजता का हथियार हमारे हाथ में रक्षात्मक हथियार है।


Date:30-11-19

इस संकट को न गंवाएं

टी. एन. नाइनन

जुलाई-सितंबर तिमाही में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में वृद्धि दर पिछली 26 तिमाहियों में न्यूनतम स्तर पर है। यह बात चौंकाती नहीं क्योंकि अधिकांश विश्लेषकों ने पहले ही बुरी खबर की आशंका जता दी थी। यह स्पष्ट है कि यदि सरकार अब से दो महीने बाद यानी बजट तक हालात को संभालती नहीं है तो जल्द सुधार की आशा त्यागनी होगी। अर्थव्यवस्था ऐसे मोड़ पर है जहां से यह किसी भी दिशा में जा सकती है। यह वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण के परीक्षण की घड़ी है। अनेक विश्लेषकों को मोदी सरकार की बढ़ती आर्थिक दिक्कतों में परपीड़ा का आनंद आ रहा है। परंतु इससे आगे देखें तो आलोचकों को भी यह बताना होगा कि सरकार को क्या करना चाहिए? सबसे पहले तो उसे झूठा साहस त्याग कर यह प्रदर्शित करना बंद करना चाहिए कि सब कुछ नियंत्रण में है। देश की समस्याओं की प्राथमिक वजह वैश्विक मंदी नहीं है। यदि ऐसा होता चीन के आंकड़ों (जुलाई-सितंबर में 6 फीसदी की वृद्धि दर)के साथ अंतर इतना नहीं बढ़ा होता। न ही बांग्लादेश 7 फीसदी से अधिक की दर से विकसित हो रहा होता। इस बहस का भी कोई अर्थ नहीं है कि यह केवल धीमापन है या वाकई पूरी तरह मंदी आ गई है। जब चार तिमाहियों में वृद्धि दर 7 फीसदी से घटकर 4.5 फीसदी हो जाए तो यह मंदी ही है।

विश्लेषक हाल तक कह रहे थे कि हालात में जल्दी सुधार आ सकता है लेकिन इसकी आशा मत कीजिए। आंकड़ों की पड़ताल की जाए तो मौजूदा तिमाही के आंकड़े पिछली से कतई बेहतर नहीं हैं और पूरे वर्ष के दौरान वृद्धि दर का स्तर मोदी के सत्ता में आने के बाद से सबसे धीमा रहने वाला है। याद रहे वह दो अंकों की वृद्धि और अच्छे दिन के वादे के साथ सत्ता में आए थे। अब तक सरकार अर्थव्यवस्था का सबसे तेज बढ़ता हिस्सा रही है लेकिन राजकोषीय घाटे का पूरे वर्ष का लक्ष्य सात महीने में पार हो जाने के बाद यह जारी नहीं रहने वाला। औद्योगिक उत्पादन सूचकांक लगातार निराश कर रहा है। मूलभूत क्षेत्रों के उत्पादन आंकड़ों का भी यही हाल है। बिजली खपत कम हुई है, डीजल खपत का भी यही हाल है, व्यापारिक आंकड़े गिर रहे हैं और विनिर्माण या तो स्थिर है या गिर रहा है। खपत या औद्योगिक मोर्चे पर कोई अच्छी खबर नहीं है।

हर मंदी में एक चक्रीय तत्त्व होता है और वाहन क्षेत्र की मंदी के खत्म होने में इसके कुछ प्रमाण नजर आ रहे हैं। परंतु सच तो यह है कि बैंक ऋण में सुधार का ज्यादा हिस्सा इस क्षेत्र में नहीं जा रहा। जबकि ऋण के बट्टे खाते जाने की गति बढ़ी है। गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों के ऋण प्रवाह में भारी गिरावट आई है। कंपनियां अभी तक अपने बहीखाते दुरुस्त करने में ही लगी हैं। जब तक यह प्रक्रिया पूरी नहीं होती, नये निवेश की आशा करना बेमानी है। हमें अगले तीन-चार महीने की अवधि के दौरान इन चक्रीय कारकों के असर करने की अपेक्षा करनी होगी लेकिन इस बीच गहन ढांचागत मसलों को हल करने की आवश्यकता है। कृषि क्षेत्र में खराब उत्पादकता और अपर्याप्त घरेलू मांग की बुनियादी दिक्कत बनी हुई है। इसके लिए कुछ हद तक ग्रामीण क्षेत्रों में लोगों की आय का न बढऩा भी वजह है। सरकार का कर राजस्व आधार दिक्कतों से भरा है और किसी को पता नहीं कि कर क्षेत्र की दिक्कतों को कैसे दूर किया जाए। सेवा निर्यात की मजबूती की वजह से रुपया ऐसे स्तर पर है जहां विनिर्माण निर्यातक निर्यात बाजार में प्रतिस्पर्धा नहीं कर पा रहे हैं। सरकारी क्षेत्र में सुधार की बात करें तो वहां नाकाम हो रही कंपनियों के कर्मचारियों को लेकर मामला अटकता है। अंबानी से रुइया तक और थापर से सुभाष चंद्रा तक एक के बाद एक कारोबारी जिस तरह हथियार डाल रहे हैं उससे देश के नामी उद्यमियों के वृद्धि का वाहक बनने की क्षमता पर ही सवाल खड़े हो गए हैं।

ऐसे में सबसे अच्छी सलाह यही हो सकती है कि यह एक ऐसा संकट है जिसे गंवाया नहीं जाना चाहिए। मोदी सरकार का अब तक का व्यवहार ऐसा रहा है मानो वह आर्थिक मोर्चे पर बुरी खबरों की अनदेखी कर सकती है और अपने राजनीतिक और सामाजिक एजेंडों के साथ आगे बढ़ सकती है। आगे ऐसा जारी नहीं रह सकता। संकटकाल में सरकार लोगों से अपेक्षा कर सकती है कि वे व्यापक हित में कुछ बलिदान करें। कुछ नहीं करने का खतरा यह है कि 6 फीसदी या उससे कम की वृद्धि दर अस्वीकार्य होने के बजाय मानक बन जाती है।


Date:30-11-19

सत्ता के लिए विचारधारा को तिलांजलि

डॉ एके वर्मा , (लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)

महाराष्ट्र में अंतत: उद्धवठाकरे के नेतृत्व मेंशिवसेना-राकांपा-कांग्रेसगठबंधन की सरकार बन हीगई। यह भारतीय राजनीतिमें विचारधारा के अंत का हीनहीं, वरन विचारधारा परराजनीतिक महत्वाकांक्षा केवर्चस्व का भी ज्वलंतउदाहरण है। कल तकशिवसेना और कांग्रेसराकांपा विचारधारा के दोध्रुवों की तरह थे। शिवसेनाजहां कट्टर हिंदुत्ववादी यानीपार्टी के रूप मेंजानी जाती थी वहीं कांग्रेसऔर राकांपा वामपंथी-मध्यमार्गी के रूप में। दोनोंमें गंभीर वैचारिक मतभेदरहे, लेकिन आज सा केलालच में दोनों ही धु्रवों नेवैचारिक मतभेद भुलाकरएक-दूसरे का हाथ थाम लिया। समय ही बताएगा कियह प्रयोग कितने दिनों चलेगा, लेकिन इतना निश्चित हैकि इसका खामियाजा इन तीनों ही दलों को उठानापड़ेगा। ऐसा ही प्रयोग कुछ समय पूर्व कांग्रेस ने कर्नाटकमें जद-एस के साथ और उार प्रदेश विधानसभा चुनावमें समाजवादी पार्टी के साथ किया था। इसके परिणाम उसके लिए घातक ही रहे थे। इसी की पुनरावृा 2019में उार प्रदेश में सपा-बसपा ने लोकसभा चुनाव में की और उसमें दोनों को ही नुकसान हुआ। ऐसा माना जाता है कि जनता की याददाश्त कमजोर होती है, लेकिन उसकी याददाश्त इतनी भी कमजोर नहीं होती कि राजनीतिक दलों और राजनीतिज्ञों की गंभीर गलतियों को भूल जाए। इसीलिए चुनावों में सरकारें असर बदल जाया करती हैं। विचारधारा राजनीति की आत्मा होती है। जिन राजनीतिक दलों का भारतीय लोकतंत्र में पराभव हुआ है या हो रहा है उन्हें यह समझना चाहिए कि उनसे गलती कहां हो रही है? आखिर जनता को एक दल और दूसरे दल में फर्क करने का कोई तो ठोस आधार चाहिए।

शिवसेना को आज यह नहीं समझ में आ रहा कि भविष्य में उसे अपनी वैचारिक जमीन छोडऩे की या कीमत चुकानी पड़ेगी? जो लोग शिवसेना के साथ हैं वे जरूर असहज होंगे, योंकि जो सैद्धांतिक लड़ाई उन्होंने कांग्रेस और राकांपा के खिलाफ दशकों से लड़ी, आज उस पर पानी फिर गया। आखिर ऐसे लोग यों न भाजपा की ओर आकृष्ट हों? यहां वे वैचारिक रूप से अपने को ज्यादा सहज पाएंगे। शिवसेना जैसा हश्र कांग्रेस का भी होगा। महाराष्ट्र में शिवसेना सरकार में समलित होकर पार्टी ने देश में या कुछ नहीं खोया? आखिर जो कांग्रेस भाजपा को अपना धुर वैचारिक विरोधी मानती है वह उसके उग्र- संस्करण शिवसेना से हाथ कैसे मिला सकती है? या तो कांग्रेस पहले गलत थी या अब गलत है? शिवसेना तो एक प्रादेशिक पार्टी है, उसका हित तो सीमित है, लेकिन कांग्रेस को तो अपने वृहद राष्ट्रीय हित के बारे में सोचना चाहिए था। या आगामी चुनावों में कांग्रेस केपास वैचारिक स्तर पर भाजपा के विरोध का कोई आधार होगा? यदि एक विचारधारा है तो नीतियां भी एक जैसी होंगी, निर्णय और कार्यक्रम भी एक जैसे होंगे। फिर जनता को पार्टी बदलने से या बदलाव मिलेगा?

हार्वर्ड विश्वविद्यालय के विद्वान डेनिएल बेल ने अपनी पुस्तक ‘विचारधारा के अंत में कहा था कि किसी भी देश के उन्नत आर्थिक- सामाजिक ढांचे की संरचना में विकास की अहम भूमिका होती है, विचारधारा की नहीं। विभिन्न राजनीतिक विषयों जैसे लोक कल्याणकारीराज्य, शति विकेंद्रीकरण, मिश्रित अर्थव्यवस्था और बहुलवाद पर सभी विचारधाराओं में मतैय है।

एक अन्य अमेरिकी विद्वान फ्रांसिस फुकुयामा ने इसे आगे बढ़ाते हुए कहा था कि ऐसा नहीं कि विचारधार ओंका अंत हो गया है, वरन विचारधाराओं के संघर्ष में दक्षिणपंथी विचारधारा ने स्थाई रूप से पूर्ण विजय प्राप्त कर ली है और यही विचारधारा मानवता को भविष्य में निर्देशित करती रहेगी। एक तरह से देखा जाए तो दक्षिणपंथी शिवसेना द्वारा बहुत कम सीटें प्राप्त होने के बाद भी उद्धव ठाकरे को मुख्यमंत्री बनाना डेनियल बेल और फुकुयामा की भविष्यवाणियों को प्रमाणित करता है। महाराष्ट्र के घटनाक्रम से भाजपा ने भी कुछ खोया है। भाजपा को अपनी विचारधारा के लिए जाना जाता है। भारतीय राजनीति में भाजपा का जिस तरह अयुदय हुआ वह फुकुयामा की थीसिस को सही साबित करता है। जब धीरे-धीरे केंद्र और राज्यों में भाजपा की स्वीकार्यता बढ़ती जा रही थी तब महाराष्ट्र में भाजपा को इतनी अधीरता यों दिखानी चाहिए थी कि भोर में शपथ ग्रहण हो जाए? देवेंद्र फडऩवीस ने सरकार न बनाने की बात कहकर स्वच्छ राजनीति का जो उदाहरण शुरू में दिया और जनता की सहानुभूति बटोरी उसे बेमतलब गंवाने का कोई कारण नहीं था। कभी पूरे देश में मध्यमार्गी-वामपंथी विचारधारा का पर्याय रही और केंद्र और राज्यों में एकक्षत्र राज्य करने वाली कांग्रेस को आज एक पिछलग्गू पार्टी की भूमिका में यों आना पड़ा? इसका कारण यही है कि कांग्रेस ने 1960 के दशक से या उससे भी पहलेअपनी वैचारिक आधारशिला को तोडऩा शुरू कर दियाथा। केरल में 1959 में नंबूदरीपाद की विधिवत निर्वाचितवामपंथी सरकार को प्रधानमंत्री नेहरू ने तत्कालीनकांग्रेस अध्यक्ष इंदिरा गांधी के आदेश पर भंग कर इसकासंकेत दे दिया था। इंदिरा गांधी ने 1969 में कांग्रेस काविभाजन कर इसे आगे बढ़ाया। 1975 में देश कोआपातकाल में झोंक कर इंदिरा गांधी ने उसे और किया। इस परंपरा को आगे बढ़ाते हुए नरसिंह राव नेसमाजवादी लीक से हटकर विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीयमुद्रा कोष की पहल पर देश को ‘उदारीकरण, निजीकरणऔर वैश्वीकरण की ओर ले जाकर उसकी वैचारिकपृष्ठभूमि को और कमजोर किया।

आज कांग्रेस के पास ऐसा कुछ भी नहीं जो भाजपासे अलग हो। इसके चलते जनता और मतदाता कोभाजपा और कांग्रेस में कोई वैचारिक फर्क नहीं दिखता।जब दोनों दलों में फर्क करने के लिए नेतृत्व सामने आताहै तब भाजपा बाजी मार ले जाती है। आज भले हीकांग्रेस को शिवसेना से वैचारिक धरातल पर कोई परहेजन हो, लेकिन यदि उसने अपने को वैचारिक धरातल परअलग नहीं किया और नेतृत्व के स्तर पर कोई गंभीरआकर्षक विकल्प नहीं दिया तो पार्टी का भविष्य संदिग्धहै। जो दल राजनीति में विचारधारा और महत्वाकांक्षा काबेहतर समिश्रण कर सकेंगे, भविष्य उन्हीं का है। महाराष्ट्रमें यह समिश्रण नहीं हो पाया। चूंकि यहां विचारधारा कोतिलांजलि देकर महत्वाकांक्षा को आगे बढ़ाने का कामकिया गया इसलिए इस प्रयोग की सफलता संदिग्ध है।


Date:29-11-19

Quality of lending

Sharp rise in bad loans under Mudra is cause for concern. RBI should step in to examine extent of fallout.

Editorial

The Pradhan Mantri Mudra Yojana has often been held up as the solution to India’s job problem. It was expected that the scheme, which entailed the provision of collateral-free loans, would spur both entrepreneurship and job creation in the country. But not only has its performance on creating new jobs been underwhelming — a report in this paper showed that not every loan translated to new jobs — there are now grave doubts over the quality of the loans extended as well, with a sharp rise in the number of loans turning non-performing. On Tuesday, RBI Deputy Governor M K Jain voiced concern over rising bad loans under the scheme. “While such a massive push (Mudra) would have lifted many beneficiaries out of poverty, there have been some concerns at the growing level of non-performing assets (NPAs) among these borrowers,” he said.

Loans under Mudra fall under three categories: Shishu, which covers loans up to Rs 50,000; Kishore, for loans between Rs 50,000 and Rs 5 lakh; and Tarun, for loans between Rs 5 lakh and 10 lakh. At the end of 2018-19, Mudra loans worth Rs 8,93,000 crore had been sanctioned by Member Lending Institutions (MLIs), Anurag Thakur, Minister of State for Finance, said in reply to a question in the Rajya Sabha. Of these, only 2 per cent or Rs 17,651 crore had turned non-performing. But, in the subsequent six months, there has been a sharp rise in bad loans. As reported in this paper, the number of bad loans in the Kishore category has more than doubled, rising by 107 per cent at the end of September 2019, over March. In value terms, bad loans have surged by 71 per cent in this category. In the Tarun category, too, bad loans have risen to Rs 3,425 crore in September, up 45 per cent from Rs 2,353 crore in March. The Shishu category has also seen a spurt in the number of bad loans, though of a lower magnitude.

Several factors could have contributed to this spurt in bad loans. Poor credit appraisals and lack of monitoring by banks, wilful defaults, and the growing inability to pay back obligations due to a slowing economy could have all played a part. But, coming at a time when banks are struggling to resolve their existing pile of non-performing loans, this spurt in bad loans under Mudra may end up becoming another source of vulnerability for them. While the political overtones of the scheme are hard to dismiss, the RBI should examine the implications for the financial system more closely and step in if necessary.


Date:29-11-19

Widening gap

India must use green technologies to boost growth and become a climate leader

Editorial

The UN’s Emissions Gap Report comes as a sharp warning to countries preparing to meet in Madrid in December, under the aegis of the UN Framework Convention on Climate Change, that every year of inaction is jeopardising the main goal of the Paris Agreement: to keep the rise in global temperature over pre-industrial times well below 2°C, and ideally at 1.5°C. Emissions gap represents the difference between current actions to reduce greenhouse gases (GHGs) and what is needed to meet the target. In quantitative terms, the UN report estimates that there would have to be a 2.7% average annual cut in emissions from 2020 to 2030 for temperature rise to be contained at 2°C, while the more ambitious 1.5° C target would require a 7.6% reduction. But countries with large emissions, such as the U.S., China, the European Union (EU) nations and India, will face more challenging demands if corrective measures to decarbonise are not implemented now. Climate warnings issued over the years have failed to impress most politicians, but the EU is considering an emergency declaration, and the British Parliament adopted a resolution earlier this year. What the emissions gap findings make clear, however, is that symbolism can do little to mitigate the effects of dangerous climate change. Hundreds of millions of people could face the extreme impacts.

In the U.S., the Trump administration has initiated the process of withdrawing from the Paris Agreement, but there is considerable sub-national support for climate action. The EU, where public pressure to act on climate change is high, is working on legislation to bring about net zero emissions. The U.K., responsible for a large share of historical emissions, has turned its net zero 2050 goal into a legal requirement. For these rich nations, the road to lower emissions is mainly through innovation and higher efficiencies in energy use. China and India, on the other hand, have to reconcile growing emissions with development needs. Their best options are a scaling up of investments in renewable energy, leapfrogging to clean technologies in buildings and transport, and greater carbon sequestration. Here, as the UN report points out, India could do much more. It needs to provide more consistent support for renewable energy, have a long-term plan to retire coal power plants, enhance ambition on air quality, adopt an economy-wide green industrialisation strategy, and expand mass transport. In the key area of buildings, the energy conservation code of 2018 needs to be implemented under close scrutiny. With a clear vision, India could use green technologies to galvanise its faltering economy, create new jobs and become a climate leader.


Date:29-11-19

Overcoming dogma

The new foreign policies of the Modi government grew out of the challenges of change

T.P. Sreenivasan , a former Ambassador of India, is Director General, Kerala International Centre

 

Prime Minister Narendra Modi and External Affairs Minister S. Jaishankar complement each other. One is a natural politician with his hand on the pulse of the people; the other an erudite diplomat with decades of experience around the globe. The elevation of Mr. Jaishankar as Minister of External Affairs was in recognition of not only his capabilities, but also his trustworthiness.

In a recent lecture, Mr. Jaishankar laid out the rationale and indispensability of the foreign policy that had emerged since 2014. His review of the past was objective. He saw failures more as consequences of rapid changes in the world rather than wrong judgments. Successes such as Bangladesh in 1971, the reformist policies of 1992, the 1998 nuclear tests, and the 2005 India-U.S. nuclear deal were remembered as instances of out-of-the-box thinking and courage, while failure to resolve issues with China in the 1950s, the 1962 defeat at the hands of China, the lack of response to 26/11, etc. were seen as missed chances.

Responding to change

The division of the period since Independence into six phases is both convenient and accurate. Each of these phases had its own characteristics depending on the leaders of the time, but continuity and constancy bordering on dogma may have been responsible for India remaining on the sidelines. Those phases led India into the present phase, beginning with 2014, which demanded more energetic diplomacy, particularly on account of dramatic changes in the world and the growth of India as an economic power and a relevant technology leader from which much was expected. In other words, the new policies and initiatives of the Modi government grew out of the challenges of change.

A good part of the lecture was dedicated to identifying changes in the world, hinting at the futility of India doing the same thing repeatedly yet expecting different results. Such changes have made non-alignment an anachronism and multi-alignments essential. India had to align itself with different countries for different agendas. India’s fight against terrorism went beyond mere protestations, and stern action was taken in the face of a nuclear threat from Pakistan.

For a new foreign policy

Mr. Jaishankar identified five baskets of issues, some necessitating a test of wills, some requiring the leveraging of the global environment for economic reasons, some demanding hedging, some requiring high-risk endeavours in diplomacy, and some others making it imperative for India to read the global tea leaves in the backdrop of global contradictions. One surprising element in the lecture was his emphasis that India’s problems in formulating and implementing a new foreign policy were not external factors, but the “dogmas of Delhi”. Is there a dogma that Mr. Modi has found hard to overcome? Was his disappointment over not being able to manage the neighbourhood or his failure to secure permanent membership of the Security Council or membership of the Nuclear Suppliers Group on account of any dogma? Did any dogma come in the way of his handling #HowdyModi, Mamallapuram and Vladivostok? If anything, there was general support for his foreign policy beyond his support base.

A hint of things to come

Mr. Jaishankar did not outline an agenda except to say that we should expect the unexpected. But he gave a hint of what might come when he asserted that “a nation that has the aspiration to become a leading power someday cannot continue with unsettled borders, an unintegrated region and under-exploited opportunities”. But it is not up to India alone to create these conditions. China is in no hurry to settle the borders; for Pakistan, problems with India are an existential need; and regional integration is eluding India’s grasp. But the refreshing thoughts in the lecture might lead to constructive action in the future.


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