मानव पूंजी का विकास आवश्यक है

Afeias
05 Dec 2018
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Date:05-12-18

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बीते माह विश्व-बैंक ने मानव पूंजी सूचकांक जारी किया है, जिसके पाँच आधार रहे हैं- पाँच वर्ष तक की उम्र के बच्चों की जीवन-दर, 60 वर्ष तक के वयस्कों की जीवन-दर, बच्चों का विकास, स्कूली शिक्षा के अपेक्षित साल और शिक्षा की गुणवत्ता। 2017 के आधार पर जारी किए गए इस सूचकांक में भारत की स्थिति अफ्रीका के उप सहारा क्षेत्र से कुछ ही ऊपर और अपने पड़ोसी दक्षिण एशियाई देशों से नीचे रही है।

भारत जैसी तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था वाले देश के लिए मानव विकास और मानव पूंजी के अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नीचे जाना उचित नहीं लगता। सूचकांक पर वित्त मंत्रालय का कहना है कि ‘‘सरकार ने मानव पूंजी सूचकांक को नजरअंदाज करने और मानव पूंजी विकास कार्यक्रम की निरंतरता को बनाए रखने का निर्णय लिया है, जिससे बच्चों के जीवन की सहूलियत और गुणवत्ता को बढ़ाया जा सके।’’

इसमें कोई संदेह नहीं है कि सरकार ने देश में मानव पूंजी विकास के क्षेत्र में काम किए हैं। 2000-2001 का सर्व शिक्षा अभियान और हाल ही में चलाया गया “आयुष्मान भारत“ कार्यक्रम इसके उदाहरण हैं। इन प्रयासों से निःसंदेह लाभ हुआ है। परन्तु ये पर्याप्त नहीं हैं।

प्रयास में होने वाली कमी के पीछे दो कारण हैं –

(1) देश में मानव पूंजी के विकास की वैसी कोई आकांक्षा ही नहीं है, जैसी कि आर्थिक विकास की है। वित्त मंत्रालय की ओर से 2019 तक भारत को तेजी से बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था में 5वें स्थान और अगले कुछ वर्षों में तीसरे स्थान पर लाने के बारे में वक्तव्य दिए जाते हैं। परन्तु क्या कभी मानव पूंजी विकास सूचकांक में शीर्ष 10 स्थानों में आने के बारे में कोई इच्छा दिखाई जाती है? यदि कारण है कि हमारे पूर्वी पड़ोसी बांग्लादेश ने मानव पूंजी विकास में भारत से बेहतर प्रदर्शन किया है। और 2020 तक उसकी प्रति व्यक्ति आय भी भारत से ऊपर हो जाने का अनुमान है।

(2) मानव पूंजी के संदर्भ में भारत में पहले ही काफी असमानता देखी जा रही है। इसके बावजूद सरकार ने विश्व बैंक के मानव पूंजी विकास योजना के दो मुख्य पक्षों-मानव पूंजी में बड़े पैमाने पर दिखने वाली अंतर और मानव पूंजी के विकास में आने वाले अवरोधों को दूर करना – पर कोई ध्यान नहीं दिया है।

  • विश्व में सबसे ज्यादा वैक्सीन बनाने और निर्यात करने वाले देशों में भारत अग्रणी है। इसके बावजूद नेपाल, बांग्लादेश और मालदीव जैसे देशों की तुलना में यहाँ के कुल 62 प्रतिशत बच्चों को ही आठ बेसिक वैक्सीन लग सके।
  • पाँच वर्ष तक के बच्चों की जीवन दर में भी माताओं के शैक्षिक स्तर के चलते भारी असमानता देखने को मिलती है।

जाति और धर्म के आधार पर भी बच्चों की जीवन दर अलग-अलग दिखाई देती है। हिन्दुओं में मृत्यु दर अधिक है। सवर्ण जातियों की तुलना में अनुसूचित जाति / जनजाति में बाल मृत्यु दर अधिक है।

धन के आधार पर बाल मृत्यु दर में पाया जाने वाला अंतर चिंताजनक है। धनिकों में यह 23 और गरीबों में यह 72 पाया गया है।

ये आंकड़े तो समस्या की एक झलक भर देते हैं। जड़ें तो बहुत गहरी हैं। भारत में असमानता के आधार पर होने वाली बाल-मृत्यु एक चिंताजनक व गंभीर विषय है, जिस पर सरकार को जल्द से जल्द कदम उठाना चाहिए।

‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित अली मेहदी के लेख पर आधारित। 16 अक्टूबर, 2018