अनुच्छेद 48 और गौ-वध पर विचार होना चाहिए

Afeias
03 Dec 2018
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Date:03-12-18

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गौ माता की रक्षा के नाम पर होने वाली हत्याएं, हमारे देश के लिए एक चेतावनी है। ऐसा करके देश के लोगों की एकता और नैतिकता को छिन्न-भिन्न किया जा रहा है। एक बात ऐसी है, जिस पर हम सब सहमत होंगे कि हम यानी भारत के नागरिकों को विचारों, अभिव्यक्ति, आस्था, विश्वास और पूजा की स्वतंत्रता का समान अधिकार दिया गया है। यह सब संविधान की प्रस्तावना में ही एक वायदे के रूप में हमने स्वयं को प्रदान किया है। स्वतंत्रता का यह विचार ही भारत की आत्मा है। अतः प्रत्येक को गाय की अवधारणा का अपने तरीके से निर्माण करने की संवैधानिक स्वतंत्रता है।

संविधान निर्माताओं ने राज्यों को दिए नीति-निर्देशक सिद्धांतों में गौवध एवं अन्य दुधारू पशुओं के वध पर रोक लगाने का परामर्श भी दिया है। यही सिद्धांत, अब हमारे राष्ट्र के ताने-बाने को बिखेरने पर तुला हुआ है। इसने छोटे-मोटे कट्टरपंथियों की आकांक्षाओं को इस प्रकार से हवा दे  दी है कि वे निर्दोष लोगों की जान लेने से पहले जरा भी नहीं सोचते हैं। इसने पुलिस की भी एक ऐसी जमात खड़ी कर दी है, जो अवैध कसाईखानों के संरक्षक बन गए हैं।

इस सब हंगामें में गाय की और बेकद्री होती जा रही है। असहाय किसान अपनी बूढ़ी गाय को सड़कों पर लावारिस छोड़ने को मजबूर हो गए हैं। ये लावारिस गाएं सड़कों पर पड़े ढेरों प्लास्टिक खाकर एक दर्दनाक मौत मरने को मजबूर हो रही हैं। क्या इसमें कोई पाप नहीं है?

अगर यह मानकर चला जाए कि संविधान सभा ने भारत को हिन्दू राष्ट्र मानने के विचार को अस्वीकार कर दिया था, तो संविधान का अनुच्छेद 48 फिर क्या मायने रखता है? इस अनुच्छेद का होना, किसी असंतुलित विचारधारा को लिए दिखाता है कि शायद किसी दिन भारत एक हिन्दू राष्ट्र हो जाए। हमें एक बात स्पष्ट रूप से समझनी चाहिए कि जब तक भारत में सभी हिन्दुओं की आस्थाओं की स्वतंत्रता का समर्थन किया जा रहा है, यह अन्य भारतीयों की स्वतंत्रता का भी समर्थन करता रहेगा। ऐसे में भारत, कभी हिन्दू राष्ट्र नहीं बन सकेगा।

गौ-मांस तो तभी से मानव का भोजन रहा है, जब से उसने एक जाति के रूप में विकास किया है। ऐसे बहुत से उदाहरण मिलते हैं, जिसमें भारतीयों के गौ-मांस खाने की बात कही गई है। यह तो पिछले कुछ वर्षों में ही भारतीयों के भोजन में परिवर्तन के हिंसक प्रयत्न किए जाने लगे हैं। केवल दुग्ध आधारित अर्थव्यवस्था में बूढ़ी गायों और नर बछड़ों का किसान क्या करेंगे?

मनुष्य जिसे प्रकृति के अनुरूप मानकर चल रहा हो, उसे कानून के माध्यम से रोक पाना व्यावहारिक नहीं है। गांधीजी ने भी कहा था कि, ‘‘गौ वध पर प्रतिबंध के लिए कोई कानून नहीं बनाया जा सकता।’’ उन्होंने एक शक्तिशाली तर्क भी दिया था कि, ‘‘नास्तिकों को गौ-पूजा के लिए मजबूर करना, नैतिक रूप से गलत है।’’ इस समस्त प्रकरण में अव्यवस्थित नीति की समस्या है। इस प्रकार प्राकृतिक नियमों को प्रतिबंधित करने के अनपेक्षित परिणाम मानव के जीवन की भेंट से चुकाए जा रहे हैं।

इसका एक उदाहरण 2011 में अमेरिका पर बने वृत्तचित्र में मिलता है। इसमें अमेरिका में अल्कोहल पर रोक के चलते, होने वाले काले धंधों को दिखाया गया है। किस प्रकार से अल्कोहल वाले पदार्थों की कालाबाजारी ने व्हाइट हाऊस और काँग्रेस को भी अछूता नहीं रहने दिया था। अमेरिकी पुलिस भ्रष्टाचार में लिप्त थी। एक तरह से नैतिक हश्र की वही स्थिति थी, जो आज भारत में हो गई है।

गौवध पर प्रतिबंध लगने से होने वाली हत्याएं तो इसकी आड़ में होने वाले अपराधों की एक झलक मात्र ही हैं। ऐसा प्रतिबंध लगाकर हमने पुलिस को अपराधी बना दिया है। अनैतिकता की संस्कृति का प्रसार कर दिया है। हमने देश के अनेक कुपोषित बच्चों के कुपोषण-स्तर को बढ़ा दिया है। रोजगार के अनेक अवसर खत्म कर दिए हैं, और अर्थव्यवस्था को करोड़ो डॉलर का नुकसान पहुँचाया है। सबसे अधिक दुख इस बात का है कि हमने बूढ़ी गायों को एक दर्दनाक मौत मरने के लिए छोड़ दिया है।

अनुच्छेद 48 को निरस्त किए जाने से हम इन समस्याओं से तो निपट ही सकेंगे, देश के नैतिक स्तर को भी सुधार सकेंगे।

‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित संजीव समलोक के लेख पर आधारित। 15 अक्टूबर, 2018