हाथियों की सुरक्षा के लिए एक सार्थक कदम

Afeias
19 Sep 2018
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Date:19-09-18

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हाल ही में उच्चतम न्यायालय ने नीलगिरी के 27 ऐसे रिसॉर्ट बंद करने का आदेश दिया है,जो उस क्षेत्र के हाथियों के आवागमन के रास्ते में आते हैं। न्यायालय का यह प्रयास पारिस्थितिकी तंत्र की सुरक्षा की दिशा में सराहनीय कहा जा सकता है। हाथियों की संख्या आनुवांशिक रूप से जीवाश्म होती है। वह वनों को पुनर्जीवन प्रदान करती है, जिस पर जंगल के अन्य जीव-जन्तुओं का जीवन निर्भर करता है। अतः हाथियों के विचरण-पथ में छेड़छाड़ न करने का आदेश वन-संरक्षण के लिए अनिवार्य भी था।

हमारे देश में पर्यावरणीय पर्यटन से जुड़े नियम-कानून बहुत कमजोर हैं। इसी का लाभ उठाकर वन्य प्राणियों की शरणस्थलियों का मनमाना उपयोग किया जा रहा है। उनके विचरण-पथ को बाधित किया जा रहा है, जिसके चलते पशु अन्य वैकल्पिक मार्गों का सहारा लेते हैं, जो मानव के साथ उनके टकराव का कारण बनता है। बहुत सी वन-भूमि को खेतों में परिवर्तित कर दिया गया है। मानव-पशु संघर्ष का परिणाम हाथियों द्वारा प्रतिवर्ष मारे गए लगभग 450 लोगों के रूप में देखा जा सकता है।

गत वर्ष वाइल्ड लाइफ ट्रस्ट ऑफ इंडिया ने पर्यावरण मंत्रालय के साथ मिलकर ‘प्रोजेक्ट एलीफेंट’ के अंतर्गत ऐसे 101 मार्गों की पहचान की थी, जिनमें से 70 प्रतिशत मार्गों का हाथियों द्वारा नियमित उपयोग किया जाता है। इनमें से तीन-चैथाई पथ-दक्षिण, मध्य एवं उत्तर पूर्वी जंगलों में बराबर बंटे हुए हैं। बाकी के पथ उत्तर-पश्चिम बंगाल और बाकी के उत्तर-पश्चिमी भाग में हैं। इनमें से कुछ पथ अत्यंत संकरे हैं। एक अनुमान के अनुसार ब्रह्मगिरी-नीलगिरी पूर्वी घाट में लगभग 6,500 हाथी हैं। इनकी सुरक्षा के लिए इन पथों की संपूर्ण सुरक्षा की जानी चाहिए।

इस क्षेत्र के जिलाधीश की चैंकाने वाली रिपोर्ट यह बताती है कि हाथियों के क्षेत्र में बने 39 रिसॉर्ट का निर्माण वन विभाग की नाक के नीचे किया गया, और वह भी आवश्यक अनुमति लिए बिना। इन सबकी गहन जाँच की आवश्यकता है।

बहरहाल, हाथियों के अस्तित्व से जुड़े दो मुख्य कारकों पर प्राथमिकता से ध्यान दिया जाना चाहिए। (1) हाथियों के 40 प्रतिशत अभ्यारण्य भेद्य हैं, क्योंकि ये किसी संरक्षित उद्यान या अभ्यारण्य का हिस्सा नहीं हैं। (2) इन क्षेत्रों को कोई वैधानिक संरक्षण प्राप्त नहीं है।

पर्यटन की आड़ में वन्य जीवन को होने वाली हानि पर कड़ी नजर रखना और उसे बचाना वन विभाग की मुस्तैदी और कड़े कानूनों की आवश्यकता की मांग करता है।

‘द हिन्दू’ में प्रकाशित संपादकीय पर आधारित।