तर्कहीनता के मायने

Afeias
28 May 2018
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Date:28-05-18

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दीर्घकाल से भारत का समाज श्रद्धा और विश्वास पर आधारित रहा है। भारतीयजन इसे ही जीने का रास्ता मानते हैं। आधुनिकता, तार्किक सोच और वैज्ञानिक विवेचना को हमारे समाज में यह कहकर नकारा जाता है कि ये सारी बातें भारतीय संस्कृति का अपमान करती हैं।

हाल के कुछ वर्षों में हम एक नए युग में प्रवेश करते जा रहे हैं। इसे हम तर्कहीनता के युग का नाम दे सकते हैं। हमारे नेताओं द्वारा इंटरनेट का महाभारत काल में अस्तित्व होने की बात इसी तर्कहीनता का एक उदाहरण है। ऐसे ही डार्विन के सिद्धांत को व्यर्थ बता दिया गया। इन वक्तव्यों ने हमें वैश्विक मंच पर केवल हंसी का पात्र बनाया है। ऐसी बातों से स्वतंत्रता – बाद की हमारी वैज्ञानिक उपलब्धियों पर भी पर्दा पड़ जाता है।

तर्कवादिता पर इस प्रकार के प्रहार, किसी राजनीतिक रणनीति के तहत ही किए जाते हैं। तार्किक सोच के दबते ही राजनीतिज्ञों का बोलबाला हो जाता है। हम भारतीयों ने अपनी प्राचीन वैज्ञानिक परंपरा के बावजूद वैज्ञानिक दृष्टिकोण को बनाए नहीं रखा है।

वैज्ञानिक दृष्टिकोण का अर्थ, जिज्ञासा और प्रयोगसिद्ध प्रमाणों की प्राप्ति की आकांक्षा होता है। इसमें अंधविश्वास के लिए कोई जगह नहीं होती। एक अवैज्ञानिक समाज में एक अयोग्य शासक का शासन सुरक्षित रह सकता है। अवैज्ञानिकता की स्थिति में बुनियादी प्रश्न भी नहीं पूछे जाते। एक शासक को बस कोई दावा करना होता है, और उसके अनुयायी उसकी भक्ति करने लगते हैं। आज हमारे समाज में दलित, महिला, अल्पसंख्यक, उदारवादी जैसे मुद्दों की बजाय तार्किकता को सबसे ऊपर रखा जाना चाहिए। जनता को चाहिए कि वह शासकों के तर्कहीन वक्तव्यों का पुरजोर विरोध करे।

जिस प्रकार से सरकार वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर प्रहार कर रही है, उससे साफ जाहिर है कि वह जनता में इसे विकसित होने ही नहीं देना चाहती। यही कारण है कि वे उपग्रह प्रक्षेपण पर तो ताली बजा लेते हैं, लकिन जहाँ विज्ञान के प्रति जन जागृति की बात आती है, वहाँ असहिष्णुता का मुद्दा ले आते हैं।

संविधान-निर्मातओं को शायद ऐसा कुछ होने का अनुमान था। तभी उन्होंने वैज्ञानिक दृष्टिकोण और ‘सुधार एवं जिज्ञासा की आत्मा’ जैसे शब्दों को संविधान में स्थान दिया है।

वैज्ञानिक दृष्टिकोण को खारिज करने का काम हमारे परिवारों से ही प्रारंभ कर दिया जाता है। परंपरा के नाम पर सड़ी-गली मान्यताओं को मानते चले जाने के लिए भावनात्मक दबाव डाला जाता है।

तर्कहीनता की योजना में हमें अपने ही देश के इतिहास के निरर्थक हिस्से जैसे जाति-प्रथा, स्त्री-प्रथा, और स्त्री जाति से द्वेष रखने वाले मूल्यों का वास्ता दिया जाता है।

आज जब विश्व स्ट्रिंग सिद्धांन्त और गॉड पार्टिकल आदि का अध्ययन कर रहा है, हम भारतीय वेदों के सिद्धान्त को आइंस्टीन के ई एम सी2 से श्रेष्ठ सिद्ध करने का हास्यास्पद प्रयास कर रहे हैं।

‘द हिन्दू’ में प्रकाशित संजय राजौरा के लेख पर आधारित। 4 मई, 2018