धर्मनिरपेक्षता का नया रूप
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हाल ही में कुछ राज्यों में हुए चुनावों में हिंदुत्व का ऐसा रूप उभरकर आया है, जिसको चुनौती नहीं दी जा सकती। हिंदुत्व का यह वह रूप है, जो जाति और संप्रदाय से अलग राष्ट्रीय समरसता का शंखनाद करता है।
हिंदुत्व की जीत से उन सबकी ऐसी हार हुई है, जो मुस्लिमों को वोट देने वालों का एक रेहड़ (झुण्ड) मात्र समझते रहे हैं और झुण्ड को इकट्ठा रखने के बहुतेरे प्रयास करते रहे हैं। इन सबके केंद्र में ऑफ़ इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड है। यह मध्यस्थों के रूप में धार्मिक नेताओं का ऐसा संगठन है, जो शरिया कानून का पहरेदार बनता है। इस बोर्ड के आधे से अधिक आजीवन सदस्य ऐसे दकियानूसी और रूढ़िवादी मुसलमान हैं, जो धर्मनिरपेक्षता के नाम पर धर्म और सरकार को अलग-अलग रखने में माहिर हैं। यही लोग वक्फ संपत्तियों के प्रबंधक भी हैं। भारत में लगभग 3 लाख वक्फ़ संपत्तियाँ हैं। यूँ तो इन संपत्तियों को अल्लाह के नाम पर गरीबों के कल्याण के लिए रखा जाता है, परंतु ये भ्रष्टचार की भेंट चढ़ जाती हैं। इन पर ऊँगली उठाने को इस्लाम पर हमला माना जाता है।भारत के धर्मनिरपेक्ष राज्य में अभी तक मुस्लिमों को रूढ़िवादिता में जीने के लिए एक तरह से छोड़े रखा गया है।
रूढ़िवादी धार्मिक नेताओं ने मानवीय विकास को दरकिनार कर पूरे मुस्लिम संप्रदाय को तुष्टिकरण की नीति में झोंक दिया है।मुस्लिम समुदाय की असल संपत्ति इनके बुनकर, कारीगर और शिल्पकार हैं। भारतीय, साहित्य, संगीत और स्थापत्य में मुस्लिमों का योगदान भरा पड़ा है। यह समझ में नहीं आता कि जब आज से 200 साल पहले जब मिर्ज़ा गालिब ने इन धार्मिक नेताओं की खुलकर खिल्ली उड़ाई हो, तब हम आज भी इनकी गुलामी क्यों कर रहे हैं ?
उत्तर प्रदेश के चुनावी नतीजों ने न केवल मुस्लिम मतों के लिए स्वार्थ का गणित लगाने वालों की पोल पट्टी खोल दी है, बल्कि मायावती जैसे नेताओं की मुल्ला-मांस व्यापारी-गुंडे जैसे उम्मीदवारों को चुनावी मैदान में उतारने के पीछे की घिनौनी चाल को भी खत्म कर दिया है।इन चुनावी नतीजों से पता चलता है कि मुस्लिम समाज अपनी अंतश्चेतना को जगा चुका है। उन्हें समझ में आ रहा है कि भारत में उन्होंने अपनी जनसंख्या बढ़ाने के अलावा और कोई विकास नहीं किया है। इसके लिए मुसलमानों को स्वयं प्रयत्नशील होना होगा।
- कुछ सुझाव–
- मुल्लाओं की सीमाओं को मस्जिद तक सीमित कर दिया जाए। उन्हें फतवा जैसी घोषणाओं से दूर रखा जाए। मुस्लिम कानून और वक्फ़ बोर्ड के प्रबंधन की जांच शुरू की जाए। समुदाय की उन्नति के लिए व्यावसायिकों की सहायता ली जाए।
- अल्पसंख्यक और अलग पहचान की पूंगी बजाने की बजाय, चल रही सरकारी योजनाओं में हिस्सेदारी की मांग हो। मुसलमानों में फैली बेरोजगारी, ऋण, तथा शिक्षा आदि के लिए आंदोलन होने चाहिए।
- मुसलमानों को यह समझना होगा कि उन धार्मिक परंपराओं के प्रचार से ही लाभ मिल सकता है, जो तोड़ने का नहीं, बल्कि जोड़ने का काम करें। समुदाय में संगीत स्त्री पर प्रतिबंध तथा शिक्षा पर रोक एवं स्वतंत्रता जैसे रूढ़िवादी विचारों के खिलाफ आवाज उठनी चाहिए।
- सबसे बड़ी बात यह है कि अगर मुसलमानों को धर्मनिरपेक्षता की लड़ाई में आगे करने की बात कहकर कोई वोट मांगता है, तो उसे साफ मना कर दें।
भारत के सबसे बड़े राज्य के चुनाव नतीजों ने धर्मनिरपेक्षता की परिभाषा को केवल चुनावी स्वार्थों के लिए संकुचित करने वालों को मुँहतोड़ जवाब दिया है। आगे भी यही परंपरा बनी रहनी चाहिए।
‘द टाइम्स ऑफ़ इंडिया‘ में प्रकाशित सबा नकवी के लेख पर आधारित।