08-09-2025 (Important News Clippings)
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Greying with grace
Changing population dynamics require a policy reorientation for governments
Editorial

If there was any doubt about India going through the throes of a demographic change, confirmation came with the Sample Registration System (SRS) Statistical Report indicating a fall in the country’s Crude Birth Rate (CBR) and Total Fertility Rate. As per the SRS data for 2023, India’s CBR, defined as the number of annual live births in a population per 1,000 people, had declined to 18.4, a drop from 19.1 in 2022. The country’s TFR had also fallen to 1.9, after hovering at 2.0 in 2021 and 2022. The TFR indicates the average number of children a woman will have in her lifetime to replace that generation, and a TFR of 2.1 births per woman is considered replacement-level fertility, translating to a stable population over time. Any figure over 2.1 suggests a growing population while rates below 2.1 signify a clear trend towards population decline and aging. Of course, as usual, for a country of this size and diversity, there were vast regional differences. The highest CBR was in Bihar at 25.8, and the lowest was in Tamil Nadu at 12. Bihar also reported the highest TFR (2.8) and Delhi, the lowest (1.2). Eighteen States and Union Territories had a TFR below the replacement level, and all States reporting higher than replacement level TFR were in northern India — Bihar, Uttar Pradesh, Madhya Pradesh, Rajasthan, and Chhattisgarh. Following Delhi, West Bengal, Tamil Nadu, and Maharashtra too have a TFR below 2.0. Simultaneously, as expected from such a demographic shift, SRS data indicated the proportion of people above 60 rose by 0.7 percentage points in a year to 9.7% of the population. Kerala has the highest proportion of elderly population, at 15%, while Assam, Delhi and Jharkhand reported the lowest proportion of their population over 60 years.
It will be foolhardy to look away from the writing on the wall. As the most populous nation, home to over 1.46 billion people, the current declining trend will admittedly take several years to have an impact on the population. However, there is no doubt that the nation, having, at least theoretically, prepared for ‘more’ all these years, should now prepare for a different future, while continuing to leverage the demographic dividend it still possesses thanks to a relatively young workforce. A greying nation will come with its own attendant concerns and needs — financial, universal access for reduced mobility, physical and mental health-care facilities and social support services. A ‘young’ nation, after all, will require a massive realignment to be ready to serve the needs of a growing population of the elderly.
औपनिवेशिक प्रपंच की निरंतरता
बलबीर पुंज, ( लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं )
भारत को विभाजित करने की औपनिवेशिक टूलकिट आज भी कई रूपों में सक्रिय है। इसकी झलक अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के सलाहकार पीटर नवारो के हालिया विषवमन में मिलती है। यूक्रेन-रूस सैन्य संघर्ष को ‘मोदी का युद्ध’ बताने वाले नवारो ने भारत द्वारा सस्ती दरों पर रूस से की जा रही तेल खरीद पर कहा कि इससे ब्राह्मणों को ही लाभ मिल रहा है।
यह कोई आकस्मिक प्रतिक्रिया या अमेरिकी संदर्भ में दिया वक्तव्य नहीं है। यह उसी विषबेल की ही कोपल है, जिसकी जड़ें देश के भीतर पहले से ही रोपी जा चुकी हैं, जहां एक राजनीतिक समूह विकृत नैरेटिव गढ़कर दलितों-वंचितों को शेष हिंदू समाज के विरुद्ध खड़ा करने और मुसलमानों को मजहब के नाम पर एकजुट रखने का प्रपंच दशकों से रच रहा है।
सच तो यह है कि भारत को कई टुकड़ों में विभाजित करने की विकृत आकांक्षा विदेशी शक्तियों की चिरस्थायी कुंठा रही है। उनके निशाने पर केवल ब्राह्मण नहीं, अपितु संपूर्ण हिंदू समाज है। ब्राह्मणों का दानवीकरण कोई संयोग नहीं, बल्कि सुनियोजित षड्यंत्र है। ब्राह्मणों के प्रति घृणा की जड़ें हमें सीधे 16वीं शताब्दी और उसके उपरांत गढ़े गए कुटिल प्रपंचों में दिखाई देती हैं। जब 16वीं शताब्दी में भारत के दक्षिणी हिस्से में जेसुइट मिशनरी फ्रांसिस जेवियर का आगमन हुआ, तब उसने ब्राह्मणों को ईसाई मतांतरण के मार्ग का सबसे बड़ा अवरोधक माना।
जेवियर ने 31 दिसंबर 1543 को ‘टू द सोसायटी एट रोम’ को पत्र लिखकर कहा, “यदि ब्राह्मण विरोध न करें, तो हम यहां सबको मसीह के चरणों में ले आएं… इतने वर्षों में मैंने केवल एक ब्राह्मण का ही मतांतरण किया है।” इसके बाद जेवियर ने ‘गोवा इंक्विजीशन’ का रक्तरंजित अभियान चलाया। इसमें केवल हिंदू ही नहीं, बल्कि वे सीरियाई ईसाई भी शिकार बने, जो कैथोलिक रोमन चर्च के बजाय अपनी प्राचीन उपासना-पद्धति का पालन कर रहे थे। चर्च की दृष्टि में यह इतना बड़ा ‘अपराध’ था कि ऐसे लोगों की जीभ काट दी गई, तो जीवित रहते उनकी चमड़ी तक उधेड़ ली गई।
जेवियर के बाद 17वीं शताब्दी में राबर्ट डी नोबिली नामक अन्य जेसुइट मिशनरी भारत आया। ब्राह्मणों की जनसम्मानित प्रतिष्ठा देखकर उन्होंने साधु-संन्यासी का वेश धारण किया और स्वयं को ‘व्हाइट ब्राह्मण’ बताने लगा। मतांतरण की इस युक्ति को लेकर रोम में काफी विवाद भी हुआ। जब वर्ष 1757 में राबर्ट क्लाइव ने प्लासी युद्ध में निर्णायक जीत के साथ भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की नींव रखी, तब कालांतर में इस मजहबी षड्यंत्र को गति मिली।
1813 में ईस्ट इंडिया कंपनी के चार्टर में अंग्रेजों ने विवादास्पद अनुच्छेद जोड़कर न केवल अपने पादरियों और मिशनरियों के लिए भारतीयों के मतांतरण का मार्ग प्रशस्त किया, बल्कि उन्हें हर प्रकार के आधिकारिक सहयोग का भी आश्वासन दिया। उस समय गवर्नर-जनरल रहे लार्ड मिंटो ने अपने एक ज्ञापन में कुछ मिशनरियों की प्रचार सामग्री पर टिप्पणी की थी, ‘इस ग्रंथ का अधिकांश भाग वस्तुतः ब्राह्मणों के सामूहिक संहार को लक्षित करता दिखता है।’
इस प्रकार चर्च-मिशनरी ने अंग्रेजों के साथ गठजोड़ कर निहित स्वार्थ साधने हेतु ब्राह्मणों को कलंकित करने की विधिवत पटकथा लिखनी प्रारंभ की। इस उपक्रम में पहले मद्रास (चेन्नई) के ब्राह्मणों और अन्य सवर्ण-शिक्षित हिंदू वर्ग के मतांतरण का प्रयास किया गया, किंतु इसमें पूर्णत: असफल रहे। तब ब्रिटिश इतिहासकार और नेता थामस बैबिंगटन मैकाले ने अपनी कुख्यात ‘मिनट आन इंडियन एजुकेशन’ के माध्यम से भारतीय शिक्षा पद्धति को विकृत करने का अभियान चलाया।
मैकाले का मूल उद्देश्य अक्टूबर, 1836 में अपने पिता को लिखे पत्र से उजागर होता है, जिसमें उन्होंने लिखा था, ‘मेरा दृढ़ विश्वास है कि यदि हमारी शिक्षा नीति सफल हो जाती है, तो 30 वर्षों के भीतर बंगाल के उच्च घरानों में एक भी मूर्तिपूजक नहीं बचेगा।’ इसी विषाक्त गठजोड़ की कोख से अन्य औपनिवेशिक विकृतियों के साथ 1916 में ब्राह्मण-विरोधी ‘जस्टिस पार्टी’ का जन्म हुआ, जो आगे चलकर अलगाववादी ‘द्रविड़ आंदोलन’ के रूप में अवतरित हुई। इसके अंतर्गत हिंदू देवी-देवताओं की मूर्तियों का अपमान करते हुए जुलूस भी निकाले जाने लगे। इसी नफरत की प्रतिध्वनि स्वतंत्र भारत में दशकों से सुनाई दे रही है। हालिया वर्षों में द्रमुक नेताओं द्वारा ‘सनातन धर्म’ को मिटाने का आह्वान इसका ज्वलंत उदाहरण है।
अक्सर ‘मनुस्मृति’ के बहाने अस्पृश्यता जैसी कुरीतियों का ठीकरा तथाकथित ‘ब्राह्मणवाद’ के सिर फोड़ा जाता है, लेकिन यह ग्रंथ शाश्वत नहीं और फिर कालातीत हिंदू समाज ने समय के अनुरूप स्वयं को ढाला है और निरंतर अधिकाधिक बहुलतावाद, लोकतंत्र तथा पंथनिरपेक्षता के आदर्शों को आत्मसात किया है। वैसे गांधीजी ने 4 मई, 1928 को लिखा था, ‘मनुस्मृति में काफी कुछ प्रशंसनीय है… उसमें कुछ बुरा भी है… सुधारक को अच्छी चीजें ग्रहण करनी चाहिए और बुरी छोड़ देनी चाहिए।’
जहां तक अस्पृश्यता के उन्मूलन का प्रश्न है तो सिख गुरुओं से लेकर स्वामी विवेकानंद, दयानंद सरस्वती, स्वामी श्रद्धानंद सरस्वती, गांधीजी, वीर सावरकर, डा. आंबेडकर और डा. हेडगेवार आदि ने अस्पृश्यता जैसी सामाजिक व्याधि के विरुद्ध सफलतापूर्वक आंदोलन चलाया। कोई भी सजग भारतीय अस्पृश्यता का समर्थन कर ही नहीं सकता।
वामपंथी और स्वघोषित सेकुलरवादी वर्षों से ‘सामाजिक अन्याय’ का राग अलापते रहे हैं, किंतु उनका ध्येय विषमताओं को मिटाना नहीं, बल्कि जातीय दरारों को स्थायी बनाए रखना है। इसलिए जब पीटर नवारो का ब्राह्मण-विरोधी विषाक्त वक्तव्य चर्चा में आया, तब भारत का एक राजनीतिक वर्ग उसकी ढाल बनकर सामने आ गया।
नवारो के आशय को ‘बोस्टन ब्राह्मण’ से जोड़कर मुद्दे को भटकाया भी जाने लगा। इससे दो बातें स्पष्ट है। पहली, नवारो की टिप्पणी विशुद्ध भारतीय संदर्भ में थी। दूसरी, जब विश्व पटल पर भारत का गौरव और प्रभाव निरंतर बढ़ रहा है, तब औपनिवेशिक शक्तियों को देश के भीतर अपनी इसी विचारधारा के मानस बंधुओं का साथ मिल रहा है।
सियासी शुचिता
संपादकीय
एक आदर्श राजनेता वही होता है, जो ईमानदार, जिम्मेदार और जन हितैषी हो । पारदर्शिता, निष्पक्षता और जनता के प्रति जवाबदेही उनके कार्य का हिस्सा हो जो 1 आमजन की समस्याओं और जरूरतों को भली-भांति समझे और उनका निराकरण करे किसी भी जनप्रतिनिधि का यह मूल कर्त्तव्य है कि यह समाज में सौहार्द, शांति, सामंजस्य और सकारात्मक मूल्यों को बनाए रखने के लिए प्रतिबद्ध रहे। मगर जब जनता का चुना हुआ नुमाइंदा खुद ही आपराधिक आरोपों के घेरे में आ जाए तो इन सब आदर्शों का क्या महत्त्व रह जाता है? इस तरह के मामले जब बड़ी संख्या में सामने आने लगे तो सियासत में शुचिता के स्तर का अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है। चुनाव अधिकार संस्था एसोसिएशन फार डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) की एक हालिया अध्ययन रपट में खुलासा किया गया है कि देश के लगभग 47 फीसद मंत्रियों के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज हैं। यानी केंद्र और राज्य सरकारों के कुल मंत्रियों में से करीब आधे आपराधिक गतिविधियों में आरोपी हैं। यह आंकड़ा चौंकाने वाला और आम जनमानस को सचेत करने वाला है। सवाल है कि अगर जनप्रतिनिधियों की ही छवि इस तरह की है, तो हम किस तरह के समाज और राष्ट्र का निर्माण कर रहे हैं?
रपट के मुताबिक, जिन मंत्रियों के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज हैं, उनमें हत्या, अपहरण और महिलाओं के खिलाफ अपराध जैसे गंभीर आरोप शामिल हैं। राष्ट्रीय स्तर पर चालीस फीसद केंद्रीय मंत्रियों ने खुद पर आपराधिक मामले दर्ज होने की जानकारी अपने चुनावी हलफनामे में दी है। आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, बिहार, ओड़ीशा, महाराष्ट्र, कर्नाटक, पंजाब, तेलंगाना, हिमाचल प्रदेश, दिल्ली और पुदुचेरी में साठ फीसद से ज्यादा मंत्रियों पर आपराधिक मामले दर्ज हैं। इससे साफ है कि राजनीति में आपराधिक छवि वाले नेताओं का दबदबा बेरोक-टोक बढ़ रहा है। मगर सबसे महत्त्वपूर्ण सवाल यह है कि दागदार नेताओं को संसद या विधानसभा में भेजने और सरकार का हिस्सा बनाने का मौका कौन दे रहा है ?
सवाल यह भी है कि जनता को कैसे पता चलेगा कि किस नेता का आचरण कैसा है और उस पर आपराधिक मामला दर्ज है या नहीं ? इसका जवाब चुनाव आयोग के उस कदम में समाहित है, जिसमें सभी राजनीतिक दलों को निर्देश दिया गया है कि वे चुनाव में अपने उम्मीदवार घोषित करने के दौरान उन पर दर्ज आपराधिक मामलों की जानकारी भी सार्वजनिक करें। अगर कोई दल इन निर्देशों का पूरी तरह पालन नहीं करता है, तो चुनाव आयोग को निश्चित रूप से उस पर कड़ा संज्ञान लेना चाहिए। यह रपट ऐसे समय पर आई है, जब हाल ही में केंद्र सरकार ने संसद में संविधान संशोधन विधेयक पेश किया है, जिसमें गंभीर आपराधिक आरोपों में गिरफ्तारी के बाद तीस दिन तक हिरासत में रहने पर प्रधानमंत्री सहित मुख्यमंत्रियों और मंत्रियों को पद से हटाने का प्रावधान है। अगर इस विधेयक को रपट के आंकड़ों की नजर से देखा जाए तो केंद्र सरकार की ओर से यह अहम पहल है। मगर इस पहलू पर गौर करना भी जरूरी है कि नीति और नीयत दोनों साफ-सुथरी, निष्पक्ष और पारदर्शी होनी चाहिए, तभी व्यवस्था में सुधार की उम्मीद की जा सकती है। कानून बनाने के साथ-साथ उसे प्रभावी तरीके से लागू करना भी जरूरी है, ताकि समस्याओं को जड़ से उखाड़ा जा सके।
ट्रंप की अकड़ ढीली
संपादकीय

जैसी कि उम्मीद थी ठीक वैसा ही हुआ। अभी तक भारत से खुंदक निकाल रहे अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप आखिर, पलटी मार गए। भारत को धो-धो कर कोस रहे ट्रंप समझ चुके हैं कि उनकी तिरछी चाल से भारत का तो जो होगा सो होगा बेइज्जती तो अमेरिका और उनकी खुद की होने वाली है। शुल्क और रूसी तेल खरीद को लेकर अमेरिका और भारत के मध्य भारी तनाव पैदा करने के बाद ट्रंप ने कहा कि दोनों देशों के बीच विशेष संबंध हैं। इस पलटी को खिसियानी बिल्ली खंभा नोचे के सिवा और क्या कहा जा सकता है दोनों देशों के बीच संबंध पिछले दो दशकों में सबसे खराब दौर से गुजर रहे हैं। अपने मित्र मोदी से मित्रता को याद करते हुए ट्रंप कहे बिना नहीं रह सके कि ‘मैं हमेशा मोदी का दोस्त रहूंगा….वह शानदार प्रधानमंत्री हैं।’ ट्रंप की इस चालबाजी को भांपते हुए भारत को गद्गद् होने की जरूरत नहीं है। ट्रंप ने पिछले कुछ समय में भारत के साथ जो अपमानकारी हरकतें की हैं, उन्हें भारत को नहीं भूलना चाहिए। अपनी आदत से बाज न आते हुए अब भी उन्होंने यह तो कह ही दिया कि उन्हें इस समय मोदी द्वारा किए जा रहे काम पसंद नहीं आ रहे। वह इस बात से निराश हैं कि भारत रूस से बहुत ज्यादा तेल खरीद रहा है। इससे पहले ट्रंप ने ‘टूथ सोशल’ पर अपनी पोस्ट में कहा था, ‘लगता है हमने भारत और रूस को चीन के हाथों खो दिया है। ईश्वर करे कि उनका भविष्य दीर्घकालिक और समृद्ध हो।’ ट्रंप चीन से भारत के सुधरते रिश्तों में खटास लाने की पुरजोर कोशिश कर रहे हैं। तियानजिन में शंघाई सहयोग संगठन के शिखर सम्मेलन से आए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग और रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के ठहाके लगाते चित्रों ने पूरी दुनिया का ध्यान खींचा। इससे ट्रंप की बेचैनी बढ़ी हुई है। वह किसी भी तरह इन तीनों नेताओं में दूरी पैदा करना चाहते हैं। भारत को चाहिए कि वह बदलती वैश्विक जरूरतों में अपना फायदा देखते हुए किसी चालबाजी में न फंसे। अपनी शर्तों पर व्यापार करना एक सार्वभौमिक राष्ट्र का अपना मसला है, हम किससे तेल खरीदें या न खरीदें और कितना खरीदें अमेरिका को बीच में पड़ने की जरूरत नहीं है। मोदी ने ट्रंप की चाल को भांपते हुए जो सधी हुई प्रतिक्रिया दी है, उसकी प्रशंसा की जा सकती है क्योंकि परिदृश्य में आया बदलाव ट्रंप और अमेरिका पर पड़े दबाव को दिखाता है। भारत को किसी की लल्लोचप्पो में आने की जरूरत नहीं है। ये ट्रंप के सीधी लाइन पर आने के संकेत हैं।
Date: 08-09-25
शांति स्थापना जरूरी
संपादकीय
वर्तमान में मणिपुर देश का एकमात्र राज्य है, जहां राष्ट्रपति शासन लागू है। मैतई -कुकी के खूनी संघर्ष के चलते इसी साल फरवरी में राष्ट्रपति शासन लागू किया गया था। 1967 के बाद से मणिपुर में राष्ट्रपति शासन लगने का ग्यारहवां उदाहरण है। अब मणिपुर अखंडता पर समन्वय समिति ने कुकी- जो समुदाय के दो प्रमुख संगठनों द्वारा सरकार के साथ समझौते पर हस्ताक्षर कर दिए। कोकोमी शांति स्थापित करने के लिए रोडमैप तैयार कर रहा है। केंद्र व राज्य सरकार ने कुकी जो विद्रोही समूहों के साथ पनुर्निधारित नियमों, शर्तों या आधारभूत नियमों के साथ विशेष सैन्य समझौते पर हस्ताक्षर किए। गृह मंत्रालय का कहना है कि नागरिक समाज संगठनों के इन समूहों द्वारा राष्ट्रीय राजमार्ग-2 को यात्रियों और जरूरी वस्तुओं की आवाजाही के लिए खोलने पर सहमति व्यक्त की है। मई, 2023 में राज्य में कुकी-मैतई के दरम्यान हिंसा के बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अपेक्षित यात्रा को लेकर यह व्यवस्था किए जाने की चर्चा है। पूर्वनिर्धारित कार्यक्रमानुसार मोदी 13 सितम्बर को वहां जा सकते हैं। जातीय संघर्ष में ढाई सौ से ज्यादा जानें जा चुकी हैं। जनजीवन अस्त-व्यस्त है। सरकारी इमारतों को क्षति पहुंचाने के अलावा स्थानीय रोजगार ठप पड़े हैं। सुरक्षा बलों के साथ मुठभेड़ों ने आम नागरिकों के भीतर दहशत भर दी है। साठ हजार से ज्यादा लोग अपने घरों को अब तक लौट नहीं पाए हैं। सामान्य स्थिति की बहाली को लेकर जनता में निश्चितता देखी जा सकती है। हालांकि यह राजनीतिक दांव भी हो सकता है क्योंकि अरसे से मोदी के लगातार चुनावी रैलियों में शामिल होने पर विपक्ष निशाना साध रहा था। मणिपुर में शांति बहाली के लिए केंद्र का उपेक्षाभाव देख सवाल उठना लाजिमी था। बिहार में विधानसभा चुनाव को लेकर सरगर्मियां बढ़ चुकी हैं। ऐसे में कयास लगाए जा रहे हैं कि आलोचनाओं को थामने के लिए मोदी की यह यात्रा हो सकती है, जहां कुछ योजनाओं का ऐलान कर वे अपने जिम्मेदाराना व्यवहार का अहसास कराना चाहेंगे। संघर्षग्रस्त राज्य में शांति बहाली केंद्र को अपनी प्राथमिकताओं में रखना चाहिए। चुनावी चकल्लस के अतिरिक्त प्रधानमंत्री मोदी को ख्याल रखना होगा कि देश के किसी भी कोने को उपेक्षित न रहने दिया जाए और शांति स्थापित करने के प्रति यथाशीघ्र विशेष सतर्कता बरती जाए।