
27-02-2025 (Important News Clippings)
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Date: 27-02-25
India Must Eat Better To Not Get Waisted
ET Editorial
India is facing a serious challenge, one that most people don’t even know exists. It now has the third-highest percentage of obese citizens in the world. In just a decade, obesity rates have nearly tripled. This ticking time bomb will have severe conse quences for healthcare systems and economic productivity. The economic impact of obesity in 2019, says Global Obesity Observatory, is $28.95 bn, equivalent to about 1,800 per capita and 1.02% of GDP.
Recognising this, Gol has taken a welcome first step by laun- ching an awareness initiative-and, indeed, recognising a po- tential crisis for what it is: a potential crisis. Gol has nominated 10 public figures including Anand Mahindra and Omar Abdullah to advocate for healthier lifestyles. Small changes, such as reducing edible oil consumption, have been highlighted as key measures. But ensuring awareness isn’t enough. Systemic changes that go beyond individual choices are needed, the most fundamental one being in our food systems.
Our markets are flooded with ultra-pro- cessed, packaged foods that fuel the obesity epidemic. If we are serious about reversing this trend, policymakers must ta- ke steps to promote indigenous, nutrient-rich foods. Farmers must be incentivised to cultivate ‘healthy’ crops, and these should be made widely available at affordable prices. Another critical factor is food labelling. Awareness of reading nutri- tion labels remains low. Strengthening regulations and man- dating front-of-pack labelling on foods can be a game changer. People need to know what is going into their bodies, and busi- nesses must be held accountable for the health impact of their products. A ‘Viksit Bharat’ is not just about GDP muscle, it’s really about ensuring a happier, healthier population.
Date: 27-02-25
यूएन में ‘शांति बहाली’ के प्रयासों की विडम्बना
संपादकीय
दुनिया के कई इलाकों में धमाकों से बर्बादी के बाद अब बड़ी ताक यूएनओ में प्रस्ताव-दर-प्रस्ताव बहाली की कोशिश कर रही है। गाजा फिलियों को निकाल वहां एक तटीय रिपोर्ट बनाने के मंसूबे के बाद रूस द्वारा जंग में हड़पे यूक्रेनी भूभाग से खनिज लेने के इरादे तक अमेरिका ने नैतिकता, शालीनता और नेतृत्वशीलता केतकों को ताक पर रखा। इसका असर यह रहा कि पहली बार अमेरिका को बहु-आयामी चुनौती देने की तैयारियां स्पष्ट होने लगी। जो अमेरिकाको पर से हमलावर बताकर में वोट करता था, नए राष्ट्रपति के काल में ठीक उसके खिलाफ वोट करने लगा। लिहाजा तमाम देश अब अमेरिका को श्रेष्ठ मानने से बचने लगे हैं। तभी तो अमेरिका की जगह यूक्रेन का शांति बहाली का प्रस्ताव यूएनजीए में 93-18 (65 अनुपस्थित) से पारित हो गया। दोनों शांति प्रस्तावों में फर्क यह था कि अमेरिका के प्रस्ताव में इस बार रूस को हमलावर नहीं बताया गया था। जब फ्रांस के कहने पर अमेरिकी प्रस्ताव में रूस को आक्रमणकर्ता बताने वाला वाक्य जोड़ा गया, तो प्रस्ताव 93-8 (73 अनुपस्थित) मतों से पारित हुआ। क्या ट्रम्प का यूक्रेन को हमलावर और जेलेंस्की को कॉमेडियन बताना सही था? क्या कनाडा को अमेरिका का राज्य बनाने, डेनमार्क से ग्रीनलैंड झटकने और पनामा पर हक जमाने का मंसूबा जायज है? तभी तो फ्रांस के राष्ट्रपति को भरी संयुक्त प्रेस कांफ्रेंस में ट्रम्प को बीच में टोककर दुरुस्त करना पड़ा।
Date: 27-02-25
सरकार में किसी भी स्तर पर फ़ाइलें क्यों अटकनी चाहिए
सुशासन सुधांश, ( राजस्थान के मुख्य सचिव )
हाल ही में हुए देश के मुख्य सचिवों के सम्मेलन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गवर्नेस को और बेहतर करने के लिए पी2 जी2 यानी ‘प्रो-पीपुल, प्रो-एक्टिव’ का उल्लेख किया। ‘प्रो-पीपुल’ का मतलब तो जनकल्याणकारी होता है। लेकिन यहां ‘प्रो-एक्टिव’ का अर्थ सिर्फ सक्रिय होना नहीं, बल्कि सूझबूझ के साथ सक्रिय होना है।
गुड गवर्नेस चाणक्य काल में भी था और समूचा शासन इसी पर आधारित था । उनके समय में भी जनहित ही सर्वोपरि था। असल में गुड गवर्नेस वही है, जो पारदर्शी, उत्तरदायी और दक्ष हो। जो सहभागी, नैतिक और समानता से परिपूर्ण हो । गुड गवर्नेस के लिए जरूरी है कि सरकार की नीतियों में ही नहीं, उसके रोजमर्रा के कामकाज में भी इन मूल्यों का अनुसरण हो। प्रधानमंत्री कई बार जिक्र कर चुके हैं कि सरदार पटेल इस मॉडल के बहुत बड़े पैरोकार थे।
गुड गवर्नेस के पी2 जी2 मॉडल को अमली जामा पहनाने के लिए इसके अनुरूप नीतियां बनानी होंगी और इन्हें लागू करने के लिए सरकारी सिस्टम को और चुस्त- दुरुस्त करना होगा, ताकि आमजन को इसका पूरा लाभ मिल सके। इस मॉडल की सबसे अहम कड़ी सरकार के रोजमर्रा के कामकाज हैं।
इस दिशा में राजस्थान ने दूसरे राज्यों के लिए मिसाल कायम की है। प्रदेश में सभी नोटशीट सरकार के पोर्टल ‘राजकाज’ पर निस्तारित हो रही हैं। ई-फाइलिंग से मुख्य सचिव, अतिरिक्त मुख्य सचिव, प्रमुख शासन सचिव, शासन सचिव, संभागायुक्त व कलेक्टर एवं अन्य सभी स्तरों पर फाइलें निस्तारित करने के समय में अभूतपूर्व कमी आई है।
जनवरी 2024 में मुख्य सचिव से शासन सचिव तक के अधिकारियों का एक नोटशीट का औसत निस्तारण समय 24 घंटे 41 मिनट था, जो दिसम्बर तक घटकर महज 3 घंटे 47 मिनट रह गया है। यानी पहले के मुकाबले 6 गुना तेज गति से काम हो रहा है। इसी दौरान संभागीय आयुक्तों का औसत निस्तारण समय 31 घंटे 22 मिनट से 1 घंटा 9 मिनट और जिला कलेक्टरों का समय 36 घंटे 56 मिनट से 2 घंटा 20 मिनट हो गया है यानी कार्य के निष्पादन में 15 से 20 गुना से अधिक गति आई है।
इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि इस प्रक्रिया से हर स्तर के कर्मचारी जुड़े हैं। फाइल किसके पास लंबित है और इसके निस्तारण में किस अधिकारी या कर्मचारी ने कितना समय लिया है, यह बाकियों को भी दिखता है। इसने स्वतः ही एक स्वस्थ प्रतिस्पर्धा और अनुशासन का माहौल बना दिया है।
यह बताने की जरूरत नहीं है कि फाइल या नोटशीट सरकारी सिस्टम में कितनी अहम होती है। इनमें जो लिखा है, उससे ही नीतियां और योजनाएं धरातल तक पहुंचने के लिए निकलती हैं। इनके क्रियान्वयन और निगरानी का पूरा तंत्र भी फाइलों पर ही चलता है। आमजन से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े कार्य भी इन्हीं फाइल और नोटशीट के माध्यम से होते हैं। इनके निस्तारण में लगने वाले समय के आधार पर ही समाज में धारणा बनती है कि सरकार कितनी चुस्त है।
लोगों को हर छोटे-बड़े काम के लिए सरकार में आवेदन करना पड़ता है। बाकायदा इसकी फाइल बनती है। यदि यह फाइल एक ही जगह रहती है या धीरे-धीरे आगे बढ़ती है तो व्यक्ति यही सोचेगा कि सिस्टम बहुत सुस्त है। ऐसा तभी हो सकता है जब यह निगरानी करने का कोई तंत्र न हो कि किसी कार्य को करने में हर चरण पर कितना समय लग रहा है। यह तंत्र विकसित होगा तो कोई भी अधिकारी बिना वजह या जानबूझकर फाइल के निस्तारण में ज्यादा समय नहीं लेगा। उसके दिमाग में बार-बार यह अलार्म बजता रहेगा कि उनकी इस हरकत को सभी नोटिस कर रहे हैं।
राजकाज का काम ई-फाइलिंग पर करने का राजस्थान मॉडल बाकी राज्यों में भी अपनाया जा सकता है। सरकार में किसी भी स्तर पर कोई फाइल बिना किसी कारण के अटकनी ही क्यों चाहिए ? टालमटोल की प्रकृति अधिकारियों में पद और प्रभाव के दुरुपयोग को जन्म दे सकती है। जो काम मिनटों में हो सकता है, उसके लिए दिनों का समय देना और जो काम दिनों में हो सकता है, उसके लिए सप्ताहों का समय देना अच्छे वर्क कल्चर की निशानी नहीं।
Date: 27-02-25
वृद्धि को सहारा देता सार्वजनिक व्यय
संपादकीय
किसी देश की दीर्घकालिक वृद्धि और विकास पर इस बात का बड़ा असर होता है कि वह अपने वित्त को कैसे संभालता है। भारत फिलहाल विकास के जिस दौर में है। वहां सामाजिक और भौतिक बुनियादी ढांचे समेत विभिन्न पक्षों में सरकारी सहायता आवश्यक है। किंतु बजट की किल्लत है। और सरकार को दूसरी जरूरतें भी पूरी करनी हैं। इनमें उसके अपने कामकाज का खर्च भी शामिल है और संतुलन बनाए रखना बहुत जरूरी है। यह भी जरूरी है कि बजट संतुलित हो और अपनी जिम्मेदारी पूरी करने के लिए सरकार उधारी पर बहुत अधिक निर्भर नहीं हो। इस बारे में भारतीय रिजर्व बैंक के हालिया मासिक बुलेटिन में उसके अर्थशास्त्रियों का नया शोध आलेख उल्लेखनीय है। इस आलेख में 1991 से अब तक केंद्र तथा राज्य स्तर पर सरकारी व्यय की गुणवत्ता मापी गई है। और बताया गया है कि इसमें कितना अधिक सुधार हुआ है।
सार्वजनिक व्यय की गुणवत्ता को देखने के कई तरीके हैं, लेकिन दो प्रमुख तरीके हैं- सरकार द्वारा खर्च की गई पूंजी की मात्रा और राजस्व व्यय तथा पूंजीगत व्यय का अनुपात, जिसे ‘रेको’ अनुपात भी कहा जाता है। पूंजीगत व्यय में इजाफे से समूचा निवेश बढ़ता है। इससे समय के साथ बेहतर वृद्धि परिणाम दिखते हैं। पूंजीगत व्यय का कई स्थानों पर कई गुना प्रभाव होता है, जिसे मल्टीप्लायर इफेक्ट कहते हैं। यह प्रभाव राजस्व व्यय से अधिक होता है और लंबे समय तक बना रहता है। पूंजीगत व्यय को बढ़ावा देने से वृद्धि टिकाऊ बनी रहती है। यह बात सभी जानते हैं मगर सरकार के लिए हमेशा पूंजीगत व्यय बढ़ाना आसान नहीं होता क्योंकि उसकी भी सीमाएं होती हैं। आर्थिक सुधार के आरंभिक वर्षों की बात करें तो में केंद्र सरकार का पूंजीगत व्यय 1991-92 में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 1.7 फीसदी था मगर 1995-96 में घटकर 1.2 फीसदी रह गया । व्यय को काबू करने के तमाम सरकारी प्रयासों के बाद भी अच्छी-खासी रकम ब्याज चुकाने में ही जाती रही। जब तक राजकोषीय उत्तरदायित्व एवं बजट प्रबंधन के नियम लागू नहीं हुए पूंजीगत व्यय कम ही रहा ।
राजकोषीय सुधार से हालात बदले और केंद्र का जो पूंजीगत व्यय 2003-04 में जीडीपी का 1.2 फीसदी था वह 2007-08 तक बढ़कर 2.2 फीसदी हो गया। रेको अनुपात भी तेजी से घटा । राज्यों का पूंजीगत व्यय भी इस दौरान बढ़ गया। इसके बाद पूरा ध्यान 2008 के वित्तीय संकट से मिले झटके से निपटने में लग गया। 2013-14 से 2019-20 के बीच केंद्र का पूंजीगत व्यय 1.3 फीसदी से 1.6 फीसदी के बीच रहा। कोविड- 19 महामारी के बाद पूरा ध्यान पूंजीगत व्यय पर आ गया। पूंजीगत व्यय बढ़ने से देश की अर्थव्यवस्था को महामारी के बाद मची उथलपुथल से निपटने में मदद मिली। 2024- 25 के बजट अनुमान देखें तो पूंजीगत संपत्तियां तैयार करने के लिए अनुदान सहायता समेत केंद्र का प्रभावी पूंजीगत व्यय 4.6 प्रतिशत रहा। अध्ययन में यह भी पता चला कि राज्य स्तर पर व्यय की गुणवत्ता से स्वास्थ्य एवं शिक्षा में सकारात्मक परिणाम मिलते हैं।
हाल के वर्षों में व्यय की गुणवत्ता तो सुधरी है मगर राजकोषीय प्रबंधन पर चिंता होने लगी है, जिसे दूर करना जरूरी है। मसलन सरकार पर ऋण अधिक है। ऐसे में पूंजीगत व्यय की रफ्तार बनाए रखने के लिए सरकार को राजस्व संग्रह बढ़ाना होगा । वस्तु एवं सेवा कर की दरों को वाजिब बनाना एक तरीका हो सकता है। कई वर्षों तक उच्च पूंजीगत व्यय के बावजूद निजी निवेश सुस्त बना हुआ है। सरकार इन चिंताओं को दूर करे तो कारोबारी भरोसा बढ़ाने के लिहाज से अच्छा होगा। निजी निवेश में बढ़ावे से भी सरकारी वित्त पर दबाव कम होगा। अंत में राजनीतिक कारणों से विशेष तौर पर लोकलुभावन योजनाओं का चलन चिंताजनक है और इससे राजकोषीय बढ़त गंवाने का खतरा है। भारत को यह समस्या दूर करने के लिए व्यापक राजनीतिक सहमति बनाने की जरूरत है।
Date: 27-02-25
नाहक विरोध
संपादकीय
तमिलनाडु में हिंदी के विरोध का इतिहास वर्षों पुराना है। देश को आजादी मिलने से पहले ही हिंदी विरोधी आंदोलनों को हवा मिलती रही है। ये आंदोलन कभी उग्र, तो कभी हिंसक भी हुए। वर्ष 1937 में जब तत्कालीन मुख्यमंत्री चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ने हिंदी को अनिवार्य किया, तो इसका कड़ा विरोध हुआ। उस समय हुए आंदोलन से ही द्रविड़ राजनीति की बुनियाद पड़ी। इसके बाद तो हिंदी विरोध के नाम पर लगातार आंदोलन और अभियान चलाए गए। इसमें साठ के दशक में हुए आंदोलन को याद किया जाता है। यह विरोध तब शांत हुआ, जब राजभाषा अधिनियम में संशोधन हुआ। मगर यह दुखद ही है कि हिंदी विरोध का सिलसिला आज भी जारी है। जब भी हिंदी को लेकर कोई चर्चा शुरू होती है, उसका तत्काल विरोध शुरू हो जाता है। तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन के बयान को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए, जिसमें उन्होंने केंद्र पर राज्य में हिंदी थोप कर ‘भाषा युद्ध के बीज बोने का आरोप लगाया है। किसी भी अन्य भाषा के हावी नहीं होने देने का अपना रुख जता कर उन्होंने स्पष्ट कर दिया है कि वे द्विभाषी नीति से आगे बढ़ने को तैयार नहीं।
सभी भाषाओं को बराबरी का दर्जा देकर ही हम देश की सांस्कृतिक एकता मजबूत कर सकते हैं। हिंदी बोलने वाले लोग देश के हर कोने में मिल जाते हैं। कोई राज्य अगर अपनी मातृभाषा को महत्त्व देता है, तो उसकी भावना का सम्मान किया जाना चाहिए। मगर किसी राज्य विशेष का नागरिक दूसरे राज्यों में जाता है, तो हिंदी के बिना उसका काम नहीं चलता। भाषाएं तो एक दूसरे जुड़ कर ही आगे बढ़ती हैं। राष्ट्रीय शिक्षा नीति में त्रिभाषा फार्मूले को लेकर चल रही सियासी बयानबाजी के बीच स्टालिन का विरोध नाहक ही है कि हिंदी से उनकी मातृभाषा नष्ट हो सकती है। दरअसल, उन्होंने अपने स्वर तीखे करते हुए साफ कर दिया है कि वे उन्हीं पुराने आंदोलनों के वशंज है, जिसमें हिंदी को लेकर उपेक्षा का गहरा भाव है। स्टालिन यह भूल गए हैं कि हिंदी दिलों को जोड़ने की भाषा है। यह आज भारत ही नहीं, दुनिया के कई देशों में समझी और बोली जाती है।
Date: 27-02-25
स्वास्थ्य क्रांति का आधार
ललित गर्ग
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने शासन में भारतीय लोगों के स्वास्थ्य को लेकर निरंतर कदम उठाते हुए स्वस्थ भारत निर्मित करने के उपक्रम किए हैं। मोदी युग में स्वास्थ्य के प्रति भारत के दृष्टिकोण में महत्त्वपूर्ण मोड़ को चिह्नित करते हुए मोटापे से जुड़ी स्वास्थ्य चुनौतियों को संबोधित करने पर अधिक ध्यान दिया गया। मोदी ने मोटापे के खिलाफ राष्ट्रव्यापी अभियान शुरू किया है, जिसमें भारतीयों से खाना पकाने के तेल की अपनी खपत कम करने का आग्रह किया है। प्रधानमंत्री मोदी ने 23 फरवरी को ‘मन की बात’ के 119वें एपिसोड में हेल्थ का जिक्र करते हुए कहा था, ‘एक फिट और स्वस्थ भारत बनने के लिए हमें ओबेसिटी (मोटापा) की समस्या से निपटना ही होगा। एक स्टडी के मुताबिक, आज हर आठ में से एक व्यक्ति मोटापे की समस्या से परेशान है। बीते सालों में मोटापे के मामले दोगुने हो गए हैं, लेकिन इससे भी ज्यादा चिंता की बात है कि बच्चों में भी मोटापे की समस्या चार गुना बढ़ गई है।’
प्रधानमंत्री ने सेहत के प्रति जागरूकता लाने और इस क्रम में मोटापे से लड़ने के लिए अपने-अपने क्षेत्र के दस जाने-माने लोगों को नामांकित कर यही रेखांकित किया कि इस समस्या की गंभीरता को समझने एवं समय रहते इसको नियंत्रित करने की अपेक्षा है। उन्होंने आनंद महिंद्रा, दिनेश लाल यादव निरहुआ, मनु भाकर, मीराबाई चानू, मोहन लाल, नंदन नीलेकणि उमर अब्दुल्ला, आर. माधवन, श्रेया घोषाल, सुधा मूर्ति को नामांकित करते हुए अपेक्षा जताई कि ये सभी मोटापे के खिलाफ क्रांति की अलख जगाने के साथ खाद्य तेल की खपत कम करने के लिए लोगों में जागरूकता पैदा करेंगे। प्रधानमंत्री ने इन लब्ध प्रतिष्ठित हस्तियों से दस-दस और लोग अभियान को आगे बढ़ाने के उद्देश्य से नामांकित करने का आग्रह किया है।
प्रधानमंत्री की यह पहल कुछ वैसी ही है, जैसी उन्होंने स्वच्छ भारत अभियान को प्रारंभ करते समय की थी। इस जनोपयोगी पहल से देश में मोटापे के प्रति चेतना जाग्रत होगी और लोग मोटापे को नियंत्रित करने में सफल होंगे। लोगों में मोटापा बढ़ने के कई कारण हैं, जिनमें अति, अहितकर और प्रतिकूल भोजन के अलावा व्यायाम की कमी और तनाव शामिल हैं। पोषण में सुधार, गतिविधि बढ़ाने और जीवन शैली में अन्य बदलाव करने से लोगों को मोटापे को कम करने में मदद मिल सकती है। मोदी की पहल से मोटापा नियंत्रित करने के अनुकूल परिणाम तभी सामने आ सकते हैं, वांछित सफलता तभी संभव है, जब लोग समझेंगे कि स्वस्थ जीवन शैली उन्नत राष्ट्र ही नहीं, उन्नत स्वास्थ्य का भी आधार है। आज की सुविधा एवं भौतिकतापूर्ण जीवन शैली मोटापा बढ़ाने का काम कर रही है। अब लोग उतना शारीरिक श्रम नहीं करते, जितना पहले अपनी सामान्य दिनचर्या के तहत किया करते थे। मोटापे को नियंत्रित करने में योग, ध्यान, प्रातः भ्रमण एवं व्यायाम की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका है। किसी विचारक ने लिखा भी है, ‘मनुष्य के सबसे बड़े चिकित्सक हैं-शांति, प्रसन्नता और खुराक ।’ यह हकीकत है कि लोग खानपान में संयम एवं सतर्कता बरतें, शारीरिक सक्रियता बढ़ाएं और योग- व्यायाम को जीवन का हिस्सा बना लें तो मोटापे को भगा सकते हैं।
मोटापा अनेक बीमारियों का घर है, जो केवल कार्यक्षमता को कम करने का ही काम नहीं करता, बल्कि स्वास्थ्य पर खर्च भी बढ़ाता है। जीवन को जटिल एवं अस्त-व्यस्त बना देता है। शरीर स्वस्थ रहता है, तो लोग मानसिक एवं भावनात्मक रूप से भी स्वस्थ रहते हैं, और अपना काम कहीं अधिक तत्परता एवं निपुणता से करते हैं। इसका लाभ केवल उन्हें ही नहीं, बल्कि परिवार, समाज और देश को भी मिलता है। यही सशक्त एवं विकसित भारत का आधार भी है। अच्छी बात है कि प्रधानमंत्री मोदी ने स्वस्थ जीवन शैली की जरूरत को समझा, लेकिन इसके लिए जागरूकता अभियान छेड़ने के साथ ही मिलावटी और दोयम दर्जे की खाद्य सामग्री की बिक्री रोकने के लिए भी कुछ करना होगा। मोदी की पहल जहां स्वास्थ्य क्रांति का माध्यम बनेगी, वहीं मिलावट नियंत्रण के प्रति भी जागरूक करेगी। किसी से छिपा नहीं है कि देश में मिलावटी और दोयम दर्जे की खाद्य सामग्री बनती एवं बिकती है। खाद्य पदार्थों की गुणवत्ता के मानकों की अनदेखी के चलते दोयम दर्जे की खाद्य सामग्री घरों में भी इस्तेमाल होती है। इनमें खाद्य तेल एवं घी प्रमुख हैं। आज जब बाजार का खाना खाने का चलन बढ़ रहा है, तब सरकार को सुनिश्चित करना चाहिए कि उसकी शुद्धता एवं गुणवत्ता से कोई समझौता न होने पाए। इसी अभिक्रम से भारत का जन-जन स्वस्थ शरीर, स्वस्थ मन और स्वस्थ भावनाओं का अखूट वैभव लिए शक्ति, स्फूर्ति, शांति, आनन्द एवं शारीरिक संतुलन से भरपूर दिव्य जीवन की यात्रा के लिए प्रस्थित हो सकता है। इससे हम मोटापा – मुक्त भारत के संकल्प को हकीकत बना सकते हैं। स्वस्थ भारत का संकल्प ही कालांतर विकसित भारत का लक्ष्य हासिल करने में मददगार हो सकता है।
Date: 27-02-25
नागरिकता की बिक्री
संपादकीय
अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने ‘गोल्ड कार्ड’ निवास परमिट बेचने की अपनी योजना की घोषणा करते हुए एक नई बहस की शुरुआत कर दी है। यह अमेरिकी नागरिकता की बिक्री का प्रस्ताव है, तो जाहिर है, इसकी कीमत भी ट्रंप ने खूब बढ़ाकर रखी है। अब दुनिया का कोई भी अमीर व्यक्ति किसी अमेरिकी कंपनी में निवेश करते हुए 50 लाख डॉलर या भारतीय मुद्रा में करीब 45 करोड़ रुपये खर्च करके अमेरिकी नागरिकता खरीद सकता है। दुनिया के अनेक देशों में ऐसी योजना है और जहां अक्सर दागी या जरूरतमंद अमीर नागरिकता खरीदते हैं। फिलहाल अमेरिका में निवेश करने वालों को ईबी-5 अप्रवासी वीजा के जरिये नागरिकता मिलती है। अब गोल्ड कार्ड योजना बी-5 की जगह ले लेगी । अमेरिका अपना आर्थिक फायदा देख रहा है। गोल्ड कार्ड के जरिये अमेरिका में निवेश बढ़ेगा और साथ ही सरकार के खजाने में भी नकदी आएगी। वास्तव में, नागरिकता की यह बिक्री रिश्वत की पेशकश है। अपने देश के प्रति कमजोर निष्ठा रखने वाले अमीरों को इसके जरिये अमेरिकी कहलाने का मौका मिलेगा। आर्थिक रूप से यह योजना भले अमेरिका के हित में हो, पर नैतिकता के पैमाने पर इसकी सराहना नहीं की जा सकती।
जब अमेरिका लाखों लोगों को अपने यहां से लौटा रहा है, तब केवल अमीरों के स्वागत की योजना अनुचित है। क्या ऐसा करते हुए अमेरिका अमीरी और गरीबी के बीच खाई को बढ़ा रहा है? क्या उसके लिए सिर्फ अमीर मायने रखते हैं? पिछले दिनों ट्रंप सरकार ने अमेरिकी जमीन पर जन्म के साथ मिलने वाली नागरिकता की सुविधा को समाप्त कर दिया है और इसकी खुद अमेरिका में बहुत आलोचना हो रही है। कोई शक नहीं कि गोल्ड कार्ड योजना की भी वहां आलोचना होगी। पूंजीवादी अमेरिका अपने महत्व की कीमत वसूलना चाहता है, तो यह व्यावहारिक रूप से गलत नहीं है, पर बाकी देशों के लिए यह कोई अच्छी खबर नहीं है। विकासशील देशों में बहुत संघर्ष से कोई बड़ा उद्यमी खड़ा होता है, अगर उसे कोई विकसित देश खरीद ले, तो यह उस विकासशील देश के लिए आर्थिक, सामाजिक और मानसिक रूप से भी बहुत बड़ा नुकसान है। अमेरिका ने उन सभी देशों के लिए चुनौती बढ़ा दी है, जहां आर्थिक प्रगति की बढ़ती रफ्तार अमीर पैदा कर रही है। यह इस नजरिये से त्रासद है कि अमेरिका को दुनिया भर के सर्वश्रेष्ठ प्रतिभावान युवा चाहिए और जो प्रतिभावान युवा दूसरे देशों में रहकर और उद्यम करते अमीर हुए हैं, उन्हें भी अमेरिका अपनी ओर खींच लेना चाहता है।
सवाल यह है कि भारत पर इसका कितना असर होगा ? हो सकता है, बहुत असर न पड़े, क्योंकि यह योजना बहुत महंगी है। फिर भी भारत को अपना आकर्षण बढ़ाने की दिशा में काम करने पड़ेंगे। पिछले 14 वर्ष में करीब 20 लाख भारतीयों ने यहां की नागरिकता छोड़ी है।
अवैध रूप से यहां से गए लोगों की संख्या इससे अलग है। रोजगार की तलाश में भी लोग जा रहे हैं और अच्छे अवसर एवं सुखद जीवन की खोज भी लोगों को विदेश ले जा रही है। हमें भी इस दिशा में कुछ ऐसी योजनाओं पर काम करना चाहिए, जिससे भारत भी प्रतिभाओं और अमीरों का खुशनुमा मुकाम बने। भारत में माहौल को और सुधारने व सुखद बनाने में आम लोगों का योगदान भी होना चाहिए। अच्छे लोग ही मिलकर अच्छा देश बनाते हैं, अतः संभावनाओं से भरपूर इस देश में सबकी सकारात्मक भूमिका जरूरी है।