26-06-2024 (Important News Clippings)

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26 Jun 2024
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Date: 26-06-24

Exempt Selectively Sovereign Funds, RBI

GoI needs to direct venture capital into select areas.

ET Editorials

The Centre is seeking carve-outs on merits from provisioning rules for banks and NBFCs to curb evergreening of loans through alternative investment funds (AIF). Last year, RBI closed a loophole in the discovery of dodgy loans by pulling bank lending out of investment pools that also feed the same borrowers. This was a genuine regulatory concern, voiced by Sebi, given the ballooning flow of capital through AIFs. RBI’s directive to banks and NBFCs to liquidate their investments in AIFs that invest in their debtor companies is informed by previous instances of evergreening bad loans through shadow lending. The central bank moved with alacrity on Sebi’s findings that AIFs were being structured for such purposes.

But some solution has to be arrived at for funds GoI uses to direct venture capital into select areas, such as startups, small enterprises and stressed housing projects. This exemption is justified. But a blanket waiver would open up the field to foreign sovereign funds as well. The accommodation is warranted by the fact that the sovereign funds the Centre wants exempted provide a structure to ring-fence investment against political spending of the kind we see plenty of. The lack of transparency in operations of foreign sovereign funds doesn’t allow this accommodation to be extended for all. Since a category-specific carve-out is against the regulatory intent of the tighter rules, exemptions will have to be made by RBI in specific cases.

RBI has also eased some of the new provisioning rules for bank and NBFC investments in AIFs. Lenders are now required to provide only for the amount the AIF has invested in a debtor company. Equity shares of the debtor company have been excluded from the provisioning requirements. The central bank also exempted lenders investing in AIFs through intermediaries such as fund of funds and mutual funds. The additional relaxation on merits for funds operated by the Centre addresses similar concerns over the new rules choking capital flow.


Date: 26-06-24

जाति से ज्यादा जरूरी है कौशल – जनगणना

संपादकीय

एक आधुनिक समाज बनाने के लिए नई सोच जरूरी है। अगर दशकों से जारी आरक्षण के बाद भी पिछड़ी जातियां आर्थिक-सामाजिक- शैक्षि क मुख्यधारा में नहीं हैं तो नया हल तलाशना होगा। आंध्र प्रदेश के नए सीएम ने अपने राज्य में पहला और सबसे अहम फैसला स्किल-सेंसस (कौशल – जनगणना) कराने का लिया ना कि जाति आधारित जनगणना। इस गैर-राजनीतिक लेकिन शुद्ध विकास – परक फैसले के पीछे कारण है पीएलएफएस की ताजा रिपोर्ट, जिसके तहत बेहतर साक्षरता दर के बावजूद राज्य में बीमारू राज्यों से ज्यादा बेरोजगारी पाई गई। सरकार और देश के नीति-निर्माताओं को भी आंध्र मॉडल लागू करना चाहिए ना कि यह कहकर खुश होना चाहिए कि देश में दुनिया के सबसे ज्यादा (56 लाख ) प्रशिक्षित युवा हैं। नीति आयोग और शिक्षा मंत्रालय यह मूल समस्या नहीं समझ पा रहे हैं कि उसके अपने सर्वे के अनुसार भी आखिर क्यों किसी हाई-स्कूल या इंटर तक पढ़ाई किए युवक के मुकाबले स्नातक के बेरोजगार होने के चांसेस ज्यादा हैं। पीएलएफएस की रिपोर्ट में पाया गया कि राष्ट्रीय स्तर पर 15-29 वर्ष के युवाओं में बेरोजगारी 10% (सभी आयु वर्ग के औसत से तीन गुने से भी ज्यादा ) क्यों है और क्यों यह प्रतिशत बिहार में (13.9), यूपी में (7), एमपी में (4.4) और राजस्थान में ( 12.5 ) है। ग्रेजुएट्स में यह बेरोजगारी इन राज्यों में क्रमशः 16.6, 11, 9.3 और 23.1 प्रतिशत है, जबकि अपेक्षाकृत शिक्षित आंध्र में 24 प्रतिशत। दरअसल न तो युवा रोजगारपरक शिक्षा की ओर उन्मुख हैं ना ही तकनीकी शिक्षा जरूरत के मुताबिक है। सन् 2015 के नीति- पत्र में ये दोनों कमियां मानी गईं। एक साल पहले स्वयं नीति आयोग ने बताया कि आईटीआई ट्रेंड हर एक हजार युवाओं में एक नौकरी पा सका है क्योंकि प्रशिक्षण उद्योगों की जरूरत से 20 साल पुराना है। नई एआई क्रांति के मद्देनजर तकनीकी शिक्षा आईटीआई से आईआईटी तक बदलनीहोगी।


Date: 26-06-24

श्रम कानून में सुधार

संपादकीय

देश में श्रम संबंधों का संचालन करने वाले 40 केंद्रीय और 100 राज्यस्तरीय कानून मौजूद हैं जो औद्योगिक विवादों के निस्तारण, कार्य परिस्थितियों, सामाजिक सुरक्षा और वेतन भत्तों जैसे विभिन्न मामलों से संबंधित हैं। बीते वर्षों के दौरान देश में श्रम कानूनों की बहुलता, पुरातन प्रावधानों, परिभाषाओं की अनिश्चितता और अस्पष्टता के कारण इनका अनुपालन कठिन हो गया। दरों की बहुलता के अलावा श्रम कानूनों की जटिलता भी देश की औद्योगिक वृद्धि को प्रभाावित कर रही थी। इस मसले को हल करने के लिए सरकार ने साहसी कदम उठाते हुए श्रम कानूनों को सरलीकृत करते हुए चार व्यापक श्रम संहिताओं में शामिल करने का प्रावधान किया। मौजूदा 44 केंद्रीय कानूनों और 29 केंद्रीय श्रम कानूनों को समेकित करके चार श्रम संहिताओं में शामिल किया गया- वेतन संहिता (2019), सामाजिक सुरक्षा संहिता (2020), औद्योगिक संबंध संहिता (2020) और व्यावसायिक, सुरक्षा, स्वास्थ्य एवं कार्य परिस्थिति संहिता (2020)।

इन श्रम संहिताओं को संसद के दोनों सदनों की मंजूरी मिली और राष्ट्रपति ने भी उन्हें स्वीकृति प्रदान की। चारों श्रम संहिताओं पर मसौदा केंद्रीय नियम केंद्र सरकार द्वारा पूर्व प्रकाशित किए गए। चार वर्ष बाद उनके अनुमानित लाभ अभी भी हासिल होने बाकी हैं क्योंकि इनका क्रियान्वयन नहीं हो पाया। इस संदर्भ में श्रम एवं रोजगार मंत्रालय ने राज्य सरकारों के अधिकारियों के लिए प्रशिक्षण कार्यशाला आयोजित करने की योजना की घोषणा की है ताकि उन्हें श्रम संहिताओं से परिचित कराया जा सके। इस पहल का स्वागत किया जाना चाहिए क्योंकि इन संहिताओं में कारोबारी सुगमता बढ़ाने और औपचारिक रोजगार निर्माण करने की पूरी संभावना है। ये संहिताएं कई अहम बदलाव लाएंगी जिसमें मौजूदा 100 के बजाय 300 कर्मचारियों वाले औद्योगिक प्रतिष्ठानों में कर्मचारियों की छंटनी की सीमा बढ़ाने जैसी बातें शामिल हैं। नियोक्ताओं के लिए इस प्रकार लचीलापन बढ़ाने से और अधिक निवेश आएगा क्योंकि तब कंपनियां अपनी श्रम शक्ति को कारोबार की जरूरत के हिसाब से घटा-बढ़ा सकेंगी और उन्हें किसी नियामकीय बाधा का सामना नहीं करना होगा। कामगारों के हड़ताल करने के अधिकार को लेकर भी बदलाव किए गए हैं। इसके अलावा सामाजिक सुरक्षा के लाभ को बढ़ाकर श्रमिकों के एक बड़े हिस्से तक कर दिया गया है। इसके कारण परिचालन लागत में इजाफा हो सकता है लेकिन इससे श्रम शक्ति अधिक सुरक्षित और प्रेरित महसूस करेगी। इससे उत्पादक में भी इजाफा देखने को मिलेगा।

श्रम समवर्ती सूची का विषय है जिस पर संसद और विधानसभाएं दोनों कानून बना सकती हैं। क्रियान्वयन में अवश्य देरी होती रही है क्योंकि कुछ राज्यों को अभी भी इन संहिताओं के अधीन नियम तय करने हैं। वीवी गिरि राष्ट्रीय श्रम संस्थान के मुताबिक 24 राज्यों/केंद्रशासित प्रदेशों ने इन चारों संहिताओं के अधीन नियम बना लिए हैं। पश्चिम बंगाल, मेघालय, नगालैंड, लक्षद्वीप और दादरा एवं नागर हवेली को अभी नियम बनाने हैं। स्पष्ट है कि केंद्र सरकार संहिताओं को तभी लागू करना चाहती है जब सभी राज्य एकमत हों। ऐसा इसलिए कि क्रियान्वयन के बाद कानूनी दिक्कतों से बचा जा सके। इसके अलावा कुछ राज्यों में जहां मसौदा नियम बन चुके हें वहां राज्यों की संहिताएं केंद्र की संहिताओं से अलग हैं। इससे क्रियान्वयन में दिक्कत आएगी। केंद्र ने राज्य सरकारों के अधिकारियों को श्रम संहिताओं के बारे में संवेदी बनाने काम शुरू करके अच्छा किया है। उसे मतभेदों को दूर करने पर काम करना चाहिए। भारत को कारोबारी सुगमता सुधारने, विनिर्माण आधार बढ़ाने और बाहरी प्रतिस्पर्धा में बेहतरी के लिए आधुनिक श्रम कानूनों की आवश्यकता है। इससे बहुप्रतीक्षित रोजगार तैयार होंगे और अर्थव्यवस्था की दीर्घकालिक वृद्धि संभावनाओं में सुधार होगा।


Date: 26-06-24

भारत में नियामकीय सुधार का एजेंडा

के पी कृष्णन, ( लेखक आईसीपीपी में मानद सीनियर फेलो और पूर्व अफसरशाह हैं )

नियमन हमारे जीवन को हमारे सोच से अधिक प्रभावित करते हैं। हम नाश्ते पर जो कॉफी पीते हैं, बाहर जाने के लिए ई-प्लेटफॉर्म से टैक्सी मंगाते हैं, उस सफर के लिए ई-भुगतान करते हैं, दवाइयां तथा पोषक उत्पाद मंगाते हैं तो ये सभी गतिविधियां विनियमित बाजार में घटित होती हैं। इनमें से हर क्षेत्र का प्रदर्शन और मजबूती एक या अधिक नियामकों की क्षमता पर निर्भर करती है।

आज केंद्र स्तर पर 20 से अधिक सांविधिक नियामकीय प्राधिकरण (एसआरए) हैं जो वित्त, दूरसंचार, बिजली, पानी, खाद्य सुरक्षा, प्रतिस्पर्धा, वेयरहाउसिंग, हवाई अड्‌डे, बड़े बंदरगाह, ऋणशोधन, चिकित्सा पेशेवर, दंत चिकित्सक, नर्स, अंकेक्षक और मूल्यांकन क्षेत्रों से संबद्ध हैं। कई एसआरए राज्य स्तर पर काम करते हैं। समग्र रूप से देखें तो ये सीधे तौर पर देश के सकल घरेलू उत्पाद के 75 फीसदी का नियमन करते हैं। इनका प्रदर्शन या प्रदर्शन की कमी अब भारत की विकास परियोजना के लिए रणनीतिक महत्त्व रखती है।

कई मायनों में नियमन ने उपभोक्ताओं और समाज के लिए अच्छे नतीजे दिए हैं। अधिकांश नियामक विनियमित संस्थाओं द्वारा प्रदान की जा रही वस्तुओं और सेवाओं में एक खास स्तर की सुरक्षा और गुणवत्ता बरकरार रखने में सफल रहे हैं। बहरहाल इन सफलताओं के साथ कई दिक्कतें भी सामने आईं। विशेष नियामकों की स्थापना के बाद के शुरुआती आशावाद की जगह उनके काम से जुड़ी चिंताओं ने ले ली। चिंताओं को विधि के शासन, प्रतिस्पर्धा, उपभोक्ता संरक्षण तथा आर्थिक गतिशीलता में बांटा जा सकता है। कई लोग किसी जटिल संस्थान के काम को वहां शीर्ष पर मौजूद व्यक्ति के साथ जोड़कर देखते हैं। वे इस बात पर जोर देते हैं कि बेहतर प्रदर्शन के लिए सर्वश्रेष्ठ लोगों का चयन किया जाए। नियुक्ति के निर्णय भी मायने रखते हैं। शीर्ष पर मौजूद व्यक्ति का चरित्र टीम के कौशल, रणनीति, नैतिक बल आदि पर भी गहरा असर डालता है। परंतु संगठनों के बेहतर प्रदर्शन को केवल बेहतरीन लोगों की बदौलत नहीं हासिल किया जा सकता है। संगठनात्मक प्रदर्शन को संगठन का डिजाइन आकार देता है जो संतुलन कायम करने का काम करता है। नियामक एक असामान्य सार्वजनिक संगठन होता है क्योंकि वह विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के कामों का मिश्रण होता है। इससे उन्हें एक खास समय पर किसी एक क्षेत्र में असीमित अधिकार मिल जाते हैं। इससे पहले देश में ऐसा नहीं देखा गया था।

भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (SEBI) अथवा भारतीय रिजर्व बैंक जैसे नियामकों का अपने नियंत्रण वाली संस्थाओं पर विस्तृत और गहरा नियंत्रण है। यह ऐसा नियंत्रण है जो सन 1991 के पहले के भारत में नहीं देखा गया था। किसी अन्य उन्नत अर्थव्यवस्था वाले देश में यह नहीं मौजूद है। ऐसी संस्थाओं के नियमन ने जहां बाजार विकास में मदद की वहीं इस स्तर की ताकत ने निजी क्षेत्र के आत्मविश्वास को प्रभावित करना शुरू कर दिया है। इससे नवाचार प्रभावित हो रहा है और भारत की सफल अर्थव्यवस्था के रूप में उभरने की संभावनाओं को भी नुकसान हो रहा है। ऐसी ताकत के साथ बहुत अधिक सावधानी की आवश्यकता होती है ताकि औपचारिक प्रक्रियाओं के दौरान नियामक सही प्रक्रियाओं का पालन कर सकें। यह बात हमें स्वायत्तता, प्रक्रिया, जवाबदेही और लोगों से जुड़े संगठित सिद्धांतों की ओर ले जाती है। ऐसा सुधारवादी एजेंडा इस तरह के हालात निर्मित करेगा जो लोगों के आर्थिक विकास और बेहतरी के लिए अच्छे होंगे।

लोग: किसी विनियमित क्षेत्र में तकनीकी विशेषज्ञता और विषय की जानकारी को वह वजह माना जाता है जिनके चलते नियामक बनाए जाते हैं। फिलहाल तो लगभग सभी एसआरए में वरिष्ठ स्तर पर सभी लोग पूर्व या सेवारत सरकारी अधिकारी हैं। आंशिक तौर पर ऐसा इसलिए है क्योंकि नियुक्ति प्रक्रिया में सरकार का दबदबा है और बाहरी विशेषज्ञों की भागीदारी नाम मात्र की होती है। इन नियुक्तियों का कार्यकाल भी अलग-अलग होता है। विषय विशेषज्ञों के एक विविध समूह का विचार जिसका कार्यकाल की कार्यावधि भी अलग-अलग होती है। विषय विशेषज्ञों के विविध समूह का विचार जिसका कार्यकाल पूर्व अनुमानित और निश्चित हो, तथा जो अनिवार्य तौर पर तकनीकी ढंग से नियमन को लेकर काम करे, जिसमें राजनीतिक विचार विमर्श न के बराबर हो, ऐसा विचार अभी दूर है।

स्वायत्तता: परिचालन की स्वायत्तता यानी सरकारी विभागों से दूरी एसआरए का एक बुनियादी तर्क है। हमें विभिन्न विधायी प्रावधानों को सुसंगत बनाने की आवश्यकता है ताकि सभी एसआरए बिना सरकारी मंजूरी के नियमन कर सकें। इसके लिए स्वायत्तता की जरूरत है। बदले में इसके लिए मानव संसाधन और वित्तीय स्वायत्तता की जरूरत होती है। इन विधायी प्रावधानों के साथ संसाधनों की स्वायत्तता को संतुलन के साथ मिश्रित करने की आवश्यकता होती है ताकि आत्मप्रशंसा तथा अन्य दुरुपयोगों से बचा जा सके।

प्रक्रिया: नियामकों द्वारा तैयार नियम कानून की तरह होते हैं। लोकतांत्रिक समाजों में कानून बनाने की शक्ति निर्वाचित संस्थाओं को होती है जो जनता के प्रति औपचारिक तौर पर जवाबदेह होती हैं। ऐसे में उम्मीद की जाती है कि इस शक्ति को गैर निर्वाचित व्यक्तियों को सौंपते समय इनके उपयोग में सावधानी बरती जाएगी। नियमन निर्माण में एक किस्म से लोकतांत्रिकता और वैधानिकता का अभाव है। यहां कानून लिखने का काम निर्वाचित प्रतिनिधियों से अधिकारियों के हाथ दे दी गई है। इसी तरह लिखित प्रक्रियाओं की आवश्यकता है ताकि यह निर्धारित हो सके कि नियामक के कार्यपालिका संबंधी और न्यायिक कार्यों को किस प्रकार अंजाम दिया जाए।

जवाबदेही: सभी सरकारी एजेंसियां अपने काम और उसके परिणामों के लिए संसद के जरिये जनता के प्रति जवाबदेह होती हैं। यह संवैधानिक लोकतंत्र वाले देशों में एक मानक प्रक्रिया है। अधिकांश भारतीय एसआरए कानूनों में प्राथमिक जवाबदेही संसदीय निगरानी की है जो इन एसआरए के सालाना प्रदर्शन और वित्तीय रिपोर्ट पर खुली चर्चा के माध्यम से तय की जाती है। हमारी संसद में किसी एसआरए को लेकर ऐसी चर्चा कभी नहीं हुई। जवाबदेही के लिए तीन सुधारों की आवश्यकता है: एक सही ढांचे वाला बोर्ड जिसके कामकाज और भूमिका को लेकर स्पष्टता हो, पंचाट में अपील की सुविधा तथा भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक द्वारा अंकेक्षण की व्यवस्था।

एक दशक पहले एसआरए में सुधार को लेकर वित्तीय क्षेत्र विधायी सुधार आयोग ने एक व्यापक रिपोर्ट प्रस्तुत की थी। इसकी अध्यक्षता सर्वोच्च न्यायालय के एक पूर्व न्यायाधीश ने की थी। इसमें विभिन्न क्षेत्रों के विषय विशेषज्ञ शामिल थे। आयोग ने देश के सभी एसआरए में सुधार के लिए एक विस्तृत रिपोर्ट पेश की थी। अब वक्त आ गया है कि इस रिपोर्ट को बाहर निकाला जाए, इसमें जरूरी सुधार किए जाएं और इसे वर्तमान की आवश्यकताओं के अनुरूप बनाया जाए। इसके पश्चात इसकी अनुशंसाओं पर काम किया जाना चाहिए।


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