31-12-2016 (Important News Clippings)

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31 Dec 2016
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Date: 31-12-16

सपनों की पूर्ति हेतु बनाना होगा संतुलन का सेतु

योजनाओं का कार्यान्वयन हमेशा भारत के लिए बड़ी चुनौती रही है। ऐसे में महत्त्वाकांक्षी लक्ष्यों को पूरा करने के लिए विभिन्न मंत्रालयों, विभागों और अफसरशाही में उचित समन्वय की जरूरत बता रहे हैं एम मुनीर 

कार्ययोजना के अभाव में रणनीति जीत की ओर कदम सुस्त कर देती है। रणनीति के अभाव में कार्ययोजना हार से पहले का इशारा करती है।’ मौजूदा नोटबंदी को लेकर मची हाराकिरी में हमें ‘द आर्ट ऑफ वार’ के इन शब्दों का भान होता है। हालांकि विश्लेषक अभी भी नमो के डीमो दांव के फायदों और नुकसान पर चर्चा कर रहे हैं लेकिन इस बात पर सर्वानुमति है कि इसका कार्यान्वयन बहुत बड़ी नाकामी साबित हो रहा है। कार्यान्वयन हमेशा से भारत की सबसे बड़ी कमजोरी रही है और नीति निर्माता काफी अरसे से हमारी जटिलता और विविधता से खुद को दिलासा देते आए हैं।
कार्यान्वयन की पहेली केवल यहीं नहीं बल्कि सभी जगह पर है। जहां 10 में से 9 कंपनियां अपनी रणनीति सिरे चढ़ाने में नाकाम रहती हैं, वहीं भारत में हमारा शोध यही दर्शाता है कि भारत में अभी तक कोई भी सरकार अपने ‘बेहतरीन तरीके से गढ़े’ चुनावी घोषणापत्र को पूरी तरह लागू नहीं कर पाई। यह देखते हुए कि हमारे प्रधानमंत्री के पास भारत को दुनिया की महाशक्ति बनाने का सपना और दृष्टिïकोण है लेकिन यहां केवल उस दृष्टिकोण को अमल में लाने का सवाल ही आड़े आ जाता है। असल में हमें काम को कुछ अलग ढंग से अंजाम देने की दरकार है, जिसमें विभिन्न मंत्रालय, विभाग और अफसरशाह सुसंगत तरीके से सामंजस्य बिठाकर काम कर सकें।
मिसाल के तौर पर ‘मेक इन इंडिया’, ‘कौशल भारत’ और ‘स्टार्टअप इंडिया’ सभी सरकार के लिए खास योजनाएं हैं लेकिन कितने लोग उन्हें वास्तविक वृद्घि का सशक्त संवाहक मानते हैं? इनमें से प्रत्येक का जिम्मा अलग-अलग मंत्रालय के मातहत आता है। क्या उनके बीच कोई कड़ी है और कौन इसका जिम्मेदार है? प्रबंधन परिप्रेक्ष्य की दृष्टि से यह मूल्य वर्धन शृंखला का भाग है, जो देश के लिए ऊंची वृद्घि का सबब बन सकता है। रणनीतिक एजेंडा, मापकों, लक्ष्यों, संबद्घ कवायदों और उचित नजरियों के संतुलन के अभाव में प्रधानमंत्री के शीर्ष 16 महत्त्वाकांक्षी लक्ष्य मंजिल से दूर ही रह जाएंगे। अगर प्रधानमंत्री को नोटबंदी जैसी महत्त्वपूर्ण पहल पर गुमराह किया गया, जिसके लिए भले ही समझ की कमी जिम्मेदार हो या फिर हमारा जुगाड़ वाला नजरिया लेकिन आखिर इस बात की क्या गारंटी है कि उनका परिवर्तित एजेंडा मूर्त रूप ले ही लेगा? मिसाल के तौर पर सरकार निजी क्षेत्र की साझेदारी के साथ कौशल भारत पर करोड़ों रुपये खर्च कर रही है लेकिन इसका कोई आकलन नहीं किया जा रहा है कि प्रत्येक मंत्रालय के तहत आने वाले सार्वजनिक उपक्रमों के तहत ही कितने रोजगार के अवसर सृजित किए जा सकते हैं और उनके लिए किस तरह के कौशल की दरकार होगी। जहां कौशल विकास से जुड़ी फर्म सरकारी कोष के 50 फीसदी मार्जिन पर काम कर रही हैं, ऐसे में यहां अगले बड़े घोटाले की सुगबुगाहट सुनाई पड़ रही है।
नीति आयोग के मुख्य कार्यकारी अधिकारी के समक्ष अभी हाल में एक प्रस्तुतिकरण दिया गया कि सरकार तंत्र में एकरूपता और शासन के स्तर को सुधारने के लिए कैसे कदम उठा सकती है। यह हमारी लक्ष्य-केंद्रित प्रशासन के गैर-लाभकारी मिशन का एक हिस्सा है। इस दौरान उन्होंने पूरी प्रस्तुति को बहुत ध्यान से सुना। कोई एनजीओ मैकिंजी के माफिक काम कर रहा है, ऐसा सुनना खुद अपने ‘कानों को सुकून’ देने वाला होना चाहिए। बहरहाल, हमने जो सुझाव दिए वे सरकारी, निजी और गैर-लाभकारी क्षेत्रों में कार्यान्वयन को बढ़ावा देने वाले सबसे प्रभावी होंगे। प्रधानमंत्री के दृष्टिïकोण को मूर्त रूप देने के लिए यह न केवल जरूरी बल्कि अपरिहार्य है। आखिरकार, कार्यान्वयन के मोर्चे पर विगत 20 वर्षों का हमारा अनुभव यही दर्शाता है कि मोदी जैसे मजबूत नेता जरूरी और सक्षम हैं। किसी भी सरकार की भूमिका सामाजिक और आर्थिक मूल्यों के सृजन की होती है। ये मूल्य नेतृत्व, लोगों एवं कौशल, नवाचारी प्रक्रिया, सूचना पूंजी एवं संस्कृति जैसी अचल परिसंपत्तियों से सृजित होते हैं। जिन देशों के पास तेल या अन्य खनिजों जैसे प्राकृतिक संसाधन प्रचुर मात्रा में हैं, उन देशों में प्राकृतिक संसाधनों के लिहाज से अपेक्षाकृत कम संपन्न देशों से प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) कम होने के साथ ही नागरिकों के लिए सामाजिक मूल्यों का भी कम ही विकास हुआ। सऊदी अरब, वेनेजुएला और नाइजीरिया लचर मूल्य सृजन की मिसाल हैं। इनकी तुलना में चल परिसंपत्तियों के मोर्चे पर अभावग्रस्त दक्षिण कोरिया, सिंगापुर, इजरायल और हॉन्ग कॉन्ग जैसे देशों ने प्रति व्यक्ति जीडीपी के साथ-साथ अपने नागरिकों लिए जबरदस्त मूल्यों का सृजन किया। कंपनियों के पैमाने पर भी यही प्रारूप नजर आता है, जहां 80 फीसदी बाजार पूंजीकरण जमीन और मशीनरी के बजाय ब्रांड, प्रक्रियाओं और लोगों के जरिये हासिल होता है!
हाल के दौर में दुनियाभर में सरकारों ने अनुकरणीय कार्यान्वयन की अद्भुत मिसालें पेश की हैं। इसमें अमेरिका शीर्ष पर नजर आता है, जहां व्हाइट हाउस और एफबीआई कार्यान्वयन के लिए संतुलित एजेंडे को अपनाते हैं, वहीं फिलीपींस और सिंगापुर जैसे देश भी इस पैमाने पर तेजी से आगे बढ़ रहे हैं। बार्सिलोना, अबु धाबी और ब्रिस्बेन जैसे तमाम शहर चमकने में सफल रहे हैं लेकिन भारत में अभी तक इसका इंतजार है, जिसके लिए सशक्त नेतृत्व की दरकार है।
कार्यान्वयन के लिए नीति निर्माताओं को कई स्तरों पर समझ की जरूरत होती है। अमूमन किसी भी नीतिगत संतुलन में विरोधाभासी ताकतें समाहित होती हैं। जैसे कौशल विकास में निवेश सब्सिडी जैसी कल्याणकारी योजनाओं के खर्च में कटौती की कीमत पर होता है। सरकार को दीर्घावधिक प्रतिबद्घता दर्शानी चाहिए लेकिन उसे तात्कालिक राजनीतिक जरूरतों के मुताबिक भी कदम उठाने होते हैं। संतुलित कार्यान्वयन के लिए लघु अवधि और दीर्घ अवधि, चल एवं अचल, वृद्घि एवं समावेशन के बीच संतुलन की आवश्यकता है।
दूसरी अहम बात कि मूल्य खास प्रक्रियाओं के जरिये ही सृजित होते हैं। अगर सरकार अपने वादे के मुताबिक नतीजे चाहती है तो उसे सही प्रक्रियाओं का चयन करना होगा। तीसरा पहलू यही कि रणनीतिक एजेंडे में साथ ही साथ परस्पर पूरक प्रसंग शामिल होते हैं। प्रक्रियाओं के प्रत्येक पहलू अलग-अलग समय और बिंदुओं पर लाभ प्रदान करता है, जैसे सब्सिडी खत्म करना तात्कालिक बचत का सबब बनता है लेकिन खाद्य सुरक्षा उपलब्ध कराना उस लाभ को बराबर कर सकता है। अपराधों में कमी और रोजगार सृजन के लिए प्रक्रियाओं की जरूरत होगी, जो मध्यम अवधि में नतीजे हासिल कर सकें। स्टार्टअप इंडिया जैसी पहल के नतीजे कुछ समय के बाद ही देखने को मिलेंगे। इन सभी को एक के बाद एक नहीं बल्कि एक साथ ही सिरे चढ़ाना होगा। इनमें से तमाम लक्ष्य एक दूसरे से जुड़े हुए हैं और अपेक्षित नतीजों के लिए उनकी निगरानी की जानी चाहिए।
चौथा पहलू यही है कि नीतिगत एकरूपता अचल परिसंपत्तियों की हैसियत को निर्धारित करती है। नेतृत्व के साथ मिलकर कर्मचारियों का कौशल, प्रतिभा, ज्ञान, तकनीक और नेटवर्क अवसंरचना वास्तविक मूल्य वर्धन को गति देती है। अगर उचित सूचना प्रौद्योगिकी के बीच सरकारी कर्मचारियों को कौशल सिखाने में निवेश किया जाए तो सक्षमता कुंद होगी। मिसाल के तौर पर डेटा विश्लेषण की उचित तकनीक के बिना उच्च प्रशिक्षित आयकर अधिकारी भी कुछ नहीं कर पाएगा।
संतुलित कार्यान्वयन एजेंडे को लागू करने में सरकार की राह में मुश्किलें आएंगी। जवाबदेही बढ़ाने और स्पष्ट दृष्टिकोण के लिए निजीकरण, रणनीतिक एजेंडे और कुछ प्रदर्शन पैमानों की बढ़ती जरूरत पर उसे अवश्य ही ध्यान देना चाहिए। सफलता तभी हासिल हो पाएगी, जब विभिन्न मंत्रालयों और क्षेत्राधिकारों के बीच एकीकरण होगा, विभिन्न क्षेत्रों में संतुलन स्थापित होगा, सभी अंशभागियों को साथ लेकर कर्मचारियों को बेहतर प्रदर्शन करने के लिए प्रेरित किया जाएगा।
(लेखक मेडिची इंस्टीट्यूट के सह-संस्थापक और मुख्य प्रचारक हैं।)

Date: 31-12-16

आत्मचिंतन का अवसर

राष्ट्र निर्माण दीर्घकालिक साधना है, लेकिन वर्तमान राजनीति में दीर्घकाल नहीं होता। संसद भारत भाग्य विधाता है, सवा अरब भारतीय जन-गण-मन की सर्वोच्च प्रतिनिधि पंचायत है, लेकिन अल्पकालिक लक्ष्यों वाली राजनीति ने संसद की गरिमा गिराई है। 2016 संसदीय निराशा के लिए जाना जाएगा। लोकसभा का बीता सत्र 16 नवंबर से 16 दिसंबर 2016 तक चला था। कहने को कुल 21 बैठकें हुईं, लेकिन हुल्लड़ और हंगामे के कारण सदन की कार्यवाही 92 घंटे बाधित रही। जुलाई-अगस्त में चले सत्र में 20 बैठकें हुईं, लेकिन कार्यवाही साढ़े छह घंटे से ज्यादा हंगामे का शिकार हुई। बजट सत्र भी निरापद नहीं रहा। संसद के दोनों सदनों ने निराश किया। बेशक जीएसटी पर संतोषजनक चर्चा हुई, लेकिन सामान्यतया मूलभूत मुद्दों की जगह व्यर्थ के सवालों को तूल दिया गया। नेशनल हेराल्ड का मसला न्यायालय के आदेश का भाग था। कांग्रेस ने इसे सरकारी षड्यंत्र बताया। विपक्ष ने राज्यसभा के बहुमत का दुरुपयोग किया। सदन की कार्यवाही को मनमाने ढंग से संचालित करने की कोशिशें हुईं। राष्ट्रजीवन से जुड़े मुद्दों की उपेक्षा हुई। सदन बाधित रहे। दोनों सदनों के पीठासीन सदन चलाने के लिए अतिरिक्त परिश्रम करते देखे गए। उन्होंने तमाम बैठकें कीं, लेकिन संसद राष्ट्र को धीरज और आश्वासन देने में असफल रही।

संसद में पक्ष और विपक्ष, दोनों की महत्ता है। जनादेश ही इस या उस दल या समूह को सत्तापक्ष या विपक्ष बनाता है। विपक्ष ने इस तथ्य की उपेक्षा की। उसने जनादेश द्वारा दी गई विपक्षी जिम्मेदारी का निर्वहन नहीं किया। संविधान आहत हुआ। सत्तापक्ष राजग ने संविधान निर्माण व प्रवर्तन पर संसद का विशेष सत्र प्रस्तावित किया। विपक्ष ने इस विशेष अवसर को भी ‘काल्पनिक असहिष्णुता’ के लिए इस्तेमाल किया। असहिष्णु विपक्ष ने सत्तापक्ष के विरुद्ध असहिष्णुता के आरोप लगाए। विपक्ष ने अडं़गेबाजी और विषयांतर के नए मुद्दे बनाए। विदेश मंत्री सुषमा स्वराज व राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे से त्यागपत्र मांगने के मुद्दे पर भी संसदीय कार्यवाही में बाधा डाली गई। फर्जी आरोपों की आंड़ में संसद को बाधित करने से गलत परंपराओं की नींव पड़ी है। विमुद्रीकरण बड़ा आर्थिक फैसला है, लेकिन संसद के दोनों सदनों में विमुद्रीकरण पर सार्थक चर्चा नहीं हुई। सत्तापक्ष ने बार-बार दोहराया कि वह बहस को तैयार है, लेकिन विपक्ष के अपने दुराग्रह थे।
संसद विधि निर्मात्री निकाय है। इसे संविधान संशोधन के भी अधिकार हैं। हुल्लड़ और हंगामे के बीच विधि निर्माण का काम असंभव है। विधि का प्रभाव सारे देश पर पड़ता है। इसलिए विधेयकों पर गंभीर विमर्श की परंपरा रही है। साल 2016 में जीएसटी छोड़ अन्य विधेयकों पर गंभीर और सारवान चर्चा नहीं हुई। काले धन की वापसी से जुड़ा संशोधन विधेयक बिना बहस ही पारित हुआ। इस साल किसी तरह केवल 37 विधेयक ही पारित हुए। संसदीय कामकाज का सुंदर अवसर है प्रश्नकाल। 2016 की संसदीय कार्यवाही में प्रश्नकाल भी बहुधा बाधा का शिकार हुआ। संविधान निर्माताओं ने सत्तापक्ष को संसद के सामने जवाबदेह बनाया था। डॉ. अंबेडकर ने संविधान सभा में कहा था कि हमने सरकार की स्थिरता की तुलना में जवाबदेही को उच्च स्थान दिया है। सरकारी जवाबदेही को सुनिश्चित कराने के लिए ही संसदीय कार्यवाही में प्रश्नकाल को सर्वोपरि महत्ता मिली। विपक्ष ने इसका सदुपयोग नहीं किया। उसने हंगामे को ही वरीयता दी। विपक्ष सरकार को जवाबदेह बनाने की संसदीय जिम्मेदारी में बुरी तरह नाकाम सिद्ध हुआ है। 2016 की संसदीय कार्यवाही का सबसे मूलभूत प्रश्न यही है कि जो संसद प्रश्नकाल भी नहीं चला पाई उससे अन्य गंभीर राष्ट्रीय मुद्दों पर निर्णायक कर्तव्य निर्वहन की आशा क्यों है?

सदन में लोक महत्व के विषयों पर चर्चा के अनेक अवसर व नियम हैं। शून्यकाल ऐसा ही है। हंगामा कभी संसदीय नहीं होता, लेकिन 2016 में हंगामा भी संसदीय कार्यवाही का मुख्य भाग बना है। भारतीय संसद ने अपनी परंपरा में शून्यकाल का विकास किया है। पूर्व प्रधानमंत्री नरसिंह राव एक संसदीय प्रतिनिधिमंडल में यूरोपीय दौरे में थे। कुछेक सांसदों ने पूछा कि मि. पीएम आपके यहां शून्यकाल क्या है? इसमें बहुत शोरगुल होता है। राव ने हंसते-हंसाते उत्तर दिया कि इसे संसदीय परिपाटी में भारत का योगदान समझना चाहिए। हंगामा संसदीय परंपरा में भारत की खोज है? सदन में असहमति व्यक्त करने के अनेक उपाय हैं। कार्यस्थगन, औचित्य प्रश्न ध्यानाकर्षण आदि के माध्यम से जनहित के मुद्दे उठाए जाते रहे हैं। असहमति भी रहे तो मुद्दा विशेष को लेकर सदन से बहिर्गमन अंतिम उपाय है, लेकिन 2016 की कार्यवाही ने हंगामा और शोरगुल को महत्वपूर्ण संसदीय हथियार बनाया है। संविधान निर्माताओं ने बहुत सोच समझकर संसदीय जनतंत्र अपनाया था। भारत का लोकजीवन स्वभाव से ही जनतंत्री और संसदीय रहा है। यहां सभ्य होने की मुख्य योग्यता ही सभा में बोलने लायक होना था। अथर्ववेद के अनुसार जो सभा के योग्य है वही सभेय है और वही सभ्य। सांसद, विधायक होने के लिए तमाम परिश्रम, जोड़, जुगत व प्रयास किए जाते हैं। आमजन को प्रसन्न करना होता है। सांसद, विधायक जनसमस्याएं उठाने और राष्ट्रीय प्रश्नों पर अपना दृष्टिकोण व्यक्त करने, सहमति या असहमति व्यक्त करने के लिए ही चुने जाते हैं। उन्हें इसीलिए विशेषाधिकार मिले हैं।

विशेषाधिकार जिम्मेदारी बढ़ाते हैं। ब्रिटिश हाउस ऑफ कामंस की समिति ने 1951 में टिप्पणी की थी कि संसद सदस्य होने के कारण सदस्यों पर अन्य नागरिकों की तुलना में समाज के प्रति दायित्व और भी बढ़ जाते हैं, लेकिन 2016 के संसदीय परिदृश्य ने निराश किया है। 2016 में विधानमंडलों की कार्यवाही ने और भी निराश किया है। उत्तर प्रदेश सबसे बड़ा राज्य है। विधानसभा का कार्यकाल पूरा हो गया है। नियमावली की अपेक्षानुसार पांच वर्ष में 450 दिन बैठक होनी चाहिए थी, लेकिन पूरे कार्यकाल में कुल 135 बैठकें ही हुई हैं। शोर, हंगामा, स्थगन घटा दें तो परिणाम घोर निराशाजनक है।2016 विदा हो रहा है, 2017 परिवर्तन का साल होगा। लेकिन 2016 की भूलें, गलतियां 2017 में भी बनी रह सकती हैं। काल अखंड प्रवाह है। 2016 का जन्म 2015 के गर्भ से हुआ था, 2017 का जन्म 2016 से हो रहा है। हम भारत के लोग इतिहास से सबक न लेने के लिए पहले से ही बदनाम हैं। संसद की शक्ति का क्षीण होना अशुभ है। दलतंत्र को आत्मचिंतन करना होगा। 2017 से उम्मीदें बहुत हैं, लेकिन आशंकाएं भी कम नहीं। अब आत्मविश्लेषण का कोई विकल्प नहीं है।

[ लेखक हृदयनारायण दीक्षित, उत्तर प्रदेश में भाजपा विधान परिषद दल के प्रमुख रहे हैं ]


Date: 30-12-16

Talking to children about untouchability

Rather than deny its existence, it is time for parents, teachers, and even the government to start talking to children about ending such practices today

Many of us, especially in urban areas, think about caste only in the context of reservations or when we come across media reports of Dalits being attacked, as it happened recently, in Una, Gujarat. It may seem that caste hardly plays a role in modern society. People may think: ‘I certainly don’t discriminate based on caste.’ Unfortunately, our research suggests that caste discrimination is far more commonplace than most educated urbanites would care to acknowledge.

We set out to measure attitudes towards Dalits in Delhi and Uttar Pradesh using the same method used to measure social attitudes in other countries for decades: representative phone surveys. A new survey called SARI (Social Attitudes Research for India) uses a sampling frame based on mobile phone subscriptions, random digit dialling, within household sample selection, and statistical weights to build representative samples of adults between 18-65 years old. A small research team carries out the interviews. In Delhi, we interviewed 1,270 adults; in Uttar Pradesh, the figure was 1,470.

What we found about people’s attitudes towards their Dalit neighbours is sobering: among non-Dalit Hindus in Delhi, a third said that someone in their household practises untouchability. In Uttar Pradesh, half of adults said that someone practises it.How could these numbers be so high? Didn’t Article 17 of the Constitution abolish untouchability? Wasn’t untouchability made punishable under the Untouchability Offences Act, 1955? Hasn’t India had decades of reservations to include Dalits in the government and in schools?

All this is true, yet, when you ask a representative group of non-Scheduled Caste (SC) Hindu adults the question: “Kya aapke parivar me kuch sadasya chuachut ko mante hain? (Do some members of your family practise untouchability?”), many of them unabashedly say “Yes.”

Admitting to untouchability

How many people in Delhi and Uttar Pradesh practise untouchability? Knowing that someone in a household practises untouchability doesn’t mean that she does it. Is it the case that only older people engage in such discriminatory practices?

Unfortunately, that is not what we found. If a respondent said that someone in the household practises untouchability, we asked whether he or she practises it. In Delhi, half the adults in non-SC Hindu households, where someone practises untouchability, said they themselves practise it; in Uttar Pradesh 70 per cent did. The graphic shows that there are actually very few age variations in reported untouchability: in neither Delhi and U.P. are young people much less likely to practise untouchability than their parents or grandparents.

As surprising and disappointing as these numbers are, we don’t think that they capture the full extent of the problem. That is because some people know that it is not politically correct to admit practising untouchability to a stranger. The graphic separating data into Delhi, urban U.P., and rural U.P., gives us some idea of the extent to which answers to this question are affected by social desirability bias.

Even though women and men live in similar households, women are more likely to report untouchability in the household. This suggests that either men are uninformed or they are giving a socially desirable, but incorrect, answer. Women may be more likely to report untouchability where it exists because they are less aware that it is not a politically correct thing to say. Another reason why women may be more likely to report untouchability is it is often practised in the context of food, utensils, and domestic help. Women are more likely to work with food and utensils than men, and so they are probably more likely than men to enforce untouchability.

If we use women’s figures, which are likely more accurate, we find that 40 per cent of non-Dalit Hindu households in Delhi report practising untouchability. In rural Uttar Pradesh, this figure is over 60 per cent! Of course, even this high figure will be an underestimate if some women do not admit to practising untouchability or do not recognise some of the things they do in their interactions with Dalits as untouchability.

Creating awareness in children

Many urban families find themselves talking explicitly about caste only when their children are trying to get admitted to colleges. Some children want to know what reservation is. Why do some social groups have this so-called privilege and not others?

Yet, the fact that women are particularly likely to report practising untouchability, and the fact that mothers are often the first and most influential teachers of their children, suggests that children’s first impressions of caste differences may be ingrained at a much younger age. So, rather than simply denying the existence of untouchability, or hoping it will disappear as this computer-using generation of youngsters becomes more educated than the previous generations, it is time for parents, teachers, and even the government to start talking to children about ending these practices today. Just as children are able to learn to have a separate glass for the maid, they are also able to learn what discrimination is, to understand that it is hurtful, and to have kinder attitudes towards people from different groups. A study of primary school students in the United States found that white students who read about both the accomplishments of and the discrimination faced by black Americans later displayed less biased attitudes towards blacks than white children who had merely read about accomplishments.

To end untouchability will mean that everyone, from government official, to teacher, to young mother has to make an effort. Everyone needs to admit that untouchability is still a widespread problem, not only in rural India but also in urban India. Even people who don’t agree with the practice of untouchability themselves need to talk with children in their lives about where it came from, what it feels like, and how it can be stopped. If they don’t, their neighbours, many of whom do practise untouchability, may end up teaching their children to perpetuate these archaic, hurtful social norms.

Diane Coffey is a visiting researcher at the

Indian Statistical Institute, Delhi; Amit Thorat is Assistant Professor at Centre for the Study of Regional Development, JNU. This is the second of a four-part series on prejudice. The first appeared on December 29, 2016.


Date: 30-12-16

प्रायश्चित और संदेश

जापान को सबक सिखाने के लिए उसने जो किया वह पर्ल हार्बर में किए जापान के गुनाह से बड़ा गुनाह साबित हुआ।

जापान के प्रधानमंत्री शिंजो आबे और अमेरिका के निवर्तमान राष्ट्रपति बराक ओबामा का एक साथ पर्ल हार्बर की यात्रा करना, अपने-अपने देश की जनता के साथ ही सारी दुनिया के लिए भी एक अहम संदेश है। यह संदेश है, सुलह की शक्ति का। अतीत की कटुता भुला कर शांति और सौहार्द भरे रिश्ते का। इतिहास को नई दिशा देने का। पर्ल हार्बर अमेरिका के हवाई द्वीप में उसका प्रसिद्ध बंदरगाह और नौसैनिक अड््डा है। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान, 7 दिसंबर 1941 को, जब वाशिंगटन में जापानी प्रतिनिधि के साथ समझौता वार्ता चल रही थी, उसी समय जापान के लड़ाकू विमानों ने पर्ल हार्बर पर अचानक हमला कर दिया।

इससे अमेरिका का नौसैनिक अड्डा और बंदरगाह तबाह हो गए और उसके ढाई हजार सैनिक मारे गए। हालांकि साल के भीतर ही अमेरिका ने अपने इस नौसैनिक अड््डे का पुनर्निर्माण कर लिया, मगर पर्ल हार्बर दूसरे विश्वयुद्ध का एक नया मोड़ साबित हुआ। इस हमले से पहले अमेरिका की विश्वयुद्ध में सीधी भागीदारी नहीं थी, उसकी भूमिका ‘मित्र देशों’ को आर्थिक व हथियारी मदद करने और इससे कारोबारी फायदा उठाने तक सीमित थी। लेकिन पर्ल हार्बर परहमले के बाद वह भी युद्ध के मैदान में कूद पड़ा।

जापान को सबक सिखाने के लिए उसने जो किया वह पर्ल हार्बर में किए जापान के गुनाह से बड़ा गुनाह साबित हुआ। जापान के हिरोशिमा और नागासाकी पर गिराए गए अमेरिका के परमाणु बमों ने पूरी मानवता को शर्मसार कर दिया। हजारों लोग मारे गए और लाखों लोग हमेशा के लिए बीमार और अपाहिज हो गए। यहां तक कि आने वाली पीढ़ियां भी एटमी हथियारों के असर से अप्रभावित नहीं रह सकीं। ओबामा के साथ शिंजो आबे के पर्ल हार्बर जाने का मकसद कोई साढ़े सात दशक पहले के उस दुखद वाकये पर अफसोस जताना था। इससे पहले, ओबामा इसी साल मई में हिरोशिमा गए थे और वहां के शांति स्मारक पर फूल चढ़ा कर युद्ध में मारे लोगों के प्रति शोक प्रकट किया था। यह अमेरिका की उस समय की कार्रवाई पर खेद जताना भी था। हालांकि जापान और अमेरिका के रिश्ते दशकों से हमेशा दोस्ताना बने रहे हैं।

मगर एक तरफ पर्ल हार्बर और दूसरी तरफ हिरोशिमा व नागासाकी के जख्म भी उनकी यादों में रिसते रहे हैं। जापान के रूढ़िचुस्त राष्ट्रवादी सोचते थे कि पर्ल हार्बर पर अफसोस जताने का मतलब होगा, अपनी कारगुजारी को मान लेना। इसी तरह अमेरिका के पूर्व सैन्य अफसरों की दलील होती थी कि हिरोशिमा और नागासाकी में जो हुआ वह जरूरी था, क्योंकि इससे युद्ध का अंत जल्दी आ गया, इसलिए उस पर खेद जताने की जरूरत नहीं है।लेकिन राष्ट्रपति ओबामा ने, जिन्हें शांति की ‘संभावनाओं के लिए’ नोबेल पुरस्कार दिया गया था, इराक व अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों की वापसी तो की ही, अपने कार्यकाल के आखिरी दिनों में उन्होंने दूसरे विश्वयुद्ध के भी दो बड़े जख्मों को भरने की पहल की। लेकिन यह दुखद है कि उनके उत्तराधिकारी डोनाल्ड ट्रम्प इससे उलट राग अलाप रहे हैं। पिछले दिनों ट्वीट करके उन्होंने कहा कि ‘जब तक परमाणु हथियारों के मामले में दुनिया को सद््बुद्धि नहीं आती तब तक अमेरिका को अपनी एटमी क्षमताओं को और मजबूती तथा विस्तार देना चाहिए।’ स्वाभाविक ही उनके इस बयान ने सारी दुनिया में चिंता पैदा की है। अगर ट्रम्प का यही रवैया रहा, तो यह खुद अमेरिका के लिए भी नुकसानदेह साबित होगा, क्योंकि तब वे विश्व जनमत के बीच अमेरिका-विरोध का ही भाव पैदा करेंगे।


Date: 30-12-16

फामरूले का सामाजिक-सांस्कृतिक लाभ

हींदुस्तान की अनेकता में एकता की जिस खुशबू व रंगारंग विरासत पर दुनिया नाज करती है, उसमें यहां बोली जाने वाली भाषाओं की भी बहुत बड़ी भूमिका है। हर चंद मील के फासले पर जबान और बोलियां बदल जाती हैं। इनको सहेजने और आने वाली पीढ़ियों तक पहुंचाने के लिए जरूरी है कि उनका उचित प्रचार-प्रसार हो। ऐसे में केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड द्वारा दसवीं कक्षा तक त्रिभाषा फामरूला लागू किए जाने का फैसला नि:संदेह स्वागतयोग्य है। इससे हमें अपनी सांस्कृतिक विरासत को सहेजने का शिक्षा के रूप में अवसर मिलेगा।इससे बोर्ड से सम्बद्ध 18 हजार स्कूलों में अब दसवीं क्लास तक हिंदी और अंग्रेजी के अलावा एक अन्य भारतीय भाषा को पढ़ाया जा सकेगा। छात्रों के पास इस तीसरी भाषा के तौर पर भारतीय संविधान की आठवीं सूची में सूचीबद्ध भाषाओं में से किसी एक को चुनने का विकल्प होगा। काबिलेगौर है कि इसमें फिलहाल असमिया, बंगाली, गुजराती, पंजाबी, कन्नड़, मलयालम, मराठी, उड़िया, कश्मीरी, संस्कृत, तेलुगू, मैथिली और उर्दू समेत 22 ऐसी भारतीय भाषाओं को सूचीबद्ध किया गया है, जो विभिन्न राज्यों के लोगों द्वारा बोली जाती हैं। इसके दो फायदे हैं। अव्वल तो हिंदी भाषी राज्यों के छात्रों को अपने ही देश की एक अन्य भाषा का ज्ञान होगा।

दूसरे, उन राज्यों में जहां हिंदी नहीं बोली जाती है, उन्हें अंग्रेजी और अपनी इलाकाई जबान के इलावा हिंदी को सीखने का मौका मिलेगा। इसे हम महज भाषाई नहीं बल्कि संस्कृतियों के आदान-प्रदान के रूप में देख सकते हैं; क्योंकि भाषा से सिर्फ उसकी लिपि या फिर बोली ही नहीं, बल्कि उसमें मौजूद साहित्यक, सांस्कृतिक और सामाजिक खजाने का भी बोध होता है। सीबीएसई से सम्बद्ध हजारों स्कूलों में लगभग ढाई करोड़ छात्र पढ़ते हैं। ऐसे में इन छात्रों को अपनी धनवान भारतीय भाषाई विरासत का ज्ञान होगा। वैसे भी भाषा, साहित्य और सांस्कृतियों को लोगों को जोड़ने और करीब लाने में मददगार होता है। ऐसे में ये कहना बेजा नहीं होगा कि इससे हमारी एकता को एक धागे में पिरोने और साम्प्रदायिक सौहार्द की डोर को मजबूत करने में मदद मिलेगी। हालांकि सीबीएसई के इस फैसले से अधिकतर निजी स्कूल खुश नहीं है। दरअसल, इन स्कूलों में तीसरी भाषा के तौर पर विदेशी भाषा को पढ़ाया जाता है। दो साल पूर्व इसी तरह का विवाद तत्कालीन मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी के जरिए केंद्रीय विद्यालयों में पढ़ाई जाने वाली जर्मन भाषा को खत्म किए जाने को लेकर उठा था।

उस समय केंद्रीय विद्यालयों को जर्मन की जगह संस्कृत अथवा कोई अन्य आधुनिक भारतीय भाषा को पढ़ाने के निर्देश दिए गए थे। हालांकि उनका फैसला अमल में नहीं आ सका। त्रिभाषा फामरूले पर निजी स्कूलों के विरोध के पीछे ये दलील दी जा रही है कि भूमंडलीकरण के इस दौर में अंग्रेजी और हिंदी के अतिरिक्त तीसरी आधुनिक भारतीय भाषा को पढ़ाए जाने का फैसला उचित नहीं है। उनका कहना है कि अगर कोई छात्र विदेशी भाषा सीखना चाहता है और उसमें आगे अपना भविष्य बनाने का इच्छुक है, तो उसे इससे वंचित नहीं किया जाना चाहिए। देखा जाए तो निजी स्कूलों के इस विरोध में दम नहीं है; क्योंकि सीबीएसई ने विदेशी भाषा के विकल्प को पूरी तरह से खत्म नहीं किया है और इसे चौथी भाषा के रूप में चुनने की छूट दी है। वैसे भी हमारी नई पौध को भारत की मालामाल विरासत में विशेष महत्व रखने वालींिहंदुस्तानी भाषाओं का ज्ञानबोध कराना ज्यादा आवश्यक है।

गौरतलब है कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति और एनसीआरटी के राष्ट्रीय पाठक्रम फ्रेमवर्क में त्रिभाषा फामरूले को माध्यमिक शिक्षा के स्तर तक क्रियान्वित किए जाने का स्पष्ट उल्लेख है। केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड के द्वारा दसवीं तक तीन भाषाओं को पढ़ाए जाने का फैसला इस फ्रेमवर्क के अनुकूल है। ऐसे में निजी स्कूलों को भी अब इस त्रिभाषा फामरूले का अनुपालन करना अनिवार्य होगा। हालांकि अभी ये स्पष्ट नहीं है कि दसवीं के बोर्ड इम्तेहान में इस तीसरी भाषा के अंक जुड़ेंगे या नहीं, फिर भी इसके दूरगामी परिणामों की अनदेखी नहीं की जा सकती है। इससे सीबीएसई से सम्बद्ध हजारों स्कूलों में ऐसे अध्यापकों की आवयकता होगी, जो इन आधुनिक भारतीय भाषाओं का ज्ञान रखते हों। यही नहीं इन क्षेत्रीय भाषाओं के ज्ञान से छात्रों को भी अनुवादक जैसे पदों पर नियुक्तियों के अवसर प्रदान होंगे। इस तरह सीबीएसई के इस फैसले से बहुत सी नौकरियों के सृजन होने की भी उम्मीद है।

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