31-10-2018 (Important News Clippings)
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Date:31-10-18
Tribute To a Great Unifier
Sardar Vallabhbhai Patel can justly be regarded as the maker of modern India
Narendra Modi
The first half of 1947 was a critical period in India’s history. The end of colonial rule was certain and so was India’s Partition, but what was uncertain was whether there would be more than one division. Prices were rising, food shortages were common but over and above everything else, the unity of India was under severe strain. It was in these circumstances that the States Department came into being in June 1947. Among the chief aims of this department was to give impetus and top priority to negotiations vis-à-vis India’s relationship with the over 550 princely states, which were as diverse as they could get, be it in size, population, terrain or economic situation.
No wonder Mahatma Gandhi remarked, “The problem of the states is so difficult that YOU alone can solve it.” In vintage Sardar Patel style, he went about his work with precision, firmness and administrative efficiency. Time was less and the task was herculean … but this was no ordinary person, it was Sardar Patel, who was determined not to let his nation down. One by one, he and his team negotiated with the princely states and ensured that they all became a part of free India. It was due to round-the-clock effort of Sardar Patel that the map of India is what it is today!
Once freedom was won, VP Menon, it is said, wanted to retire from government service, only to be told by Sardar Patel that this was neither the time to rest nor the time to retire. Such was Sardar Patel’s firm resolve. VP Menon was made the Secretary of the States Department. In his book ‘The Story of the Integration of Indian States’, he writes about how Sardar Patel led from the front and inspired the entire team to work assiduously. He also writes that Sardar Patel was clear – first and foremost came the interests of the people of India, there would be no compromise on that. On August 15, 1947, we celebrated the dawn of a new destiny but the work of nation building was far from complete. As independent India’s first home minister, he set the stage for an administrative framework that continues to serve the nation be it in matters of day to day governance or protecting the interests of the people, particularly the poor and marginalised.
Sardar Patel was a veteran administrator. His own experience in governance, particularly in the 1920s when he served the Ahmedabad municipality, was extremely handy when he worked towards strengthening independent India’s administrative framework. While in Ahmedabad, he did commendable work in furthering cleanliness in the city. He ensured clean and functioning drainage systems across the city. He also focussed on other aspects of urban infrastructure such as roads, electricity and education. Today, if India is known for a vibrant cooperative sector, a large part of the credit goes to Sardar Patel. The roots of Amul can be traced back to his vision for empowering local communities, particularly women. It was Sardar Patel who also popularised the idea of cooperative housing societies, thus ensuring dignity and shelter for many.
Two traits synonymous with Sardar Patel are trust and integrity. The farmers of India had unparalleled faith in him. After all, he was a kisan putra, who led from the front during the Bardoli satyagraha. The working class saw him as a ray of hope, a leader who would speak up for them. Traders and industrialists preferred to work with Sardar Patel because they felt here was a stalwart who had a vision for India’s economic and industrial growth. His political peers too trusted him. Acharya Kripalani remarked that whenever they faced an issue and if Bapu’s guidance was not available, they would turn to Sardar Patel. When political negotiations were at their peak in 1947, Sarojini Naidu called him “the man of decision and man of action”. Everyone trusted him, his words and his actions. Sardar Patel continues to be respected across caste, creed, faith, age!
This year’s Sardar Jayanti is even more special. With the blessings of 130 crore Indians, the Statue of Unity is being inaugurated today. Situated on the banks of the Narmada, the ‘Statue of Unity’ is the tallest in the world. ‘Dharti Putra’ Sardar Patel will stand tall in the skies, to guide us and inspire us. I congratulate all those who have worked day and night to ensure that this grand statue in tribute of Sardar Patel becomes a reality. My mind goes back to October 31, 2013, when we laid the foundation stone for this ambitious project. In record time, a project of such scale has become ready and this should make every Indian proud. I urge you all to visit the Statue of Unity in the times to come.
The Statue of Unity is a symbol of both the unity of hearts and the geographical integrity of our motherland. It is a reminder that divided, we may not be even able to face ourselves. United, we can face the world and scale new heights of growth and glory. Sardar Patel worked with astonishing speed to dismantle the history of imperialism and create the geography of unity with the spirit of nationalism. He saved India from Balkanisation and integrated even the weakest of limbs into the national framework. Today, we, the 130 crore Indians, are working shoulder to shoulder to build a New India that is strong, prosperous and inclusive. Every decision is being taken to ensure that the fruits of development reach the most vulnerable, without any corruption or favouritism, just as Sardar Patel would have wanted it.
Date:31-10-18
मनमाने आचरण से निकले सबक से मिलेगी सीख!
देवाशिष बसु
ब्रिटेन के पूर्व विदेश मंत्री और सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी के संस्थापक डेविड ओवन पेशे से चिकित्सक हैं और उन्होंने तंत्रिका विज्ञान का अध्ययन किया है। इस अकादमिक प्रशिक्षण के साथ उन्होंने नेताओं में व्यक्तित्व संबंधी विकारों का गहन पर्यवेक्षण किया है। उन्होंने ह्युब्रिस सिंड्रोम नामक एक सिद्धांत प्रस्तुत किया है। ओवन कहते हैं, ‘यह विकास सत्ता के अधिकार से जुड़ा है, खासतौर पर ऐसे अधिकार से जिसका संबंध बेशुमार सफलता से हो, जो वर्षों तक आपके पास हो और जिसके स्वामी नेता के सामने न्यूनतम बाधाएं हों।’ यह सिंड्रोम अपने आप में लापरवाही, विस्तृत ब्योरों पर कम ध्यान दिए जाने, भारी दंभ और आत्मविश्वास तथा दूसरों के प्रति अवहेलना का भाव छिपाए रहता है। किसी के व्यक्तित्व में अगर ये तमाम पहलू हों तो बहुत बड़े पैमाने पर नुकसान संभव है।
ओवन यहां शायद पश्चिमी संस्थानों का संदर्भ ले रहे थे जहां जानबूझकर की जा रही अनदेखी के कारण लिए गए गलत निर्णयों ने संस्थागत नुकसान पहुंचाया और इससे बड़े पैमाने पर रोजगारों का भी नुकसान हुआ। भारत जैसे तीसरी दुनिया के देशों में जहां न्याय व्यवस्था का इस्तेमाल शक्तिशाली लोगों के हितों को पूरा करने में किया जा सकता है, वहां इन गुणों के दो ऐसे नतीजे तत्काल सामने आते हैं जो ओवन द्वारा पश्चिम के अपेक्षाकृत नियम कायदों से चलने वाले समाज की तुलना में काफी बुरे साबित हो सकते हैं।
पहला, भारी पैमाने पर भ्रष्टाचार। भारत में जैसे ही लोगों के पास सत्ता आती है (सरकारी क्षेत्र हो या निजी) वैसे ही वे उसका दुरुपयोग करना शुरू कर देते हैं। अगर वे लंबे समय तक सत्ता में बने रहें तो दुरुपयोग में काफी इजाफा हो जाता है। दूसरी बात, तीसरी दुनिया के देशों में नियम कानून टूटने के कारण ह्युब्रिस सिंड्रोम एक अत्यंत भ्रष्ट मोड़ ले सकता है। इस सिंड्रोम के शिकार नेता न्याय व्यवस्था का दुरुपयोग कर सकते हैं, लोगों को झूठे और मनगढ़ंत इल्जाम लगाकर जेल में डाल सकते हैं, शारीरिक क्षति पहुंचा सकते हैं और उनको सार्वजनिक रूप से नीचा दिखा सकते हैं।
इस सिंड्रोम के दो उदाहरण हमारे सामने हैं: नैशनल स्टॉक एक्सचेंज (एनएसई) और इन्फ्रास्ट्रक्चर लीजिंग ऐंड फाइनैंशियल सर्विसेज (आईएलऐंडएफएस)। आईएलऐंडएफएस की स्थापना संस्थागत पैसे से की गई थी लेकिन रवि पार्थसारथि ने तीन दशक तक इसे अपनी मिल्कियत की तरह चलाया। जुलाई 2018 में कैंसर ने उन्हें पद छोडऩे पर मजबूर कर दिया। तीन दशक की इस अवधि में आईएलऐंडएफएस पर एक लाख करोड़ रुपये से अधिक का कर्ज हो गया था। इसमें से ज्यादातर कर्ज सरकारी क्षेत्र की कंपनियों का है। इसके चलते तमाम अधूरी परियोजनाएं कानूनी पचड़े में फंस गईं। 350 से अधिक कंपनियां एक साथ उलझ गईं। ये कंपनियां स्कूल प्रबंधन से लेकर कचरा प्रबंधन तक विभिन्न कामों में संलग्र थीं।
ओवन कहते हैं कि सफल नेताओं में अक्सर प्रेरक, अपनी बात मनवाने की क्षमता, व्यापक दृष्टिकोण, जोखिम उठाने की इच्छा और आत्मविश्वास जैसे गुण होते हैं। कई लोगों को पार्थसारथि में ये गुण दिखे (एनएसई के नेताओं में ये गुण कम थे)। ओवन ने जो चार कारक बताए उनमें से तीन पर वे खरे उतरते थे: संपूर्ण शक्ति, कई वर्षों में एकत्रित की गई शक्ति और न्यूनतम अवरोध। बीती बातों का अवलोकन करें तो आईएलऐंडएफएस ओवन के शब्दों में जबरदस्त सफलता का उदाहरण तो नहीं है लेकिन देश के सफलता और नाकामी के आकलन की विचित्र व्यवस्था में तो सरकारी बैंकों और भारी भरकम सरकारी मशीनरी की मदद से एक विशालकाय सफेद हाथी पालने को सफलता का उदाहरण माना गया।
इस प्रक्रिया में जहां आईएलऐंडएफएस के कुछ शीर्ष कर्मचारियों ने जमकर निजी पूंजी बनाई, वहीं कुछ कारोबारी साझेदारों और सवाल उठाने वाले कर्मचारियों को आपराधिक अवमानना की धमकी दी गई या फिर झूठे आरोप लगाकर उनको सलाखों के पीछे डाल दिया गया और उनकी जिंदगी खराब कर दी गई। तीसरी दुनिया के देशों में ह्युब्रिस सिंड्रोम जनता के पैसे की खुली लूट और आपराधिक व्यवहार को जन्म दे सकता है। एनएसई की स्थापना भी संस्थागत पूंजी से की गई थी और इसका नेतृत्व आरएच पाटिल ने किया जबकि रवि नारायण और चित्रा रामकृष्णा उनके अधीनस्थ थे। एनएसई सावधानीपूर्वक जोखिम उठाने के मामले में जबरदस्त रूप से सफल रहा। डॉ. पाटिल ने भारतीय संदर्भों में एकदम विशिष्ट नवाचार किया और एक दशक के बाद चीजें बदलने लगीं और लगभग एकाधिकार जैसी स्थिति बन गई। यहां पर ओवन के चार प्रभावकारी कारक एकदम उचित तरीके से लागू होते हैं: लंबी अवधि तक सत्ता में बने रहना, जबरदस्त सफलता, संपूर्ण शक्ति और न्यूनतम अवरोध। दो बड़ी नियामकीय विफलताओं के लिए वे सजा से भी बच गए (सन 2010 में आई गिरावट और ब्रोकरों द्वारा क्लाइंट कोड में बदलाव)। वह प्रतिद्वंद्वी एक्सचेंजों के साथ छिड़ी लड़ाई से भी निजात पाने में कामयाब रहा।
इस दौरान एनएसई ने कई गलत तरीके अपनाकर तत्कालीन कर्मचारियों को परेशान किया और सॉफ्टवेयर आदि को लेकर झूठे इल्जाम लगाए। ओवन के कहे के मुताबिक ही एनएसईके शीर्ष प्रबंधन ने अत्यधिक दंभ पाल लिया था और दूसरों के प्रति नफरत भी। इसलिए जब सन 2015 में एनएसई में लापरवाही और ध्यान न देने (ह्युब्रिस सिंड्रोम की परिभाषा के मुताबिक) के कारण घोटाला सामने आया तब उसने इसे खारिज करने की कोशिश की और हमारे खिलाफ अवमानना का मामला दायर करने का प्रयास किया। एनएसई के पूर्व वरिष्ठ कर्मचारियों ने हमें बताया कि उसका वरिष्ठ प्रबंधन इस बात को लेकर आश्वस्त था कि वह घोटाले की जांच को आसानी से दबा ले जाएगा। परंतु ऐसा नहीं हो सकता और दो पूर्व प्रबंध निदेशकों को बहुत बेआबरू होकर बाहर जाना पड़ा।
हमने संस्थानों में ऐसे आचरण को रोकने के लिए नियम कानून बनाए हैं लेकिन एनएसई और आईएलऐंडएफएस के मामले में वे नाकाम रहे क्योंकि आंतरिक स्तर पर बोर्ड और बाहरी स्तर पर नियामकीय निगरानी दोनों विफल रहे। ऐसा तब हुआ जबकि उनके कुछ कदम केवल अनैतिक ही नहीं बल्कि अवैध भी थे। वर्ष 2008 के आरंभ से ही एनएसई ने नियामक पर काफी हद तक नियंत्रण रखा परंतु ‘को लोकेशन’ घोटाले के बाद उसके बोर्ड की सफाई करनी पड़ी। दर्जनों पूर्व वरिष्ठ सरकारी अधिकारी उसके वेतनभोगी थे और बोर्ड भी दब्बू स्वभाव का था। आईएलऐंडएफएस का शीर्ष प्रबंधन इस निगरानी से बचा रहा। दोनों संस्थानों के मनमाने आचरण से निकले सबक स्पष्ट हैं। प्रश्न यह है कि क्या नीति निर्माता इससे कुछ सीखेंगे।
Date:31-10-18
एकजुटता के सूत्रधार को नमन
नरेंद्र मोदी
वर्ष 1947 के पहले छह महीने भारत के इतिहास में अत्यंत महत्वपूर्ण रहे थे। साम्राज्यवादी शासन के साथ-साथ भारत का विभाजन भी अपने अंतिम चरण में पहुंच गया था। हालांकि, उस समय यह तस्वीर पूरी तरह से साफ नहीं थी कि क्या देश का एक से अधिक बार विभाजन होगा। कीमतें आसमान पर पहुंच गई थीं, खाद्य पदार्थों की किल्लत आम बात हो गई थी, लेकिन इन बातों से परे सबसे बड़ी चिंता भारत की एकता को लेकर नजर आ रही थी, जो उस समय खतरे में थी। इस पृष्ठभूमि में ‘गृह विभाग का बहुप्रतीक्षित गठन वर्ष 1947 के जून में किया गया। इस विभाग का एक प्रमुख लक्ष्य उन 550 से भी अधिक रियासतों से भारत के साथ उनके रिश्तों के बारे में बातचीत करना था, जिनके आकार, आबादी, भूभाग अथवा आर्थिक स्थितियों में काफी भिन्न्ताएं थीं। उस समय महात्मा गांधी ने कहा था कि, ‘राज्यों की समस्या इतनी ज्यादा विकट है कि सिर्फ ‘आप ही इसे सुलझा सकते हैं। यहां पर ‘आप से आशय किसी और से नहीं, बल्कि सरदार वल्लभ भाई पटेल से है, जिनकी जयंती आज हम मना रहे हैं और जिन्हें हम भावभीनी श्रद्धांजलि दे रहे हैं।
अपनी विशिष्ट शैली में उन्होंने अद्भुत सुदृढ़ता और प्रशासनिक दक्षता के साथ इस चुनौती को पूरा किया। समय कम था और जवाबदेही बहुत बड़ी थी, लेकिन इसे अंजाम देने वाली शख्सियत कोई साधारण व्यक्ति नहीं, बल्कि सरदार पटेल थे जो इस बात के लिए दृढ़प्रतिज्ञ थे कि किसी भी हाल में अपने राष्ट्र को झुकने नहीं देंगे। उन्होंने और उनकी टीम ने एक-एक करके सभी रियासतों से बातचीत की और इन सभी रियासतों को ‘आजाद भारत का अभिन्न् हिस्सा बनाना सुनिश्चित किया। सरदार पटेल ने पूरी तन्मयता और लगन से दिन-रात एक करते हुए इस कार्य को पूरा किया और इसी की बदौलत आधुनिक भारत का मौजूदा एकीकृत मानचित्र हम देखते हैं। कहा जाता है कि देश को स्वतंत्रता मिलने पर वीपी मेनन ने सरकारी सेवा से अवकाश लेने की इच्छा व्यक्त की थी। इस पर सरदार पटेल ने उनसे कहा कि यह समय आराम करने या सेवानिवृत्त होने का नहीं है। सरदार पटेल का ऐसा ही दृढ़ संकल्प था।
वीपी मेनन विदेश विभाग के सचिव बनाए गए। उन्होंने अपनी पुस्तक ‘द स्टोरी ऑफ द इंटीग्रेशन ऑफ इंडियन स्टेट्स में लिखा है कि किस तरह सरदार पटेल ने इस मुहिम में अग्रणी भूमिका निभाई और अपने नेतृत्व में पूरी टीम को डटकर काम करने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने लिखा है कि सरदार पटेल के लिए सबसे पहले देश की जनता के हित थे। हमने 15 अगस्त, 1947 को नए भारत के उदय का उत्सव मनाया, लेकिन राष्ट्र निर्माण का कार्य अधूरा था। स्वतंत्र भारत के प्रथम गृह मंत्री के रूप में उन्होंने प्रशासनिक ढांचा बनाने का काम प्रारंभ किया जो आज भी जारी है, फिर चाहे यह दैनिक शासन संचालन का मामला हो या फिर लोगों विशेषकर, गरीब और वंचित लोगों के हितों की रक्षा का मामला। सरदार पटेल अनुभवी प्रशासक थे। प्रशासन में उनका अनुभव (विशेषकर 1920 के दशक में अहमदाबाद नगरपालिका में सेवा का अनुभव) स्वतंत्र भारत के प्रशासनिक ढांचे को मजबूत बनाने में सहायक सिद्ध हुआ। उन्होंने अहमदाबाद में स्वच्छता कार्य को आगे बढ़ाने में सराहनीय कार्य किए। उन्होंने पूरे शहर में स्वच्छता और जल निकासी प्रणाली सुनिश्चित की। उन्होंने सड़क, बिजली तथा शिक्षा जैसी शहरी अवसंरचना के अन्य पहलुओं पर भी जोर दिया। आज यदि भारत जीवंत सहकारिता क्षेत्र के लिए जाना जाता है तो इसका श्रेय सरदार पटेल को जाता है।
ग्रामीण समुदायों, विशेषकर महिलाओं को सशक्त बनाने का उनका विजन अमूल परियोजना में दिखता है। यह सरदार पटेल ही थे, जिन्होंने सहकारी आवास सोसायटी के विचार को लोकप्रिय बनाया और इस प्रकार अनेक लोगों के लिए सम्मान और आश्रय सुनिश्चित किया। सरदार पटेल निष्ठा और ईमानदारी के पर्याय रहे। किसानों की उनमें प्रगाढ़ आस्था थी। वह किसान पुत्र थे, जिन्होंने बारदोली सत्याग्रह के दौरान अग्र्रिम मोर्चे से नेतृत्व किया। श्रमिक वर्ग उनमें आशा की किरण देखता था, जिसे उनमें ऐसे नेता की छवि दिखती थी, जो उनके हक के लिए आवाज बुलंद करेगा। व्यापारियों और उद्योगपतियों ने उनके साथ इसलिए काम करना पसंद किया, क्योंकि वे समझते थे कि सरदार पटेल भारत के आर्थिक और औद्योगिक विकास के विजन वाले दिग्गज नेता हैं। उनके राजनीतिक मित्र भी उन पर भरोसा करते थे। आचार्य कृपलानी का कहना था कि जब कभी वह किसी दुविधा में होते थे और यदि बापू का मार्गदर्शन नहीं मिल पाता था तो वह सरदार पटेल का रुख करते थे। उनके शब्दों और उनकी कार्य प्रणाली पर सभी को पूरा विश्वास था। जाति, धर्म, आयु से ऊपर उठकर सभी लोग सरदार पटेल का सम्मान करते थे।
Date:30-10-18
नस्लवादी आक्रामकता
संपादकीय
नस्ल इन दिनों फिर से चर्चा में है। खासतौर पर सोशल मीडिया के आने के बाद नस्लवाद भी बड़ा है और नस्ल को लेकर चलने वाले विवाद भी। सोशल मीडिया के अलावा आधुनिक नस्लवादियों ने एक और हथियार अपनाया है आनुवंशिक विज्ञान, यानी जेनेटिस का। आनुवंशिकता की झूठी व्यायाओं को कपोल-कल्पित किस्सों में गढ़कर इन दिनों एक नई नस्लवादी आक्रामकता को धार दी जा रही है। खासकर यूरोप और अमेरिका में। इसका एक दिलचस्प उदाहरण पिछले दिनों तब दिखा, जब एक खबर आई कि दूध को पचाने वाला एंजाइम अफ्रीकी मूल के कुछ समुदायों में उस तरह नहीं पाया जाता, जिस तरह वह बाकी समुदायों में पाया जाता है। जल्द ही इसे तोड़-मोड़कर इस तरह पेश किया गया कि श्वेत नस्ल के शुद्ध लोगों की पहचान यह है कि वे दूध को आसानी से पचा लेते हैं, और अगर आप नहीं पचा पाते, तो आप श्वेत नहीं हैं, इसलिए जहां से आए हैं, वहां लौट जाइए।
यहां तक कि कुछ जगहों पर सार्वजनिक रूप से दूध पीने के उग्र आयोजन भी हुए। कुछ विशेषज्ञों ने इस सच को बार-बार दोहराया कि यह गलत है, यूरोपीय मूल के बहुत से लोगों में भी दूध के लैटोज को पचाने वाला एंजाइम नहीं पाया जाता। लेकिन खोटे संदेशों की दुनिया में खरी बात पर किसी ने ध्यान भी नहीं दिया। यह तो सिर्फ एक उदाहरण है, हर रोज ऐसे ढेरों तर्क और आयान गढ़े जा रहे हैं। सिर्फ यूरोप या अमेरिका में ही नहीं, हमारे अपने देश में भी। पानी जब सिर से गुजरने लगा, तो चंद रोज पहले अमेरिका के जेनेटिस वैज्ञानिकों ने इसका जोरदार खंडन करने की ठानी। अमेरिकन सोसायटी ऑफ ह्यूमन जेनेटिस ने पिछले दिनों इसे लेकर एक विस्तृत बयान जारी किया। इस संस्था के आठ हजार सदस्य हैं और यह माना जाता है कि अमेरिका के ज्यादातर प्रमुख जेनेटिस वैज्ञानिक इसमें शामिल हैं। संस्था ने अपने बयान में कहा है कि शुद्ध नस्ल सिर्फ एक मिथक है, ऐसी कोई चीज दुनिया में होती ही नहीं है। संस्था का कहना है कि मूल रूप से नस्ल कीअवधारणा भी किसी तरह से वैज्ञानिक नहीं है।
दुनिया की शुरुआत से अब तक मानव समुदायों का इतना ज्यादा विस्थापन हुआ और विभिन्न समुदायों में इतने तरह के रिश्ते बने हैं कि शुद्ध नस्ल जैसी कोई चीज न तो तार्किक रूप से ही रह गई है और न व्यावहारिक रूप से। नस्ल दरअसल एक सामाजिक अवधारणा है, जो पहचान कायम करने की जरूरतों से जुड़ी हुई है और इसका कोई दूसरा वैज्ञानिक आधार है ही नहीं। संस्था ने यह भी कहा कि यह धारणा कि एक नस्ल किसी से उच्च है या सबसे श्रेष्ठ है, पूरी तरह से गलत, फर्जी और तथ्यों का विद्रूप है। हमें पता नहीं है कि अपनी नस्ल की श्रेष्ठता साबित करने के लिए किस्से-कहानियां गढऩे वालों पर इसका कितना असर पड़ा होगा। लेकिन यह सच है कि पहली बार किसी बड़ी वैज्ञानिक संस्था ने एक महत्वपूर्ण कोशिश की है। इतना ही नहीं, उसने दुनिया भर के वैज्ञानिकों राह भी दिखाई है। झूठ का मुकाबला करने का सबसे अच्छा हथियार सच ही हो सकता है और वैज्ञानिक इसे संस्थागत रूप से करें, तो उसका असर दूर तक जाएगा और देर तक रहेगा। यह इसलिए भी जरूरी है कि बहुत से झूठ ऐसी संस्थाओं का हवाला देकर ही बोले जाते हैं। इस काम को उसी तरह लगातार करना होगा, जैसे वे हर रोज नया झूठ गढ़ते हैं।
Date:30-10-18
साझेदारी का सफर
संपादकीय
भारत और जापान अपनी दोस्ती में एक कदम और आगे बढ़े हैं। भारत-जापान वार्षिक शिखर सम्मेलन में हिस्सा लेने पहुंचे भारतीय प्रधानमंत्री उनके समकक्ष शिंजो आबे जिस गर्मजोशी से मिले और सुरक्षा तथा आर्थिक सहयोग को लेकर बातचीत की, उससे कुछ और बेहतरी की उम्मीद जगी है। यह दोनों नेताओं की अब तक बारहवीं मुलाकात है। प्रधानमंत्री मोदी की यह तीसरी जापान यात्रा है। शिंजो आबे भी तीन बार भारत आ चुके हैं। इन मुलाकातों में दोनों देशों ने व्यापार और आर्थिक क्षेत्र में सहयोग के उल्लेखनीय समझौते किए हैं।
आर्थिक और तकनीकी क्षेत्र में सहयोग के मामले में जापान भारत का सबसे भरोसेमंद साझीदार रहा है। इन दिनों जैसी वैश्विक अर्थव्यवस्था की स्थिति है, उसमें दोनों देशों का साथ बहुत महत्त्वपूर्ण है। खासकर एशिया प्रशांत क्षेत्र में ताकतवर बने रहने के लिए भी दोनों देशों की साझेदारी जरूरी है। एशिया प्रशांत क्षेत्र में तीन देश महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं, भारत, जापान और चीन। चीन से भारत और जापान की दूरी है। वह अपनी विस्तारवादी नीतियों पर कायम है। ऐसे में एशिया प्रशांत क्षेत्र में अपनी ताकत बढ़ाने के लिए भारत और जापान का आर्थिक सहयोग बहुत जरूरी है। इस शिखर वार्ता में दोनों देशों के नेताओं ने एशिया प्रशांत क्षेत्र में सहयोग पर ही प्रमुख रूप से ध्यान केंद्रित किया।
डोकलाम विवाद के बाद से भारत के लिए जापान का निरंतर सहयोग बहुत महत्त्वपूर्ण हो गया है। शिंजो आबे पिछले हफ्ते ही चीन यात्रा से लौटे हैं। इसलिए भारत और जापान के नेताओं के बीच यह मुलाकात चीन के रुख को भी समझने में सहायक होगी। अगर दोनों देश मिल कर चीन से बातचीत करें, तो यह अधिक प्रभावशाली कदम हो सकता है। फिर दोनों एशिया प्रशांत क्षेत्र में सामरिक सहयोग करें, तो चीन के लिए चुनौती पेश कर सकते हैं। इसके अलावा खुफिया सूचनाओं के आदान-प्रदान में सहयोग से इस क्षेत्र में सुरक्षा व्यवस्था और पुख्ता होगी। तकनीकी क्षेत्र में जापान सदा से भारत का सहयोग करता रहा है। औद्योगिक क्षेत्र में अनेक परियोजनाओं पर निवेश करता रहा है। पिछले चार सालों में भारत सरकार का जोर विशेष वैश्विक रणनीतिक सहयोग पर रहा है, उसमें जापान की भूमिका अग्रणी रही है। मेक इन इंडिया अभियान में जापान ने अनेक परियोजनाओं में सहयोग दिया है। हालांकि कई मामलों में भारत की तरफ से अड़चन रही है कि वह उन्हें गतिशील बनाने में अपेक्षित कदम नहीं उठा पाया है। जहां भी आर्थिक और तकनीकी स्तर पर भारत को जरूरत पड़ती है, जापान उसके लिए तैयार रहता है। इस बैठक में भी इस दिशा में कई उत्साहजनक और उल्लेखनीय कदम उठाए गए हैं।
भारत अपने पड़ोसी देशों के साथ मिल कर भी एक मजबूत आर्थिक क्षेत्र विकसित करने में जुटा हुआ है। पाकिस्तान की मनमानियों के चलते उसे सार्क देशों से अलग-थलग कर दिया गया है, पर भारत अन्य देशों श्रीलंका, बांग्लादेश, नेपाल में जापान के साथ मिल कर निवेश करने की रणनीति तैयार कर रहा है। इस यात्रा से उसे भी गति मिली है। बुलेट ट्रेन जैसी जापान के सहयोग से शुरू होने वाली कुछ परियोजनाएं ऐसी हैं, जिनसे भारत की अर्थव्यवस्था को काफी गति मिलेगी, पर भारत की तरफ से ही उनमें दिक्कतें पेश आ रही हैं। दोनों देशों के नेताओं की ताजा मुलाकात से न सिर्फ आर्थिक और तकनीकी क्षेत्र में परस्पर सहयोग को गति मिलेगी, बल्कि वैश्विक रणनीति में भी कुछ मजबूती आई है।
Date:30-10-18
अरावली के उजड़ने से बढ़ रहा है रेगिस्तान
पंकज चतुर्वेदी, वरिष्ठ पत्रकार
संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम यानी यूनेप की रपट कहती है कि दुनिया के कोई 100 देशों में उपजाऊ या हरियाली वाली जमीन रेत से ढक रही है और इसका असर एक अरब लोगों पर पड़ रहा है। बेहद धीरे-धीरे और तत्काल न दिखने वाली गति से विस्तार पा रहे रेगिस्तान का सबसे ज्यादा असर एशिया में ही है। इसरो का एक शोध बताता है कि थार रेगिस्तान अब राजस्थान से बाहर निकलकर कई राज्यों में जड़ें जमा रहा है। इस बात पर बहुत कम लोग ध्यान देते हैं कि भारत के राजस्थान से सुदूर पाकिस्तान और उससे भी आगे तक फैले भीषण रेगिस्तान से हर दिन लाखों टन रेत उड़ती है और यह हरियाली वाले इलाकों तक न पहुंचे, इसकी सुरक्षा का काम अरावली पर्वतमाला सदियों से करती आई है। विडंबना यह है कि बीते चार दशकों में यहां खनन इतना बढ़ा कि कई जगहों पर पहाड़ की शृंखला की जगह गहरी खाई हो गई है।
गुजरात के खेड ब्रह्मा से शुरू होकर कोई 692 किलोमीटर तक फैली अरावली पर्वतमाला का विसर्जन देश के सबसे ताकतवर स्थान रायसीना हिल्स पर होता है, जहां राष्ट्रपति भवन है। अरावली पर्वतमाला को कोई 65 करोड़ साल पुराना माना जाता है और इसे दुनिया के सबसे प्राचीन पहाड़ों में एक गिना गया है। ऐसी महत्वपूर्ण प्राकृतिक संरचना का बड़ा हिस्सा बीते चार दशकों में न सिर्फ नदारद हुआ, बल्कि कई जगहों पर ऊंचे शिखर की जगह डेढ़ सौ फुट गहरी खाई हो गई। अरावली पर खनन से रोक का पहला आदेश 07 मई, 1992 को जारी किया गया। फिर 2003 में एम सी मेहता की जनहित याचिका सुप्रीम कोर्ट में आई। आदेश आते रहे, लेकिन दिल्ली में ही अरावली को उजाड़कर एक सांस्थानिक क्षेत्र, होटल, रक्षा मंत्रालय की बड़ी आवासीय कॉलोनी बना दी गई। अब जब दिल्ली में गरमी के दिनों में पाकिस्तान से आ रही रेत की मार और तपिश ने सबको तंग करना शुरू किया, तब यहां के सत्ताधारियों को इस पहाड़ी की चिंता हुई।
हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने राजस्थान सरकार को आदेश दिया है कि वह 48 घंटे में अरावली की पहाड़ियों के 115.34 हेक्टेयर क्षेत्र में चल रहे अवैध खनन पर रोक लगाए। राजस्थान के 19 जिलों से अरावली पर्वतमाला गुजरती है। यहां 45 हजार से ज्यादा वैध-अवैध खदानें हैं। इनमें से लाल बलुआ पत्थर का खनन बड़ी निर्ममता से होता है और उसका काम दिल्ली की निर्माण जरूरतों के लिए अनिवार्य है। अभी तक अरावली को लेकर रिचर्ड मरफी का सिद्धांत लागू था। इसके मुताबिक, सौ मीटर से ऊंची पहाड़ी को अरावली हिल माना गया और वहां खनन को निषिद्ध कर दिया गया था, लेकिन इस मामले में विवाद उपजने के बाद सर्वे ऑफ इंडिया ने अरावली की नए सिरे से व्याख्या की। इसके मुताबिक, जिस पहाड़ का झुकाव तीन डिग्री तक है, उसे अरावली माना गया। इससे ज्यादा झुकाव पर ही खनन की अनुमति है, जबकि राजस्थान सरकार का कहना था कि 29 डिग्री तक झुकाव को ही अरावली माना जाए। सुप्रीम कोर्ट ने पिछले दिनों जब सरकार से पूछा कि राजस्थान की कुल 128 पहाड़ियों में से 31 को क्या हनुमानजी उठाकर ले गए, तब सभी जागरूक लोग चौंके कि इतनी सारी पांबदी के बाद भी अरावली पर चल रहे अवैध खनन से किस तरह भारत पर खतरा है।
बीसवीं सदी के अंत तक अरावली के 80 प्रतिशत हिस्से पर हरियाली थी, जो आज बमुश्किल सात फीसदी रह गई है। हरियाली खत्म हुई, तो वन्य प्राणी, पहाड़ों की सरिताएं और छोटे झरने भी लुप्त हो गए। अरावली रेगिस्तान की रेत को रोकने के अलावा मिट्टी के क्षरण, भूजल का स्तर बनाए रखने और जमीन की नमी बरकरार रखने वाली कई जोहड़ व नदियों को आसरा देती रही है। वहां से गुजरने वाली साहिबी, कृष्णावति, दोहन जैसी नदियां अब लुप्त हो रही हैं। वाइल्ड लाइफ इंस्टीट्यूट की एक सर्वे रिपोर्ट बताती है कि जहां 1980 में अरावली क्षेत्र के महज 247 वर्ग किलोमीटर में आबादी थी, आज यह 638 वर्ग किलोमीटर हो गई है। साथ ही, इसके 47 वर्ग किलोमीटर में कारखाने भी हैं। ये सब भी रेगिस्तान के विस्तार में भूमिका निभा रहे हैं।
Date:30-10-18
Word Worries
University is a space for debate and dissent. DU seems to forget it.
Editorial
It is common wisdom that a university is not a place young people go to inoculate themselves against thought. But Delhi University’s recent deliberations reflect a desire to sanitise its students of all intellectualism. Its standing committee on academic affairs has just suggested that three books by academic Kancha Ilaiah Shepherd — God As Political Philosopher, Why I Am Not a Hindu and Post-Hindu India — be offloaded of the syllabus of post-graduate political science students. It has alleged that the works by one of India’s most respected Bahujan scholars are “insulting to Hinduism”. It has also come up with the gratuitous advice that the word Dalit be replaced by Scheduled Caste in academic discourse. A few months ago, a committee had suggested that academic Nandini Sundar’s acclaimed work on the Maoist insurgency in central India be struck off the reading list.
This is alarming, and reveals the university as a shrinking shell of ideas rather than a safe space for intellectual pursuit. It is, as if, under a new regime, all engagement with thought is now the responsibility of pygmy committees who only know how to hand out reductive labels (“anti-Hindu” or “urban Naxal”) to towering traditions of knowledge and analysis. Those academics who take offence to Sundar and Shepherd’s work have the freedom to dispute them — as the two scholars have the freedom of expression to argue their case.
But the committee’s strictures are not just objectionable on grounds of free speech. It begs the question: Who does the university think it is defending by casting intellectuals as opponents of society, community and religion? The recommendations, ham-handed as they are, peddle the dangerous myth that there is only one narrative — of nation, Hinduism, caste — that can exist and that is worth defending. Most importantly, they strike at the self-affirmation of India’s most underprivileged. The political project of equality in a stratified society like India depends not just on government policy and welfare but also on the contestations in the realm of ideas, whether it is Shepherd’s critique of what he sees as the DNA of exclusion in Hinduism or the history of anti-caste resistance contained in the word Dalit. A university becomes an ally in this project by allowing the free play of dissent and difference. Delhi University still has the chance to become such a space: Its academic council must reconsider its recommendations on Shepherd’s works.
Date:30-10-18
Breaking the cage
The CBI needs to undergo structural reforms to do its job well.
Prakash Singh, (The writer, formerly director general BSF, is presently chairman, Indian Police Foundation.)
The Central Bureau of Investigation (CBI) has from time to time courted controversies and criticism for its handling of politically sensitive cases. In important cases, the organisation has generally toed the government line. No wonder, it was described by a former Chief Justice of India as a “caged parrot”. However, it is for the first time that the CBI finds itself in a quagmire due to an internecine feud among its top officers. The Supreme Court has, over the years, been trying to insulate the CBI from political pressures and, in the process, give it a measure of autonomy. In Vineet Narayan vs. Union of India (1998), the apex court laid down that the director, CBI shall be appointed on the recommendation of a committee comprising the Central Vigilance Commissioner, vigilance commissioners, secretary (home) and secretary (personnel), and that he shall have a minimum tenure of two years.
The CVC was given statutory status and authorised to exercise superintendence over the CBI in the investigation of offences committed under the Prevention of Corruption Act. Justice J S Verma, author of the aforesaid judgment, was however distressed to record in 2009 that “even now the CBI continues to disappoint the people whenever it deals with cases against the powerful”. The Lokpal Act, 2013, modified the procedure for the selection of director CBI; it prescribed that he shall be appointed on the recommendation of a committee comprising the Prime Minister, Leader of the Opposition in the Lok Sabha and Chief Justice of India or a judge of the Supreme Court nominated by him. Alok Verma was appointed as director CBI by such a committee.
The crisis within the CBI started building up in October 2017 when the director, Alok Verma, opposed the appointment of Rakesh Asthana as special director in the CBI on the ground that he did not have a clean image. The CVC, however, supported Asthana with the result that he was elevated to the rank of special director, CBI. Fireworks started thereafter. Unfortunately, the Ministry of Personnel, under whom the CBI is placed, did nothing to douse the fires. The CVC also remained a mute spectator. It was only when things started getting out of hand that, on October 23, the CVC wrote to the government that allegations against the director were serious and that he should be divested of all powers. On October 24, the government intervened and, in the “interest of equality, fair play and principles of natural justice”, decided to send both the director and the special director on forced leave, and appointed Nageshwar Rao as the interim director.
The government’s handling of the matter has been far from satisfactory. It could have intervened in the initial stages and nipped the trouble in the bud. It was also unfortunate that government appointed as interim director a person whose own integrity is said to be suspect. The conduct of the CVC did not inspire confidence either. He gave the impression of having been pre-disposed towards Asthana at every stage. He blamed Verma for not cooperating and being non-compliant but downplayed the misconduct of Asthana, who was accused by the CBI of running an extortion racket in the garb of investigations.
The two principal actors in the sordid drama — Alok Verma and Rakesh Asthana — of course did not conduct themselves in a graceful manner. Verma’s leadership of the organisation leaves much to be desired. Asthana was the rampaging bull in the CBI shop. Nageshwar Rao, behaviing like an ek din ka sultan, carried out transfers which were manifestly mala fide. The opposition parties are regrettably trying to make political capital and Rafale-ise the controversy. The Supreme Court has applied the healing touch. It has asked the CVC to complete inquiry into the allegations against director, CBI within a period of two weeks. Significantly, the Court also ordered a retired apex court judge to supervise the inquiry. The Court has justifiably clipped the wings of the interim director by laying down that he shall attend only to routine matters and not take any policy decisions. Copies of all orders issued by him are to be placed before the Supreme Court in a sealed cover at the next hearing. The judicial intervention would hopefully set the CBI house in order.
However, structural reforms is what the CBI needs from a long-term point of view. It is ridiculous that India’s premier investigating agency was constituted through a resolution passed on April 1, 1963 and that the agency derives its power to investigate from the Delhi Special Police Establishment Act of 1946. As far back as 1978, the L P Singh committee recommended enactment of a “comprehensive central legislation to remove the deficiency of not having a central investigative agency with a self-sufficient statutory charter of duties and functions”. The Second Administrative Reforms Commission (2007) also suggested that “a new law should be enacted to govern the working of the CBI”. The 19th and 24th reports of the parliamentary standing committees (2007 and 2008) recommended that “the need of the hour is to strengthen the CBI in terms of legal mandate, infrastructure and resources”.
The 24th report also expressed itself in favour of CBI taking suo motu cognisance of crimes, and said that this would in no way affect the essentials of our federal structure. It is high time that the CBI is vested with the required legal mandate and is given pan-India jurisdiction. It must have inherent powers to investigate corruption cases against officers of All India Services irrespective of the assignments they are holding or the state they are serving in. The government would now do well to restore the institutional integrity of the CBI and give it the necessary autonomy so that it inspires public confidence.