31-05-2023 (Important News Clippings)
To Download Click Here.
Date:31-05-23
SoO Very Vital
Why GoI, Imphal must not revoke the Suspension of Operations agreement with Kuki rebels in Manipur.
TOI Editorials
Amit Shah’s ongoing visit to violence-hit Manipur is meant to chart a roadmap for peace. But peace won’t be easy given the huge trust gap between the state’s Meitei and Kuki communities. Addressing this deep polarisation will require long-term bridge-building between the communities. The state already has a strong tradition of women-led social groups who can play peacemakers. So, it’s welcome that Shah has already met a delegation of women leaders as part of his efforts to restore normalcy.
However, the immediate priority is to halt the violence. While state and central security forces have been carrying out targeted operations against miscreants, soldiers can’t be deployed at every location. Plus, Meiteis and Kukis continue to blame each other for the violence – Meiteis believe that Kuki militant outfits are instigating turmoil while Kukis put the blame on radical Meitei outfits like Arambai Tengol and Meitei Leepun. This in turn has led to some Manipur valley-based groups demanding that the Suspension of Operations (SoO) agreement with Kuki militants be revoked forthwith. But doing so would be adding more policy fuel to Manipur’s ethnic fire.
The SoO was inked between GoI, Manipur government and 25 Kuki militant groups in 2008. As per the agreement, the cadre of these outfits were to be confined to designated camps and their arms kept under lock. In fact, during an inspection of the army and state police earlier this month, the arms of the insurgents were found intact. Thus, there is no good reason for Manipur government and GoI to revoke the SoO, a move that is not only likely to exacerbate the current situation in Manipur but also have repercussions for other peace negotiations between Northeast insurgents and New Delhi.
Revoking the SoO could mean insurgents losing trust in the negotiationprocess. The last thing GoI wants, for example, is for the Naga negotiations to come undone. The Manipur government had viewed the SoO as a bugbear even before the current round of violence. It should forget this red herring and get down to fixing real policing issues.
सोशल पुलिसिंग का खौफ होना भी जरूरी है
संपादकीय
दिल्ली में एक 16 वर्षीय लड़की को एक सिरफिरे आशिक ने सरे- आम और सरे राह चाकू से गोदा, उसका सिर कुचला और मारकर चला गया। दर्जनों ने तमाशबीन बनकर देखा । समाजशास्त्र में ‘सोशल पुलिसिंग’ का जिक्र है। एक जमाने में चाचा-मामा, पिता के मित्र, बड़े भाई के परिचित और गांव-मुहल्ले के लोगों के डर से युवा गलत काम करने से या जवानी के अनैतिक भटकाव से बचते थे। खुलेआम मारपीट या लड़कियों पर फब्तियां कसने का खतरा यह था कि आसपास के लोग उसे पकड़ लेंगे। समाज की सामूहिक शक्ति का कम से कम छुटभैये अपराधियों में खौफ होता था। भारत में ब्रिटिश-काल से आज तक पुलिस – आबादी अनुपात बेहद कम रहा। आज प्रति दस लाख आबादी पर 151 पुलिसकर्मी हैं और बिहार जैसे राज्यों में मात्र 63, इनमें से भी तीन-चौथाई से ज्यादा गैर- पुलिस कार्यों, प्रोटोकॉल ड्यूटी, अभियोजन, अनुसंधान आदि में लगे रहते हैं। क्या 40 पुलिस वालों से दस लाख की आबादी पर प्रभावी नियंत्रण हो सकता है? लेकिन सोशल पुलिसिंग बेहद प्रभावी थी, जिससे सरेआम शारीरिक अपराध नहीं होते थे। फिर सामाजिक तानाबाना बदला और नैतिक मानदंडों की जगह चालाकी, धोखा, मौकापरस्ती और उदासीनता ने ले ली। लिहाजा सोशल पुलिसिंग की अनौपचारिक संस्था लगभग खत्म हो गई। किशोरावस्था में विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण स्वाभाविक है। लेकिन देश के शहरी ही नहीं ग्रामीण इलाकों में भी देखने में आ रहा है कि किशोर युवा प्यार में निराशा पर या नाकामी के प्रतिकार में अक्सर किशोरियों पर तेजाब फेंक देते हैं या हत्या कर देते हैं। समाज को जरूरत है कि बाहर पढ़ने निकली हर बेटी को अपनी बेटी समझे ताकि सोशल (न कि मॉरल) पुलिसिंग का खौफ बना रहे।
Date:31-05-23
जैव-ईंधन का अर्थशास्त्र
संपादकीय
सरकार ने पेट्रोल में एथनॉल की मात्रा बढ़ाकर 20 प्रतिशत (ई20) करने की समयसीमा अब 2025 कर दी है। पहले उसने 2030 तक यह लक्ष्य हासिल करने की योजना बनाई थी। सरकार को अपने इस निर्णय पर गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है। नीतियों का विश्लेषण करने वाली निजी संस्था ऑर्कस ने पिछले सप्ताह जारी एक रिपोर्ट में कहा है कि पेट्रोल में मिलाने के लिए आवश्यक 13.5 अरब लीटर एथनॉल का उत्पादन करने के लिए जरूरी कच्चा माल उपलब्ध नहीं है। यह रिपोर्ट नीति आयोग के प्रतिनिधियों की उपस्थिति में जारी की गई थी। जैव-ईंधन राष्ट्रीय नीति, 2018 में गन्ना, चावल और मक्का जैसे कृषि उत्पादों के उपयोग से अल्कोहल उत्पादन बढ़ाने की बात की गई है। इन फसलों का इस्तेमाल मुख्यतः भोजन, चारा एवं अन्य उद्देश्यों के लिए भी होता है। जमीन एवं जल दोनों की कमी होने से इन फसलों का रकबा बढ़ाने की संभावनाएं सीमित हैं। चावल और गन्ना जैसी फसलों की सिंचाई की आवश्यकता अधिक होती है, वहीं मुर्गीपालन एवं स्टार्च (शर्करा) उद्योग के लिए मक्के का उत्पादन पर्याप्त नहीं हो रहा है।
वर्तमान समय में एथनॉल का ज्यादातर उत्पादन चीनी उद्योग में होता है। इस उद्योग को एथनॉल तैयार करने के लिए गन्ने के सभी उत्पादों (रस, तैयार चीनी) का इस्तेमाल करने की अनुमति दी गई है। पिछले वर्ष 36 लाख टन चीनी का उपयोग अल्कोहल बनाने के लिए किया गया था। इस वर्ष यह मात्रा बढ़कर 45 से 50 लाख टन हो सकती है। हमें यह अवश्य ध्यान में रखना चाहिए कि एक किलोग्राम चीनी तैयार करने के लिए 1,200 से 1,500 लीटर पानी की आवश्यकता होती है। दुनिया में सबसे बड़ा चीनी और अल्कोहल उत्पादक ब्राजील और कई अन्य देश जैव-ईंधन के लिए इसलिए अधिक गन्ना उगा पाते हैं कि उनके पास कृषि योग्य भूमि काफी मात्रा में उपलब्ध है। भारत में इसकी गुंजाइश नहीं है। भारत में इन फसलों की उत्पादकता भी वैश्विक औसत से कम है और भोजन एवं चारे की आवश्यकता पूरी करना पहला लक्ष्य होता है। यह सच है कि पिछले वर्ष भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) ने एथनॉल उत्पादन के लिए 10 लाख टन सब्सिडी युक्त चावल मद्य निर्माणशालाओं (डिस्टिलरियों) को दिया था। मगर एफसीआई ने अपना भंडार कम करने के लिए ऐसा किया था। बार-बार ऐसा कर पाना संभव नहीं है। अब तो चावल अधिशेष मात्रा में नहीं रहने से इसके निर्यात पर भी अंकुश लगाया जा रहा है। कुपोषण जैसी समस्या का सामना कर रहे और विश्व भुखमरी सूचकांक में फिसले भारत जैसे देश में चावल एवं मक्का जैसी फसलों का एथनॉल उत्पादन के लिए अधिक इस्तेमाल समझ-बूझ भरा कदम नहीं लगता है।
20 प्रतिशत एथनॉल मिश्रण के लक्ष्य पर पुनर्विचार करने का एक और कारण मौजूद है। इस समय देश में जितने वाहन हैं वे अधिक मात्रा में एथनॉल युक्त ईंधन से चलने के लिए उपयुक्त नहीं है। कम मात्रा में मिश्रण करने के लिए भी वाहनों में बदलाव की जरूरत होगी। इसके अलावा हानिकारक गैसों का उत्सर्जन रोकने का लक्ष्य भी इससे पूरा होता नहीं दिख रहा है। विभिन्न अध्ययनों से पता चला है कि पेट्रोल में थोड़ी मात्रा में अल्कोहल मिलाना वाहनों के इंजन में बदलाव (ई20- वाहन) पर होने वाले निवेश को उचित ठहराने के लिए पर्याप्त नहीं है। नीति आयोग की एक रिपोर्ट के अनुसार प्रत्येक चौपहिया वाहन पर करीब 3,000-4,000 रुपये और प्रत्येक दोपहिये पर अतिरिक्त 1,000 से 2,000 रुपये खर्च आएगा।
दूसरी पीढ़ी (2जी) की तकनीक के उपयोग से पेट्रोल में मिलाने के लिए एथनॉल तैयार करना अधिक व्यावहारिक तरीका हो सकता है। इस तकनीक के माध्यम से पराली, पुआल, डंठल जैसे फसलों के अवशेष से अल्कोहल तैयार किया जाता है। पानीपत (हरियाणा), बठिंडा (पंजाब), बारागढ़ (ओडिशा) और नुमालीगढ़ (असम) में कम से कम चार ऐसे 2जी एथनॉल संयंत्र लगाए जा रहे हैं। ऐसे और संयंत्र लगाने से पेट्रोल में मिलाने के लिए अधिक मात्रा में एथनॉल उपलब्ध होगा और फसलों के अवशेष जलाने से होने वाला वायु प्रदूषण भी कम हो जाएगा।
एक-दूजे के काम आने वाला समाज चाहिए
आनंद कुमार, ( समाजशास्त्री )
दिल्ली के सघन इलाके शाहाबाद डेरी में देर शाम सरेराह एक युवक ने जिस तरह से एक किशोरी की बर्बर हत्या की, उसने कई सवालों को जन्म दिया है। यह चिंता स्वाभाविक है कि राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में, जहां पुलिस चुस्त मानी जाती है और वह सीसीटीवी जैसे साधनों से सुसज्जित है, वहां कोई व्यक्ति इतनी बेफिक्री से हत्या करके कैसे फरार हो सकता है? हालांकि, जल्द ही कातिल को गिरफ्तार कर लिया गया, पर इसने दिल्ली पुलिस की साख को धूमिल जरूर कर दिया।
इस हत्याकांड में इससे भी बड़ा सवाल आम लोगों की संवेदनहीनता को लेकर है। इंसान से अपेक्षा होती है कि राह चलते भी यदि कोई चोटिल हो जाए, तो वह उसकी सहायता करे। एकाध अपवादों को छोड़ दें, तो हम ऐसा करते भी हैं। इतनी सहानुभूति हममें होनी ही चाहिए कि विपरीत परिस्थितियों में हम एक-दूसरे का हाथ थाम सकें। मगर दिल्ली की इस घटना का वीडियो बता रहा है कि किशोरी के ऊपर लगातार प्राणघातक हमले को लोग देखते रहे और हत्यारे को पकड़ने की कोशिश नहीं की गई। कातिल को रोकने की अपनी नैतिक जिम्मेदारी किसी ने नहीं समझी।
आज से कुछ वर्ष पहले दिल्ली के ही एक प्रमुख इलाके में निर्भया कांड हुआ था। उस समय भी हमारी संवदेनशीलता पर सवाल उठे थे। उस घटना में पहले चलती बस में लड़की के साथ बर्बरता की गई और बाद में उसे और उसके दोस्त को घायलावस्था में सड़क के किनारे धकेल दिया गया था। नग्न अवस्था और करीब-करीब मृतप्राय पड़े उन दोनों तक सहायता पहुंचने में कुछ वक्त लगा था, पर उनको मदद मिली जरूर, और अगले ही दिन से पूरी दिल्ली सड़कों पर आ गई थी। ताजा वारदात में आम लोगों में जिम्मेदारी का अभाव क्या एक नई प्रकार की दिल्ली बनने का संकेत है? क्या राजधानी में ऐसे इलाके भी हो गए हैं, जहां के लोग एक-दूसरे की परवाह नहीं करते? क्या इसका कारण लोगों का प्रवासी होना, एक-दूसरे से परिचित न होना या अमीर व गरीब की दिल्ली में फर्क होना है? निश्चय ही, यह दुखद घटना दिल्ली के बदलते वर्ग-चरित्र पर सवाल उठा रही है।
यह हत्या युवकों और युवतियों के परस्पर संबंधों के समाजशास्त्रीय विश्लेषण की भी मांग करती है। माना जा रहा है कि इस बर्बरता के पीछे एकतरफा प्रेम भी एक पहलू है। इसका पता तो जांच के बाद चलेगा, लेकिन हताश होकर मित्र यदि हत्या पर आमादा हो जाए, तो यह चिंता की बात जरूर है। प्रेम को आखिर हम किस तरह से समझ रहे हैं? यह दरअसल एक लगाव है, अपनत्व है, अपनी सार्थकता के लिए दूसरे के संग, साथ, मैत्री और स्नेह की तलाश है। मगर प्रेम यदि कोई वस्तु मान ली जाए, जिसमें स्नेह न मिलने की सूरत में प्रेमी की हत्या का भाव बन जाए, तो संवेदनशील समाज को चिंतन करना चाहिए। प्रेम संबंध मानव समाज में सहज जीवन की बहुत पुरानी आधारशीला है। इसे दुनिया की हर सभ्यता में महत्व दिया गया है। मगर अपने देश में यदि नई पीढ़ी इसे भौतिक और तामसिक दृष्टि से देख रही है, जिसके परिणामस्वरूप वह अपने प्रेम की हत्या करने से भी नहीं हिचक रही, तो हमें इसकी पड़ताल करनी चाहिए।
इसके विश्लेषण में सबसे पहले उंगली परिवार, परवरिश और परिवेश पर उठेगी। मुमकिन है, यह हत्यारा भी ऐसे परिवार में पैदा हुआ हो, जिसमें प्रेम की सर्वोच्चता नहीं रही होगी। दूसरी उंगली मीडिया पर उठती है। विशेषकर सोशल मीडिया के मंच प्रेम को लेकर यदि इस तरह का प्रशिक्षण दे रहे हैं कि स्त्री भोग की वस्तु है और युवकों को यह अधिकार है कि यदि लड़की उसके प्रस्ताव को नहीं मान रही, तो उसके जीने का अधिकार खत्म कर देना चाहिए, तो इसे जांचना आवश्यक है। समाजशास्त्री किसी भी समाज के नियंत्रण के लिए मीडिया और पुलिस की भूमिका को काफी अहम मानते हैं। यदि इन दोनों की मौजूदगी में हत्या हो रही है, तो इसका सीधा सा अर्थ है कि इनका समाज पर नियंत्रण कमजोर हो रहा है। लिहाजा दिल्ली की घटना दुखद है, उससे भी ज्यादा शर्मनाक और सबसे ज्यादा चिंतनीय है।
हिंसा समाज का विखंडन है और हत्या समाज का नाश। अगर आज के युवक-युवतियां हत्या के भाव से एक-दूसरे से संबंध बनाएंगे, या हत्या के आतंक में जीने की विवशता महसूस करेंगे, तो इसे जंगलराज कहना ही बेहतर है, जहां हर जानवर दूसरे से डरा हुआ है और मौका मिलते ही दूसरे की हत्या करने में संकोच नहीं करता। यह संवेदना का अंत, सहानुभूति का पतन और सामाजिकता पर सवाल है।
इस तरह की घटनाएं शिक्षा-व्यवस्था की भी कलई खोलती हैं। पठन-पाठन का बेहतर माहौल सकारात्मक जीवन की संभावना बेहतर बनाता है। इसमें विरासत में मिले मूल्यों का ज्ञान भी हमें होता है। हमें यही उम्मीद करनी चाहिए कि ऐसी घटना अपवाद हो, लेकिन यदि यह प्रवृत्ति बन रही है, जो हाल-फिलहाल की घटनाओं को देखकर लगता भी है, तो हमें सचेत हो जाना चाहिए। हमें अपनी शिक्षा-व्यवस्था की समाजशास्त्रीय पड़ताल करनी चाहिए।
मानवीय व्यवहार में होने वाले विचलन को थामने के लिए सामाजीकरण की प्रक्रिया को बेहतर बनाना आवश्यक होता है। इसके चार प्रमुख माध्यम हैं- परिवार, पड़ोसी, विद्यालय और राज्य-सत्ता। इन चारों की अलग-अलग जिम्मेदारी होती है। चूंकि हत्या कानून-व्यवस्था में हस्तक्षेप का मसला है, इसलिए ताजा घटना राज्य-सत्ता की जिम्मेदारी से जुड़ती है। हम यही अपेक्षा करेंगे कि हमारी शासन-व्यवस्था में कानून की साख को लेकर नई पीढ़ी में यदि कोई संदेह पनप रहा है, तो उसका तत्काल निवारण होना चाहिए। इस हत्यारे ने भी अपनी नाराजगी जाहिर करने के लिए हत्या जैसी कार्रवाई में कोई संकोच, भय या घबराहट नहीं महसूस की। यहां युवा संगठनों की भूमिका भी कमतर नहीं मान सकते। हमें अपनी युवा नीति के स्त्री-पुरुष संबंधी पक्ष की पड़ताल करनी होगी।
जहां तक समाज में बढ़ती संवेदनहीनता का मसला है, तो हमें समझना होगा कि यदि हम दूसरे के काम नहीं आ सके, तो खुद मुश्किलों में घिरने पर दूसरे की मदद के लिए तरस सकते हैं। यह सामाजीकरण मीडिया और परिवार के जरिये किया जा सकता है। इसमें सरकार की कोई खास भूमिका नहीं है। संवेदनशीलता दिखाने वाले नौजवानों को सम्मानित करने का काम तेज करना होगा। इसका अन्य बच्चों पर काफी ज्यादा असर पड़ता है। शिक्षण संस्थानों की भूमिका भी अहम है, हालांकि इसके लिए जरूरी है कि हर बच्चा शिक्षा पूरी करे।
Date:31-05-23
भारत से रोजी-रोटी के रिश्तों को क्या दिशा देगा नेपाल
पुष्परंजन, ( वरिष्ठ पत्रकार )
हर्क बहादुर गुरुंग को मालूम नहीं नेपाल की नई पीढ़ी कितना जानती है। गंडकी अंचल के लामजुंग में जन्मे गुरुंग ने पटना विश्वविद्यालय से भूगोल में एमए करने के बाद यूनिवर्सिटी ऑफ एडिनबर्ग से पीएचडी की थी। वह नेपाल के पहले स्कॉलर थे, जिन्हें डॉक्टरेट की उपाधि मिली थी। 15 पुस्तकें और 675 अकादमिक आलेख देने वाले डॉक्टर गुरुंग तराई और पहाड़ के बीच विभाजन रेखा खींच देने की वजह से बहुचर्चित हुए थे। उन्होंने नेशनल कमीशन ऑन पॉपुलेशन की अध्यक्षता भी संभाली थी। 1983 में गुरूंग कमीशन की रिपोर्ट नेपाल सरकार को सौंपी गई, जिसमें सुझाव था कि भारत-नेपाल के बीच जो लोग आवाजाही करते हैं, उनका प्रवेश पहचान पत्र या पासपोर्ट के आधार पर हो।
इस रिपोर्ट में 1971 की जनगणना के हवाले से स्पष्ट किया गया था कि तराई में रहने वाले 60 लाख 35 हजार 526 लोग विदेशी मूल के हैं। इनमें से 97.7 प्रतिशत लोग भारत में जन्मे हैं। वह दौर राजतंत्र का था और पंचायत प्रणाली वाली सरकार की नीतियां गुरुंग कमीशन की रिपोर्ट के आधार पर तय होनी थी। डॉक्टर गुरुंग 23 सितंबर, 2006 को ताप्लेजुंग में हुई एक दुर्घटना में 23 लोगों के साथ मारे गए थे। मगर जो कुछ वह बो गए, उसकी फसल काटने की कवायद समय-समय पर होती रही है। जो कुछ गुरुंग कमीशन ने 40 साल पहले सुझाया था, उस अवधारणा से नेपाली लीडरशिप मुक्त नहीं हो पाई। नेपाल में ईपीजी रिपोर्ट फिर चर्चा में है। डॉक्टर बाबूराम भट्टराई ने प्रधानमंत्री रहते 2011 में उभयपक्षीय विशिष्ट समूह बनाने का प्रस्ताव तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को दिया था। मनमोहन सिंह को लगा था कि यह बर्र के छत्ते में हाथ डालने जैसा है, चुनांचे वह इसे टाल गए थे।
जनवरी 2016 में तत्कालीन प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली ने एक बार फिर माहौल बनाया, उनके समकक्ष नरेंद्र मोदी भी ईपीजी पर सहमत हो गए। अंतत: भारत-नेपाल के प्रसिद्ध लोगों का आठ सदस्यीय समूह बना, जिसका नाम रखा गया- ईपीजी (इमीनेंट पर्सन्स ग्रुप)। नेपाल की ओर से इस समूह के संयोजक हैं, दिल्ली में नेपाल के राजदूत रह चुके भेख बहादुर थापा और भारत में भगत सिंह कोश्यारी इसका नेतृत्व कर रहे थे। ईपीजी की रिपोर्ट अब तक सार्वजनिक नहीं हुई है। इसमें चार-चार सदस्य दोनों ओर से हैं, लेकिन इनमें से तराई की भावनाओं को समझने वाला कौन-सा चेहरा है?
दिलचस्प है कि 2 जुलाई, 2018 को ईपीजी की नौवीं व आखिरी बैठक गुरुंग कमीशन की छाया से मुक्त नहीं हो पाई थी। समूह के सदस्य ‘ऑफ द रिकार्ड’ बातचीत में मानते हैं कि भारत-नेपाल संधि 1950 में बदलाव पर सहमति है। दूसरा, दोनों देशों की आवाजाही में लोगों के लिए पहचान पत्र दिखाना अनिवार्य किया जाए। तीसरा, नेपाल में काम करने के वास्ते वर्क परमिट हो। इससे भारत-नेपाल के बीच, बेटी-रोटी के संबंध पर क्या असर पड़ेगा?
प्रचंड 88 सदस्यीय जंबो शिष्टमंडल के साथ भारत यात्रा पर आ रहे हैं। 29 मई को 17 खरब 51 अरब 31 करोड़ का बजट पास तो हो गया, पर उसके लक्ष्य पूरे करने के वास्ते दिल्ली से भी आर्थिक मदद की जरूरत होगी। प्रचंड ने प्रतिनिधि सभा को चार दिवसीय भारत यात्रा के एजेंडे से अवगत करा दिया है। बांग्लादेश विद्युत निर्यात के वास्ते भारत से समझौता कर नया कॉरिडोर विकसित करना, भैरहवा एयरपोर्ट को हवाई रूट दिए जाने का प्रस्ताव, 136 किलोमीटर काठमांडू-रक्सौल रेल मार्ग, ऊर्जा समझौता, ई-वॉलेट, नेपाली टीवी को भारत में दिखाने की अनुमति मुख्य एजेंडा है। मगर लिपुलेख जैसे जो विवादित विषय हैं, क्या सुलझा लिए जाएंगे?
30 मई को अनलीशिंग नेपाल पुस्तक के लेखक सुजीत शाक्य ने कांतिपुर पोस्ट में अपने एक लेख में लिखा है, ‘पुष्पकमल दाहाल क्या पापुआ न्यू गिनी के प्रधानमंत्री की तरह मोदी के चरणों में लोट जाएंगे?’ प्रचंड ने अपने कालखंड में न्यू मोदी-लेखनाथ विद्युत प्रसारण लाइन तैयार कर प्रधानमंत्री मोदी से निजी संबंधों को प्रगाढ़ किया है। उनकी भारत यात्रा पर न सिर्फ चीनी लॉबी की नजर है, बल्कि अमेरिकी भी इसकी समीक्षा करेंगे कि प्रचंड किस दिशा में आगे बढ़ रहे हैं।