30-11-2017 (Important News Clippings)

Afeias
30 Nov 2017
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Date:30-11-17

End mob rule

Law is needed to make instigators of violent protests criminally liable

TOI Editorials

The right to protest peacefully is integral to democracy. But so is the rule of law which includes protection of life and property from wanton damage – else we get mobocracy in place of democracy. Too often, this difference is ignored in India. While peaceful protesters are browbeaten, violent mobs are given free rein. Thus protesters repeatedly riot, kill, maim and damage property, public and private, as a way to attract attention or display anger. Often, this criminal conduct goes unchallenged and is rationalised under the rubric of protest – governing parties even look on benignly in the belief it is helping them buttress vote banks.

Therefore, it is heartening that Supreme Court has asked government to bring in legislation which prosecutes those who are responsible for damages and extracts compensation from them. The law’s aim and remit should be to cover people who instigate the protests. Two, they should also be held accountable when it comes to fixing liability. Such legislation should be easy to enact as apex court directions have covered this ground. The directions even allow high courts to take suo motu cognisance of violent disruptions, which was what happened in Haryana following the recent conviction of Ram Rahim, head of Dera Sacha Sauda.

If, for example, the Karni Sena knew that if it wrecked movie theatres it would have to pay to rebuild them, and its leaders would have to face jail time, it would have second thoughts about issuing blood curdling threats. Legislation fixing liability must not exclude political parties from their purview, else it will be toothless. In keeping with Supreme Court directions, law enforcement authorities should also be held accountable whenever they are negligent in controlling mob violence.


Date:30-11-17

सही निर्णय

संपादकीय

भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण (ट्राई) की सराहना की जानी चाहिए क्योंकि उसने यह संदेश दिया है कि इंटरनेट पर किसी का स्वामित्व नहीं है और इसे सबके इस्तेमाल के लिए उपलब्ध होना चाहिए। नियामक ने एकदम उचित कदम उठाया है। मंगलवार को उसने अनुशंसा की कि इंटरनेट सेवा प्रदाताओं को इंटरनेट के तमाम डाटा को समानता से व्यवहार में लाना चाहिए। यानी वे किसी खास सेवा की गति तेज या धीमे नहीं कर सकते, न ही उनके लिए अलग दरों पर शुल्क वसूल सकते हैं। इस दलील में भी काफी दम है कि दूरसंचार कंपनियों को यह अनुमति नहीं होनी चाहिए कि वे साइटों को धीमी और तेज गति वाले खांचे में डाल सकें, क्योंकि ऐसा करने से वे सूचना और मनोरंजन की निगरानी करने वाले बन जाएंगे। इसके अलावा यह उन स्टार्टअप को भी नुकसान पहुंचाएगा जिनके पास तेज इंटरनेट सेवा के लिए अतिरिक्त भुगतान करने को पैसे नहीं हैं। ये प्रस्ताव अहम हैं क्योंकि वे ऐसे समय आए हैं जब अमेरिका में फेडरल कम्युनिकेशंस कमीशन (एफसीसी) उन ऐतिहासिक कायदों को खत्म करने जा रहा है जो वहां मुक्त और निशुल्क इंटरनेट सुनिश्चित करते हैं। इसके बाद वहां इंटरनेट सेवा प्रदाताओं को यह इजाजत होगी कि वे उपभोक्ताओं के लिए सामग्री खुद तय कर सकें।

एक और सुविचारित कदम में ट्राई ने विषयवस्तु मुहैया कराने वाले मंचों को नेट निरपेक्षता के दायरे से बाहर रखा है। इसका मतलब यह हुआ कि भारती एयरटेल और रिलायंस जियो जैसे दूरसंचार सेवा प्रदाता, जिनके पास अपने मंच हैं और जो वहां अपने नेटवर्क पर सेवाएं मुहैया करा रहे हैं वे उनके लिए अलग-अलग शुल्क वसूल कर सकते हैं। साथ ही उसने यह भी सुनिश्चित किया है कि नए कारोबारियों को अपने कद्दावर प्रतिद्वंद्वियों के चलते ज्यादा नुकसान न उठाना पड़े। इसके लिए उसने मोबाइल सेवा प्रदाताओं के विशिष्टï विषयवस्तु प्रदान करने वालों के साथ समझौतों को प्रतिबंधित करने की बात कही है। अगर इसकी इजाजत दी जाती है तो लोगों को अलग-अलग सेवा प्रदाताओं का इंटरनेट इस्तेमाल करने पर अलग-अलग गति मिलेगी, जो कम-ज्यादा होगी। ट्राई चाहता है कि उसकी अनुशंसाओं को सभी दूरसंचार सेवा प्रदाताओं के लाइसेंस में स्पष्ट तौर पर उल्लिखित किया जाए। परंतु यहां कुछ महत्त्वपूर्ण बातें हैं जिन पर ध्यान देना आवश्यक है। ट्राई के प्रस्तावों का परीक्षण करते हुए दूरसंचार विभाग को अनुशंसाओं की कुछ कमियां दूर करने का प्रयास करना चाहिए। उदाहरण के लिए नियामक ने ‘विशिष्ट सेवाओं’ को नेट निरपेक्षता के सिद्घांत से रियायत प्रदान की है। उसने इन सेवाओं को परिभाषित भी नहीं किया है। इस मुद्दे पर स्पष्टता का अभाव कुछ सेवा प्रदाताओं को यह अवसर देता है कि वे नीतिगत कमियों का फायदा उठाएं। एक अन्य चिंता एक उद्योग जगत के नेतृत्व वाली बहुअंशधारक संस्था से जुड़ी है जिसका काम होगा उचित स्पष्टीकरण के साथ नेट निरपेक्षता को लागू करना। चूंकि देश में स्व नियमन करने वाले संस्थान बहुत कम सफल हुए हैं इसलिए एक निष्पक्ष निगरानी ढांचे की आवश्यकता है ताकि दूरसंचार उद्योग के काम में पारदर्शिता लाई जा सके। चाहे जो भी हो लेकिन दूरसंचार विभाग इस स्थिति में है कि लाइसेंस शर्तों के उल्लंघन के किसी भी मामले की जांच कर सके। उसके पास इसके प्रवर्तन के लिए आवश्यक प्रणाली मौजूद है।

आखिर में, नियामक को व्हाट्स ऐप और फेसबुक जैसे मंचों पर जल्द निर्णय लेना होगा क्योंकि इस क्षेत्र में लागत और लाभ के मामलों में नियामकीय हस्तक्षेप की अलग-अलग चर्चा को लेकर नेट निरपेक्षता के हिमायतियों ने खूब आलोचना की है। ऐसे कई संचार ऐप वही सेवाएं प्रदान कर रहे हैं जो दूरसंचार कंपनियां प्रदान करती हैं। कंपनियों को कॉल से आने वाले राजस्व में भारी कमी आई और दूरसंचार कंपनियां नहीं चाहतीं कि ये संचार ऐप उनके इस क्षेत्र में दखल बढ़ाएं।


Date:30-11-17

महिलाओं को बिज़नेस में लाना है तो मौके भी देने होंगे

यह अच्छी बात है कि उस सम्मेलन में 53 प्रतिशत महिलाएं हैं और विशेष अतिथि इवांका खुद भी उद्यमी हैं।

संपादकीय

हैदराबाद के वैश्विक उद्यमशीलता सम्मेलन (जीईएस) में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रप्म की बेटी और उनकी सलाहकार इवांका ने व्यवसाय में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने का आह्वान करके भारत में नए संदेश का संचार किया है। यह अच्छी बात है कि उस सम्मेलन में 53 प्रतिशत महिलाएं हैं और विशेष अतिथि इवांका खुद भी उद्यमी हैं। सम्मेलन का ध्येय वाक्य भी ‘महिलाएं प्रथम, सबको समृद्धि’ है। इवांका ने रेखांकित किया है कि उद्यम के क्षेत्र में महिलाओं के आगे आने से सिर्फ भारत की समृद्धि के साथ रोजगार के अवसर भी बढ़ेंगे। प्रधानमंत्री ने इस सम्मेलन को सिलिकॉन वैली और हैदराबाद के बीच सेतु बताते हुए भारतीय मिथक का स्मरण दिलाया कि यहां दुर्गा शक्ति की प्रतीक रही हैं। इसके साथ यह भी देखने की जरूरत है कि भारत में उद्यमशीलता के लिए महिलाओं को किस हद तक सुरक्षा, शिक्षा और मौके दिए जा रहे हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि इंदिरा नुयी, नैना लाल किदवई, किरण शा मजुमदार, चंदा कोचर, इंदू जैन और नीलम धवन जैसी महिलाएं व्यावसायिक प्रतिष्ठानों के शिखर पर हैं। व्यवसाय करने में बढ़ी सहूलियत के कारण महिलाएं भी भागीदारी बढ़ाने का प्रयास कर रही हैं। उधर अमेरिका में निजी क्षेत्र में 30 प्रतिशत कंपनियों का स्वामित्व महिलाओं के हाथ में है और वैसे 46 प्रतिशत उद्योगों का 50 प्रतिशत शेयर भी स्त्रियों के पास है। 1.2 खरब डॉलर के राजस्व वाली इन कंपनियों ने तकरीबन दो करोड़ लोगों को रोजगार दे रखा है। इसके बावजूद 2008 की मंदी के साथ ही यह बात शिद्दत से महसूस की गई है कि व्यासायिक घरानों के बाहर की स्त्रियों के लिए पूंजी जुटा पाना कठिन है। वित्तीय संस्थाएं उन पर उतना भरोसा नहीं करतीं जितना पुरुषों पर। तमाम कंपनियों के बोर्ड रूम में आज भी पुरुषों का दबदबा है और बहुराष्ट्रीय कंपनियों में आज भी लैंगिक भेदभाव है। वह चाहे पदों के स्तर पर हो या वेतन के स्तर पर। उस कट्‌टरता पर भी लगाम लगनी चाहिए, जो कभी धर्म के नाम पर तो कभी आस्था के नाम पर महिलाओं की स्वाधीनता पर कुठाराघात करती है। यह सही है कि भारत में दुर्गा और लक्ष्मी जैसी देवियां पूजी जाती हैं लेकिन, आचरण उसके विपरीत होता है। आशाजनक है कि सम्मेलन की भावना स्त्रियों के आर्थिक सबलीकरण की दिशा में है उसी में मानवता का कल्याण भी है।


Date:30-11-17

उद्यमशीलता दिखाकर कारगर हल खोजने होंगे

सस्ते विकल्प देने की हमारी क्षमता और उदारीकरण के फायदे गरीबों तक पहुंचाने की जरूरत।

शशि थरूर , विदेशमामलों की संसदीय समिति के चेयरमैन और पूर्व केंद्रीय मंत्री

हैदराबाद के आंत्रप्रेन्योरशिप पर वैश्विक शिखर सम्मेलन में भारतीय आंत्रप्रेन्योर से इवांका ट्रम्प जैसी शख्सियतों की चर्चा ने काफी उत्सुकता जगाई है। यह आयोजन ऐसे समय हो रहा है जब भारतीयों ने आंत्रप्रेन्योरशिप को उत्साह के साथ गले लगाया है। भारतीय उद्यमशीलता की परम्परा नई नहीं है। भारतीयों ने सिर्फ सिलकॉन वैली में बल्कि लंदन, हॉन्गकॉन्ग और पूर्वी अफ्रीका के कई हिस्सों में स्टार्टअप्स के जरिये इसे सिद्ध किया है।देश में स्टार्टअप के प्रसार का परिणाम है कि भारत में दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा स्टार्टअप इकोसिस्टम बन गया है। उम्मीद है कि 2016 में 4700 स्टार्टअप से बढ़कर 2020 तक इनकी संख्या 11 हजार तक पहुंच जाएगी। 1991 के उदारीकरण के बाद से भारतीय अर्थव्यवस्था ने भी खुद में नाटकीय बदलाव लाया है, जब डॉ. मनमोहन सिंह ने संसद में कहा था कि धरती पर कोई ऐसी शक्ति नहीं है, जो उस विचार को रोक सके, जिसका वक्त चुका है। यह विचार था भारतीय अर्थव्यवस्था को खोलने का। इसके कारण हम 2008 के अार्थिक संकट के बाद वैश्विक अर्थव्यवस्था में मची उथलपुथल का सामना कर सके। इसने हमें क्रय शक्ति क्षमता के आधार पर जापान को पीछे छोड़कर दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बना दिया।

चूंकि औसत आयु हमारे पक्ष में है तो सर्वश्रेष्ठ तो अभी आना है। यूरोप में 2020 तक औसत आयु 46, जापान में 47 और यहां तक कि युवा आप्रवासियों से संचालित अमेरिका में भी यह 40 वर्ष होगी लेकिन, भारत में तब औसत आयु 29 होगी। आधी आबादी तो 25 के नीचे और करीब 65 फीसदी आबादी 35 वर्ष के नीचे होगी और स्कूल से आने वाले युवा ऊर्जावान, प्रतिस्पर्धी, उत्पादक वर्कफोर्स में शामिल होंगे। भारत दुनिया का अगला इंजन हो सकता है।लेकिन यह आबादीगत फायदा केवल तभी हमारे पक्ष में काम करेगा, जब हम युवाओं को 21वीं सदी में उपलब्ध अवसरों का लाभ लेने लायक शिक्षित-प्रशिक्षित करेंगे। वे अवसर जो आंत्रप्रेन्योर निर्मित कर रहे हैं। यदि हम अशिक्षित (या कम शिक्षित), बेरोजगार (और व्यापक रूप से रोजगार लायक नहीं) और इसलिए अत्यधिक कुंठित युवा महिला-पुरुष पैदा करते रहे तो आबादीगत लाभ हमारे लिए विनाश भी साबित हो सकता है। भारत की क्षमता का दोहन करने तथा उम्मीद के मुताबिक सामाजिक आर्थिक बदलाव लाने के लिए हमें अत्यधिक शिक्षित और प्रेरित आंत्रप्रेन्योर चाहिए।

कुछ सफल होंगे और कुछ संख्या में विफल भी होंगे लेकिन, वे सब हमारे अार्थिक क्षेत्रों में ऊर्जा भर देंगे और आंत्रप्रेन्योर संबंधी प्रयास का वातावरण विकसित करने में मदद करेंगे। हमारी ‘जुगाड़’ की भारतीय पद्धति ने अलग हटकर सोचने, परिचित चीजों को नए उद्देश्य से इस्तेमाल कर सीमित संसाधनों में ही समाधान तलाशने के तरीके के रूप में काफी ध्यान खींचा है। हालांकि, आलोचक कहते हैं, जहां यह भारतीय कल्पनाशीलता दिखाती है वहीं आमतौर पर इसमें श्रेष्ठता निर्मित करने की बजाय काम निकालने का उद्देश्य होता है। लेकिन, जुगाड़ की भावना इससे काफी आगे जाती है। ‘फ्रुगल इनोवेशन’ को गूगल सर्च करें और पहले 20 भारतीय इनोवेशन से ही जुड़े होंगे। वहां हाथ में थामे जाने वाला इलेक्ट्रोकार्डियोग्राम (ईसीजी) डिवाइस है, जो 50 हजार रुपए का है (सबसे सस्ता विकल्प एक लाख रुपए से ज्यादा का है)। इससे कार्डियोग्राम की लागत 50 रुपए रह गई है। डेढ़ हजार रुपए का टाटा स्वच्छ एयर प्यूरीफायर है (अपने निकटतम प्रतिस्पर्धी से 10 गुना सस्ता)। भारतीय बायोटेक कंपनियों ने इंसुलिन इंजेक्शन और हेपेटाइटिस-बी वैक्सीन की कीमत एकदम कम कर दी है। वैक्सीन की कीमत तो 15 डॉलर (960 रुपए) से घटकर 10 सेंट (साढ़े छह रुपए) रह गई है)।

भारतीय उद्यमशीलता की मौलिकता ने चकित करने वाली संख्या में दुनिया को मात देने वाले इनोवेशन दिए हैं। टाटा नैनो से ज्यादा प्रभावशाली तो कुछ भी नहीं, जिसकी कीमत पश्चिम की किसी लग्ज़री कार में लगने वाले हाईएंड डीवीडी प्लेयर जितनी है। एल्यूमिनियम इंजन का अाविष्कार करके स्टील का इस्तेमाल घटाने, पहियों को चेसिस के किनारे तक ले जाकर जगह बढ़ाना, मॉड्यूलर डिजाइन ताकि कार को किट से भी असेंबल किया जा सके। इन सबने यह पक्का किया कि कम लागत में भी अधिकतम संभव सुविधा दी जा सकती है।

इसी प्रकार मंगलयान मिशन में हमें करीब 492 करोड़ रुपए लगे, जो हॉलीवुड स्पेस मूवी ग्रेविटी के बजट से कम थे और नासा के खुद के मंगल कार्यक्रम की 4,500 करोड़ रुपए की लागत का सिर्फ 11 फीसदी। लीक से हटकर सोचना सीमित संसाधनों के भीतर इनोवेटिव समाधान, ऐसी बातें हैं जो हम करने लगे हैं। हमारे देश ने ही हजारों साल पहले शून्य का आविष्कार किया था। लेकिन, आज हम जो भी आविष्कार करते हैं वह कभी-कभी शून्य लगता है। उद्यमशीलता कुंजी है। मुझे महान उद्योगपति जमशेदजी टाटा की वह कहानी बहुत प्रेरित करती है कि 1890 में उन्हेंं बॉम्बे की पाइकस् होटल में जाने नहीं दिया गया, जहां बोर्ड लगा था, ‘भारतीयों कुत्तों को प्रवेश नहीं।’ इसलिए उन्होंने कहीं अधिक भव्य होटल बनाया, जो भारतीयों के लिए खुला था- ताजमहल पैलेस होटल, जिसे आज दुनिया के शानदार होटलों में शुमार किया जाता है, जबकि पाइकस् कब का बंद हो चुका है।

जब उन्हीं टाटा ने 1905 में भारत का पहला स्टील का कारखाना स्थापित किया तो एक ब्रिटिश अधिकारी ने तिरस्कार करते हुए कहा कि यदि कोई भारतीय स्टील पैदा कर दे तो वह खुद आकर इसका एक-एक आउंस खा जाएगा। खेद है कि वह इतना लंबा नहीं जिया कि जमशेदजी टाटा के उत्तराधिकारियों को कोरस के रूप में ब्रिटिश स्टील के शेष हिस्से का अधिग्रहण करते देखता। कहने का आशय यह कि भारतीय यह कर सकते हैं। लेकिन, जहां उद्यमी फलते-फूलते हैं वह बाजार उन्हें आकर्षित नहीं कर सकता, जहां जाना उनके बस की बात हो। हमें वैश्वीकरण और उदारीकरण के फायदे गरीबों को देने होंगे। हम 9 फीसदी से वृद्ध करंे या अभी की तरह 5.7 फीसदी की दर से करें, हमारे विकास का फोकस हमेशा हमारी आबादी के सबसे निचले 25 फीसदी तबके पर होना चाहिए। हमारी समस्याएं वे ही हैं, जैसी हमेशा रही हैं। चुनौती यही है कि हम उद्यमशीलता दिखाकर पुराने प्रश्नों के नए उत्तर खोजें।


Date:29-11-17

निबटने की तैयारी

बाल मुकुंद सिन्हा

शनिवार को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने देश से कुपोषण खत्म करने के लिए एक उच्चस्तरीय बैठक की है। बैठक का उद्देश्य 2022 तक इस समस्या का प्रभावी हल ढूंढ़ना था। इसमें प्रधानमंत्री कार्यलय के अलावा नीति आयोग तथा अन्य संबद्ध मंत्रालयों के वरिष्ठ अधिकारियों को भी बुलाया गया था। बैठक में प्रधानमंत्री ने इस बात पर जोर दिया कि साल 2022 तक इन प्रयासों के परिणाम धरातल पर स्पष्ट नजर आने चाहिए। 2022 में भारत की आजादी के 75 साल पूरे होने जा रहे हैं। बैठक के बाद सरकार कुपोषण की समस्या दूर करने के लिए कौन से नए कार्यक्रम बनाती है, पुराने कार्यक्रमों में क्या सुधार किए जाएंगे, इनका खाका तो अभी स्पष्ट नहीं है। लेकिन यह समस्या प्रधानमंत्री की नजरों में है और वे इसके निदान के लिए अपनी प्रशासनिक मशीनरी को सक्रिय करना चाहते हैं, यह खुशी की बात है।

देश में कुपोषण की भयावहता का एहसास ‘‘द ग्लोबल न्यूट्रीशन रिपोर्ट 2017’ के सामने आने से भी हुआ है, जो इसी महीने जारी हुआ है। इस रिपोर्ट में 140 देशों की खाद्य पोषण की स्थिति का अध्ययन किया गया है। रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत में मां बनने योग्य 50 प्रतिशत महिलाएं स्वयं अल्प पोषित हैं और खून की कमी से ग्रस्त हैं। बच्चों को कुपोषण की समस्या तब से प्रभावित करना शुरू करती है, जब वे मां के गर्भ में होते हैं। मां के कमजोर और एनिमिक होने के कारण गर्भस्थ शिशु को पर्याप्त खुराक नहीं मिल पाती। इससे उसके अंगों का विकास बाधित होता है और वह कमजोर, अल्पविकसित या कम वजन वाले शिशु के रूप में पैदा होता है। वह समय से पहले पैदा हो सकता है। ऐसे बच्चे बहुत जल्दी बीमारियों के शिकार बन जाते हैं या उनका मुकाबला नहीं कर पाते। यदि मां कमजोर हो तो वह प्रसव की तकलीफ नहीं झेल पाती। प्रसूती महिलाओं की मृत्यु दर बहुत ज्यादा है।बच्चे के जन्म से छह महीने की अवधि तक कमजोर माताएं उसे पर्याप्त दूध नहीं पिला पातीं। इससे नवजात शिशु पर कुपोषण की दूसरी मार पड़ती है। इससे उसका सिर्फ शारीरिक ही नहीं, मानसिक विकास भी अवरुद्ध होने लगता है। उनकी आंखें कमजोर हो सकती हैं, सुनने की क्षमता कम हो सकती है।

ऐसे बच्चे जीवित बच भी जाएं तो वे दिमाग से या देह से कमजोर होते हैं। बड़े होने पर उनकी कार्य या उत्पादनक्षमता सामान्य वयस्क की तुलना में कम होती है। बच्चों पर कुपोषण का तीसरा बड़ा हमला तब शुरू होता है, जब उनसे मां का दूध छूटता है और वे ठोस आहार लेना शुरू करते हैं। गरीबी और भोजन की पर्याप्त उपलब्धता नहीं होने के कारण उन्हें वे विभिन्न प्रकार के पोषक तत्व नहीं मिल पाते, जिनकी उनके शरीर को जरूरत होती है। कई बार उन्हें भर पेट भोजन तो मिलता है, लेकिन भौगोलिक कारणों से उसमें विविधता नहीं होती। जैसे चावल उत्पादक क्षेत्र में लगातार चावल और आलू खाने वाले बच्चे में प्रोटीन और विटामिनों की कमी हो सकती है। छोटे बच्चे अपने आप नहीं खा पाते। उन्हें कई बार छोटी छोटी खुराक की जरूरत होती है। ऐसे खाते-पीते परिवारों में भी, जहां मां-बाप काम के लिए बाहर निकल जाते हैं तो बच्चों को कोई खिलाने वाला नहीं होता, बच्चे कुपोषण के शिकार बन जाते हैं।संतुलित और पर्याप्त भोजन के अभाव में कुपोषण का शिकार कोई भी बन सकता है। सिर्फ चाकलेट और बिस्कुट खाने वाला बच्चा भी। पिजा बर्गर और कोक से भूख मिटाने वाला वयस्क भी और लगातार खिचड़ी या दलिया खा कर जीवित रहने वाला वृद्ध भी।

मूल कारण है संतुलित आहार की कमी और पर्याप्त पोषक तत्वों का अभाव। इस तरह कुपोषण का एक कारण लापरवाही और जानकारी का अभाव भी है। लेकिन इसमें दो राय नहीं है कि इसकी सबसे बुरी मार गरीबों पर पड़ती है, क्योंकि वे इस कमी की पूर्ति किसी भी और तरीके से नहीं कर पाते। गरीबों में भी औरतें और बच्चे इसका पहला शिकार बनते हैं। गर्भ धारण करने, प्रसव और शिशु के पालन के लिए स्त्रियों के शरीर को अतिरिक्त पोषक तत्वों की जरूरत पड़ती है। इसके अभाव में उनका शरीर स्वाभाविक रूप से अपना काम नहीं कर पाता और वे बीमार पड़ती है या जान का जोखिम मोल लेती है। इतनी ही खतरनाक स्थिति में वे बच्चे होते हैं, जिन्हें अपने विकास के लिए अतिरिक्त पोषण चाहिए होती है। भारत में गांवों में पारंपरिक रूप से गरीबी रही है। आज का कुपोषण उसी गरीबी की अभिव्यक्ति है और अब इसने महामारी का रूप धारण करना शुरू कर दिया है। संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में हर साल कुपोषण से मरने वाले पांच साल से कम उम्र के बच्चों की संख्या दस लाख से भी ज्यादा है। कुपोषण के मामले में दक्षिण एशिया में भारत की स्थिति सबसे बुरी है।

अंतरराष्ट्रीय समुदाय के लिए भी यह चिंता का विषय बन गया है। यहां तक कि विश्व बैंक ने इसकी तुलना ‘‘ब्लैक डेथ’ नामक उस महामारी से की है, जिसने 18 वीं शताब्दी में यूरोपीय आबादी के एक बहुत बड़े हिस्से को निगल लिया था। भारत में काम करने वाले कुछ स्वयंसेवी संगठन इसे ‘‘चिकित्सीय आपात स्थिति’ के रूप में देखने और इसे मिशन के रूप में लेने की बात कर रहे हैं।आशा की जानी चाहिए कि प्रधानमंत्री की हालिया बैठक से इस दिशा में किए जा रहे प्रयासों की गति तेज होगी। लेकिन हमें यह समझना होगा कि इसका सीधा संबंध गरीबी और घरेलू खाद्य असुरक्षा से है। इसे मिटाने के लिए घरेलू स्त्रियों का सशक्तीकरण करना होगा, उनके लिए चिकित्सीय सुविधाएं सरल बनानी होंगी, फसलों का पैटर्न बदलना होगा और नकदी फसलें उपजाने की परिपाटी रोकनी होगी। इसके लिए गरीबोन्मुख नीतियां बनानी होंगी और उन्हें कारगर ढंग से लागू कराना होगा। प्रधानमंत्री की बैठक में भी इस तय को रेखांकित किया गया कि किस तरह मिशन इंद्रधनुष, बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ और मातृ वंदन जैसी सहायक योजनाओं का भी उनके पोषण पर सकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है। हमें समझना होगा कि कुपोषण का निदान समेकित योजना से ही होगा, सिर्फ पौष्टिक भोजन के वितरण से नहीं।


Date:29-11-17

उचित फटकार मिली

संपादकीय

सर्वोच्च न्यायालय ने फिल्म पद्मावती को लेकर नेताओं के बयानों पर जिस तरह नाराजगी प्रकट की है, उसके बाद उम्मीद की जानी चाहिए कि कम से कम राजनीतिक वर्ग की ओर से कोई गैर जिम्मेवार बयान नहीं आएगा। शीर्ष अदालत का कहना बिल्कुल सही है कि जब यह फिल्म मंजूरी के लिए लंबित है, तब सार्वजनिक पदों पर बैठे लोग कैसे यह बयान दे सकते हैं कि सेंसर बोर्ड को इस फिल्म को पास करना चाहिए या नहीं? निश्चय ही ऐसा करने से सेंसर बोर्ड का निर्णय प्रभावित होगा। पद्मावती पर जैसी बयानबाजी हुई हैं और कुछ राज्य के मुख्यमंत्रियों ने जिस तरह अपने राज्यों में फिल्म को प्रतिबंधित करने की घोषणा कर दी है, वह न्याय के किसी सिद्धांत पर खरा नहीं उतरता है। न तो किसी ने फिल्म देखी है और न किसी ने इसके निर्माता, निर्देशक, कथा लेखक, पटकथा लेखक या कलाकारों से बातचीत कर ही यह समझने की कोशिश की है कि उसमें ऐसा है क्या। किसी को फिल्म का विरोध करने का अधिकार है, राज्य सरकारों को उसे प्रतिबंधित करने का भी अधिकार है, पर उसके लिए पुख्ता आधार चाहिए। आधार तो फिल्म ही हो सकती है। जब तक फिल्म देखी नहीं जाती, हम आप किसी निष्कर्ष पर कैसे पहुंच सकते हैं?वस्तुत: पद्मावती फिल्म को लेकर जो वातावरण बनाया गया है, वह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है। सरकारों और राजनेताओं की भूमिका विवेक और संतुलन से बयान देने तथा निर्णय करने की होनी चाहिए। उनका रवैया इसके विपरीत दिखा है। अदालत ने साफ कहा है कि जिम्मेदार पदों पर बैठे लोगों का ऐसे बयान जारी करना अवांछनीय है। इससे सामाजिक सद्भाव को नुकसान पहुंचेगा और यह कानून के सिद्धांत के भी खिलाफ है। बेशक, पद्मावती इतिहास की ऐसी किरदार हैं, जिनके प्रति देश में पूरा सम्मान है। भारत की नारी की सतीत्व रक्षा के लिए अपना सब कुछ खत्म कर देने का वह दुर्लभ उदाहरण है। जाहिर है, किसी फिल्म में उनके गलत तरीके से चरित्र-चितण्रको देश स्वीकार नहीं कर सकता। किंतु जैसी अदालत की मंशा है बिना फिल्म के बारे में पूरी जानकारी के कुछ भी कहना या उसके खिलाफ कदम उठाना गलत है। बेहतर होगा कि पहले सेंसर बोर्ड को यह निर्णय करने देना चाहिए कि अगर वह फिल्म ऐतिहासिक है तो उसमें तयों को ठीक प्रकार से प्रस्तुत किया गया है या नहीं।


Date:29-11-17

समानता का नेट

संपादकीय

भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण यानी ट्राई ने मंगलवार को नेट-न्यूट्रलिटी यानी नेट-निरपेक्षता के पक्ष में कई तरह की सिफारिशें की हैं, जिनके लागू होने से उपभोक्ताओं को काफी लाभ होने की उम्मीद जगी है। ट्राई ने लंबी जद्दोजहद और तमाम कंपनियों से विचार-विमर्श के बाद कहा है कि इंटरनेट सर्विस प्रदाता कंपनियों के लाइसेंस-करार में संशोधन करने की जरूरत है। सिद्धांत रूप में यह माना जाता है कि समूची इंटरनेट सेवा एक खुले यातायात की तरह है, और किसी भी उपयोगकर्ता को बिना किसी भेदभाव के और बिना किसी अतिरिक्त शुल्क के इसकी उपलब्धता होनी चाहिए। इसीलिए नियामक संस्था ने कहा है कि कोई भी सामग्री, वेबसाइट, प्लेटफार्म, एप्लीकेशन, अटैचमेंट या संचार साधन का उपयोग करने के लिए इंटरनेट सेवा प्रदाता अलग-अलग शुल्क नहीं तय कर सकते और न ही धनउगाही के लिए नेट को धीमा, तेज या बंद किया जा सकता है। गौरतलब है कि ट्राई की ये सिफारिशें ऐसे वक्त आई हैं, जब दुनिया भर में नेट-निरपेक्षता को लेकर अभियान चल रहा है। अभियान के समर्थकों का कहना है कि अमेरिका, ब्राजील, नीदरलैंड जैसे कई देश हैं, जहां नेट-निरपेक्षता का पालन हो रहा है तो फिर भारत समेत दूसरे देशों में इसे लागू क्यों नहीं किया जा सकता! ट्राई की सिफारिशें स्वागत-योग्य हैं, ये लागू हों इंटरनेट सेवाओं तक सबकी समान रूप से पहुंच हो पाएगी।

गौरतलब है कि एअरटेल ने 2014 में इंटरनेट के जरिए फोन कॉल करने पर अलग से शुल्क वसूलने का फैसला किया था, जिसे बाद में ट्राई और उपभोक्ताओं के विरोध के कारण टाल दिया गया। इसी तरह कुछ दूसरी कंपनियों ने वाट्सएप, ट्वीटर आदि के लिए अलग से शुल्क लेने की तैयारी कर ली थी। जाहिर है, ऐसी कोई भी योजना उपभोक्ता अधिकारों के उलट है। शुल्क वसूलने में समानता और पारदर्शिता पहली शर्त है। लेकिन नेट सेवा प्रदाता कंपनियों की इस स्वेच्छाचारिता के खिलाफ जब ट्राई ने आम लोगों से राय जाननी चाही तो उसके सामने तकरीबन चौबीस लाख लोगों ने इंटरनेट की आजादी यानी न्यूट्रलिटी के पक्ष में अपनी राय जाहिर की। तब से देश भर में नेट-निरपेक्षता के लिए समर्थन बढ़ता ही गया है।

आज के दौर में इंटरनेट सेवा एक बहु-उपयोगी जरूरत बन गई है। तमाम कामकाज इस पर निर्भर होते गए हैं। सरकार खुद डिजिटलीकरण के पक्ष में है। ऐसे में अगर नेट सेवा सर्वसुलभ और सस्ती नहीं की जाएगी तो आम उपभोक्ता को ही इसका खमियाजा भुगतना होगा। विचित्र है कि एक तरफ पूरी दुनिया में भूमंडलीकरण का जोर है और इंटरनेट इसका बड़ा उपयोगी उपकरण है, जो सभी को एक साथ जोड़े रख सकता है, लेकिन दूसरी तरफ उसे महंगा और भेदभावकारी बना दिया गया है। कुछ कंपनियां गरीबों के लिए भी इंटरनेट के इस्तेमाल की योजनाएं ला रही थीं, लेकिन इसमें भी एक धोखा छिपा था। जरूरत है कि फेसबुक जैसी सोशल साइट हो या कोई और, सब पर समानता का नियम लागू हो। ट्राई की सिफारिशें तत्परता से लागू हों, वे महज शोभा की वस्तु होकर न रह जाएं, तभी उपभोक्ताओं का कुछ भला हो सकता है।


Date:29-11-17

राजनीति के हाशिये पर युवा

हमारे देश और प्रांतों में डिग्रियां बिक रही हैं, रोजगार नहीं। युवाओं पर नाज होने की घोषणाएं अकसर की जाती हैं, लेकिन मुख्यधारा की राजनीति में उनके लिए कोई जगह नहीं। दिखाने के लिए कुछ चेहरों को आगे कर दिया जाता है, लेकिन उसके पीछे वंशवाद का खेल छिपा लिया जाता है। इस रिवायत को बंद करना होगा।

महेश तिवारी

भारत युवाओं का विश्व में सबसे विशाल जनसंख्या वाला देश है। इसलिए भारत को अगर विकास की राह पर दूर तक ले जाना है तो हमें नौजवान आबादी को इसका इंजन बनाना होगा। देश की गाड़ी उसके हाथों में सौंपनी होगी। लेकिन वर्तमान में ऐसा होता कहीं से नजर नहीं आता। वह चाहे नीतियों और योजनाओं के निर्णय-स्थल यानी संसद की बात हो या फिर अन्य क्षेत्रों की, जरूरत के मुताबिक सही अनुपात में युवा वहां तक नहीं पहुंच पा रहे या फिर उसके लिए वह जगह खाली नहीं की जा रही। बेरोजगार युवाओं की फौज इधर-उधर भटक रही है। इन तमाम वजहों के साथ जीते युवाओं के विचारों में कुंठा और नकारात्मक भाव आना स्वाभाविक है।समाज की बिगड़ती रूपरेखा में कहीं न कहीं जिम्मेदार यह प्रवृत्ति भी है, जिसका पता आंकड़ों में मिलता है। रोजगार न होने के संकट से जूझते देश की असली समस्या यह भी है कि केंद्र और राज्य सरकारों ने बहुत-से स्वीकृत पदों पर भी नियुक्ति अभी तक नहीं की है। एक आंकड़े के मुताबिक सरकारी नौकरियों में एक करोड़ से ज्यादा पद देश में खाली पड़े हैं। सवाल है कि जिन युवाओं का जिक्र हर क्षण किया जाता है, जिनके लिए चिंता जताई जाती है, उनके लिए रोजगार मुहैया क्यों नहीं करवाया जा रहा है? कुछ समय पहले राज्यसभा में सवाल उठा तो सरकार का जवाब था कि सरकारी नौकरियों के कुल 4, 20, 547 पद रिक्त पड़े हैं। समस्या की जड़ किसी एक स्तर पर नहीं है। समस्या बेहद जटिल रूप धारण करती जा रही है। जिस देश में युवा मतदाताओं की बड़ी तादाद होने की बात बार-बार कही जाती है, वहां युवाओं की तादाद संसद में उतनी ही सिमटी हुई है।

लेकिन इन सवालों का हल निकालने के बजाय आज के दौर में जाति और धर्म की राजनीति को देश में चुनाव जीतने का मंत्र मान लिया गया है। आज देश की बात हो या मध्यप्रदेश की, सबसे बड़ी समस्याओं में है शिक्षा का गिरता स्तर, बेरोजगारों की बढ़ती संख्या और सामाजिक असंतुलन की स्थिति। इन सबसे निजात पाने का कोई इलाज हमारे सियासतदानों के पास दिखता नहीं। मध्यप्रदेश में सबसे बड़ी तादाद आदिवासी समुदाय की है जो अपने जीवन जीने के अधिकार से भी वंचित दिखता है। एक सर्वेक्षण के मुताबिक देश की वर्तमान संसद में वंशवादी सांसदों की संख्या में दो प्रतिशत और सरकार में ऐसे मंत्रियों की संख्या में बारह प्रतिशत की कमी आई है। पैट्रिक फ्रेंच ने 2012 में अपनी एक किताब में देश के बारे में लिखा था- ‘अगर वंशवाद की यही राजनीति चलती रही, तो भारत की दशा उन दिनों जैसी हो जाएगी, जब यहां राजा-महाराजाओं का शासन हुआ करता था।’ यों आंकड़े के लिहाज से इस गतिशील संसद में वंशवाद की राजनीति में कुछ फीसद का सुधार हुआ है। पिछली संसद में उनतीस फीसद लोग राजनीतिक घरानों से थे, वहीं इस बार यह आंकड़ा इक्कीस फीसद पर रुका है।

विडंबना यह है कि जिस देश की जनसंख्या में लगभग पैंसठ फीसद हिस्सेदारी युवाओं की हो, वहां वैसे सांसदों की संख्या अधिक है, जिनकी उम्र पचपन साल के ऊपर है। यह बेवजह नहीं है कि युवाओं के साथ इंसाफ किसी स्तर पर नहीं होता दिखता। हाल ही में मध्यप्रदेश में भाजपा ने उम्रदराज नेताओं के लिए अपने दरवाजे खोल दिए हैं। इसे कैसे देखा जाए! क्या युवाओं में राजनीति की समझ नहीं? पंद्रहवीं लोकसभा में पचपन साल से अधिक उम्र के सांसदों की संख्या तैंतालीस प्रतिशत थी।दरअसल, यह हमारी समांतर राजनीति ही है, जिसने आपातकाल के बाद से देश की राजनीति में न छात्र राजनीति को ठीक से उभरने दिया और न ही किसी नेता को, क्योंकि अपनी झोली भरने के बाद सत्ता के रण में अपने ‘उत्पाद-रूपी’ भाई-भतीजावाद को जिंदा रखना है। सोलहवीं लोकसभा में आए मात्र इकहत्तर सांसदों की उम्र चालीस साल से कम है। फिर युवाओं पर नाज करते हुए किस बात को आधार बनाया जाता है! आंकड़ों की दृष्टि से संसद में भले वंशवाद का पलड़ा पहले से कुछ हलका हुआ है, लेकिन क्या सचमुच राजनीति ने युवाओं को स्वीकार करना और अहमियत देना शुरू कर दिया है? उससे बड़ी विडंबना यह है कि राजनीति के चाणक्य देश की युवा शक्ति पर कितना भी इठला लें, लेकिन आज देश की लगभग पैंसठ फीसद वही युवा आबादी अपने राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक अधिकारों के लिए कहीं न कहीं भटक रही है।

ऐसे में सवाल यह है कि जब दुनिया भर के देशों का अध्ययन-अनुसरण करके संविधान निर्माण किया गया तो अब देश के युवाओं को राजनीतिक हक दिलवाने के मामले में हम विदेशों से क्यों नहीं कुछ सीख लेते हैं? क्या राजनीति में आज के दौर में भी युवा कहलाने की प्रवृत्ति पैंतालीस वर्ष पहुंचने तक चलती रहेगी? विश्व में राजनीतिक दलों की औसत आयु तैंतालीस वर्ष है। लेकिन हमारे देश का युवा सड़कों पर डिग्री लेकर घूमने को विवश है। देश में सन 2014 में सिर्फ बारह सांसद तीस वर्ष से कम उम्र के चुने जाते हैं। फिर युवाओं की मानसिकता और उनकी सामाजिक समस्याओं से संसद कैसे रूबरू हो सकती है?देश में युवाओं के सामने लोभ परोस कर उन्हें गुमराह करने के मसाले लगभग हर राजनीतिक दल के चुनावी प्रचार में मिल जाएंगे। वे विद्यार्थी संगठन आदि के रूप में अपने बीच युवा सवालों के प्रति फिक्र का भ्रम बनाए रखते हैं। लेकिन उन संगठनों से कितने युवा संसद की चौखट तक पहुंच पाते हैं, इसका जवाब राजनीतिक दलों की नुमाइंदगी में देखा जा सकता है। फिर ऐसे संगठनों का क्या अर्थ है? यह स्थिति एक ऐसा मीठा जहर है, जिसे युवा खाकर भी पछताता है और नहीं खाने पर भी।

दक्षिण यूरोपीय देश सर्बिया पांच सौ युवाओं का एक राजनीतिक नेता कार्यक्रम चलाता है, जिसके तहत देश में लोकतंत्र के पुनरुद्धार के लिए युवा नेताओं की खोज की जाती है। ऐसी कोई पहल हमारे देश के भीतर क्यों नहीं होती? इक्वाडोर, अल साल्वाडोर, सेनेगल, युगांडा जैसे छोटे देशों में युवाओं को राजनीति में अवसर उपलब्ध कराने के लिए हर स्तर की विधायिका में उम्मीदवारी की न्यूतम उम्र घटा कर अठारह वर्ष निर्धारित की गई है। लेकिन हमारे देश में यह न्यूनतम सीमा पच्चीस साल है। बोस्निया जैसे देश में चुनाव में किसी दल को बहुमत न मिलने की दशा में चुनाव कानून की धारा 13.7 के तहत सबसे युवा उम्मीदवार को वह सीट मिल जाती है।हमारे देश और प्रांतों में डिग्रियां बिक रही हैं, रोजगार नहीं। युवाओं पर नाज होने की घोषणाएं अकसर की जाती हैं, लेकिन मुख्यधारा की राजनीति में उनके लिए कोई जगह नहीं। दिखाने के लिए कुछ चेहरों को आगे कर दिया जाता है, लेकिन उसके पीछे वंशवाद का खेल छिपा लिया जाता है। अब इस रिवायत को बंद करना होगा। युवाओं की समस्या युवा नेता अच्छे से समझ सकते हैं। इसलिए युवाओं को राजनीति में मौका मिलना चाहिए। राजनीति ही नीति-निर्धारण का क्षेत्र है। इसलिए युवाओं की समस्याओं को राजनीति के एजेंडे पर लाना है तो राजनीति में उनकी भागीदारी बढ़ानी होगी। इससे बड़ा सवाल यह है कि जब छात्र राजनीति राजनीतिक दलों के लिए कोई बड़ा नेता उपलब्ध करवाने की प्रयोगशाला साबित नहीं हो पा रही है तो फिर छात्र संगठनों के चुनावों का क्या अर्थ रह जाता है। इस मसले पर राजनीतिक दलों को गंभीरता से सोचना होगा।


Date:29-11-17

पाबंदी की राजनीति

संपादकीय

राजनीति से मुद्दे जैसे खत्म ही हो गए हों। पिछले कई सप्ताह से एक ही मुद्दा चर्चा में है- संजय लीला भंसाली की फिल्म पद्मावती। इसे लेकर की जाने वाली राजनीति जितने परले स्तर पर जा सकती है, चली गई है। अखबारों की सुर्खियां भी इसी मसले पर बन रही हैं और टेलीविजन के खबरिया चैनलों का प्राइम टाइम इसी पर स्वाहा हो रहा है। इस फिल्म का टे्रलर ऑनलाइन के सारे रिकॉर्ड तोड़ रहा है। और तो और, देश की सर्वोच्च अदालत का कीमती समय भी इसी मसले पर जाया किया जा रहा है। सुप्रीम कोर्ट के सामने तीसरी बार यह मसला आया है और अदालत इसे किस तरह देख रही है, इसे मंगलवार को की गई उसकी तल्ख टिप्पणियों से समझा जा सकता है। इस बार यह मामला अदालत के तीन सदस्यीय खंडपीठ के सामने था। याचिकादाता का तर्क था कि इस फिल्म को रिलीज होने से रोका जाए। पर सर्वोच्च अदालत ने इसे रोकने से पूरी तरह इनकार कर दिया। इसके लिए अदालत का तर्क बहुत सीधा था। न्यायालय का कहना था कि जब केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड इस फिल्म की समीक्षा कर रहा है, तो बेहतर है कि बोर्ड को अपना काम करने दिया जाए। अदालत उसके किसी भी फैसले से पहले रोक लगाने के तर्क को गलत मानती है। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणियां यहीं तक नहीं रुकीं। उसने उन नेताओं को भी आड़े हाथों लिया, जो इस पर तरह-तरह की टिप्पणियां कर रहे हैं। खासकर उन लोगों को, जो किसी सार्वजनिक पद पर हैं। न्यायालय का कहना था कि ऐसे लोगों को इस तरह की टिप्पणियां या फैसले करने की बजाय कानून के शासन का सम्मान करना चाहिए। जाहिर है कि अदालत का इशारा उन मंत्रियों और मुख्यमंत्रियों की ओर है, जिन्होंने न सिर्फ पद्मावती फिल्म को रिलीज करने के खिलाफ बयान दिए हैं, बल्कि कुछ ने उस पर पाबंदी की घोषणा तक कर दी है। अदालत ने खासतौर पर किसी की तरफ इशारा नहीं किया, इसलिए उसकी टिप्पणी में वे लोग भी शामिल माने जाएंगे, जो फिल्म का समर्थन करने और उसे हरसंभव मदद करने के बयान जारी कर रहे हैं।

सुप्रीम कोर्ट की ताजा टिप्पणी एक खास संदर्भ में कुछ खास लोगों के प्रति है, लेकिन पद्मावती फिल्म को लेकर जो राजनीति चल रही है, वह इससे कहीं ज्यादा बड़ी है। ऐसे लोग सिर्फ पाबंदी की बात ही नहीं कर रहे हैं, बल्कि मार डालो और काट डालो की भाषा भी बोल रहे हैं। शीर्ष अदालत ने जिन लोगों के बयानों पर लगाम लगाने का इशारा किया है, उससे कहीं बड़ा तबका उन लोगों का है, जिनके बयानों को ही नहीं, बल्कि उनके आंदोलन को रोकना भी बहुत जरूरी है।

अभी कुछ दिनों पहले संजय लीला भंसाली ने चंद पत्रकारों को फिल्म दिखाकर उनका यह ‘प्रमाणपत्र’ हासिल करने की कोशिश की थी कि फिल्म में कुछ भी आपत्तिजनक नहीं है। इसके बाद से उग्र आंदोलन चलाने वाले संगठन यह मांग कर रहे हैं कि अगर आपत्तिजनक नहीं है, तो फिल्म रिलीज करने से पहले उन्हें भी दिखाई जाए। ये दोनों ही चीजें पूरी तरह गलत हैं। देश में फिल्म को प्रमाणपत्र देने की एक संस्थागत व्यवस्था है, जिसके बाहर किसी को भी फिल्म को रोकने, प्रमाणपत्र देने या फिल्म देखने की सिफारिश करने का अधिकार नहीं दिया जा सकता। संजय लीला भंसाली ने इसके लिए एक गलत परंपरा की शुरुआत की है और आंदोलन कर रहे संगठनों की मांग भी इसी मायने में गलत है। अब सुप्रीम कोर्ट ने भी इस पर मुहर लगा दी है कि फिल्म को प्रमाणपत्र देने का काम सरकार द्वारा स्थापित बोर्ड ही कर सकता है। इसके पहले कि बोर्ड अपना काम करे, फिल्म पर पाबंदी की मांग भी गलत है और पाबंदी की घोषणा भी।


Date:29-11-17

Rethink school education

The shift to private education is not good. Government schools ought to be the drivers of change

Uday Balakrishnan,visiting faculty at the Centre for Contemporary Studies, Indian Institute of Science, Bengaluru

In Uncertain Glory — India and its Contradictions, Jean Dreze and Amartya Sen begin their chapter on education with a quote from Rabindranath Tagore: “The imposing tower of misery which today rests on the heart of India has its sole foundation in the absence of education.” This is as true today as it was nearly 90 years back.

While India highlights its ever-improving literacy levels, educationally it is a terrible under-performer, too embarrassed to participate in the OECD’s Programme for International Student Assessment tests covering reading and computational skills for 15-year-olds. Successive studies have repeatedly established that a majority of those in each class in India have educational attainments much lower than the one they are in. Data from the Ministry of Human Resource Development show that only half of all students who enter primary school make it to the upper primary level and less than half that — around 25 million — get into the 9-12 class cycle. We have around a million primary schools and only half that number at the upper primary level. The number of secondary schools is less than 150,000 for a country of 1.3 billion, and even this comes down to just 100,000 at the higher secondary level. While there are around five million primary school teachers, at the secondary level the number is just 1.5 million. India has persisted with a schooling system that has long failed its young.

The inexorable shift to private school education along with the Right to Education Act represents a failure of the public-school system. It is government schools that should be the drivers of change by becoming the first, not the last, choice of parents to send their children to. For that to happen, our public-school system must be swiftly and radically revamped, while our teacher training institutions, of which the District Institutes of Education and Training constitute an important part, speedily re-jigged to turn out world-class teachers, of the kind that will encourage children to stay on in, not drop out of, school.

It is time that India began viewing school education as a critical strategic investment and gave it the status of a vital infrastructure project. As all in-country efforts have failed, we should go in for a radical overhaul of our educational infrastructure with the help of countries that have an amazing record in providing quality school education — Finland, for instance. We can surely afford to pay for that.

If only India had begun revamping school education at the start of economic liberalisation, it would by now have had the world’s largest pool of well-educated and highly trained workers. Fortunately, India continues to have the largest number of young people anywhere. By ensuring they get a world-class education over the next few decades, India will be well on its way towards becoming a developed nation sooner than expected.