30-09-2019 (Important News Clippings)

Afeias
30 Sep 2019
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Date:30-09-19

Set For a Climate of Fear ?

Chaitanya Kalbag

Greta Thunberg’s emotional speech at the UN Climate Action Summit on Sept.23 was followed by Donald Trump’s mocking tweet: “She seems like a very happy young girl looking forward to a bright and wonderful future.” But we all know that the 16-year-old Swedish schoolgirl-activist is right. The warnings are crowding in, fast and ominous.

The devastation caused by the ‘stationary’ Hurricane Dorian in the Bahamas in early September was shocking, but so is every bit of news outside of geopolitics and terrorism. Bird censuses in different countries speak of billions fewer feathered friends. Marine life is fast depleting. Glacier melt is accelerating as the cryosphere – the frozen parts of the Earth — shrinks day by visible day, as in the latest news from Mont Blanc. On Tuesday the World Meteorological Organization said rising sea levels, ice loss and extreme weather caused 2015-2019 to be the warmest five years on record. On Wednesday the Intergovernmental Panel on Climate Change (IPCC) said warming oceans and rising sea levels as well as ice erosion affect 1.35 billion people in high altitudes and low-lying regions. Urgent action will only make the consequences of global warming more manageable, but not fend them off. “What is at stake is the health of ecosystems, wildlife, and importantly, the world we leave for our children,” said Ko Barrett, vice-chair of the IPCC.

Modi told the UN climate summit that India would spend $50 billion over the next few years on the Jal Jeevan Mission: water conservation and rainwater harvesting. He has also pledged piped water in every rural household by 2024.

Currently only 18% of rural households have water on tap. This is a cart before the horse challenge – how can you ensure universal water supply without water? India consumes more groundwater than the United States and China combined. I wrote recently about our vanishing groundwater and also the shocking evidence of the speed at which Himalayan glaciers are vanishing – which will lead to flooded rivers and more landslides.

In policymaking, the longest distance is between how it is and what you want it to be. This is true of India’s efforts to keep its promise to limit its contribution to global warming and trim greenhouse gas emissions by 33-35% by 2030.

In his brief climate summit speech, Modi said India’s policy was need, not greed. “We believe that an ounce of action is worth more than a ton of preaching,” he said, adding that India was committed to expanding its non-fossil fuel renewable energy capacity to 175 gigawatts by 2022, and beyond that to 450 GW. He did not say by when, but industry experts say it is doable by 2030, if the government attacks it on a war footing.

Take solar panels. Last year the Modi government abruptly imposed a 25% ‘safeguard’ duty on imports of solar panels from China and Malaysia; this is to be ‘diluted’ to 15% by March 2020. The duty has severely hit solar power providers. Then, the new Andhra Pradesh government headed by Y.S. Jaganmohan Reddy abruptly reneged on solar and wind contracts signed by his predecessor, asking for a halving of tariffs to Rs 2.44 per unit, making first-mover projects unviable. The AP High Court has set aside the swingeing cuts but ruled that the state regulator will have the final word. Tariff cuts should only go hand-in-hand with concessional loans for wind farms and solar parks – and the savings passed on to consumers. The trouble is, Vaibhav Chaturvedi of the Council on Energy, Environment and Water (CEEW) told me, 60% of a solar-power company’s costs now go towards servicing debt.

There is much symbolism. Modi spearheaded the International Solar Alliance in 2015, and last week inaugurated the Gandhi Solar Park on the rooftop of the UN headquarters in New York. India’s $1 million gift of 193 panels, one for each UN member country will generate 50 MW of electricity.

India has promised to generate 40% of its electricity from renewable sources by 2030. Will this happen? Renewable energy capacity stood at just above 80 GW, or 7%, at the end of June. The truth is that in absolute terms our carbon emissions will not reduce because of our growing economy and population.

The government’s policies are bafflingly countradictory. The day after Modi’s UN speech, Coal Minister Pralhad Joshi announced that India plans to sharply increase coal production from the current 730 million tonnes to 1.15 billion tonnes by 2023. Last month the government announced it would welcome 100% foreign direct investment in coal mining. Joshi said “despite the push for renewable energy, the country will require base load capacity of coal-based generation for stability.” Coal currently accounts for 75% of electricity generation. The government is opening new mines, expanding the capacity of existing mines and creating new evacuation infrastructure to ramp up domestic output, Joshi said.

Nevertheless, a recent paper by Chaturvedi and fellow researchers at the CEEW is cautiously optimistic. It sees solar-powered electricity generation rising rapidly over the next three decades. Non-fossil fuels could contribute 48% of electricity by 2030 and even 65% if the cost of solar and wind-based electricity generation drops sharply. It needs to rise to 98% of electricity generation by 2050 if India sticks to the target of limiting the rise of global temperatures to under 2°C.

India urgently needs a robust, non-partisan, strategic framework for climate-friendly development; the mission should be headed by a powerful figure, possibly even a deputy prime minister said Leena Srivastava, Deputy Director-General designate of science at the Austria-based International Institute for Applied Systems Analysis.


Date:30-09-19

निगरानी में नाकामी

संपादकीय

भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने गत सप्ताह देश के सबसे बड़े सहकारी बैंकों में से एक पंजाब ऐंड महाराष्ट्र कोऑपरेटिव (पीएमसी) बैंक में आसन्न संकट पर कदम उठाए। केंद्रीय बैंक ने कहा कि पीएमसी बैंक के बहीखातों की जांच से संकट का पता चला। परंतु सच तो यह है कि इस सहकारी बैंक का प्रबंधन स्वयं अपनी दिक्कतों के साथ आरबीआई के पास गया और उसे बताया कि उन्हें लंबे समय से बकाया फंसे हुए कर्ज का पता चला है। खासतौर पर हाउसिंग डेवलपमेंट ऐंड इन्फ्रास्ट्रक्चर लिमिटेड(एचडीआईएल) के ऋण। उन्होंने केंद्रीय बैंक से कहा कि उन्हें एक निस्तारण योजना की जरूरत है। समस्या सामने आने के बाद आरबीआई ने तेजी से कदम उठाए जिसके लिए उसकी सराहना की जानी चाहिए। परंतु यह कहना भी गलत नहीं होगा कि बतौर नियामक आरबीआई का प्रदर्शन सही नहीं है।

नियामकों को ऐसी समस्याएं शुरुआती संकेतों पर ही समझ जानी चाहिए। आरबीआई को इस बात पर आत्मावलोकन करना चाहिए कि उसके अंकेक्षक वर्षों से चली आ रही इस समस्या को पकडऩे में नाकाम क्यों रहे? यह पहला मौका नहीं है जब आरबीआई निगरानी के काम में नाकाम रहा। इससे पहले वह पंजाब नैशनल बैंक में चल रही धोखाधड़ी को पकड़ पाने में भी नाकाम रहा था। उस मामले में भी तमाम अन्य तकनीक के अलावा स्विफ्ट इंटर बैंकिंग ट्रांसफर सिस्टम का दुरुपयोग किया गया था। बैंकिंग नियामक वर्षों तक धोखाधड़ी का पता लगाने या वहां लगातार हो रही गड़बडिय़ों को रोक पाने में नाकाम रहा। आईएलऐंडएफएस डिफॉल्ट ने गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों को ऐसे संकट में धकेल दिया जहां से उबरने में उन्हें अभी भी वक्त लगेगा।

बैंकिंग निगरानी के मामले में आरबीआई की क्षमताओं में इजाफा करने के अलावा कोई अन्य विकल्प ही नहीं है। पिछले आम बजट में आरबीआई को गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों तथा आवास वित्त कंपनियों की निगरानी के और अधिक अधिकार सौंपे गए थे। जबकि एनबीएफसी क्षेत्र की निगरानी के अधिकार होते हुए भी बैंक अपेक्षित प्रदर्शन नहीं कर पाया था। आरबीआई का यह कहना सही है कि गड़बड़ी करने वालों को रोकने के क्षेत्र में उसकी क्षमताएं बहुत सीमित हैं लेकिन उसे अपने नियमन की गुणवत्ता और क्रियान्वयन पर अवश्य दृष्टि डालनी चाहिए। उसे केवल सुधारात्मक कदम उठाने संबंधी अधिकारों पर तवज्जो नहीं देनी चाहिए। दुख की बात है कि हाल फिलहाल ऐसा ही देखने को मिला है।

सवाल यह है कि आरबीआई की क्षमताओं में किस तरह के सुधार की आवश्यकता है? पहली बात तो यह कि उसके कदमों का स्पष्ट उल्लेेख होना चाहिए। अन्य केंद्रीय बैंक मसलन अमेरिकी फेडरल रिजर्व आदि दिशानिर्देश सार्वजनिक हैं। इनसे जाना जा सकता है कि वे बैंकों की निगरानी किस प्रकार करते हैं। आरबीआई को सार्वजनिक जांच और परिचर्चा की अपनी प्रक्रिया भी सार्वजनिक करनी चाहिए। अंतिम और स्वीकार्य प्रक्रिया तक पहुंचने के बाद आरबीआई अपनी अंकेक्षण और प्रवर्तन क्षमता को इस प्रक्रिया के इर्दगिर्द तैयार कर सकता है। इसी प्रकार नए कानून तैयार करते वक्त भी कठोरता का परिचय देना चाहिए। अब तक इन्हें बनाने में मनमानी और अदूरदर्शिता का परिचय दिया जाता रहा है।

इसके बजाय नए नियम प्रवर्तन क्षमता को ध्यान में रखते हुए तैयार किए जाने चाहिए। इन्हें बनाने के पहले आरबीआई के बोर्ड या उप समिति की मंजूरी से बाहरी विशेषज्ञों से भी राय ली जानी चाहिए। आखिरी बात, आरबीआई के फैसलों के खिलाफ अपील की व्यवस्था चालू होनी चाहिए। प्रतिभूति नियामक के मामले में हमने देखा कि अपील पंचाट की स्थापना के बाद उसके प्रदर्शन में काफी सुधार हुआ। एक बात तो स्पष्ट है कि बैंकिंग नियामक के मामले में यथास्थिति बरकरार नहीं रहने दी जा सकती।


Date:30-09-19

कश्मीर : आंतरिक होकर भी बना अंतरराष्ट्रीय मसला

शेखर गुप्ता

क्या दुनिया को कश्मीर की फिक्र है? उन्हें पता है कि यह उप महाद्वीप का हिस्सा है, जिस पर भारत और कश्मीर झगड़ते रहते हैं, लेकिन कभी-कभार झगड़े में परमाणु हमले की धमकियां सुनाई देने लगती हैं, जिसके बाद लोग यह देखने के लिए दुनिया के नक्शे में सिर खपाते हैं कि कश्मीर आखिर है कहां। अब तक तो हरेक बड़े देश के पास कश्मीर समस्या की एक फाइल ही तैयार हो गई होगी। डॉनल्ड ट्रंप शायद सबसे अच्छे उदाहरण पेश नहीं करते हैं। कम से कम तब तो नहीं, जब भारतीय उप महाद्वीप की बात पर वह पूछते हैं कि यह ‘बटन’ और ‘निपल’ (भूटान और नेपाल के लिए) क्या है। फिर भी जुलाई में इमरान खान के साथ प्रेस कॉन्फ्रेंस में जब उन्होंने कहा कि कश्मीर सबसे खूबसूरत जगह है, जहां हर तरफ बम फटते रहते हैं तो यह बात गौरतलब थी।

वह बारीकियों में नहीं पड़ते और उनका सामान्य ज्ञान ‘यूपीएससी’ पार करने के लायक नहीं है। इसीलिए उनके दिमाग ने पहली बार कश्मीर को ‘बड़ी चीज’ तब माना, जब फरवरी में पुलवामा हमला हुआ। वास्तव में उनके अब तक के कार्यकाल में कश्मीर में यही पहला बड़ा धमाका था। इसका क्या मतलब है? मतलब यह है कि कश्मीर के बारे में कोई भी अच्छी खबर भारत के कूटनीतिक और राजनीतिक हित के लिए खबर नहीं है। कश्मीर में 30 वर्ष पहले आतंकवाद शुरू हुआ था और तब से केवल 1991 से 1994 के दरम्यान दुनिया का ध्यान कश्मीर समस्या पर गया था, जब पीवी नरसिंह राव ने आतंकवाद के खिलाफ अभियान शुरू कर दिया और हरेक अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार संगठन तथा बिल क्लिंटन की पहली सरकार आपा खो बैठी। उन्होंने इस मुसीबत को कुचला और उसके बाद अंतरराष्ट्रीय मीडिया को कश्मीर में दाखिल होने की इजाजत देकर और 1993 में खुद भी राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग गठित कर भारत तथा कश्मीर के बारे में दुनिया के नजरिये को कुछ बेहतर बनाया। उसके बाद से उन्होंने कश्मीर को ठंडे बस्ते में ही डालने की कोशिश की। वरना उन्होंने कश्मीर को रणनीति के तौर पर ज्यादा तवज्जो नहीं दी। एक साक्षात्कार में जब मैंने राव से पूछा कि कश्मीर में उन्हें आगे क्या दिखता है तो उन्होंने कहा, ‘भाई, वे कुछ करेंगे, हम कुछ करेंगे, आखिर में हिसाब बराबर हो जाएगा।’ उन्होंने यह बात अपनी अंगुली हवा में कुछ इस तरह हिलाते हुए कही मानो दो समांतर रेखाएं बनाते हुए गणित का कोई सवाल हल कर रहे हैं और उनके बीच में ‘बराबरी’ दिखा रहे हैं। उनकी कोशिश यहीं तक रही।

शिमला समझौते के बाद के दशकों में अटल बिहारी वाजपेयी समेत विभिन्न प्रधानमंत्री कश्मीर मसले को कम महत्त्व देने की ही रणनीति पर ही चलते रहे। पाकिस्तान के बारे में तमाम सवाल, चाहे वे युद्घ के कगार पर पहुंचने (कारगिल, ऑपरेशन पराक्रम) के समय ही क्यों न पूछे गए हों, आतंकवाद तक ही सीमित रखे गए। कश्मीर को कभी मसला बनने ही नहीं दिया गया। यह नीति लंबे अरसे तक कारगर रही। 11 सितंबर के बाद जब अमेरिका पाकिस्तान को पुचकारने में जुट गया और पाकिस्तान के ‘सैन्य प्रशासन’ के हौसले बढ़ गए, उस वक्त भी कश्मीर पर बात नहीं हुई। पाकिस्ताान बेचैन हुआ तो अमेरिका और उसके साथियों ने उसे शांत रहने की राय दी। वे ध्यान बंटने नहीं देना चाहते थे। दूसरी ओर भारत ने नए हालात का चतुराई से इस्तेमाल किया: अपने बिगड़े बच्चे को काबू में रखो वरना अगर पूरी तरह पाकिस्तान के भरोसे बैठने के आपके मंसूबों पर हम पानी फेर दें तो शिकायत मत करना।

इसके तीन नतीजे हुए। पहला, दुनिया मानने लगी कि दोनों देशों ने सामरिक संतुलन बना लिया है, संकट छोटे स्तर पर ही रहेगा। दूसरा, खस्ता अर्थव्यवस्था वाले पाकिस्तान और फर्राटा भरती अर्थव्यवस्था वाले भारत को यथास्थिति बनाए रखने में ही हित दिखने लगा है। और तीसरा, कि दोनों देश नियंत्रण रेखा को ही वास्तविक सीमा मानने की दिशा में बढ़ रहे हैं। जैसा कि तंग श्याओ फिंग ने राजीव गांधी से कहा था, औपचारिक समाधान समझदार पीढ़ी के लिए छोड़ देना चाहिए। वास्तव में 1990 के दशक में कश्मीर पर खबरें करते समय मैंने सबसे बढिय़ा पंक्तियां दक्षिण एशिया के लिए अमेरिका की सहायक विदेश सचिव रॉबिन राफेल से सुनीं, जिन्हें यहां दोस्त के तौर पर नहीं देखा जाता था। कश्मीर को भारत में शामिल करने के समझौते पर सवाल उठाकर तूफान खड़ा करने के बाद उन्होंने दार्शनिक अंदाज में कहा, ‘कश्मीर को रखना या खोना भारत के ही हाथों में है।’

मोदी सरकार में भारत ने पिछली सरकारों की कश्मीर रणनीति से हटते हुए यथास्थिति खत्म कर दी। पाकिस्तान ने युद्घ की धमकी दी मगर फिर पीछे हट गया। उसे दिख गया कि उसकी सेना की क्षमता काफी कम है और दुनिया में कोई भी उसके साथ नहीं है। न्यूयॉर्क में इमरान खान की प्रेस कॉन्फ्रेंस की वीडियो क्लिप देखिए, जिसमें वह बौखलाकर कह रहे हैं: हम जो कर रहे हैं, उसके अलावा और क्या कर सकते हैं? हम भारत पर हमला नहीं कर सकते। यहां तक तो ठीक है। दिक्कत इसके बाद शुरू होती है। आप मानें या न मानें, करीब आधी सदी के बाद कश्मीर अंतरराष्ट्रीय मसला बन गया है। उसे अंतरराष्ट्रीय बनाने का काम पाकिस्तान नहीं भारत ने किया है। अगर आप पक्षपात करेंगे तो आपको यह स्थिति भारत के लिए उत्साहजनक लगेगी क्योंकि चीन और तुर्की के अलावा किसी भी देश ने इस बात का विरोध नहीं किया है कि 5 अगस्त का बदलाव भारत का आंतरिक मामला है और किसी ने 5 अगस्त से पहले की यथास्थिति पर लौटने की मांग भी नहीं की है। लेकिन यह पूरी तस्वीर नहीं है।

अमेरिका समेत कई देशों को चिंता है कि कश्मीर में अब क्या होगा। जब इमरान कहते हैं कि नरसंहार हो रहा है तो कोई यकीन नहीं करता। श्रीनगर में ‘सामान्य स्थिति’ दिखाती ड्रोन की तस्वीरों से भी किसी को राहत नहीं मिलती। माना जा रहा है कि घाटी को बलपूर्वक ठप कर दिया गया है और हजारों लोगों को मुकदमे के बगैर ही बंद कर दिया गया है। इस मामले में दुनिया का सब्र जल्द ही खत्म हो जाएगा। संयुक्त राष्ट्र का सप्ताह खत्म हो गया है। पाकिस्तान को अलग-थलग करने वाली ‘कूटनीतिक जीत’ पर जश्न मनाया जाएगा। नरेंद्र मोदी न्यूयॉर्क से नकारात्मक से ज्यादा सकारात्मक नतीजे लेकर लौट रहे हैं। ‘कश्मीर हमारा आंतरिक मामला है’ के भारत के पुराने जुमले पर किसी ने आपत्ति नहीं की। व्हाइट हाउस से जारी रिपोर्ट के अनुसार मोदी के साथ मुलाकात में ट्रंप ने उनसे सामान्य स्थिति बहाल करने और कश्मीर के लोगों से किए वायदे पूरे करने के लिए ही कहा, 5 अगस्त से पहले की स्थिति पर लौटने के लिए नहीं। लेकिन कश्मीर में नए हालात ने पाकिस्तान को और अलग-थलग करने के बजाय दुनिया का ध्यान खींचने में और खुद को पीडि़त के तौर पर पेश करने में उसकी मदद की है।

यदि न्यूयॉर्क में भारत-पाकिस्तान की सालाना तू-तू-मैं-मैं के इस बार के मुकाबले में कश्मीर को भारत का आंतरिक मामला स्वीकार किया जाना ही कूटनीति उपलब्धि है तो इसके भविष्य और भारत के सर्वोच्च राष्ट्रहित की कुंजी भी इसी में है। एक हफ्ता बीतेगा और संचार सेवाएं बंद किए दो महीने पूरे हो जाएंगे। संचार बंद हुए हफ्तों बीत चुके हैं। इसे बहाल करने में देर होने से कश्मीरियों का गुस्सा बढ़ रहा है। जितनी देर होगी, गुस्सा फूटने, हिंसा और खूनखराबे का खतरा उतना ही बढ़ जाएगा। ऐसे में हालात अक्सर बेकाबू हो सकते हैं।

दुनिया कश्मीर पर कुछ बोल नहीं रही है, लेकिन उसे फिक्र है। मामले का इतना अंतरराष्ट्रीयकरण तो हो ही गया है। 2016 में बुरहान वानी की मौत के बाद एक हफ्ते में कम से कम 40 लोग मारे गए थे। अब किशोर उम्र के असरार वानी की मौत से विवाद खड़ा हो गया है। दुनिया कश्मीर को देख रही है। 5 अगस्त से चल रही बंदी को आम बात या नई यथास्थिति मान लेना खतरनाक होगा।


Date:28-09-19

बदलते पर्यावरण के उलझे सवाल

सुनीता नारायण

आज प्रश्न यह नहीं है कि क्या जलवायु परिवर्तन वाकई एक हकीकत है? सवाल यह है कि हम अब क्या कर सकते हैं? ऐसा इसलिए, क्योंकि दुनिया के कई हिस्सों में बढ़ता तापमान और बदलता मौसम तबाही मचा रहे हैं। लिहाजा तत्काल जरूरत ऊर्जा प्रणालियों में संरचनात्मक बदलाव लाने की है। संयुक्त राष्ट्र का हालिया जलवायु परिवर्तन सम्मेलन इसी कड़ी का एक और उदाहरण था, जो इसलिए बुलाया गया, ताकि मौसम में हो रहे बदलाव को रोकने के लिए तमाम सदस्य देश अधिक से अधिक प्रयास कर सकें। इस समस्या का वास्तविक समाधान आखिर कहां है? इस लिहाज से कुछ अच्छी खबरें भी आई हैं। इन पर हमें गौर करना चाहिए। मगर इस दिशा में आगे बढ़ने से पहले यह भी जरूर समझ लेना चाहिए कि ‘जलवायु न्याय’ (ग्लोबल वार्मिंग को विशुद्ध पर्यावरणीय मसला मानने की बजाय इसे नैतिक और राजनीतिक मुद्दा मानना) की अवधारणा को यदि हम स्वीकार नहीं करेंगे, तो मौसम का बदलाव कहीं अधिक परेशानी पैदा करेगा और दिन-ब-दिन यह दु:साध्य होता जाएगा।

तो अच्छी खबरें क्या हैं? दरअसल, अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी (आईईए) की ‘ग्लोबल एनर्जी द सीओटू स्टेटस रिपोर्ट-2018’ जारी की गई है, जो बताती है कि वैश्विक ऊर्जा खपत में तेजी आई है। यह वृद्धि साल 2010 के बाद की औसत विकास दर की दोगुनी है। यह इसलिए बढ़ी है, क्योंकि दुनिया भर में आर्थिक विकास मजबूत हुए हैं और जलवायु परिवर्तन के कारण अजीबोगरीब मौसमी परिघटनाएं हो रही हैं। इस कारण ऊर्जा से संबंधित कार्बन डाई-ऑक्साइड उत्सर्जन का स्तर भी बढ़ गया है, क्योंकि बिजली उत्पादन क्षेत्र दो-तिहाई उत्सर्जन करता है। साल 2018 में तेल की मांग में 1.3 प्रतिशत की वृद्धि हुई, और इसीलिए कोयले की मांग भी बढ़ी है; लेकिन पहले की तुलना में कोयले की मांग में वृद्धि दर धीमी है। फिर भी, कोयले पर हमारी निर्भरता सबसे ज्यादा है और कोयला आधारित बिजली संयंत्र अब भी (2018 में) कार्बन डाई-ऑक्साइड का सबसे ज्यादा उत्सर्जन करते हैं। अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी का अनुमान है कि औद्योगिक क्रांति के पूर्व के स्तरों की तुलना में आज जितना तापमान बढ़ा है, उसमें 0.3 फीसदी से लेकर एक फीसदी तक वृद्धि के लिए कोयला-दहन ही जिम्मेदार है।

इसमें कुछ नए रुझान दिख रहे हैं, जिन्हें यदि गति दी गई, तो निश्चय ही भविष्य के खतरे को हम टाल सकेंगे। पहला रुझान यह कि ऊर्जा-उत्पादन में कोयले की जगह अब प्राकृतिक गैस इस्तेमाल किया जाने लगा है। इसमें दुनिया भर में करीब 24 प्रतिशत की वृद्धि हुई है, क्योंकि बिजली संयंत्रों में प्राकृतिक गैस को कोयले का विकल्प माना जाने लगा है। यह ज्यादातर अमेरिका में हुआ है, और चीन में भी, जहां वायु प्रदूषण को थामने की नीति (ब्लू स्काई इनीशिएटिव) के तहत औद्योगिक बॉयलरों और बिजली संयंत्रों में कोयले के उपयोग को कम करने पर जोर दिया गया। आईईए का अनुमान है कि कोयले की बजाय यदि प्राकृतिक गैस का इस्तेमाल नहीं किया जाता, तो कार्बन डाई-ऑक्साइड का उत्सर्जन 15 फीसदी अधिक होता। हालांकि उल्लेखनीय यह भी है कि प्राकृतिक गैस के इस्तेमाल से मीथेन का उत्सर्जन ज्यादा होता है, जो खुद एक शक्तिशाली ग्रीनहाउस गैस है, और आईईए ने फिलहाल इस रिपोर्ट में इसका लेखा-जोखा तैयार नहीं किया है।
दूसरा रुझान यह है कि सौर, पवन, पानी और जैविक उत्पादों से पैदा होने वाली अक्षय ऊर्जा की ओर दुनिया बढ़ने लगी है। आईईए के मुताबिक, अक्षय ऊर्जा आधारित बिजली उत्पादन में सात प्रतिशत की वृद्धि हुई है। 2010 के बाद की सालाना विकास दर से यह एक अंक ज्यादा है। अक्षय ऊर्जा में हुई कुल बढ़ोतरी में 40 फीसदी हिस्सेदारी चीन की है, जबकि यूरोप की लगभग 25 फीसदी। दिलचस्प है कि अमेरिका और भारत भी अक्षय ऊर्जा में 13 फीसदी की बढ़ोतरी के साझीदार हैं। रिपोर्ट बताती है कि साल 2018 में कोयले के बाद अक्षय ऊर्जा से ही सबसे ज्यादा बिजली (करीब एक चौथाई) पैदा की गई। जर्मनी और ब्रिटेन में भी बिजली जरूरतों का 35 फीसदी उत्पादन अक्षय ऊर्जा से हो रहा है। कुल मिलाकर कहें, तो प्राकृतिक गैस की तरफ यदि हम उन्मुख न हुए होते, परमाणु व अक्षय ऊर्जा में वृद्धि न हुई होती, तो पिछले साल कार्बन डाई-ऑक्साइड का उत्सर्जन 50 फीसदी अधिक होता। यह कोई छोटी उपलब्धि नहीं है।

हालांकि यह पर्याप्त नहीं है। ऊर्जा प्रणालियों में यह संरचनात्मक बदलाव अधिक से अधिक संभव बनाया जाना चाहिए, क्योंकि दुनिया के कुछ खास हिस्सों को ज्यादा ऊर्जा की जरूरत है। यह एक बड़ी चुनौती है और इस मामले में हम पूरी तरह सफल नहीं हो पाए हैं। जैसे कि अमेरिका को अपने ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी लाने की सख्त जरूरत है। वह पहले से इन गैसों का सबसे बड़ा उत्सर्जक है। करीब-करीब एक चौथाई उत्सर्जन वही करता है। उसे इसमें कमी लानी होगी। मगर 2018 में, कार्बन डाई-ऑक्साइड के उत्सर्जन में वहां 3.7 फीसदी की वृद्धि देखी गई है। यह स्थिति तब है, जब कोयले की बजाय प्राकृतिक गैस की ओर वह उन्मुख हुआ है। इसका अर्थ यह है कि उसने अपने उत्सर्जन को इस हद तक बढ़ा दिया कि ऊर्जा प्रणालियों में संरचनात्मक बदलाव का फायदा उसे नहीं मिल सका। ‘ग्लोबल एनर्जी द सीओटू स्टेटस रिपोर्ट’ में मीथेन उत्सर्जन को शामिल नहीं किया गया है, अन्यथा यह तस्वीर और स्याह होती। इसे कतई सुखद स्थिति नहीं कह सकते। इसी तरह, अमेरिका में तेल की खपत बढ़ गई है, जिसका मूल रूप से इस्तेमाल सड़क-परिवहन में होता है। चीन और भारत से भी यदि तुलना करें, तो यह वृद्धि काफी अधिक है। जबकि अमेरिका में निजी गाड़ियों का स्वामित्व और उपयोग पहले से ही बहुत ज्यादा है। ऐसे में, सवाल यही है कि तमाम देश आखिर किस तरह उत्सर्जन कम करेंगे? अल्पविकसित व विकासशील देशों और गरीबों के विकास के अधिकार के साथ इसका किस तरह से तालमेल बिठाया जाएगा? क्या यह संभव हो सकेगा; अगर हां, तो कैसे? ये चंद ऐसे सवाल हैं, जिन पर हमें चर्चा करनी चाहिए। जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए जो हो रहा है, उसका सच यही है।


Date:29-09-19

सकारात्मक पहल

संपादकीय

स्वागतयोग्य है कि श्रम मंत्रालय अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के उम्मीदवारों को रोजगार देने वाली सार्वजनिक एवं निजी कंपनियों को प्रोत्साहन देने पर विचार कर रहा है। खास बात यह कि श्रम मंत्रालय कर्मचारी भविष्य निधि संगठन (ईपीएफओ) के जरिये सार्वजनिक ही नहीं, निजी क्षेत्र में काम करने वाले अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के कर्मचारियों के भी आंकड़े जुटा रहा है। इसका मकसद है इस प्रोत्साहन योजना के वित्तीय प्रभावों का आकलन किया जा सके। अगर यह योजना फलीभूत होती है, तो इसके दो फायदे होंगे। एक तो रोजगार प्रदाता को रोजगार बढ़ाने के लिए प्रोत्साहन मिलेगा और दूसरे इन कर्मचारियों को सामाजिक सुरक्षा मिल जाएगी। हालांकि इसे तार्किक परिणति तक पहुंचाने में समस्या आएगी, लेकिन यह असंभव भी नहीं है। यहां सवाल यह उठता है कि सरकार को इस तरह की पहल की जरूरत क्यों पड़ गई? भारत सरकार पहले से ही अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के सदस्यों को सकारात्मक पहल के तहत सरकारी क्षेत्र में आरक्षण प्रदान कर रही है, ताकि प्रशासन में उनके समुचित प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित किया जा सके। लेकिन पिछले तीन दशकों में उदारीकरण और निजीकरण ने रोजगार के परिदृश्य को बदल दिया है। सरकारी क्षेत्र में नौकरियां या तो स्थिर हैं या कम हो रही हैं, जबकि निजी क्षेत्र में नौकरियां बढ़ रही हैं। ऐसे में राजनीतिक दलों और सामाजिक संगठनों द्वारा निजी क्षेत्र में आरक्षण की मांग की जाती रही है। इनकी नजर में अगर उदारीकरण के दौर में निजी क्षेत्र में आरक्षण नहीं मिलता है, तो सामाजिक न्याय की अवधारणा मजाक बन जाएगी। लेकिन उद्योग जगत ऐसे किसी आरक्षण के खिलाफ है। उसे लगता है कि कुशल श्रम के अभाव में वृद्धि पर प्रतिकूल असर पड़ेगा। अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के उम्मीदवारों को आरक्षण देने के लिए उद्योग जगत कानूनी दृष्टि से बाध्य नहीं है। ऐसे में बीच का रास्ता यही था कि उद्योग जगत को इस समुदाय के उम्मीदवारों को रोजगार देने के लिए प्रोत्साहित किया जाए। लेकिन इन दोनों समुदायों की बदहाल शैक्षिक स्थिति के मद्देनजर इस बात में संदेह है कि ये फिलहाल इसका समुचित लाभ उठा पाएंगे। सवाल केवल नौकरी का ही नहीं है, बल्कि अच्छे वेतन वाली नियमित नौकरी का भी है।