29-11-2024 (Important News Clippings)
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Minority Protection Is No Minor Matter
ET Editorials
It’s becoming increasingly difficult to believe Dhaka’s charac- terisation of minorities (read: Hindus) being targeted in Bangladesh as an ‘exaggeration’ that needn’t worry the neigh- bourhood. With the arrest this week of an Iskcon priest for al- legedly hoisting a saffron flag above the national flag in Chat- togram, and then his being denied bail on sedition charges, so- unds like the kind of targeted repression that South Asia has turned into a mini-industry. On Thursday, thankfully, Dhaka high court declined to issue a suo motu order to ban Iskcon’s activities in Bangladesh, even as the organisation distanced itself from the arrested person who is reportedly a vocal critic of the recent reported attacks on Hindus under the watch of Muhammad Yunus-run interim govern-ment. He is not the only voice of deep con- cern among Bangladesh’s Hindus.
Sedition laws have no place in modern democracies. Real decolonisation means junking them, as they allow governments and prosecutors to weaponise them aga- inst their own citizens. Their presence in any nation is a signal of diminished democracy and freedom, something that comes hand in hand with perversely descri- bing attacks on minority groups, including those along reli- gious lines, as ‘fringe’ activities that needn’t worry anyone. Targeting of minorities is unacceptable in any democracy. New Delhi should drive this home to Dhaka by rallying other democratic, secular voices. Finger-wagging alone is unlikely to work, considering Bangladesh may well use the ‘pot calling the kettle black’ principle to underplay its lack of concern for communal build-up in its own backyard. A multilateral app- roach would be more pragmatic to get Bangladesh to not suc- cumb to mob facilitation in the name of populism.
Date: 29-11-24
Targeting minorities
Far from reining in majoritarian groups, Bangladesh is pandering to them
Editorials
Violent protests and clashes, after the ar- rest of Chinmoy Das, a Hindu monk and leader of one of the newer minority rights groups, that led to a lawyer dying at a Chit- tagong court are clear proof, if any was needed, that the law and order situation in Bangladesh re- mains precarious. The protests, by thousands from the group representing ‘Sanatani Hindus’ (called the Bangladesh Sommilito Sanatani Jagran Jote), have a key demand that the Muhammad Yunus-led interim government secures the safety of the country’s 20-million strong religious mi- norities – Hindus, Christians and Buddhists – who have been targeted by Islamist majoritarian mobs. In more than 2,000 documented acts of violence, at least nine minority members have been killed, ostensibly in protests targeting sup- porters of Ms. Hasina’s Awami League party; there is a visible communal angle too. Mr. Das, who has also been associated with the Bangla- desh chapter of the ISKCON, highlighted an eight -point list of demands. These include speedy trials for cases of minority persecution; a minor- ity protection law and a minority affairs ministry, and five-day public holidays for Durga Puja. The government has not responded so far although Mr. Yunus has met with minority representatives and visited the Dhakeshwari temple. Instead, it would seem that Bangladesh forces have been empowered to crack down on all such protests, even if lawful and peaceful. The case against Mr. Das pertains to a group of Hindus who raised saf fron flags, allegedly holding them higher than the Bangladesh national flag. The political activist who filed the case of sedition has since been ex- pelled from the Bangladesh Nationalist Party, fuelling suspicions that action on the case was unwarranted. In such a charged environment, the summary arrest and custody of a senior reli- gious figure will only ignite communal tensions.
The actions, as well as a move to push a ban of the ISKCON group through the courts, are also fuelling criticism of the Yunus government. New Delhi has been consistently vocal in asking Ban- gladesh to protect its minorities, and to refrain from such heavy-handed treatment of a revered figure. However, due to the Modi’s government’s tense ties with the Yunus regime, these calls have not made much headway. In a stern pushback, the Bangladesh Foreign Ministry expressed “dis- may and hurt” at India’s statements, accusing In- dia of “misrepresenting” the situation. The Ban- gladeshi government also defended the “specific charges” against Mr. Das. If New Delhi wishes to ensure that minorities feel more secure in Bangla- desh, it must attempt reopening bilateral chan- nels of communication. India must recognise that its voice will only be respected if it is able to en- sure protections and freedoms to all citizens in exactly the measure it advocates abroad, particu- larly in the immediate neighbourhood, where the risk of religious majoritarianism runs high.
इजराइल – लेबनान की संधि सुखद शुरुआत है
संपादकीय
अमेरिका में ट्रम्प की जीत का पहला सकारात्मक पहलू है- इजराइल और हिजबुल्ला के बीच 60 दिनों का युद्ध-विराम । यह अलग बात है कि इजराइली प्रधानमंत्री ने समझौते के तीन कारण बताए हैं- पहला, ईरान के खिलाफ ध्यान केंद्रित करना; दूसरा, सेना को अल्पकालीन शक्ति संचय और हथियारों का स्टॉक सुनिश्चित करना, और तीसरा, हमास (फिलस्तीन) और हिजबुल्ला (लेबनान) में से एक को फिलहाल युद्ध से बाहर करना। शांति संधि के ऐसे कारण तो डर पैदा करते हैं और इजराइल के भावी इरादों को स्पष्ट करते हैं। लेकिन पहली बार इस त्रि-पक्षीय युद्ध-विराम संधि में पक्षकारों के रूप में इजराइल, लेबनान और यूएन में लेबनान की सेना के साथ अमेरिका और फ्रांस का भी नाम है। दो महीने बाद ट्रम्प राष्ट्रपति का पद संभाल चुके होंगे और समझौते न मानने पर इजराइल को डर रहेगा कि हथियार की आपूर्ति रोकी जा सकती है। हालांकि देर से ही सही, लेकिन क्या जो प्रयास पश्चिमी देशों ने ट्रम्प के आने के बाद पश्चिमी एशिया को लेकर किए हैं, क्या वही कोशिश रूस – यूक्रेन युद्ध खत्म कराने के लिए नहीं होनी चाहिए? अगर रूस – यूक्रेन में शांति बहाली होती है, तो यूरोप ही नहीं अमेरिका को भी आशातीत वाणिज्यिक लाभ होगा।
Date: 29-11-24
संभल, अजमेर जैसे मामलों से छिड़ गई है एक नई बहस
विराग गुप्ता, ( सुप्रीम कोर्ट के वकील )
बांग्लादेश में हिन्दू मंदिरों पर हमला और इस्कॉन पर प्रतिबंध की मांग भारतीय उपमहाद्वीप में कट्टरपंथियों के बढ़ते वर्चस्व को दर्शा रहे हैं। साल 2011 में 15वें संविधान संशोधन से बांग्लादेश को धर्मनिरपेक्ष देश माना गया था, जिसे अब खत्म करने की मांग हो रही है। भारत में भी आपातकाल के दौरान प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने संविधान की प्रस्तावना में समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता शब्दों को शामिल किया था।
सुप्रीम कोर्ट में नए चीफ जस्टिस संजीव खन्ना ने इन दोनों शब्दों को प्रस्तावना से हटाने वाली याचिका को संक्षिप्त आदेश से खारिज करके अच्छी शुरुआत की है। कई जज ऐसे मामलों में संविधान पीठ के गठन और लम्बे-चौड़े आदेश से सुर्खियां बटोरते हैं, लेकिन इससे मुकदमों का बोझ बढ़ने के साथ न्यायपालिका की गरिमा कमजोर होती है। वक्फ, धर्मान्तरण, मुस्लिमों को आरक्षण, प्रार्थना-स्थल कानून की वैधता, मदरसा, घुसपैठियों पर विवाद से जुड़े कई कानूनों पर बढ़ रही बहस से कई लोग भारत के धर्मनिरपेक्ष चरित्र पर सवाल उठाते हैं। बढ़ते कट्टरपंथ के लिहाज से धर्मनिरपेक्षता से जुड़े कानूनी पहलुओं की परख जरूरी है।
1. आपातकाल के दौरान संजय गांधी के नसबंदी अभियान और पुरानी दिल्ली में तुर्कमान गेट पर तोड़फोड़ से अल्पसंख्यक समुदाय कांग्रेस से नाराज था। सियासी बढ़त हासिल करने के लिए इंदिरा सरकार ने लोकसभा का नियमित कार्यकाल खत्म होने के बाद 42वें संशोधन से प्रस्तावना में धर्मनिरपेक्ष और समाजवाद शब्दों को शामिल किया था। उस कवायद से दो बड़े सवाल उठे? क्या आजादी से आपातकाल तक भारत का संविधान धर्मनिरपेक्ष नहीं था? और क्या अब प्रस्तावना से धर्मनिरपेक्ष शब्द हटाए जाने पर संविधान धर्मनिरपेक्ष नहीं रहेगा? उन दोनों शब्दों को प्रस्तावना से हटाने वाली याचिका को निरस्त करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने संविधान में संशोधन के लिए संसद के अधिकारों को सर्वोपरि माना है। बेसिक ढांचा सिद्धांत के अनुसार प्रस्तावना समेत अनेक संवैधानिक प्रावधानों को संसद नहीं बदल सकती। लेकिन 1976 में मूल प्रस्तावना को संसद ने संशोधित किया था। इसलिए प्रस्तावना में बाद में शामिल धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद दोनों शब्दों को संसद में संविधान संशोधन से हटाया जा सकता है। लेकिन उसकी जरूरत नहीं है । इंदिरा सरकार ने नागरिकों के कर्तव्य को भी संविधान संशोधन से शामिल किया था, जिसे हटाने की कोई चर्चा नहीं है।
2. आजादी के बाद पृथक वोटर लिस्ट का सिस्टम खत्म होकर सभी को बराबरी से वोट डालने का अधिकार मिला । संविधान में समानता की वजह से बहुसंख्यक या अल्पसंख्यक दोनों के नाम पर किसी भी समुदाय का तुष्टीकरण नहीं हो सकता। सच्चर कमेटी की रिपोर्ट से जाहिर है कि मुस्लिम समुदाय में अशिक्षा की वजह से गरीबी और पिछड़ापन है। इसलिए मदरसों और वक्फ में सुधार से जुड़े कानूनों का स्वागत होना चाहिए। अनुच्छेद 370 की समाप्ति, समान नागरिक संहिता और घुसपैठियों पर रोक लगाने जैसे कानूनी मुद्दों पर धर्म की सियासत सरासर गलत है।
3. मध्यकाल में अनेक मंदिरों को तोड़कर मस्जिदें बनाई गईं, जो ऐतिहासिक सच है। काशी, मथुरा और अयोध्या के मंदिरों से पूरे हिन्दू समाज की आस्था जुड़ी है। शुरुआती दौर में उन स्थानों पर मुस्लिम समुदाय की सहमति मिलने पर 21वीं सदी के भारत को मध्ययुगीन विवादों के पचड़ों से मुक्ति मिल सकती थी। 2022 में जस्टिस चन्द्रचूड़ ने पूजास्थल कानून की व्याख्या करते हुए कहा था कि किसी पूजास्थल का धार्मिक स्वरूप नहीं बदला जा सकता, लेकिन धार्मिक स्वरूप की जांच हो सकती है। उसकी आड़ में सिविल अदालतों में मस्जिदों-मजारों के सर्वे की मांग बढ़ने से संसद के कानून और सुप्रीम कोर्ट की मर्यादा दोनों का हनन हो रहा है। संभल, अजमेर आदि में इतिहास बदलने की कोशिश में देश का भविष्य बिगड़ सकता है।
4. पाकिस्तान में सिर्फ 2.17 फीसदी और बांग्लादेश में लगभग 8 फीसदी हिन्दू बचे हैं। जबकि 15 फीसदी से ज्यादा मुस्लिमों की वजह से भारत दुनिया का दूसरा सबसे ज्यादा मुस्लिम आबादी वाला देश है। लेकिन भारत के संविधान की प्रस्तावना में सभी नागरिकों के लिए समानता, स्वतंत्रता और न्याय की बात कही गई है। 50 साल पहले आपातकाल में किए गए संविधान संशोधन को प्रतीकात्मक तौर पर रिवर्स करने की कोशिश से भारत में गवर्नेस और संविधान दोनों की गाड़ी बेपटरी हो सकती है। क्योंकि प्रस्तावना में बदलाव के बावजूद भारत में समानता पर आधारित संवैधानिक व्यवस्था धर्मनिरपेक्ष ही रहेगी।
Date: 29-11-24
हिंसा के निशाने
संपादकीय
करीब तीन महीने पहले बांग्लादेश में जब एक अप्रत्याशित घटनाक्रम के बीच तख्तापलट के बाद नई अंतरिम सरकार ने काम करना शुरू किया था, तब उम्मीद की गई थी कि वह अब सबके हित को मकसद बना कर नई राह पर चलेगी। मगर अब वहां से जैसी खबरें आ रही हैं, वे यही बताती हैं कि बांग्लादेश शायद फिर से एक नई समस्या के दौर में दाखिल हो रहा है। यह विडंबना ही है कि नई अंतरिम सरकार ने सबको साथ लेकर चलने का भरोसा दिया था, लेकिन अब वहां के अल्पसंख्यक समुदायों के सामने बेहद जटिल स्थिति खड़ी हो रही है और उनके साथ होने वाले बर्ताव से ऐसा लगता है कि उन्हें देश में दोयम दर्जे का नागरिक माना जाएगा। अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि वहां सामुदायिक टकराव की स्थिति बन रही है और सरकार उसका कोई समाधान निकालने के बजाय अल्पसंख्यकों के खिलाफ नाहक आक्रोश को रोक नहीं पा रही है।
गौरतलब है कि कुछ समय से लगातार ऐसी आवाजें उठ रही हैं कि बांग्लादेश की नई अंतरिम सरकार के जिम्मेदारी संभालने के बाद स्थानीय हिंदू समुदाय के साथ कई स्तर पर भेदभाव किए जा रहे हैं और सरकार उन्हें रोकने के बजाय अपनी आंखें मूंदे हुए है। जबकि बांग्लादेश में बगावत के बाद नए दौर की शुरुआत के साथ लोगों ने वहां सद्भाव और समावेशी राह की नई हवा बहने की उम्मीद की थी। फिलहाल स्थिति यह है कि वहां की पुलिस ने इस्कान समूह से जुड़े रहे चिन्मय कृष्ण दास को गिरफ्तार कर लिया। हालांकि वहां उन पर राष्ट्रीय झंडे को अपमानित करने का हवाला देकर राष्ट्रद्रोह का आरोप लगाया गया है, मगर इस आरोप की हकीकत तो जांच से ही सामने आएगी। इसके बाद बांग्लादेश की नई सरकार के इस रुख पर सवाल उठने लगे हैं कि पिछली सरकार को तानाशाही बता कर सत्ता में आने के बाद क्या अब उसका रवैया धार्मिक अल्पसंख्यकों के प्रति पनप रहे विद्वेष को तुष्ट करने वाला होगा। कहने को बांग्लादेश की सरकार इस तरह के आरोपों से इनकार करती है, लेकिन आखिर क्या वजह है कि वहां हिंदुओं सहित अन्य अल्पसंख्यक समुदायों की ओर से अपने खिलाफ माहौल पैदा करने के आरोप लगाए जा रहे हैं और सरकार अपने रवैये से इस समस्या का कोई सौहार्दपूर्ण हल निकालने के बजाय असंतोष को बढ़ावा दे रही है !
सवाल है कि अगर बांग्लादेश में पूर्व की सरकार पर तानाशाही के आरोप थे और आम जनता ने उसके खिलाफ विद्रोह करके उसे सत्ता से हटाया, तो नए दौर के शुरुआती महीनों में ही वहां से ऐसी तस्वीरें क्यों सामने आने लगी हैं। फिलहाल जिस तरह के हालात पैदा हो रहे हैं, अगर सरकार ने उस पर तत्काल लगाम लगाने के ठोस उपाय नहीं किए तो सामुदायिक टकराव चिंताजनक रास्ता भी अख्तियार कर सकता है। हालांकि बांग्लादेश इसे अपना घरेलू मामला बता रहा है, लेकिन पड़ोसी देश में इस तरह की घटनाओं का व्यापक असर पड़ सकता है। यही वजह है कि भारत ने इस मसले पर चिंता जताई है। बांग्लादेश में यह अफसोसनाक स्थिति तब है कि जब नई सरकार की कमान शांति के लिए नोबेल पुरस्कार से सम्मानित मोहम्मद यूनुस के हाथों में है। उनके इसी परिचय की वजह से उनसे उम्मीद की जा रही है कि वे वहां कानून-व्यवस्था का राज लाने के साथ-साथ सभी समुदायों के बीच सद्भाव कायम करेंगे, ताकि बांग्लादेश अपने नए सफर में मानवाधिकारों और शांति की राह पर आगे बढ़ने का संदेश दे ।
Date: 29-11-24
नई रणनीति का हिस्सा
डॉ. ब्रह्मदीप अलूने
युद्धविराम को लेकर माना जाता है कि यह शत्रुता को कम करने का प्रयास होता है तथा युद्ध के स्थायी समाधान की तरफ बढ़ने का संकेत होता है। हालांकि इससे युद्ध की स्थिति खत्म नहीं हो जाती और फिर जब युद्ध विराम इस्राइल और उसके प्रतिद्वंद्वी देशों के बीच हो तो आशंकाएं बरकरार रहती ही हैं।
दरअसल, इस्राइल और ईरान समर्थित हथियारबंद समूह हिज्बुल्लाह के बीच युद्धविराम समझौता हुआ है। अमेरिका, फ्रांस, संयुक्त राष्ट्र, लेबनान और इस्राइल मिल कर ब्ल्यूलाइन के उस समझौते को लागू करने जा रहे हैं, जिसे मध्य-पूर्व में शांति स्थापना की उम्मीदों के तौर पर देखा जा रहा है। इस समझौते की शर्तों के अनुसार साठ दिनों में हिज्बुल्लाह अपने लड़ाकों और हथियारों को ब्ल्यूलाइन के बीच से हटा लेगा। इस्राइल और लेबनान के बीच एक सीमांकन रेखा है जिसे ब्ल्यूलाइन कहा जाता है, संयुक्त राष्ट्र द्वारा करीब ढाई दशक पहले खींची गई यह रेखा कोई आधिकारिक अंतरराष्ट्रीय सीमा नहीं, बल्कि एक सीमांकन रेखा है जिसे 1920 के दशक में ब्रिटेन और फ्रांस द्वारा लेबनान, सीरिया और फिलिस्तीन के बीच स्थापित किया गया था। बाद में इस्राइल के लिए यह बेहद खास बन गई। ब्ल्यूलाइन दक्षिण लेबनान में है। और यह इलाका इस्राइल पर हमलों के लिए बेस कैंप की तरह इस्तेमाल किया जाता है। इस क्षेत्र में हिज्बुल्लाह बहुत मजबूत है।
यह शिया बाहुल्य क्षेत्र है, और ईरान इसका इस्तेमाल इस्राइल पर दबाव बनाने के लिए करता रहा है। 2010 में, ईरानी राष्ट्रपति महमूद अहमदीनेजाद ने दक्षिणी लेबनान का दौरा किया था। इस्राइल और अमेरिका, दोनों ने इस यात्रा की निंदा करते हुए इसे युद्ध भड़काने की कोशिश बताया था। अहमदीनेजाद का स्वागत लेबनान में ईरान के शिया मुस्लिम सहयोगी हिज्बुल्लाह के हजारों समर्थकों ने किया था, जिसे दक्षिण अमेरिका, यूरोपीय संघ, अरब लीग, अमेरिका और इस्राइल द्वारा आंशिक या पूर्ण रूप से आतंकवादी संगठन करार दिया गया है। हिज्बुल्लाह और इस्राइल के बीच चल रही जंग की वजह से दक्षिणी होने के बाद से सरहदी इलाके के अपने घरों में नहीं लौट सके हैं। यह समझौता गाजा पट्टी में चल रहे युद्ध पर लागू नहीं है जहां इस्त्राइल अभी भी अक्टूबर, 2023 में दक्षिणी इस्राइल में समूह के सीमा पार छापे के जवाब में हमास आतंकवादियों से लड़ रहा है।
इस समय हिज्बुल्लाह गहरे दबाव में है। उसके कम्युनिकेशन नेटवर्क पर हमला करने से इस्राइल की रणनीतिक तौर पर जीत हुई है। इस्राइल युद्ध में बड़ी जीत का दावा कर सकता है, जिसमें हिजबुल्लाह के शीर्ष नेता हसन नसरुल्लाह और उसके अधिकांश वरिष्ठ कमांडरों की हत्या के साथ साथ ही व्यापक आतंकवादी ढांचे का विनाश शामिल है। इस्राइल ने साफ किया है कि यदि हिज्बुल्लाह समझौते की शर्तों का उल्लंघन करता है तो वह उस पर हमला करने का अधिकार रखता है। अब लेबनान की सेना दक्षिण में पांच हजार सैनिकों को तैनात करेगी। हिज्बुल्लाह प्रभावशाली शिया मुस्लिम राजनीतिक पार्टी और सशस्त्र समूह है। लेबनान की संसद और सरकार, दोनों में इसकी महत्त्वपूर्ण उपस्थिति है। तथा यह देश की सबसे शक्तिशाली सशस्त्र सेना को नियंत्रित करता है। इसे कई वर्षों से ईरान से आर्थिक और सैन्य, दोनों तरह से मजबूत समर्थन प्राप्त है। यह सीरियाई राष्ट्रपति बशर अल असद का भी मजबूत सहयोगी है। लेबनान की सेना से कहीं अधिक हिज्बुल्लाह शक्तिशाली है, ऐसे में हिज्बुल्लाह को नियंत्रित करना उनके लिए आसान नहीं होगा। हमास ने मिस्र, कतर और तुर्की के मध्यस्थों को सूचि किया है कि वह भी युद्ध विराम समझौते और कैदियों की अदला-बदली के लिए गंभीर समझौते के लिए तैयार है।
जाहिर है कि गाजा भी सीजफायर करीब है, मगर अब हालात फिर वैसे हो गए हैं कि जहां से चीजों को बेहतर कर पाना मुश्किल नजर आता है। हमास गाजा पट्टी से हमेशा के लिए इस्राइल को बाहर निकालना चाहते हैं, साथ ही इस्राइली बंधकों को छोड़े जाने के बदले वो फिलस्तीनी कैदियों की रिहाई चाहते हैं। दूसरी तरफ, इस्राइल के प्रधानमंत्री बिन्यामिन नेतन्याहू हमास पर जीत हासिल करने के लिए संकल्पित हैं। इस्राइल ने हिज्बुल्लाह से युद्ध विराम समझौता कर खुद की सेना को एक बार फिर व्यवस्थित होने का अवसर दिया है। 7 अक्टूबर, 2023 के हमले के बाद हमास ने 254 इस्राइलियों को बंधक बनाया था। पहले चरण की बातचीत के बाद 154 इस्राइली बंधक रिहा हो चुके हैं, लेकिन 100 लोग अभी भी हमास की कैद में हैं। वहीं ईरान लेकर भी इस्त्राइल किसी ठोस योजना पर काम करना चाहता है । इस्राइल यह भी सुनिश्चित कर रहा है की हिज्बुल्लाह सरहद के पास किसी आधारभूत ढांचे का निर्माण न करे और न ही रॉकेट लॉन्चर या टनल ब्ल्यूलाइन के आसपास बनाए। लगता है कि हिज्बुल्लाह अपने संगठन को फिर से मजबूत करने के लिए समय देना चाहता है और बदली हुई वैश्विक परिस्थितियों में ईरान भी इस पर सहमत हुआ है।
युद्ध नीति का उद्देश्य युद्ध में विजय प्राप्त करना और अपनी सैन्य शक्ति का प्रभावी उपयोग करना होता है। इस्राइल और हिज्बुल्लाह के बीच युद्ध विराम दोनों को राहत दे रहा है, लेकिन यह भविष्य के भीषण युद्ध की तैयारी के तौर पर भी देखा जाना चाहिए। अंतरराष्ट्रीय समुदाय को समझना होगा कि जब तक गाजा में जंग जारी है, तब तक मध्य-पूर्व में हालात बेहतर नहीं होंगे। ठोस कूटनीति के जरिए इस्राइल – फिलीस्तीन समस्या का समाधान निकालने का रास्ता ढूंढना ही होगा।