29-10-2019 (Important News Clippings)
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व्यवसाय करने की आसानी बढ़ी पर रोजगार नहीं बढ़ा
संपादकीय
एक सप्ताह में दुनिया की दो प्रसिद्ध वैश्विक संस्थाओं की रिपोर्ट आईं। ताज़ा रिपोर्ट के अनुसार भारत में ‘व्यवसाय करने की सुगमता’ इतनी ज्यादा बढ़ी है कि यह देश पिछले पांच वर्षों में 79 रैंक की छलांग लगाकर आज 63वें नंबर पर आ गया है।प्रधानमंत्री ने इसे 50वीं रैंक के अंदर लाने का आदेश दिया है और वित्तमंत्री ने वादा किया कि लक्ष्य जल्द ही हासिल किया जा सकेगा। दूसरी रिपोर्ट विश्व भूख सूचकांक में भारत के इसी काल में नौ रैंक नीचे खिसककर 102 रैंक पर पहुंचने की है। अगर व्यापार की सुगमता इस काल में इतनी बढ़ी है तो अर्थशास्त्र के सिद्धांत तो छोड़िए, सामान्य ज्ञान से नतीजा यही निकलता है कि रोजगार बढ़ा होगा, लेकिन भारत सरकार के नरेगा कार्यक्रम के ताज़ा आंकड़े बताते हैं कि इस काल में कामगार युवाओं (18-30 आयु वाले) का गांव की ओर पलायन बढ़ता रहा है और भारत सरकार के लेबर ब्यूरो की रिपोर्ट भी बढ़ती बेरोजगारी की पुष्टि करती है।फिर प्रश्न यह उठता है कि अगर व्यापार के अवसर बेहतर हुए हैं, लेकिन भूख से लड़ने में बांग्लादेश, नेपाल, पाकिस्तान और श्रीलंका हमसे बेहतर हैं तो क्या सरकार को प्राथमिकता बदलनी होगी? व्यापार के बेहतर अवसर हमारे युवाओं को पांच साल से रोजगार नहीं दे सके। उधर, अन्य देशों के मुकाबले भूख और कुपोषण से लड़ना सरकार की प्राथमिकता न होने से देश के नौनिहाल उम्र के हिसाब से कम लंबाई और लंबाई के हिसाब से कम वजन के पैदा हो रहे हैं यानी भारत का भविष्य खतरे में है।चीन ने युवा आबादी का लाभ लेने के लिए लगभग दो दशकों तक स्वास्थ्य और शिक्षा में जबर्दस्त निवेश किया। 2017 में केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री ने संसद में कहा कि स्वास्थ्य के मद में जीडीपी का 2.5 फीसदी खर्च किया जाएगा, लेकिन दो साल से यह 1.65 से घटते-घटते आज 1.24 फीसदी तक आ गया है, लेकिन जब विश्व भूख सूचकांक की रिपोर्ट आई तो स्वास्थ्य मंत्री ने ऐसा कोई वादा नहीं किया।भारत को प्राथमिकता बदलनी होगी ताकि इसके पहले कि बूढ़ों की युवाओं पर निर्भरता का अनुपात बढ़े और युवा आबादी का भरपूर लाभ लेने से हम चूक जाएं, स्वास्थ्य और शिक्षा में अपेक्षित निवेश करना होगा। व्यापार के बेहतर अवसर के लिए शिक्षित और स्वस्थ समाज की जरूरत होगी। तभी व्यापार के उचित अवसर का भी लाभ मिल सकेगा।
सबक सिखाने वाले चुनाव के नतीजे
संजय गुप्त , (लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं )
महाराष्ट्र और हरियाणा के विधानसभा चुनाव नतीजे यही स्पष्ट कर रहे हैैं कि राजनीतिक हालात लगातार बदलते रहते हैैं। चंद माह पहले लोकसभा चुनावों में भाजपा ने नरेंद्र मोदी के नेतृत्व और अमित शाह के कुशल प्रबंधन में देश के अन्य अनेक हिस्सों के साथ महाराष्ट्र और हरियाणा में भी शानदार जीत हासिल की थी, लेकिन विधानसभा चुनावों में इन दोनों राज्यों में विपक्षी दल उसे चुनौती देते नजर आए। दोनों राज्यों के नतीजे भाजपा को चिंतित करने के साथ ही उसके आत्मविश्वास पर असर डालने वाले हैं।हरियाणा में तो विपक्ष ने एक तरह से भाजपा का विजय रथ ही रोक दिया। यहां भाजपा ने 75 पार का लक्ष्य तय किया था, लेकिन उसे बहुमत के लिए जरूरी 46 सीटें भी नहीं मिलीं। इसके विपरीत जो कांग्रेस गुटबाजी से ग्रस्त दिखने के साथ मुद्दों के अभाव से जूझ रही थी उसने पिछली बार के मुकाबले दूनी सीटें हासिल कर लीं।
जब यह लग रहा था कि त्रिशंकु विधानसभा के कारण हरियाणा में सरकार गठन में देरी होगी तब भाजपा ने बड़ी आसानी से बहुमत का जुगाड़ कर लिया। पहले करीब-करीब सभी निर्दलीय उसके साथ आ गए, फिर जननायक जनता पार्टी उसके साथ सरकार में शामिल होने को तैयार हो गई।जननायक जनता पार्टी के सरकार में शामिल होने से एक ओर जहां भावी सरकार को स्थायित्व की गारंटी मिली वहीं भाजपा दागी छवि वाले विधायक गोपाल कांडा का समर्थन लेने की तोहमत से बच गई। अगर संगीन आरोपों से घिरे गोपाल कांडा के समर्थन से भाजपा सरकार बनाती तो उसके लिए अपनी छवि बचाना मुश्किल हो जाता। यह अच्छा हुआ कि भाजपा ने कांडा से दूरी बनाना बेहतर समझा। जननायक जनता पार्टी के भाजपा के साथ आने से भाजपा को जाटों की नाराजगी दूर करने में भी मदद मिलेगी, लेकिन यह सामान्य बात नहीं कि खट्टर सरकार यह समझ ही नहीं सकी कि जाट मतदाता उन्हें सत्ता से बाहर करने का मन बना चुके थे।
यह आश्चर्यजनक है कि जिस हरियाणा में सरकार बनने में देरी के आसार दिख रहे थे वहां तो सरकार का गठन पहले सुनिश्चित हो गया और जिस महाराष्ट्र में भाजपा-शिवसेना ने आसानी से बहुमत हासिल किया वहां सरकार गठन में विलंब होता दिख रहा है। इसका कारण शिवसेना की ओर से सौदेबाजी करना है। वह ढाई-ढाई साल तक बारी-बारी से सत्ता संभालने के फार्मूले पर जोर दे रही है। चूंकि महाराष्ट्र में भाजपा उम्मीद से कम एक सौ पांच सीटें ही जीत सकी इसलिए 56 सीटें हासिल करने वाली शिवसेना उस पर अपना दबाव बढ़ा रही है। देखना है कि यह दबाव क्या गुल खिलाता है? अगर शिवसेना सौदेबाजी की अपनी ताकत का जरूरत से ज्यादा इस्तेमाल करती है तो भाजपा से उसके संबंधों में फिर से खटास आ सकती है और उसका असर सरकार के कामकाज पर भी पड़ सकता है।
महाराष्ट्र और हरियाणा में भाजपा ने जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाने के केंद्र सरकार के फैसले को जोर-शोर से प्रचारित किया था। इसके अलावा उसने सीमाओं की सुरक्षा समेत राष्ट्रवाद को भी भुनाने की कोशिश की, लेकिन नतीजे बता रहे हैैं कि क्षेत्रीय और स्थानीय मसले भारी पड़े। इसके अलावा यह भी दिख रहा है कि जाति-बिरादरी से जुड़े मसलों ने भी अपना असर दिखाया। जहां हरियाणा में जाटों की नाराजगी मुद्दा बनी वहीं महाराष्ट्र में एनसीपी के शरद पवार ने मराठा कार्ड खेला। उन्होंने खुद पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों को भी अपने पक्ष में भुनाने का काम किया। शायद इसी कारण एनसीपी के मुकाबले कांग्रेस पिछड़ गई।ध्यान रहे कि हरियाणा की तरह महाराष्ट्र में भी कांग्रेस गुटबाजी से ग्रस्त थी। कांग्रेस हरियाणा में तो भूपेंद्र सिंह हुड्डा के नेतृत्व में फिर से खड़ी होती दिखी, लेकिन महाराष्ट्र में उसका प्रदर्शन फीका ही रहा। इन दोनों राज्यों में कांग्रेस को जो भी सफलता मिली उसमें सोनिया-राहुल का योगदान मुश्किल से ही नजर आता है। सोनिया गांधी ने महाराष्ट्र में गिनती की सभाएं कीं। उनके मुकाबले राहुल ने ज्यादा सभाएं कीं, लेकिन वह घिसे-पिटे मुद्दों के सहारे ही मोदी सरकार को घेरते रहे। उनके पास राफेल सौदे में गड़बड़ी और चंद उद्योगपतियों को लाभ पहुंचाए जाने के वही पुराने जुमले थे जो वह लोकसभा चुनाव में उछाल चुके थे।
पता नहीं कांग्रेस नेतृत्व अपनी कमजोरियों को कब समझेगा, लेकिन कम से कम महाराष्ट्र और हरियाणा के नतीजों से भाजपा को तो यह समझना ही होगा कि विधानसभा चुनावों में क्षेत्रीय मुद्दे ही कारगर रहते हैं। अगर राज्य सरकारें क्षेत्रीय मसलों को सही ढंग से हल नहीं करेंगी तो फिर राष्ट्रीय मुद्दे उनके लिए मददगार नहीं हो सकते। विधानसभा चुनावों में मतदाता यह देखता है कि राज्य सरकार ने उसकी रोजमर्रा की समस्याओं को सुलझाने के लिए क्या किया, न कि यह कि केंद्र सरकार ने राष्ट्रीय महत्व के सवालों को किस तरह हल किया?
महाराष्ट्र और हरियाणा में भाजपा को मनमाफिक जीत नहीं मिली तो इसकी एक वजह आर्थिक मंदी का माहौल भी है। हैरत नहीं कि मतदान में कमी का एक बड़ा कारण यह माहौल ही रहा हो। यह मानने के पर्याप्त कारण हैं कि आर्थिक सुस्ती से उदासीन और निराशा मतदाताओं ने वोट डालने से गुरेज किया या फिर नोटा का इस्तेमाल किया। एक अन्य कारण उपयुक्त उम्मीदवारों का अभाव भी हो सकता है। इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि हरियाणा में तमाम ऐसी सीटें रहीं जहां हार-जीत दो हजार वोटों के अंतर से हुई।
भाजपा को इस पर भी गौर करना चाहिए कि दोनों राज्यों में उसके ज्यादातर मंत्री चुनाव क्यों हार गए? मंत्रियों की हार जनता की नाराजगी को जाहिर करती है। भाजपा के लिए यह गनीमत रही कि इस नाराजगी के बाद भी वह दोनों राज्यों में सत्ता से बाहर नहीं हुई, लेकिन उसे मतदाताओं की उदासीनता और नाराजगी के कारणों की तह तक जाना होगा और उनका निवारण भी करना होगा।इसी के साथ उसे चुनाव वाले राज्यों में अपनी सरकारों के कामकाज पर भी ध्यान देना होगा, क्योंकि महाराष्ट्र और हरियाणा के नतीजों ने विपक्ष का मनोबल बढ़ाने का काम किया है। यह मनोबल दिल्ली और झारखंड में भाजपा के लिए चुनौती बन सकता है। यह ठीक है कि कांग्रेस राजस्थान, महाराष्ट्र और छत्तीसगढ़ की जीत को लोकसभा चुनावों में नहीं भुना सकी थी, लेकिन वह विपक्षी दलों के साथ मिलकर आगामी विधानसभा चुनावों में जनता की नाराजगी को फिर से भुना सकती है। इसे देखते हुए भाजपा के लिए यह आवश्यक है कि वह जनता की अपेक्षाओं को पूरा करने के लिए कमर कसे।
बैंको पर ‘डकैती’
गुरुदेव गुप्त
माओत्से तुंग के देहांत के बाद चीन में जैसा शून्य बनना चाहिए था, नहीं बना। क्योंकि डेंग जियाओपिंग जैसे शातिर राजनेता ने चीन को अपनी मुट्ठी में कर लिया और 1978 से 1992 तक यानी अपना अंत होने- होने तक डेंग ने चीन का सपना ही बदल दिया। माओ ने चीन की आंखों में कई सपने भरे थे जिनमें एक तत्व सदा मौजूद रहता था- सादगीपूर्ण समता! सायवाद का समता का आदर्श माओ ने अपनी और चीन की आंखों से ओझल नहीं होने दिया था। डेंग जानता था कि अपने महान नेता के जूते में पांव डालने की उसकी हैसियत नहीं है तो उसने जूता ही बदल लिया। उसने चीन को नया पाठ पढ़ाया-‘अमीर होना शानदार है ! आप अमीर हो सकें या नहीं, अमीर होने का सपना ही बहुत गुदगुदाता है। डेंग से आज चिनफिंग तक वही गुदगुदी है जो चीन को दौड़ाए चल रही है। अपने दुष्यंत कुमार ने यही तो गाया था न- खुदा नहीं, न सही, आदमी का वाब सही। कोई हसीन नजारा तो है नजर के लिए ! महात्मा गांधी ने भी कहा-‘मैं गरीबी का जानी दुश्मन हूं, क्योंकि गरीबी आदमी का जैसा अपमान करती है वैसा दूसरा कोई नहीं करता है। इसलिए मैं तो अपने समाज में ऐसा और इतना ऐश्वर्य चाहता हूं कि हर आदमी चाहे तो स्वर्ग जाने के लिए सोने की सीढ़ी बना ले। आप खोज जाइए, किसी पूंजीपति दार्शनिक का अमीरी का गुणगान करने वाला ऐसा कोई दूसरा वाक्यों! यह वह महात्मा गांधी हैं जिनसे हम रूबरू ही नहीं हो सके यानी ऐसे गांधी से हमारी पहचान बनने ही नहीं दी गई। गांधी को तो हमने हमेशा गरीब ही बनाए रखा, लेकिन सीधा सच्चा सच यह है कि महात्मा गांधी एकाधिक बार कहते मिलेंगे आपको कि मैं बनिया जाति का हूं, इसलिए नुकसान के सौदे नहीं करता हूं। लेकिन गांधी की अमीरी में एक पेंच है। उनका ऊपर का कथन एक बार फिर से पढिय़े, बार-बार पढिय़े और खोजिए कि इसमें ऐसा क्योंहै कि जो गांधी ही कह सकते थे, दूसरा नहीं? वे स्वर्ग तक जाने वाली सोने की सीढ़ी का सपना तो समाज की आंखों में भरते हैं लेकिन उसमें एक फच्चर डाल देते हैं- हर आदमी! लेकिन बैंक के जिस खाते में अमीरी के सपने की अचानक उपस्थिति का सपना हमें दिखाया गया था, वह खाता आज तक खाली क्यों है? ऐसा क्यों है कि मुंबई की पंजाब और महाराष्ट्र कोआपरेटिव बैंक जैसे कई संस्थानों में लोगों के लाखों लाख रुपये खाते में पड़े हों और वे ही लोग विक्षिप्त मन:स्थिति में इधर उधर गुहार लगाते फिर रहे हैं? सारी दुनिया में भयंकर मंदी के चलते कंपनियां बंद हो रही हैं। रोजगार खत्म हो रहे हैं। कल तक के हमारे अरब-खरबपति आज कहीं इंग्लैंड में, कहीं अमेरिका में और कहीं नामालूम से द्वीपसमूह में मुंह चुराकर चोरों की तरह जी रहे हैं। वे देश समाज का अरबों रुपया ले उड़े हैं। विकास के लिए जंगलों की अमानवीय कटाई हो रही है। नदियां नालों में बदलकर दम तोड़ रही हैं। हवा ताजगी नहीं, बीमारी लेकर दौड़ती है। लेकिन सरकार से समाज तक और अदालत तक की चुप्पी नहीं टूटती है। सड़कें, रेलें, मेट्रो, हवाई अड्डे आदि सब बेतहाशा बनाए व बढ़ाए जा रहे हैं, लेकिन उनको इस्तेमाल करने वाला इंसान साबूत बचा ही नहीं है। शिक्षा व्यापार बनती जा रही है। जिसमें ज्ञान नहीं डिग्रियां बिक रही हैं। नैतिकता, शुचिता, सदाचार और ईमानदारी बीते वक्त के अर्थहीन शब्द मात्र बचे हैं जिनका अब मंच से भी कोई उच्चारण नहीं करता है।