29-09-2025 (Important News Clippings)
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Date: 29-09-25
Make the State School System Fit for Purpose
ET Editorials

India’s education sector has become a perpetual sandbox-endless reforms, pilot projects and big-bang ideas keep rolling in, but old gaps linger, and new ones emerge. As the Fifth National Conference of Chief Secretaries approaches in November, the education ministry has red-flagged uncomfortable truths: high dropout rates (halved in two years, says MOSPI, but still alarming), deep learning gaps, private schools largely missing the reform bus and the urgent task of future-proofing 43 million higher education students for an AI-driven world. In short, India faces a formidable human capital challenge that could derail the dream of Viksit Bharat.
It isn’t as if nothing has worked. Sarva Shiksha Abhiyan, the Right to Education Act, midday meals and anganwadis expanded access and retention. More children now enter classrooms and stay longer. But learning outcomes remain stagnant, and the weakest link-teachers continues to hobble progress. Appointments riddled with politics and patronage, inadequate training and poor accountability mean that too many children pass through school without acquiring even basic skills.
This is the moment for the chief secretaries’ conference to stop recycling familiar slogans. Identify interventions that improved outcomes in elementary education and replicate or adapt them to stem losses during the critical transition from upper primary to secondary school. Make the state school system fit for purpose-schools parents want to send their children to, not those they settle for. At the core lies one truth: without committed, competent teachers, no reform will stick. India needs a selection and tra- ining system that attracts talent, rewards merit, and equips teachers to prepare a generation to learn, innovate and thrive. That is the only way to deliver on the promise of Viksit Bharat.
Date: 29-09-25
An avoidable tragedy
Police must not allow roadshows in dense locations
Editorials
Effective crowd management at mass gatherings demands the cooperation of organisers and attendees. However, when popular film stars attempt to convert their frenzied fan base into political capital, crowd management and safety are often compromised. This was tragically demonstrated in Tamil Nadu’s worst political rally disaster, that left 40 people, including children, dead, at Velusamypuram in Karur during actor-politician C. Joseph Vijay’s campaign, on Saturday night. Since September 13, when the Kollywood megastar launched his “weekend-only” roadshows, promoting his fledgling Tamilaga Vettri Kazhagam (TVK) as an alternative to the ruling Dravida Munnetra Kazhagam (DMK), restrictions have been breached and common sense sidelined. Mr. Vijay has resisted police restric tions, labelling them as a political move to stifle his growth. The TVK even approached the Madras High Court, which, concerned over the damage to public properties caused by his supporters, wanted the government to collect deposits from political parties as collateral. From the comfort of his campaign caravan, Mr. Vijay did little to prevent crowds along his route from joining in, paralysing traffic and delaying his arrival at meeting venues by several hours. Youths climbed electricity poles, transformers and rooftops, and clung to trees, and families held up vulnerable children just to catch a glimpse of the actor. Yet, there was no effective corrective action either from the organisers or the police personnel.
At Karur, the crowd, which was modest at noon, the scheduled time, swelled by the time he reached at 7.20 p.m. as supporters gathered after work hours. When they surged forward to hear him speak, many fainted or were crushed due to compressive asphyxia. Police say there was a significant mismatch between the turnout projected by the TVK-10,000 people – and the actual turnout – over 27,000. The government responded swiftly to the tragedy, arranging medical aid, overnight autopsies, and the prompt handing over of the bodies to grieving families. Chief Minister M.K. Stalin, who arrived in Karur past midnight, did the right thing by not politicising the tragedy and instead entrusting the probe to a commission of inquiry. The commission must look beyond the TVK’s lapses and examine whether the police had acted independently, especially in denying the TVK its preferred venues to accommoda
Date: 29-09-25
भगदड़ का सिलसिला
संपादकीय
तमिलनाडु के करूर में अभिनेता से नेता बने जोसफ विजय की रैली में भगदड़ मचने से 40 लोगों की मौत यही बता रही है कि अपने देश में इस तरह की घटनाओं से सबक सीखने से इन्कार किया जा रहा है। करूर की रैली में महिलाओं, बच्चों समेत 40 लोगों के कुचल कर मारे जाने की घटना की जांच हाई कोर्ट की पूर्व न्यायाधीश अरुणा जगदीशन को सौंप दी गई है, लेकिन इसके आसार कम ही हैं कि इस भयावह हादसे के लिए जिम्मेदार लोगों को जवाबदेह बनाने के साथ उन्हें दंडित भी किया जा सकेगा। इसकी उम्मीद इसलिए कम है, क्योंकि अपने देश में जनहानि की गंभीर से गंभीर घटनाओं की जांच में लीपापोती ही अधिक होती है। इस मामले में भी ऐसा ही हो और इतने अधिक लोगों की मौतों के लिए किसी को कठघरे में न खड़ा किया जाए तो आश्चर्य नहीं। चूंकि भगदड़ की घटनाओं के लिए जिम्मेदार लोगों के खिलाफ कभी कोई कठोर कार्रवाई नहीं होती, इसलिए सबक भी नहीं सीखा जाता और रह-रहकर ऐसी घटनाएं होती ही रहती हैं। इस वर्ष यह भगदड़ की सातवीं-आठवीं ऐसी घटना है, जिसमें लोगों की जान गई है।
करूर की घटना में प्रथमदृष्ट्या विजय जिम्मेदार दिख रहे हैं, क्योंकि वे इतनी देर से सभा स्थल पहुंचे कि शाम के सात बज गए। स्पष्ट है कि रैली के आसपास अंधेरा हो गया होगा। यह बात भी सामने आ रही है कि रैली स्थल में कुछ समय के लिए बिजली चली गई थी। हो सकता है कि यह भगदड़ मचने का एक बड़ा कारण बनी हो । जो भी हो, यह तो स्पष्ट है कि रैली में लोगों की सुरक्षा के लिए न तो विजय के कार्यकर्ताओं ने कोई प्रबंध कर रखे थे और न ही वहां उपस्थित पुलिसकर्मियों ने किसी तरह की सजगता दिखाई। जैसा कि हमेशा होता है, इस बार भी आरोप- प्रत्यारोप का सिलसिला चल निकला है। विजय और उनके समर्थक कुछ भी कहें, वे अपनी जवाबदेही से बच नहीं सकते । इसलिए और नहीं बच सकते, क्योंकि उन्होंने अपनी रैली में आने वाले लोगों की संख्या के बारे में भी कोई सही जानकारी नहीं दी थी। बहुत संभव है कि इसके चलते पुलिस ने भी पर्याप्त व्यवस्था न की हो। करूर में भगदड़ इसलिए भी मची, क्योंकि बहुत से लोग नेता नहीं अभिनेता विजय को देखने आए थे। अपने देश और विशेष रूप से तमिलनाडु में सेलेब्रिटी स्टेटस वाले लोगों के प्रति दीवानगी कुछ ज्यादा ही है। लोग खिलाड़ियों, फिल्मी सितारों और ऐसी ही अन्य हस्तियों की एक झलक पाने के लिए अपनी जान भी जोखिम में डाल देते हैं। बेंगलुरु में आरसीबी की जीत के जश्न में भगदड़ इसीलिए मची थी, क्योंकि लोग क्रिकेटरों की एक झलक पाने के लिए आतुर हो गए थे। यह ठीक है कि करूर की घटना पर सभी ने शोक संवेदना व्यक्त की, लेकिन यदि इस घटना से कोई ठोस सबक नहीं सीखा जाता तो इन संवेदनाओं का कोई मूल्य नहीं ।
Date: 29-09-25
सख्ती के समांतर
संपादकीय
लदाख के लेह में जिस तरह के हालात पैदा हुए, उसके बाद केंद्र सरकार शांति कायम करने के लिए सभी स्तरों पर कार्रवाई कर रही है। मगर इसके साथ कुछ सवाल भी उठे हैं कि आखिर वहां के लोगों के सामने ऐसी स्थिति क्यों आई कि उन्हें अपनी मांगों को लेकर लेह में आंदोलन पर उतरना पड़ा। उसी दौरान किन्हीं कारणों से वहां जमा लोगों ने अपना धीरज खो दिया और व्यापक अराजकता का माहौल बन गया, तो उसे संभालने के लिए सरकार की ओर से कार्रवाई को एक हद तक जरूरी माना जा सकता है। मगर क्या इस पर भी विचार करने की जरूरत नहीं है कि लेह में आंदोलनकारियों की मांगों की पृष्ठभूमि क्या है और उसे पूरा किया जाना क्यों तथा किस हद तक जरूरी है? गौरतलब है कि पिछले हफ्ते लेह में आंदोलन के दौरान लोगों के अराजक हो जाने के बाद पुलिस की गोलीबारी में चार लोगों की जान चली गई और हिंसा में कई लोग बुरी तरह घायल हो गए। फिर वहां के जलवायु कार्यकर्ता सोनम वांगचुक को राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत गिरफ्तार करके लाख से बाहर भेज दिया गया।
इस कार्रवाई को लद्दाख में फिर अराजकता या किसी साजिश की आशंका के मद्देनजर एहतियाती कदम के तौर पर देखा जा रहा है। मगर सवाल है कि अगर इस आंदोलन की पृष्ठभूमि पिछले कई वर्षों से बन रही थी, तो उसे समय रहते संबोधित करना और किसी ऐसे हल का खाका तैयार करना सरकार को जरूरी क्यों नहीं लगा, जिसमें सभी पक्षों की सहमति हो । लेह में आंदोलन कर रहे लोगों की मुख्य मांगें वही थी, जिसके लिए कई वर्ष पहले उनसे वादा किया गया था। केंद्रशासित प्रदेश लाख को पूर्ण राज्य का दर्जा दिए जाने और संविधान की छठी अनुसूची के तहत सुरक्षा देने की मांग के साथ शुरू हुए आंदोलन के मुद्दे नए नहीं थे। मगर लगातार इस मसले पर टालमटोल और वहां के संबंधित पक्षों से ठोस बातचीत को लेकर सरकार की उदासीनता ने एक ऐसी पृष्ठभूमि बनाई कि उसमें स्थानीय युवाओं के बीच बढ़ती बेरोजगारी जैसे मुद्दे भी शामिल हो गए।
जाहिर है, एक ऐसी स्थिति बन रही थी, जिसमें आंदोलनकारियों के बीच मौजूद कुछ अवांछित तत्त्वों के अराजक हो जाने की आशंका थी। मगर न तो संवाद को प्राथमिकता देकर हल खोजने की कोशिश की गई और न ही स्थानीय आबादी को विश्वास में लिया गया। अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि लोकतांत्रिक तरीके से चल रहे आंदोलन के समांतर व्यापक हिंसा हुई, मगर वहां के खुफिया तंत्र को शायद इसकी भनक नहीं लगी। जबकि चीन की सीमा के पास स्थित होने की वजह से लदाख को बेहद संवेदनशील इलाके के तौर पर देखा जाता है और वहां की हर संभावित परिस्थिति का आकलन करके जरूरी कदम उठाना सरकार की प्राथमिक जिम्मेदारी है। स्थानीय तकाजों के मुताबिक उठे मुद्दों की बहुस्तरीय अनदेखी और उसके प्रति उदासीनता का नतीजा यह हुआ कि पर्यटन को आकर्षित करने और शांतिपूर्ण जीवन तथा संस्कृति की पहचान वाले उस इलाके में हुए आंदोलन के बीच अराजकता और हिंसा ने भी अपने पांव फैला लिए। अब लेह के प्रदर्शनकारियों को लेकर कई तरह की आशंकाएं और संदेह जताए जा रहे हैं, लेकिन यह भी सच है कि अब तक इस संबंध में सरकार ने जांच करने की जरूरत शायद नहीं समझी थी। अब भी अगर सरकार स्थानीय आबादी की मुख्य मांगों के संदर्भ में ईमानदार इच्छाशक्ति दिखाए, तो किसी भी साजिश को अंजाम देना संभव नहीं हो सकता!
Date: 29-09-25
हादसे का सिलसिला
संपादकीय

किसी भी राजनीतिक रैली के दौरान यह कोशिश की जाती है कि सभा को सफल बताने के लिए वहां ज्यादा से ज्यादा लोग पहुंचें, लेकिन इस बात का ध्यान रखना जरूरी नहीं समझा जाता कि भारी संख्या में लोगों के जमावड़े के बाद अगर भगदड़ जैसे हालात पैदा हुए तो उसे संभालने के लिए क्या व्यवस्था होगी। तमिलनाडु के करूर में शनिवार को एक रैली के दौरान भगदड़ मचने की वजह से कम से कम चालीस लोगों की मौत और बड़ी संख्या में लोगों के घायल होने की घटना एक बार फिर आयोजन और व्यवस्था को लेकर बरती गई व्यापक लापरवाही का नतीजा लगती है। तमिलनाडु में अभिनेता से नेता बने विजय के लिए रैली का आयोजन करने वालों को यह अंदाजा जरूर होना चाहिए था कि कितनी संख्या में लोग वहां पहुंचेंगे। फिर भाषण देने के लिए विजय के पहुंचने में देरी की वजह से वहां इंतजार कर रहे 25 हजार से ज्यादा लोगों के बीच अफरा-तफरी मचने की आशंका बनी हुई थी। मगर इसे भांप कर पहले ही हादसे की स्थिति पैदा होने से रोकने के लिए आयोजकों की ओर से कुछ भी नहीं किया गया।
सवाल है कि जब राजनीतिक रैलियों या धार्मिक आयोजनों के लिए आम लोगों के बड़े जमावड़े में बार-बार भगदड़ मचने की वजह से त्रासद हादसे लगातार सामने आ रहे हों, वैसे समय में भीड़ प्रबंधन को लेकर इस तरह की लापरवाही को कैसे देखा जाएगा। किसी भी हादसे का सबसे बड़ा सबक यह होना चाहिए कि हर स्तर पर ऐसे इंतजाम किए जाएं, ताकि फिर वैसी घटना न हो। मगर विडंबना यह है कि न तो प्रशासन और न ही आयोजन में शामिल समूहों या लोगों को एहतियात बरतने की जरूरत लगती है। इसी का नतीजा है कि हर कुछ दिनों बाद किसी राजनीतिक रैली या धार्मिक आयोजन के दौरान व्यापक अव्यवस्था और लापरवाही की वजह से नाहक ही लोगों की जान चली जाती है और बड़े पैमाने पर लोग घायल होते हैं। हादसों के बाद जांच की घोषणाएं तो की जाती हैं, लेकिन उनका नतीजा क्या निकलता है, किसे दोषी ठहराया जाता है और क्या कार्रवाई की जाती है, इस बारे में जनता को बताना जरूरी नहीं समझा जाता। यह बेवजह नहीं है कि अक्सर होने वाले हादसे अब अफसोसनाक सिलसिला बन चुके हैं।