29-03-2019 (Important News Clippings)
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Date:29-03-19
For Real Shakti
A-Sat and Star Wars are all fine, but India must unfetter innovation on the ground
Editorials
India’s successful testing of an anti-satellite missile to destroy a satellite flying in low-earth orbit has catapulted it into an elite club – comprising only US, Russia and China previously. The anti-satellite or A-Sat capability certainly adds to India’s defence-strategic heft. However, if you break it down, what it amounts to is that in the unlikely event that China chooses to intervene in an India-Pakistan conflict by knocking out Indian satellites and thus ‘blinding’ India, New Delhi now has a deterrent: it can knock off some Chinese satellites too. Such a cosmic feat won’t resolve more earthbound, everyday problems: such as how to seal the LoC against regular terrorist incursions from the Pakistani side.
The A-Sat mission, dubbed Mission Shakti, exemplifies the potential of India’s technological prowess. However, while Indian science is flying high in space, technological innovations on the ground remain lacklustre. Notwithstanding India joining the Star Wars club, its armed forces continue to be saddled with vintage military hardware. As demonstrated during the recent air skirmishes with Pakistan, the Indian Air Force had to deploy ageing Mig-21 Bisons against Pakistani F-16s. The requisition process for a medium-role modern fighter aircraft has spanned two decades and four administrations. Even the end of the current Modi administration will not see a single Rafale jet being inducted into the air force. Similarly, the indigenous Tejas Light Combat Aircraft has taken more than three decades to reach induction stage.
More fundamentally, India has failed to create a vibrant military-industrial complex that can produce cutting-edge weapons platforms for modern operational requirements. We see this in the civilian sector as well. Despite the National Manufacturing Policy being notified in 2011 to boost manufacturing’s share in India’s GDP to 25%, we are still well below that mark. The Modi government’s ‘Make in India’ programme too has largely failed, as evidenced by jobs and industries moving towards Vietnam, Bangladesh and other Asian countries as China moves higher up in the manufacturing value chain, while India continues to be racked by severe jobs and agrarian crises.
We must realise that China’s rise as a military power has tracked its rise as an economic power. India may have achieved A-Sat capability, but it will continue to be vulnerable to cross-border terrorism from Pakistan unless it focusses on the basics, unfetters innovation, and boosts the economy. That would be real Shakti.
Date:29-03-19
Learn From Past Mistakes in PPP Bids
Bid parameters must build in cost constraints
ET Editorials
It is just as well that the move to privatise six more airports could not be completed before the model code of conduct kicked in. This is not because one company has won all the six bids for choosing the relevant private party. Nor is the objection that the winning bid is from a company that has no prior experience in running airports. The objection that is most valid is that the bid criterion, how much the bidder would pay the Airports Authority of India (AAI) per passenger using the airport, is deeply flawed and has the potential to raise airport user charges inordinately high.
The public-private partnership (PPP) to modernise the Delhi and Mumbai airports has produced world-class facilities, true. However, the contract awarded on the criterion of revenue to be shared with the government has turned out to be flawed. Such a criterion has no built-in incentive to lower costs. It also induces the winning airport developer to adopt measures such as capitalising future revenue streams upfront, and take such capitalised revenues out of what has to be shared with the government. This simple-minded formula, devoid of any link to cost, has also resulted in repeated increases in airport development charges. Airports are local monopolies, for the most part. Reining their user fees depends on regulation, rather than competition from other airports. The move to dilute the scope of the airport regulatory authority, such as via the Aera of India (Amendment Bill 2018), shows how tenuous such regulation could eventually be. The very bid terms of the PPP contract must ideally contain elements that constrain tariffs and airport development charges.
Adani emerged the highest bidder in terms of how much it would pay the AAI per passenger. Now, Adani is good at executing large, complex projects and could probably build decent airports. But the huge gap between its winning bid and the bids from competent players like the Cochin International Airports Ltd makes it likely that an Adani-led airport would be far more expensive for flyers, airlines and visitors than it needs to be. Blame the contract.
Date:29-03-19
टेक्नोलॉजी में उपलब्धियों का बेहतर दोहन किया जाए
संपादकीय
अंतरिक्ष में बेकार हो चुके उपग्रह को नष्ट करने की क्षमता रखने वाला भारत दुनिया का चौथा देश हो गया है। रक्षा शोध व विकास संगठन की इस उपलब्धि से हर भारतीय गौरव की भावना से भर गया। जैसा कि इस संस्था के एक पूर्व निदेशक ने बताया कि यह क्षमता देश के पास एक दशक से उपलब्ध है और नीतिगत फैसले के बाद अब जाकर उसका प्रदर्शन किया गया। क्षमता के प्रदर्शन और उसकी घोषणा के बाद यह कहा गया कि देश अंतरिक्ष के शांतिपूर्ण उपयोग का पक्षधर बना रहेगा। कुछ हफ्तों पहले बालाकोट में आतंकी ठिकानों पर हवाई हमले के बाद भी कहा गया कि यह गैर- सैन्य प्रतिरोधक कार्रवाई थी। जब हमने पहला परमाणु परीक्षण किया था तो तब भी कहा गया था कि यह परमाणु शक्ति के शांतिपूर्ण उपयोग के लिए है। इससे किसे एतराज हो सकता है कि दुनिया में संघर्ष की स्थिति न बने और सभी राष्ट्र अपने कार्यों व नीतियों से शांति को ही मजबूती प्रदान करें पर परमाणु शक्ति या उपग्रह को नष्ट करने की क्षमता का निश्चित ही निरोधात्मक निहितार्थ भी है। 2007 में जब चीन ने यह क्षमता प्रदर्शित की थी तो अमेरिका सहित पश्चिमों देशों ने इस पर तीव्र प्रतिक्रिया व्यक्त की थी, क्योंकि पुराने उपग्रह को नष्ट करने के बहाने चीन अपनी सैन्य क्षमता का ही प्रदर्शन कर रहा था। लेकिन, जब हम ऐसी क्षमता को लेकर रक्षात्मक रुख अपनाते हैं तो इससे इसकी डिटेरेंस वैल्यू कम होती है। यानी जरूरत पड़ने पर उसके इस्तेमाल को लेकर हमारी दुविधा प्रतीत होती है। फिर चाहे वास्तविक स्थिति ऐसी न भी हो पर इससे शत्रु दुस्साहस के लिए प्रेरित हो सकता है। दूसरी बात, टेक्नोलॉजी के स्तर पर यह बहुत बड़ी उपलब्धि है। ऐसी टेक्नोलॉजी कोई देश दूसरे देश को नहीं देता। जाहिर है यह पूरी तरह देश में विकसित टेक्नोलॉजी है। इसरो की रिमोट सेंसिंग जैसे टेक्नोलॉजी का खनन, खेती व मौसम के बारे में अनुमान लगाने के क्षेत्र में व्यापक इस्तेमाल हो रहा है। लेकिन, यह पड़ताल की जानी चाहिए कि क्या ऐसी टेक्नोलॉजी का उपयोग दैनिक जीवन में उपयोगी उत्पादों के विकास में किया जा सकता है? इसके लिए चीन की तरह सरकारी व निजी क्षेत्र का मेल कराना होगा ताकि हमारे यहां भी विश्व में पहचान बनाने वाले ब्रांड व प्रोडक्ट पैदा हो सकें। जाहिर है एक नीतिगत और जमीन स्तर पर अपनी टेक्नोलॉजिकल उपलब्धियों का हमें बेहतर दोहन करना होगा।
Date:29-03-19
भारत के सामने बेल्ट एंड रोड फोरम की चुनौती
बीजिंग में 40 देशों की बैठक में अनुपस्थित रहकर अलग-थलग पड़ने का खतरा
वस्वती कुमारी, (बीजिंग में बीस साल से रह रहीं चीनी मामलों की जानकार)
प्रधानमंत्री और उनकी कैबिनेट के साथी अप्रैल में सघन चुनाव प्रचार में लगे होंगे लेकिन, वे बीजिंग में माह अंत में होने वाले ‘बेल्ट एंड रोड फोरम’ की बैठक पर फैसला नहीं टाल सकते। चीन शिद्दत से चाहता है कि भारत इस बैठक में मौजूद रहे। मोदी के लिए यह विदेश नीति का मुद्दा होने की बजाय आंतरिक फैसला अधिक है। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी पहले ही उन पर चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के सामने दृढ़ता न दिखाने का आरोप लगा चुके हैं। फोरम की बैठक में जाकर चीन को खुश करने के किसी भी प्रयास को विपक्षी दल भाजपा के खिलाफ भुनाएंगे।
बेल्ट एंड रोड विशाल परियोजना है, जिसके तहत चीन 30 देशों में दर्जनों राजमार्गों, रेल लाइन, बंदरगाहों और विमानतलों का निर्माण करना चाहता है। अब तक इसे पाकिस्तान, श्रीलंका, मालदीव और ग्रीस में सीमित सफलता ही मिली है। चीन चाहता है कि भारत भी इसे अपनाए पर नई दिल्ली ने अब तक इससे इनकार किया है। चुनाव नहीं होते तब भी भारत फोरम की बैठक में जाने के प्रति उदासीन रहता, क्योंकि इस परियोजना से उसकी संप्रभुता पर आंच आती है। एक तो इसका नाम चीन पाकिस्तान आर्थिक गलियारा है और दूसरा, यह पाक अधिकृत कश्मीर के कुछ हिस्सों से गुजरता है, जिस पर भारत का दावा है।
इसी वजह से दो साल पहले हुई इसकी पहली बैठक में भारत मौजूद नहीं था, जिससे बड़ी हलचल मची थी। प्रमुख देशों में भारत ही नदारद था, जबकि परियोजना के मुखर आलोचक रहे अमेरिका व अन्य देश चीनी दबाव के तहत इसमें शामिल हुए थे। दुनिया की दूसरी बड़ी अर्थव्यवस्था के सामने दृढ़ता दिखाने के लिए भारत की दुनियाभर में सराहना हुई थी। चीन ने मुजफ्फराबाद के बाद झेलम नदीं पर कोहाला बाध और एक विशेष आर्थिक क्षेत्र निर्मित करने में पाकिस्तान की मदद की है। ये उस क्षेत्र के आसपास है, जिस पर भारत दावा करता है और यह उसकी संप्रभुता को प्रभावित करते हैं।
यह मुद्दा हाल ही में विदेश मंत्री सुषमा स्वराज और चीनी विदेश मंत्री वांग यी की मुलाकात में उठा था। समझा जाता है कि सुषमा स्वराज ने वांग को बताया कि सीपीईसी मुद्दे और अजहर मसूद के मुद्दे पर पाकिस्तान को चीनी समर्थन के कारण भारत फोरम की बैठक में शरीक नहीं हो सकता।
चीन में भारत के राजदूत विक्रम मिस्री ने चीनी मीडिया से चर्चा के दौरान देश की स्थिति को औपचारिक रूप से स्पष्ट किया। उन्होंने कहा, ‘कोई भी देश ऐसी किसी पहल में शरीक नहीं हो सकता, जो उसकी संप्रभुता व क्षेत्रीय अखंडता जैसे मूल चिंताओं की उपेक्षा करती हो।’ ज्यादातर विश्लेषक इसे फोरम की बैठक में आने से भारत के स्पष्ट इनकार के रूप में देखते हैं। इस हफ्ते चीन को तब बड़ी सफलता मिली जब इटली ने बेल्ट एंड रोड प्रोग्राम को लागू करने पर दस्तखत किए। यह पहली बार है कि सात प्रमुख धनी देशों और यूरोपीय संघ का कोई संस्थापक सदस्य इसमें शामिल हुआ है, जबकि प्रमुख यूरोपीय देश इसके खिलाफ है। इस परियोजना को चीन का ‘वैनिटी प्रोजेक्ट’ बताते हुए अमेरिका ने इटली को इसमें शरीक होने के खिलाफ चेतावनी दी थी पर शी जिनपिंग यूरोप से बड़ी सफलता लेकर लौटे हैं।
वॉशिंगटन स्थित ‘चीन-अमेरिका अध्ययन संस्थान’ के सीनियर फेलो सौरभ गुप्ता का मानना है कि इटली के फैसले के बाद भी अन्य प्रमुख देश इसमें शामिल होने को प्रेरित नहीं होंगे। गुप्ता ने कहा, ‘इटली ऐसा मेडल है जो बीजिंग को यूरोपीय पद्धतियों का पालन करने के लिए प्रेरित करेगा।’
भारत के लिए बड़ा सवाल यह है कि क्या वह किसी ऐसे बच्चे की तरह मुंह फुलाकर कोने में बैठ जाए, जो हालात बदल न सकता हो? तथ्य यही है कि चीन ने पाक अधिकृत कश्मीर से बेल्ट एंड रोड गुजरने और मसूद अजहर पर भारत की शिकायतों पर ध्यान देने से इनकार कर दिया है। भारत एक बार फिर 40 देशों की इस बैठक में शामिल न होकर चीन को फिर नीचा दिखा सकता है लेकिन, इसका मतलब कुछ हद तक भारत का अलग-थलग पड़ना भी होगा। विश्व बैंक के मुताबिक इस परियोजना में 65 देश आते हैं, जो दुनिया के 30 फीसदी जीडीपी और 62 फीसदी आबादी और ऊर्जा के 75 फीसदी ज्ञात स्रोतों के लिए जिम्मेदार हैं।
बेल्ट एंड रोड को स्वीकार करने का मतलब अत्यावश्यक सड़क, रेल, उर्जा, बंदरगाह और विमानतल संबंधी बुनियादी ढांचे का निर्माण होगा, जिसके लिए चीन खुशी से पैसा देगा व उनका निर्माण करेगा। यह चीन के लिए बड़ा बिज़नेस होगा और भारत में ऐसी विशाल संभावना है, जिसका दोहन होना बाकी है। तथ्य यही है कि भारत को भी बुनियादी ढांचे की जरूरत है पर चीनी धन को स्वीकार करने में जोखिम है। चीन ने हाल ही में श्रीलंका को अपना बंदरगाह उसे देने पर मजबूर किया था, क्योंकि वह चीन लोन चुका नहीं पाया था। भारत कभी नहीं चाहेगा कि उसकी परियोजनाओं में चीन का आर्थिक दबदबा हो, क्योंकि इससे उस पर पड़ रहा सैन्य दबाव और बढ़ेगा। फिर सैन्य दृष्टि से भी नेपाल, म्यांमार व बांग्लादेश के ऐसे सड़क व रेल संपर्क के लिए सीमाएं खोलना खतरनाक हैं, जो चीन जाते हों। इससे चीनी माल आसानी से भारत में आ सकेगा पर साथ ही भविष्य में इनका उपयोग चीनी सेना भारत के खिलाफ भी कर सकती है।
चीन रेल व सड़कों के निर्माण पर नेपाल, म्यांमार और बांग्लादेश में अरबों डॉलर खर्च कर रहा है, जिनमें चीनी लोन लौटाने अथवा पर्याप्त मात्रा में चीनी सामान खरीदने की क्षमता नहीं है। जाहिर है उसका फोकस भारतीय बाजार पर है। भारत के आसपास यह बुनियादी ढांचा निर्मित कर वह नई दिल्ली पर जबर्दस्त दबाव डाल रहा है।
भारत के लिए समस्या का यही समाधान है कि वह अन्य पड़ोसी देशों से अच्छे संबंध बनाए और उन्हें बुनियादी ढांचे की ये परियोजनाएं पूरी करने में मदद करे। दुर्भाग्य से हम इन देशो के साथ अच्छे रिश्तों व सद्भावना के इतिहास को बरकरार नहीं कर पाए। अब वक्त आ गया है कि इस क्षति की पूर्ति की जा सके।
Date:28-03-19
मतों के मूल्य बराबर नहीं
कृष्ण प्रताप सिंह
अगर आप मतदाता हैं और देश के दूसरे करोड़ों लोगों की तरह इस जोर-शोर से प्रचारित लोकतांत्रिक मिथ के शिकार हैं कि लोक सभा चुनाव में हर मतदाता के मत का मूल्य समान और नई लोक सभा के गठन में उसकी एक जैसी हिस्सेदारी या भूमिका होती है, तो अपनी यह गलतफहमी फौरन दूर कर लीजिए, क्योंकि यह मिथ सिर्फ और सिर्फ मिथ है। इस बात को एक उदाहरण से समझिए। अगर आप देश के सबसे छोटे लोक सभा क्षेत्र लक्षदीप के मतदाता हैं तो तेलंगाना स्थित सबसे बड़े क्षेत्र मलकाज गिरि के मतदाताओं के मुकाबले आपके मत का मूल्य कम से कम 63 गुना ज्यादा है, क्योंकि लक्षदीप में जहां केवल 49,922 मतदाता एक सांसद चुनकर लोक सभा में अपना एक मत पक्का कर लेते हैं, वहीं मलकाज गिरि के 31,83,325 मतदाताओं के पास भी लोक सभा में कुल मिलाकर एक ही मत है।
मतों के मूल्य में यह असंतुलन तब है, जब इसे दूर करने के नाम पर ही 2009 के आम चुनाव से पहले लोक सभा क्षेत्रों का नया परिसीमन कराया गया था। चूंकि उक्त परिसीमन का आधार 2001 की जनगणना के आंकड़े थे, जो इस बीच बासी पड़ गये थे, फलस्वरूप असंतुलन कुछ कम तो हुआ, लेकिन पूरी तरह खत्म नहीं हो पाया। दिलचस्प यह कि 2004 के आम चुनाव तक लक्षदीप देश का सबसे छोटा और बाहरी दिल्ली सबसे बड़ा संसदीय क्षेत्र था और दोनों के मतों के मूल्य में 86 गुने का अंतर था।इस असंतुलन के कई अनर्थ हैं। कुछ प्रत्यक्ष तो कुछ परोक्ष। लोक सभा के गठन में देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश के मतदाताओं की हिस्सेदारी 16.49 प्रतिशत है, तो महाराष्ट्र के मतदाताओं की 9.69 प्रतिशत। इसी क्रम में पश्चिम बंगाल के मतदाताओं की भागीदारी 7.67, आंध्र प्रदेश व तेलंगाना के मतदाताओं की 7.66, बिहार के मतदाताओं की 7.62, तमिलनाडु के मतदाताओं की 6.66, मध्य प्रदेश के मतदाताओं की 5.84, कर्नाटक के मतदाताओं की 5.49, राजस्थान के मतदाताओं की 5.22 और गुजरात के मतदाताओं की 4.89 प्रतिशत भागीदारी है। इस बात को गुणांकों के हिसाब से समझना चाहें तो दिल्ली के मतदाताओं का गुणांक जहां 0.83 है, वहीं अरुणाचल प्रदेश के मतदाताओं का गुणांक 4.38। गुणांक एक से कम होने का मतलब है कि लोक सभा में संबंधित राज्य के मतदाताओं का प्रतिनिधित्व राष्ट्रीय औसत से कम है और एक से ज्यादा होने का अर्थ यह कि उसे राष्ट्रीय औसत से ज्यादा प्रतिनिधित्व मिला हुआ है।
2009 से पहले लोक सभा क्षेत्रों का परिसीमन 1970 में हुआ था। तब हर चुनाव क्षेत्र में औसतन 12.8 लाख वोटर थे। लेकिन तब भी इसका अर्थ यह नहीं था कि हर सीट पर वोटरों की संख्या इस औसत के आसपास ही होगी। अलबत्ता, उक्त परिसीमन के बाद विभिन्न राज्यों में लोक सभा क्षेत्रों की संख्या को स्थिर कर दिया गया था। तर्क यह था कि जनसंख्या या वोटरों की संख्या के आधार पर सीटों की संख्या में फेरबदल बर्र के छत्ते में हाथ डालने जैसा होगा। जो राज्य अपनी जनसंख्या के नियंतण्रमें आगे रहेंगे, उनकी सीटें कम करना एक तरह से उन्हें ‘‘दंडित’ करने जैसा हो जायेगा और इसका बहुत गलत संदेश जायेगा। नियमों के मुताबिक किसी भी लोक सभा क्षेत्र का फैलाव दो राज्यों में नहीं हो सकता, इस कारण भी कुछ राज्यों और केन्द्र शासित प्रदेशों के लोक सभा क्षेत्र मतदाताओं की संख्या के लिहाज से काफी छोटे हैं जबकि कई अन्य बहुत बड़े। परिसीमन में एक गड़बड़ यह भी हुई कि इसका ध्यान नहीं रखा गया कि कई बार राज्यों की जनसंख्या दूसरे राज्यों से आने वाले लोगों के कारण भी बढ़ती है। मसलन, दिल्ली, महाराष्ट्र और कर्नाटक में देश के सबसे बड़े तीन महानगर हैं और उनकी जनसंख्या बढ़ती जाने का सबसे बड़ा कारण अन्य राज्यों से आने वाला जनप्रवाह ही है।
मतदाताओं की संख्या को आधार न बनाये जाने से हालत यह हो गई है कि कुछ राज्यों में मतदाताओं की संख्या के अनुपात में जितनी लोक सभा सीटें होनी चाहिए, नहीं हैं और इस कारण मतों के मूल्य की समानता स्थापित नहीं हो पा रही है। प्रत्येक लोक सभा सीट के मतदाताओं की संख्या के 2014 के राष्ट्रीय औसत 13.5 लाख को आधार बनाकर देश भर में लागू करें तो तमिलनाडु की कुल लोक सभा सीटें 39 से घटकर 31 हो जायेंगी, जबकि उत्तर प्रदेश की 80 सीटों से बढ़कर 88 होंगी।
इसी तरह, महाराष्ट्र की सीटें 48 से बढ़ाकर 55 करनी होंगी, कर्नाटक की 25 से बढ़ाकर 28, गुजरात की 26 से बढ़ाकर 28, छत्तीसगढ़ की 11 से बढ़ाकर 12 और दिल्ली की सात से बढ़ाकर आठ, जबकि पश्चिम बंगाल की 42 से घटाकर 40, केरल की 20 से घटाकर 17, असम की 14 से घटाकर 13, जम्मू-कश्मीर की छह से घटाकर 5, हरियाणा की 10 से घटाकर नौ, हिमाचल की चार से घटाकर तीन और उत्तराखंड की पांच से घटाकर चार। अलबत्ता, पंजाब और मध्य प्रदेश की सीटें फिर भी यथावत बनी रहेंगी। देश के लोकतंत्र की अच्छी सेहत के लिए जरूरी है कि मतों के मूल्यों में यह असमानता जितनी जल्दी संभव हो, खत्म कर दिया जाये। लेकिन इसकी उम्मीद भी भला कैसे की जाये, जब समानता जैसे पवित्र मूल्य को संविधान की पोथी में उसके हाल पर छोड़ कर हम तेजी से असमानता की पोषक नीतियों की ओर बढ़ते जा रहे हैं।
प्रसंगवश, अगर आप मतों के मूल्य में इस गड़बड़ की बाबत जानकर क्षुब्ध हो रहे हैं तो आपके लिए यह जानना भी जरूरी है कि देश के लोकतंत्र की यह विडम्बना इकलौती नहीं है। इधर, दि इरीटेटेड इंडियंस की ओर से एक मैसेज वायरल हो रहा है, जिसमें कहा गया है कि इस लोकतंत्र में राजनेता अपनी पसंद की दो सीटों से चुनाव लड़ सकते हैं, लेकिन मतदाता अपनी पसंद की दो सीटों तो क्या एक ही सीट की दो जगहों पर भी वोट नहीं दे सकते। जो मतदाता जेल में हैं, वे वोट नहीं दे सकते, लेकिन नेता जेल में रहकर भी मजे से चुनाव लड़ सकते हैं। इतना ही नहीं, अगर आप कभी किसी एक मामले में भी जेल हो आए हैं तो कोई सरकारी नौकरी नहीं पा सकते, लेकिन नेता कितनी बार भी जेल हो आये हों, बड़े पद को भी सुशोभित कर सकते हैं। बैंक की साधारण सी नौकरी के अभ्यर्थी से भी ग्रेजुएट होने की अपेक्षा की जाती है लेकिन नेता अंगूठाटेक होने पर भी देश के वित्तमंत्री बन सकते है।
ऐसे में कोई तो बताए कि यह लोकतंत्र जनता का है या नेताओं का और क्या इसके सिस्टम को बदलने की जरूरत नहीं है? अगर है तो उसका मूहूर्त कब आयेगा ?
Date:28-03-19
भारतीय पेशेवरों के लिए ब्रिटेन का सिमटता दायरा
वहां नया नियम बना है कि काम के लिए ब्रिटेन आने वाले अब अपने जीवनसाथी को साथ नहीं ला सकेंगे
गौरीशंकर राजहंस, (पूर्व सांसद और पूर्व राजदूत)
जब से राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अमेरिका में विदेशियों के आने पर तरह-तरह की पाबंदियां लगानी शुरू की हैं, यूरोप के कई देशों में इसी तरह की आवाजें उठने लगी हैं। खासकर ब्रिटेन में इसकी मांग हो रही है, बल्कि टेरेसा मे सरकार भी इस मामले में सख्त रुख अपनाती हुई दिख रही है। हमारे लिए ब्रिटेन का मामला इसलिए ज्यादा महत्वपूर्ण है, क्योंकि वहां बड़ी संख्या में भारतीय पिछली सदी के मध्य से ही रहते आ रहे हैं।
ब्रिटेन के मशहूर टेक्सटाइल शहर बर्मिंघम में 50 के दशक में ही हजारों भारतीय जा बसे थे। इनमें सिर्फ भारतीय ही नहीं पाकिस्तानी भी थे, जो साथ-साथ काम करते थे। दरअसल, अंग्रेजों ने अपने अनुभव से पाया था कि कपड़ा उद्योग में इस महाद्वीप के लोग बहुत निपुण हैं, इसलिए उनकी वहां मांग भी काफी थी। इसी वजह से ये लोग धीरे-धीरे ब्रिटेन में बड़ी संख्या में अपने रिश्तेदारों को भी ले गए, और बसते चले गए। ये सब अब वहां की आबादी का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन चुके हैं। हालांकि, 60 के दशक में जब ब्रिटेन के टेक्सटाइल उद्योग में मंदी आई, तो प्रवासी भारतीयों को वापस भेजने की आवाजें उठने लगीं। उस वक्त यह दलील भी दी गई कि ये लोग ब्रिटेन के मूल नागरिकों की नौकरियां खा रहे हैं। जाहिर है, मूल निवासियों की इस तरह की मांगों और आंदोलनों से जो कटुता फैली, उससे कई बार तो दंगे तक की नौबत आ गई। हालांकि बावजूद इसके ज्यादातर भारतीय नहीं लौटे, क्योंकि उस समय भारत में भी रोजगार के अवसर बहुत ज्यादा नहीं थे। वैसे ज्यादातर भारतीय तो ब्रिटेन यही सोचकर गए थे कि अच्छी कमाई करके वे अपने देश लौट जाएंगे। इस बीच युगांडा से जिन भारतीयों को तानाशाह इदी अमीन ने बाहर निकाला, उनमें से भी ज्यादातर ब्रिटेन में जाकर बस गए। चूंकि युगांडा एक समय ब्रिटिश साम्राज्य का हिस्सा हुआ करता था, इसलिए ब्रिटिश सरकार ने उन्हें वहां आकर बसने की इजाजत दे दी। आज की तारीख में ब्रिटेन में लगभग नौ लाख ऐसे भारतीय हैं, जिन्होंने वहीं पर जन्म लिया है। इस लिहाज से वे वहां के नागरिक ही हैं। लेकिन दुख की बात यह है कि जब भी विदेश से आकर वहां कामकाज करने वालों के खिलाफ आवाजें उठती हैं, तो वे भी निशाने पर आ जाते हैं।
हाल के वर्षों में बड़ी संख्या में भारतीय युवक, जिनमें से अधिकतर आईटी (सूचना प्रौद्योगिकी) में निपुण हैं, उच्च शिक्षा प्राप्ति के लिए ब्रिटेन गए। लेकिन अब ब्रिटिश सरकार ने एक नया नियम यह बना दिया है कि उन्हें दो वर्ष से ज्यादा ब्रिटेन में रहने का वीजा नहीं मिलेगा। पहले जो भारतीय कामकाज के लिए ब्रिटेन जाते थे, उन्हें यह छूट हासिल थी कि वे अपने परिवार के सदस्यों को भी ब्रिटेन ले जा सकते थे। ऐसे में, यदि पति कोई बड़ी नौकरी में लगा होता, तो पत्नी कोई छोटी-मोटी नौकरी कर लेती थी। लेकिन अब ब्रिटिश सरकार ने यह पाबंदी लगा दी है कि कोई व्यक्ति अपने साथ पत्नी या पति को नहीं ले जा सकेगा और हर हालत में उसे दो वर्ष में वापस भारत लौटना ही होगा। यह प्रतिबंध काफी कुछ वैसा ही है, जैसा कि इन दिनों अमेरिका में प्रोफेशनल्स को दिए जाने वाले एच1बी वीजा के मामले में हो रहा है। साफ है, ये भारतीय पेशेवरों की परेशानी बढ़ाने वाला कदम है।
पिछले अनेक वर्षों से यह देखा गया है कि ब्रिटेन में डॉक्टरों की बहुत कमी है। इसलिए भारतीय मूल के जो डॉक्टर ब्रिटेन जाते हैं, उन्हें दो वर्ष से अधिक का वीजा मिल जाता है। तकरीबन यही स्थिति भारतीय नर्सों की भी रही है। लेकिन जब से पाबंदियां बढ़ी हैं, ऐसे पेशेवर भी कनाडा और ऑस्ट्रेलिया को प्राथमिकता देने लगे हैं। ब्रिटेन में आमतौर पर दो कारणों से भारतीयों को नौकरी में प्राथमिकता दी जाती रही है। एक तो वे आसानी से अंग्रेजी बोल-समझ लेते हैं, और दूसरे वे कम तनख्वाह पर भी काम कर लेते हैं। लेकिन अब जब ब्रिटेन पर आर्थिक संकट के बादल मंडराने लगे हैं, तो ये सारे तर्क बेमानी हो रहे हैं।
ब्रिटेन में भारतीय पेशेवरों का स्वागत नहीं हो रहा, यह चिंता का विषय तो है, लेकिन उतना बड़ा विषय भी नहीं है, जितना यह कि इन बातों से वहां के समाज में जो कड़वाहट पैदा हो रही है, उसका असर उन लोगों पर भी पड़ने लगा है, जो भले ही भारतीय मूल के हैं, लेकिन अब वे वहां के ही नागरिक हैं।
Date:28-03-19
अंतरिक्ष में नई शक्ति का उदय
उपग्रह को मार गिराने वाली मिसाइल विकसित करके भारत ने ऐसी क्षमता हासिल कर ली है, जिसका उपयोग बहुत से क्षेत्रो में हो सकता है
गौहर रजा, (सेवानिवृत्त मुख्य वैज्ञानिक सीएसआईआर)
अंतरिक्ष में एंटी-सैटेलाइट मिसाइल लॉन्च करने वाले देशों में भारत का शामिल होना एक बड़ी उपलब्धि है। बुधवार को राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बताया कि ‘मिशन शक्ति’ अभियान के तहत अंतरिक्ष के लो अर्थ ऑर्बिट में सैटेलाइट को महज तीन मिनट में मार गिराया गया। अब तक अमेरिका, रूस और चीन के पास ही यह क्षमता थी। तकनीकी रूप से यह बहुत मुश्किल क्षमता मानी जाती है, क्योंकि जिस ‘ऑब्जेक्ट’ को हम निशाना बना रहे होते हैं, वह बहुत तेज गति से चक्कर काटता रहता है। किसी ठहरी हुई वस्तु की अपेक्षा उस वस्तु को निशाने पर लेना काफी मुश्किल होता है, जो गतिशील हो। अगर वह वस्तु कोई अंतरिक्ष-पिंड या सैटेलाइट हो, तो चुनौती ज्यादा बढ़ जाती है, क्योंकि घरती अपनी गति से घूम रही होती है। जिस हथियार से हम ‘ऑब्जेक्ट’ को निशाना बनाना चाहते हैं, उसकी भी एक गति होती है। सैटेलाइट या अंतरिक्ष पिंड की अपनी गति तो खैर होती ही है। इस तरह के अभियान में हर एक पहलू काफी महत्वपूर्ण होता है, और एक छोटी सी गलती भी हमें नाकाम कर सकती है। यही वजह है कि अंतरिक्ष में किसी गतिशील वस्तु को पूरी दक्षता के साथ नष्ट करने की क्षमता कई देश अब तक हासिल नहीं कर सके हैं।
हमारी यह उपलब्धि भौतिक विज्ञान के क्षेत्र में, इंधन के विकास में और गाइडेड मिसाइल को विकसित करने में काफी मददगार साबित होगी। गाइडेड मिसाइल का मतलब एक ऐसी मिसाइल तैयार करना है, जो अपने निशाने का पीछा करके उसे नष्ट करे। ‘मिशन शक्ति’ की सफलता के बाद अब हम ‘ऑब्जेक्ट’ को हर तरह से खत्म कर सकते हैं। अब हर गतिशील वस्तु हमारे निशाने पर होगी, फिर चाहे वह आसमान में चक्कर काट रही हो या फिर घरती पर। सैटेलाइट काफी छोटे होते हैं, इसलिए सुदूर में गतिशील कोई छोटी वस्तु भी अब नष्ट की जा सकती है। यह कोई चलती कार भी हो सकती है, और उससे छोटी चीज भी।
हमसे पहले चीन ने यह उपलब्धि हासिल की थी, जिसके बाद दुनिया भर से तरह-तरह की प्रतिक्रियाएं सामने आई थीं। खासतौर से अमेरिका उस वक्त काफी नाराज दिखा था। चीन की उस उपलब्धि ने विवाद भी खूब पैदा किए थे। तब कहा गया था कि ऐसे परीक्षणों से अंतरिक्ष में कचरा बढ़ता है, जो मानव जाति के लिए खतरनाक हो सकता है। इन पक्तियों के लिखे जाने तक भारत की कामयाबी के खिलाफ ऐसी कोई प्रतिक्रिया सामने नहीं आई है, हालांकि चीन के पिछले अनुभव से यह कहा जा सकता है कि उन्हें यह नागवार गुजरा होगा।
इस तरह की तकनीक का अपना गणित होता है। चूंकि हमारे पास रॉकेट हैं, इसलिए हमें पता है कि कितनी तेजी से उसे ऊपर फेंकने से वह घरती के गुरुत्वाकर्षण से बाहर निकल जाएगा। देखा जाए, तो गुरुत्वाकर्षण शक्ति को परे धकेलने की क्षमता हासिल कर लेना ही अपने आप में बड़ी उपलब्धि है। इसी तकनीक का इस्तेमाल करके हम किसी लॉन्च व्हिकल को रॉकेट बना सकते हैं या फिर मिसाइल। लेकिन रॉकेट प्रक्षेपण और किसी सैटेलाइट को निशाना बनाने की प्रक्रिया में बुनियादी अंतर यह है कि रॉकेट प्रक्षेपण से हम किसी उपग्रह को अंतरिक्ष की कक्षा में स्थापित करते हैं, जबकि सैटेलाइट को निशाना बनाने के लिए न सिर्फ एक खास गति की दरकार होती है, बल्कि एक निश्चित दिशा में मिसाइल को एक नियत दूरी भी तय करनी होती है। इसीलिए ‘मिशन शक्ति’ जैसे कार्यक्रमों को रॉकेट प्रक्षेपण की तुलना में काफी मुश्किल माना जाता है।
यह तकनीकी श्रेष्ठता हासिल करने का मामला है, जिसके लिए हमारे वैज्ञानिकों को अवश्य बधाई देनी होगी। वैज्ञानिकों के साथ ही यह पूरे देश के लिए एक उपलब्धि है। अगर इसे किसी राजनीति के साथ जोड़कर देखा जाता है, तो यह हमारे वैज्ञानिकों के साथ अन्याय होगा। ‘मिशन शक्ति’ पर आज काम नहीं शुरू हुआ। यह पीढ़ियों की मेहनत का यह फल है। ठीक-ठीक तो नहीं कहा जा सकता कि इस तकनीक के लिए हमने कब काम शुरू किया, पर जिस दिन हमने रॉकेट साइंस या अंतरिक्ष विज्ञान में दाखिल होने का फैसला लिया, तभी से नई-नई क्षमताएं अर्जित करने का बुनियादी काम शुरू हो गया होगा। ‘मिशन शक्ति’ को लेकर भी हमारे वैज्ञानिक कम से कम दस वर्षों से तैयारी कर रहे होंगे। लेकिन राजनेताओं की तरह वैज्ञानिकों में काम का श्रेय लेने की होड़ नहीं होती। यह दुनिया में कहीं भी नहीं होता।
इस सफलता का अर्थ यह नहीं है कि अब हम दूसरे देशों की सैटेलाइट को निशाना बनाने लगेंगे। अब तक ऐसा कोई उदाहरण नहीं है कि इस तकनीक का इस्तेमाल किसी देश ने युद्ध के समय किया हो। जाहिर है, यह अंतरिक्ष में हथियारों की दौड़ का भी मामला नहीं है। यह मुख्यत: किसी गतिशील ‘ऑब्जेक्ट’ को मार गिराने की तकनीकी श्रेष्ठता हासिल करने का मामला है, जिसका इस्तेमाल कई दूसरी कई प्रणालियों और अन्य उद्देश्यों में हो सकता है। यह हमारे भीतर विश्वास पैदा करेगा कि हमने यह मुकाम हासिल कर लिया है, जिसका श्रेय पूरी तरह से वैज्ञानिकों को दिया जाना चाहिए।
Date:28-03-19
Slow on sanitation
Policymakers have failed to use technological advances made in treating faecal sludge
Editorials
The tragic death of six people who entered a septic tank in Tamil Nadu’s Sriperumbudur town is a grim reminder that sanitation remains a low-priority area despite the high political profile of Swachh Bharat. Public understanding of the science of managing septic tanks continues to be poor, and the availability of cheap labour to clean these structures has slowed efforts to develop technologies that can safely remove and transport the waste. Sanitation thus remains a challenge in thousands of unsewered towns. What sets the incident apart from the several instances of people dying of asphyxiation in the tanks is that some of the victims were the owners of the property and not workers. Three people collapsed while inspecting their residential septic tank, and others who tried to save them also perished. Although workers were not affected in this case, it confirms Tamil Nadu’s abysmal overall record at raising sanitation standards. Since 1993, when the first law was passed against manual cleaning, there were at least 144 worker deaths in Tamil Nadu as of November 2018, according to official data reported to the Centre for grant of compensation. Karnataka, Uttar Pradesh and Punjab also fared badly with a cumulative toll of 146 lives lost during that period. But this is obviously a gross underestimate, since the Safai Karmachari Andolan, which has litigated in the Supreme Court seeking to aggressively prosecute offenders, contends that septic tank cleaning claimed nearly 1,500 lives between 2014 and 2016. More reports of deaths continue to come in.
Every death of a manual worker represents a crime, since the Prohibition of Employment as Manual Scavengers and their Rehabilitation Act, 2013 makes the use of such labour to clean septic tanks an offence punishable with imprisonment of two years or with a fine of ₹2 lakh or both even in the first instance. If State governments are reluctant to prosecute offenders, they are also slow to adopt newer technologies such as Faecal Sludge Treatment Plants (FSTP), which can be combined with omniprocessors for safe treatment of waste. For the task of cleaning the tanks, indigenous innovation in robotics looks promising. A prototype is planned to be tested by the Indian Institute of Technology Madras and such devices can potentially transform sanitation in India and other developing countries. But the pace of adoption will depend on the priority that governments accord to the long-neglected problem. Last year, Tamil Nadu, and some other States, notably Andhra Pradesh and Odisha, announced plans to scale up FSTP infrastructure. This is a task that deserves the highest importance, and needs to be completed on deadline. What happened in Sriperumbudur highlights the heavy price that communities pay for the lack of scientific sanitation. If governments remain apathetic, citizens would expect the courts to step in to uphold the law against manual scavenging and make individual departments accountable. The science on sanitation has advanced, and policy must urgently catch up.
Date:28-03-19
A blow against Article 370
Presidential orders and the circumstances in which they were made have eroded J&K’s special status.
Mustafa Haji & Kevin James, [ Mustafa Haji is a lawyer from Jammu and Kashmir and content writer at Nyaaya. Kevin James is a Research Fellow at the Vidhi Centre for Legal Policy, New Delhi. ]
On March 1, 2019, the 77th and 103rd constitutional amendments were extended to Jammu and Kashmir (J&K) by a presidential order, with the concurrence of the J&K Governor. These relate to reservations in promotions for Scheduled Castes and Scheduled Tribes in the State services and special provisions for the advancement of economically weaker sections, respectively. However, on March 18, this was challenged before the J&K High Court.
Background and status quo
The constitutional relationship between J&K and the Indian Union has been the subject of numerous discussions in recent times. This has rekindled the long-standing debate on the continued relevance of Article 370. As in Article 370, the provisions of the Indian Constitution do not automatically apply to J&K. To extend constitutional provisions and amendments to the State, a presidential order to that effect has to be passed. This order requires the concurrence of the State government, where the subject matter does not relate to the subjects specified in the Instrument of Accession (defence, external affairs, and communications). For other cases, only consultation is required.
Accordingly, a 1954 presidential order extended various provisions of the Indian Constitution to J&K. This order was made with the concurrence of the State government and also ratified by the State Constituent Assembly. After the J&K Constitution came into effect in 1957, the State Constituent Assembly was dissolved. Since then, more than 40 such orders have been made, through which most constitutional provisions have been extended to the State. The sheer number of such orders, as well as the circumstances under which they were made, have considerably eroded J&K’s special status under Article 370.
A slow death
From the 1950s there has been a gradual dilution of the procedural norms followed by these presidential orders. In passing the 1954 order, procedural propriety was followed in the fullest possible sense as the requisite concurrence was obtained not only from an elected State government but also the State Constituent Assembly. The presidential orders made after the dissolution of the State Constituent Assembly — except a 1986 order extending Article 249, and the present 2019 order — can be seen as the first level of dilution. This is so because for all these orders, while the concurrence of an elected State government was obtained, the State Constituent Assembly did not exist and, therefore, could not give its ratification. Although the Supreme Court upheld this practice in the Sampat Prakash case (1968), it has been criticised as being beyond the scope of Article 370.
The 1986 order represents a second level of dilution. This is because it was made when J&K was under Governor’s rule as per Section 92 of the J&K Constitution. In the absence of an elected council of ministers, the Governor could not have validly given the requisite concurrence to the presidential order. Even if the Governor acting without a popularly elected government can be considered as a “state government” for the purposes of concurrence, the Governor must at least have had some nexus with the State and some independence from the Centre. However, this is not the case in practice, since the Governor is not only an unelected nominee of the Central Government but also holds office during the latter’s pleasure. Not surprisingly, the 1986 order was challenged in the J&K High Court; it is still pending.
If the 1986 order was problematic, the third level of dilution brought about by the 2019 order is almost the final blow. In December 2018, the President assumed all the functions of the State government and the Governor through a proclamation under Article 356. In an order passed on the same day, the President directed that all powers assumed by him would be exercisable by the Governor as well, “subject to the superintendence, direction, and control of the President”.
This is the main point of distinction between the 1986 and 2019 orders. During Governor’s rule, as was the case in 1986, the Governor is at least on paper expected to act independently. However, in the present case involving President’s rule, the Governor is reduced to a mere delegate of the Centre and is expected to act as per the aid and advice of the Central Government. A presidential order made through obtaining such a Governor’s concurrence is tantamount to the Centre talking into a mirror and makes a mockery of Article 370.
Against federalism
The manner in which the 2019 order was made also goes against the spirit of federalism, which is a salient constitutional principle. President’s rule is an exception to the general constitutional scheme that envisages representative government at the State level to accommodate regional aspirations. Extending constitutional provisions to the State during this exceptional state of affairs is suspicious. If the Centre had legitimate intentions, it should have waited until the formation of an elected government in J&K. In the absence of popular will backing it, the 2019 order clearly falls foul of the principles of constitutional and political morality.
Commenting on the 1986 order, the Sarkaria Commission had observed that “every action which is legally permissible may not be necessarily prudent or proper from the political stand-point”. Not only is the recent presidential order against federalism generally and the spirit of Article 370 in particular but it also violates the letter of the Constitution.
Date:28-03-19
A cop out
Police reform is ‘mumkin’, but the political executive has failed to make it happen
Prakash Singh, [The writer is chairman, Indian Police Foundation.]
Our newspapers, until recently, were full of BJP’s tagline “Namumkin Ab Mumkin Hai”. There is no doubt that Prime Minister Narendra Modi has taken a number of initiatives in diverse fields, which would raise the standard of living of the common man and transform India into a cleaner, healthier and resurgent nation. Swachch Bharat is gradually becoming a reality. Ayushman Bharat aims to provide healthcare benefit to about 50 crore people. Electricity would appear to have reached every corner of the country. Ujjwala and Sukanya Yojana would go a long way in improving the plight of women, and so on. Different departments came out with their lists of achievements. Even if we make allowance for an element of exaggeration, these initiatives have been laudable and the progress impressive.
It is disappointing, however, that there is an area where even what was mumkin (possible) has not been achieved — it is about reformative changes in the police with a view to transforming it into an instrument of service to the people. The Supreme Court, in a landmark judgment in 2006, clearly said that “the commitment, devotion and accountability of the police has to be only to the rule of law” and that “the supervision and control has to be such that it ensures that the police serves the people without any regard, whatsoever, to the status and position of any person while investigating a crime or taking preventive measures”. The Court issued a slew of directions with a view to insulating the police from extraneous influences, giving it a measure of autonomy in personnel matters and making it more accountable. It is a great pity that even after 12 years, there has been only partial and, in some states, farcical compliance of the directions.
The states are primarily to blame. However, the Centre cannot escape responsibility for its indifference and inaction in the matter. The Police Act Drafting Committee headed by Soli Sorabjee had prepared a Model Police Act in 2006. The expectation was that the Centre would pass an Act on similar lines for Delhi and the Union Territories and that the same model would be adopted at least in those states where the same party held office. Besides, Article 252 of the Constitution gives Parliament the power to legislate for two or more states by consent and lays down that such an Act shall apply to the consenting states “and to any other by which it is adopted through a resolution passed in that behalf by the House or, where there are two Houses, by each of the Houses of the legislature of that State”.
Unfortunately, nothing of the kind happened. Till this day, the Government of India has not taken any definitive action on Sorabjee’s Model Police Act. In the absence of any initiative by the Centre, the states, 17 of them so far, have gone amok with their separate police Acts. It is ironical that while the British India had one police Act for the entire country, we are confronted with a situation where every state has a different Act with sharp differences in essential features.
Justice K T Thomas, who was appointed by the Supreme Court in 2008 to monitor the implementation of its directions, expressed his “dismay over the total indifference (of the states) to the issue of reforms in the functioning of police”. Justice J S Verma, who submitted a comprehensive report on amendments to criminal law in 2012, urged the “states to comply with all six Supreme Court’s directives in order to tackle systemic problems in policing”. It is quite mumkin, but the executive is unfortunately not prepared to give up its zamindari over the police.
The prime minister, while addressing the police chiefs of the country in Guwahati in 2014, raised hopes when he talked of building a SMART police — a police, which would be sensitive, mobile, accountable, responsive and techno-savvy. There has hardly been any follow up action and only some cosmetic steps were taken to augment the manpower and infrastructure of the forces.
It is indeed a tragedy that while the country is forging ahead in different spheres to build a new India, its policing remains mired in a colonial structure. The Acts passed by the states are crude attempts to circumvent the implementation of judicial directions. The Supreme Court has also, for inexplicable reasons, not cracked the whip so far.
The total strength of state police forces is 2.46 million and there are about 25,000 police stations and outposts across the country. It is a formidable strength. Imagine a situation where a common man does not feel inhibited in entering a police station, has a fair degree of confidence that his report would be lodged and investigated! It would be such a sea change. But is the political class keen on bringing about such a transformation? And, are the police officers themselves serious about introducing the much-needed internal reforms, which they could initiate without any political clearance or legislative backup?
We need to understand that stable law and order provides the foundation for sustained economic development. Haryana offers the most recent example of a state suffering a serious economic setback when law and order collapsed in the wake of an agitation over reservation. A healthy democracy also needs a healthy police. In fact, if police is not able to enforce the rule of law and is constrained to take directions from persons of questionable antecedents at the helm, it will be the beginning of the end of democracy.