28-10-2020 (Important News Clippings)

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28 Oct 2020
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Date:28-10-20

Indo-US Ties: Beyond Specific Leaders

Geospatial cooperation is vital step forward

ET Editorials

The third India-US 2+2 dialogue strengthens the partnership between the two countries that ranges from the political and the military to trade, technology and energy. This partnership is critical as India begins its term as a nonpermanent member of the UN Security Council in January. The India-US partnership is not tied to the administration of the day or personalities in office but rooted in mutual interests and shared values. The signing of the long-inthe-making Basic Exchange and Cooperation Agreement (BECA) for geospatial cooperation encapsulates this.

The BECA is the most critical outcome of the current round as it gives India access to extremely accurate geospatial data. The US stressed on the importance of countering China and the threat it poses to democracy, rule of law and transparency. At the same time, the India-US partnership is about a whole lot more than countervailing an overbearing China. It is a crucial part of securing stability, distinct from stasis, as the world leaves the unipolar moment behind and embraces multipolar existence. The strengthening of the Quad, comprising Japan and Australia, besides India and the US, is part of this. Being effective calls for not just advanced weaponry but also the sharing of vital information and the ability to coordinate and cooperate in an efficient manner. Advances in artificial intelligence (AI), satellite surveillance, cybersecurity, robotics and materials are integral parts of emerging strategic capability. Equipping powers that are committed to acommon goal in all areas of strategic capability is an integral goal of continuing, multifaceted dialogue between countries such as India and the US.

While the core of the dialogue focuses on political and military engagement, healthcare and the efforts to tackle Covid were another strand of the dialogue. As was the issue of terrorism and India’s willingness to contribute to security and stability in Afghanistan. From the immediate to the strategic, the scope for cooperation is wide, and it calls for effort.


Date:28-10-20

Back To Future

Signing BECA sets the stage for expansive security cooperation between US and India, serves long-term interests of both.

Editorial

The signing of the Basic Exchange and Cooperation Agreement (BECA) at the 2+2 dialogue between the defence and foreign ministers of India and the United States in Delhi on Tuesday marks the end of the prolonged phase of mutual trust-building and sets the stage for more expansive security cooperation. The BECA is the last of the so-called “foundational agreements” that the US wants its defence partners to sign. The BECA, which lets the Indian and US armed forces exchange geospatial information, follows three other agreements that aim to protect the military information shared by the US (GSOMIA), provide mutual logistics support around the world (LEMOA), and facilitate communication between the weapons platforms of the two armed forces (COMCASA). These agreements have been hailed as major advances, but they are, in fact, rather routine. They have been under discussion between Delhi and Washington for nearly two decades.

The General Security of Military Information Agreement (GSOMIA) was signed by the government of Atal Bihari Vajpayee back in 2002. The Logistics Exchange Memorandum of Agreement (LEMOA) was signed a full 14 years later in 2016. The Communication Compatibility and Security Agreement (COMCASA) was signed in 2018. The missing years in between belonged to the UPA government. To be sure, it was the UPA that opened the space for a bold new strategic engagement with Washington. Defence minister Pranab Mukherjee signed a 10-year framework agreement on defence cooperation with the US in June 2005 and Prime Minister Manmohan Singh signed the India-US civil nuclear initiative in July 2005. The four foundational agreements should have followed easily from the 2005 breakthrough. But the Congress leadership was struck by “buyer’s remorse” — it turned each of these functional agreements into purity tests for India’s non-alignment.

Unlike the Congress leadership, Prime Minister Narendra Modi agreed with the armed forces that saw major security gains from these agreements and even, more importantly, the political value of deeper strategic partnership with the US. That has helped clear the brush for more intensive engagement between the armed forces —from interoperability to intelligence-sharing and joint defence research to production of weapons. As the real possibilities for bilateral and multilateral defence and security cooperation open up now, it will be wrong to view the current developments as a tactical response to the immediate military challenges that India confronts vis-a-vis China. India’s defence dialogue with the US has a longer history than either country’s concerns about China. Substantive and institutionalised cooperation between the two defence establishments will serve the long-term interests of a rising India and an America that is restructuring its global security burden. Acting together, Delhi and Washington will be in a better position to shape the regional and global environment in favour of peace and stability.


Date:28-10-20

ट्रम्प और अमेरिका का मोहरा नहीं बनेगा भारत

डॉ. वेदप्रताप वैदिक, ( भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष )

भारत और अमेरिका के बीच जो सामरिक समझौता हुआ है, वह स्वागत योग्य है, क्योंकि उसके तहत भारत को शत्रु-राष्ट्रों की समस्त गुप्त गतिविधियों की तकनीकी जानकारी मिलती रहेगी। भारत अब वह यह भी जान सकेगा कि कौन-सा देश उसके विरुद्ध जल, थल, नभ और अंतरिक्ष में क्या-क्या षड्यंत्र कर रहा है। यह समझौता यदि सालभर पहले हो गया होता तो गलवान घाटी में चीन की घुसपैठ का पता भारत को कब का लग गया होता। इस समझौते के लिए अमेरिका के विदेश मंत्री माइक पोम्पियो और रक्षा मंत्री कार्ल एस्पर्स भारत आए हैं। लेकिन यहां यह प्रश्न स्वाभाविक है कि अमेरिका में राष्ट्रपति के चुनाव के ठीक एक हफ्ते पहले ही यह समझौता क्यों हो रहा है? अगर ट्रम्प हारे और जो बाइडेन जीते तो क्या यह समझौता टिक पाएगा? क्योंकि 2016 में जब अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव हो रहे थे, तब भी ओबामा सरकार के साथ भारत ने पेरिस के जलवायु समझौते पर हामी भरी थी लेकिन ट्रम्प जीत गए और डेमोक्रेट हिलेरी क्लिंटन हार गईं। ट्रम्प ने राष्ट्रपति बनते ही उक्त समझौते का बहिष्कार कर दिया। भारत देखता रह गया। यदि अमेरिका समझौते पर टिका रहता तो भारत को 100 अरब डाॅलर की राशि का बड़ा हिस्सा मिलता।

ऐन राष्ट्रपति-चुनाव के वक्त यह समझौता करने के लिए अमेरिका इसलिए भी उत्साहित है कि ट्रम्प को भारतीय मूल के 19 लाख वोटरों को रिझाना है। भारतीय मूल के लोगों के लिए सबसे सम्मोहक उम्मीदवार कमला हैरिस हैं, जो डेमोक्रेट हैं और बाइडेन के साथ उप-राष्ट्रपति पद के लिए लड़ रही हैं। अमेरिका में चल रहे चुनाव-पूर्व सर्वेक्षणों के मुताबिक 70% से भी अधिक भारतीय मतदाता बाइडेन व कमला को वोट देने का विचार कर रहे हैं। जाहिर है, इस समझौते से भारतीय मूल के वोटरों पर कोई खास प्रभाव नहीं पड़ने वाला। इधर ट्रम्प ने प्रदूषण की समस्या पर बोलते हुए भारत को ‘गंदा देश’ बता दिया। उनके इन शब्दों का प्रभाव भारतीय मूल के मतदाताओं पर क्या होगा, यह बताने की जरूरत नहीं है।

अभी गलवान घाटी में भारत-चीन के बीच काफी तनाव है। ट्रम्प इस घटना-क्रम का भी फायदा उठाना चाहते हैं। चीन और अमेरिका के बीच आजकल वैसा ही शीतयुद्ध चल रहा है, जैसा कभी सोवियत रूस और अमेरिका के बीच चलता था। अमेरिका चाहता है कि वह चीन की घेराबंदी कर ले ताकि वह सामरिक, व्यापारिक और राजनयिक मामलों में अमेरिका के सामने घुटने टेक दे। ट्रम्प की नजरों में इस लक्ष्य के लिए भारत सबसे बड़ा मोहरा सिद्ध हो सकता है। इसीलिए टोक्यो में तीन हफ्ते पहले जो क्वाड (भारत, जापान, ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका) की बैठक हुई, उसमें अमेरिकी विदेश मंत्री ने खुलकर चीन-विरोधी बयान दिए। वहीं भारतीय विदेश मंत्री जयशंकर ने किसी भी देश के विरुद्ध कुछ नहीं बोला।

अब भी हमारे रक्षा और विदेश मंत्रियों ने दोनों अमेरिकी मंत्रियों से बात करते समय काफी सावधानी बरती है। न उन्होंने ऐसी कोई बात की, जैसी ह्यूस्टन और अहमदाबाद में मोदी ने ट्रम्प को रिझाने की कोशिश की थी और न ही उन्होंने भारतीय मूल के वोटरों को ट्रम्प के पक्ष में झुकाने के लिए कोई इशारा किया। यह अच्छा है कि अमेरिका की आंतरिक राजनीति से इस बार भारत स्वयं को तटस्थ रख रहा है। यों भी ट्रम्प सरकार घोर राष्ट्रवादी और उग्र स्वार्थी रही है। उसने व्यापार के मामले में भारत के साथ सख्ती बरती, भारतीयों के वीजा में अडंगा लगाया और रूसी प्रक्षेपास्त्रों की खरीद पर प्रतिबंध नहीं हटाया।

भारतीय मंत्रियों, प्रधानमंत्री और अफसरों ने यह भी सावधानी बरती कि उन्होंने अमेरिका को खुश करने की खातिर चीन के खिलाफ कुछ भी बोलना ठीक नहीं समझा। चीन से भारत खुद निपटेगा लेकिन उससे निपटने के लिए वह किसी का मोहरा नहीं बनेगा। अमेरिकी मंत्री चीन के खिलाफ घेराबंदी के लिए ही अब श्रीलंका और मालदीव रवाना हो गए हैं। उन्हें इन छोटे देशों की सुध क्यों लेनी पड़ रही है, क्योंकि जापान, कोरिया, ताइवान, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड वगैरह के साथ-साथ इन देशों में भी चीन का वर्चस्व उन्हें बढ़ता हुआ दिखाई पड़ रहा है। अब तिब्बत पर भी उन्होंने नया मोर्चा खोल दिया है।

चीन के प्रति डेमोक्रेटिक पार्टी का रवैया वह नहीं है, जो ट्रम्प का है। जहां तक भारत का सवाल है, डेमोक्रेटिक पार्टी का रवैया भारत के प्रति काफी मैत्रीपूर्ण है। अमेरिकी मंत्रियों से बातचीत में भारतीय मंत्रियों ने पारस्परिक सहयोग के कई मुद्दे उठाए हैं। उनमें अफगानिस्तान भी प्रमुख रहा है। यह अच्छी बात है कि भारत ने दोहा-वार्ता में भाग लिया और विभिन्न अफगान-गुटों के प्रतिनिधि भारत आकर उनसे मिल रहे हैं, लेकिन आश्चर्य है कि तालिबान से भारत का कोई सीधा संपर्क नहीं है। अमेरिका का तालिबान और पाकिस्तान से सीधा संपर्क है। इसीलिए आजकल वह आतंकवाद के बारे में चुप रहता है लेकिन अमेरिकियों के साथ भारत को आतंकवाद का मुद्दा तो उठाना ही चाहिए और संपूर्ण दक्षिण एशिया में यूरोपीय संघ की तरह एक महासंघ खड़ा करने की पहल भी करनी चाहिए।


Date:28-10-20

हंगर इंडेक्स की हकीकत

बलबीर पुंज , (लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)

हाल में कंसर्न वल्र्डवाइड और वेल्टहंगरहिल्फे द्वारा प्रकाशित ‘ग्लोबल हंगर इंडेक्स 2020’ रिपोर्ट जारी हुई। इसके अनुसार भारत में भुखमरी की स्थिति गंभीर है और उसका स्थान 107 देशों की सूची में 94वां है। पिछले वर्ष की तुलना में इसमें कुछ सुधार हुआ है। बावजूद इसके पड़ोसी देशों जैसे नेपाल, श्रीलंका, बांग्लादेश, म्यांमार और पाकिस्तान से अभी भारत पीछे है। जैसे ही यह रिपोर्ट सार्वजनिक हुई, वैसे ही भारतीय मीडिया-विशेषकर अंग्रेजी मीडिया ने इसे प्रमुखता से प्रकाशित/प्रसारित किया। कांग्रेस सहित विपक्षी दलों ने इसी रिपोर्ट को आधार बनाकर मोदी सरकार को कठघरे में खड़ा कर दिया। क्या किसी ने इस रिपोर्ट और इसके रचनाकार संगठनों की प्रमाणिकता को जांचा या खोजबीन की?

वेल्टहंगरहिल्फे और कंसर्न वल्र्डवाइड, दोनों संगठनों की उत्पत्ति 1960-70 के दौरान रोमन कैथोलिक चर्च और ईसाई मिशनरियों ने की थी, जिनका भूत, वर्तमान और भविष्य भय, लालच, प्रलोभन के माध्यम से मतांतरण में लिप्त है। कंसर्न वल्र्डवाइड की स्थापना आयरिश ईसाई मिशनरी के कहने पर 1968 में तब हुई थी, जब नाइजीरिया को ब्रिटिश उपनिवेश से मुक्ति मिले आठ वर्ष हो चुके थे और उस समय वह भीषण गृह युद्ध की चपेट में था। इस अफ्रीकी देश में वर्ष 1914-60 के ब्रिटिश राज के दौरान ईसाइयत का प्रचार हुआ, जो अब भी जारी है। इसी तरह जर्मनी स्थित वेल्टहंगरहिल्फे नामक संगठन की स्थापना 1962 में पूर्वी जर्मनी के तत्कालीन राष्ट्रपति और रोमन कैथोलिक चर्च के सदस्य हेनरिक लुब्के ने की थी। वर्तमान में इस संस्था का नेतृत्व मरलेह्न थिएमे के हाथों में है, जो 2003 से जर्मन ईसाई धर्म प्रचार चर्च परिषद से जुड़ी हुई हैं। चर्च के अतिरिक्त कैथोलिक बिशप कमीशन, जर्मनी के वामपंथी राजनीतिक दल (डी-लिंक) और वाम-समॢथत व्यापारिक संघ इसके प्रमुख सदस्य हैं। क्या ऐसा संभव है कि कोई विशुद्ध भारतीय संस्था किसी अन्य देश पर नकारात्मक रिपोर्ट तैयार करे और वहां का समाज (मीडिया सहित) उसका तुरंत संज्ञान लेकर उस पर विश्वास कर ले? पिछले दिनों लीगल राइट ऑब्जर्वेटरी (एलआरओ) नामक भारतीय संगठन ने खुलासा किया था कि कैसे नागरिक संशोधन अधिनियम (सीएए) विरोधी हिंसा के षड्यंत्रकारियों की पैरवी करने के लिए जर्मनी-बेल्जियम स्थित चर्चों ने करोड़ों रुपये भारत भेजे थे। इस रिपोर्ट पर संबंधित देशों की मीडिया का संज्ञान लेना तो दूर, स्वयं अपने ही देश के अधिकांश मीडिया ने चर्चा नहीं की।

नि:संदेह देश में कुछ स्वयंसेवी संगठन ऐसे हैं, जो सीमित संसाधनों के बावजूद देश के विकास में महती भूमिका निभा रहे हैं, किंतु कई एनजीओ ऐसे भी हैं, जो पर्यावरण, सामाजिक न्याय, गरीबी, शिक्षा, महिला सशक्तीकरण, मजहबी सहिष्णुता, मानवाधिकार और पशु अधिकारों की रक्षा के नाम पर न केवल भारत विरोधी, अपितु यहां की बहुलतावादी परंपराओं पर दशकों से हमला कर रहे हैं। इसके साथ ही विदेशी शक्तियों के इशारों पर विकास कार्यों में रोड़े भी अटका रहे हैं, जिससे देश की अर्थव्यवस्था पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।

अधिकांश भारतीय एनजीओ को अलग-अलग नामों से स्थापित अमेरिकी और यूरोपीय विदेशी ईसाई संगठनों (चर्च सहित) से ‘सेवा’ के नाम पर चंदा मिलता है। सच तो यह है कि इन संगठनों के लिए ‘सेवा’ का एकमात्र अर्थ मतांतरण है। चूंकि अमेरिका और यूरोपीय देशों का मूल चरित्र सदियों पहले ईसाई बहुल हो चुका है इसलिए वहां ‘सेवा’ का कोई अर्थ नहीं है। अब भारतीय समाज के जो लोग उन्हीं संगठनों की ‘विशेष उद्देश्य से प्रेरित’ रिपोर्ट में लिखे एक-एक शब्द को ब्रह्मवाक्य मान रहे हैैं, वे वास्तव में ‘बौद्धिक दासता’ से जकड़े हुए हैैं। ऐसे लोग न केवल हीनभावना से ग्रस्त हैं, बल्कि उनमें आत्मविश्वास का भी नितांत आभाव है। क्या चर्च प्रेरित एनजीओ की भुखमरी संबंधी रिपोर्ट और भारत विरोधी गतिविधियों में लिप्त गैर-सरकारी संगठनों के खिलाफ मोदी सरकार की कार्रवाई में कोई संबंध है? मोदी सरकार लगभग 16,500 एनजीओ का पंजीकरण रद्द कर चुकी है। इसके बाद विदेशी चंदे में लगभग 40 प्रतिशत कमी आई है। इस कार्रवाई की गंभीरता का अंदाजा इससे भी लगा सकते हैैं कि 2016-19 के बीच विदेशी अंशदान विनियमन अधिनियम (एफसीआरए) के तहत पंजीकृत एनजीओ को 58,000 करोड़ रुपये का विदेशी अनुदान प्राप्त हुआ था। इन तथाकथित स्वयंसेवी संगठनों का वैश्विक संजाल कितनी गहराई तक फैला हुआ है, इसका उत्तर संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार उच्चायुक्त मिशेल बाखलेट के एक वक्तव्य में मिल जाता है। एफसीआरए संशोधन विधेयक पर बाखलेट कहती हैं, ‘अस्पष्ट रूप से परिभाषित कानून तेजी से मानवाधिकारों की आवाजों को दबाने के लिए उपयोग किए जा रहे हैं।’ इस पर भारतीय विदेश मंत्रालय ने प्रतिक्रिया देते हुए कहा, ‘कानून बनाना निश्चित तौर पर एक संप्रभु विशेषाधिकार होता है। उसे तोडऩे वाले को मानवाधिकार के बहाने बख्शा नहीं जा सकता। इस संस्था से अधिक जानकारी वाले दृष्टिकोण की अपेक्षा थी।’

अब बाखलेट के भारत विरोधी वक्तव्य का कालक्रम ऐसे समझिए कि उनसे पहले विवादित ब्रिटिश ‘एमनेस्टी इंटरनेशनल’ भारत में अपना संचालन रोक चुका है तो ब्रिटिश चर्च द्वारा संरक्षित अंतरराष्ट्रीय धर्मार्थ संस्था ऑक्सफैम ने एफसीआरए संशोधनों पर प्रतिकूल प्रतिक्रिया दी है। एमनेस्टी पर जहां देश में गंभीर एफसीआरए उल्लंघन का मामला चल रहा है तो ऑक्सफैम की सच्चाई उसके क्रियाकलापों में छिपी है। इस संगठन के पदाधिकारी और कर्मचारी 2010 में भूंकप का शिकार हुए कैरेबियाई देश हैती में चंदे के पैसे अपनी वासना शांत करने पर लुटा चुके हैं। मानवता पर कलंक लगाते इस घटनाक्रम की ब्रिटिश संसद (हाउस ऑफ कॉमन्स) भी निंदा कर चुका है।

अब यहां दोहरे चरित्र की पराकाष्ठा देखिए। जिन भारतीय पासपोर्टधारकों ने ब्रिटिश गैर-सरकारी संगठन ‘थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन’ द्वारा 2018 में मात्र 548 लोगों से फोन पर बात करके तैयार रिपोर्ट पर तुरंत विश्वास कर लिया था, जिसमें भारत को महिलाओं के लिए विश्व का सबसे खतरनाक देश घोषित कर दिया था, उनका मुंह ऑक्सफैम की करतूत पर आज तक नहीं खुला। इस स्थिति के लिए वह चिंतन जिम्मेदार है, जो मानसिक रूप से गुलाम होने के कारण जाने-अनजाने में उन शक्तियों की सहयोगी हो जाता है, जिनका एकमात्र उद्देश्य भारत को टुकड़ों-टुकड़ों में खंडित करना है। बहुलतावाद और सनातन संस्कृति से घृणा करने वाले इन संगठनों के मुखौटे अलग-अलग हो सकते हैं, किंतु एजेंडा एक है। इस पृष्ठभूमि में पूर्वाग्रह से ग्रसित ‘ग्लोबल हंगर इंडेक्स’ जैसी रिपोर्ट को अकाट्य मानने वाले क्या अपने गिरेबां में झाकेंगे?


Date:28-10-20

क्षेत्रीय हितों का ध्यान

संपादकीय

अमेरिका के विदेश मंत्री माइक पॉम्पिओ और रक्षा मंत्री मार्क एस्पर की द्विपक्षीय रक्षा सहयोग संबंधी तीसरी 2+2 वार्ता में भारत के लिए अवसर भी हैं और जोखिम भी। यह बैठक उस समय हो रही है जब लद्दाख में वास्तविक नियंत्रण रेखा पर चीन के साथ पांच महीनों से तनाव बना हुआ है। अमेरिका के लिए यह बैठक एशिया में चीन के खिलाफ अमेरिकी नेतृत्व वाली रणनीतिक साझेदारी के गति पकडऩे का मामला है। पॉम्पिओ की इस यात्रा में मालदीव, श्रीलंका और इंडोनेशिया भी शामिल हैं। उन्होंने कभी नहीं छिपाया कि उनकी सरकार ‘चीन की कम्युनिस्ट पार्टी’ की धमकियों का मुकाबला करने के रास्ते तलाश रही है। यह बैठक दोनों देशों के बीच बीते डेढ़ दशक से चली आ रही करीबी के साथ निरंतरता में है। इस दौरान एजेंडे में एक अहम बात है मूलभूत विनिमय एवं सहयोग समझौते (बीईसीए) पर हस्ताक्षर। यह उन चार बुनियादी समझौतों में से अंतिम है जो रक्षा रिश्तों में गहराई लाने से संबंधित हैं। बीईसीए भारतीय सेना को अमेरिका के स्थलीय, समुद्री और हवाई डेटा तो मुहैया कराएंगे ही, साथ ही अमेरिकी रक्षा विभाग के सैटेलाइट नेटवर्क की बदौलत भारत लंबी दूरी की चुनिंदा मिसाइल शक्तियों में भी शामिल हो जाएगा।

परंतु हकीकत यह है कि यह चर्चा अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव के एक सप्ताह पहले हो रही है। चुनाव के नतीजे दोनों देशों के रिश्तों में तब्दीली ला सकते हैं। हालांकि अब यह तय हो चुका है कि चीन और अमेरिका का तनाव बना रहेगा, भले ही अमेरिका में किसी भी दल का राष्ट्रपति हो। ऐसे में एक सहयोगी के रूप में भारत की भूमिका काफी हद तक अमेरिका के साथ उसके रिश्तों पर निर्भर करेगी। यदि डॉनल्ड ट्रंप अमेरिकी राष्ट्रपति बने रहते हैं तो चीन के साथ चल रहे तनाव में भारत एक अहम साझेदार बना रहेगा। पॉम्पिओ ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता के भारत के दावे को समर्थन दिया है और भारत तथा ईरान के बीच के संयुक्त उपक्रम वाले चाबहार बंदरगाह को को प्रतिबंधों से छूट देने की इच्छा जताई है। यह बात ट्रंप प्रशासन के लिए भारत के महत्त्व को साबित करती है।

यदि बड़े कारोबारी घरानों के समर्थन वाले जो बाइडन जीतते हैं तो माना जा सकता है कि वह चीन के साथ कारोबारी तनाव कम करेंगे। भारत की बात करें तो उसे भी एच1बी वीजा व्यवस्था में ट्रंप प्रशासन द्वारा लगाई गई कड़ाई से मुक्ति मिल सकती है। परंतु बाइडन बराक ओबामा के ईरान के साथ परमाणु समझौते और प्रशांत पार साझेदारी को नए सिरे से शुरू कर सकते हैं। ट्रंप ने इन दोनों को नकार दिया। बहरहाल यदि ऐसा हुआ तो संतुलन भारत से दूर हो जाएगा। बाइडन ने भारत को मित्र जरूर बताया है लेकिन प्रधानमंत्री मोदी ने अमेरिका में जिस तरह ट्रंप की वकालत की वह डेमोक्रेट प्रशासन में पैठ कमजोर करेगा।

बहरहाल भारत को महाशक्ति के साथ गठजोड़ से परे अपनी क्षेत्रीय पहचान मजबूत करने की दिशा में काम करना होगा। ऑस्ट्रेलिया को नवंबर में मालाबार कवायद के लिए आमंत्रित करना हिंद महासागर और हिंद प्रशांत क्षेत्र की सुरक्षा के लिए बेहतर होगा। भारत ने नवंबर में शांघाई कोऑपरेशन ऑर्गनाइजेशन की शासन प्रमुखों की परिषद की मेजबानी की बात कही है जो चीनी आक्रामकता के बीच कूटनीतिक परिपक्वता का उदाहरण है। मोदी सरकार के कार्यकाल में नेपाल के साथ रिश्ते अवश्य खराब हुए हैं। श्रीलंका के साथ शुरुआती करीबी भी कमजोर पड़ी क्योंकि भारत ने श्रीलंका के कर्ज राहत के अनुरोध पर देरी की। वहीं नागरिकता संशोधन अधिनियम के मसले पर बांग्लादेश के साथ तनाव बढ़ा है। भारत अमेरिका के साथ करीबी का फायदा उठाकर पाकिस्तान पर आतंकी समूहों का समर्थन रोकने का दबाव भी नहीं बना पाया है। भारत को पड़ोसियों पर भी नजर डालने की जरूरत है।


Date:28-10-20

दूरगामी मोर्चा

संपादकीय

भारत और अमेरिका के बीच नई दिल्ली में मंगलवार को जो महत्त्वपूर्ण रक्षा समझौता हुआ है, वह दोनों देशों के बीच मजबूत होते रक्षा संबंधों को रेखांकित करता है। सैन्य डाटा साझा करने और भारत को क्रूज व बैलेस्टिक मिसाइलों की तकनीक देने को लेकर बनी सहमति वाला ‘बेसिक एक्सचेंज एंड कोऑपरेशन एग्रीमेंट ऑन जिओस्पेशियल कोऑपरेशन’ (बीका) चौथा रक्षा समझौता है। इसमें कोई संदेह नहीं कि रक्षा क्षेत्र में अमेरिका और भारत एक दूसरे के सबसे करीबी सैन्य साझीदार बन गए हैं। यह करार ऐसे वक्त में हुआ है जब अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव को हफ्ता भर भी नहीं रह गया है। लेकिन सामरिक और रक्षा क्षेत्र में अमेरिका और भारत जिस तरह से एक दूसरे का सहयोग कर रहे हैं, उससे यह साफ है कि दोनों देशों के बीच ये रिश्ते स्थायी बन जाएंगे। अमेरिका में राष्ट्रपति चाहे कोई बने, भारत को लेकर रिपब्लिकन और डेमोक्रेट, दोनों ही सकारात्मक रुख रखते हैं और चुनाव प्रचार के दौरान सभी ने खुल कर यह बात कही भी है। भारत आज चारों ओर से जिस तरह की सुरक्षा संबंधी चुनौतियों का सामना कर रहा है, उसे देखते हुए देश के रक्षा तंत्र को मजबूत बनाना वक्त की मांग है। ऐसे में यह करार मील का पत्थर साबित होगा।

बीका समझौता कोई एक दिन की उपलब्धि नहीं हैं। सबसे पहले साल 2002 में दोनों देशों के बीच सैन्य सूचनाओं के आदान-प्रदान के लिए करार हुआ था। यह वह दौर था जब अमेरिका पर आतंकी हमला हुआ था और उसे भारत जैसे देशों के साथ की जरूरत थी, ताकि आतंकवाद से निपटने में मिल कर काम कर सकें। इसके बाद 2016 और 2018 में रक्षा उपकरणों की आपूर्ति और सुरक्षा से संबंधित दो और समझौते हुए थे। बीका इसी कड़ी का करार है। इस करार के बाद अब भारत को अमेरिका से अतिसंवेदनशील सूचनाएं, डाटा, नक्शे आदि मिल सकेंगे। ऐसी तमाम गोपनीय सूचनाएं और जानकारियां होती हैं, जिनके अभाव में हम दुश्मन के ठिकानों तक मार नहीं कर पाते। अगर हमारे पास जटिल भौगोलिक इलाकों के नक्शे और जानकारियां हो तो दुश्मन का मुकाबला करना कहीं ज्यादा आसान होगा। इस करार के तहत युद्ध के दौरान अमेरिका अपने उपग्रहों से मिलने वाले आंकड़े और तस्वीरें भारत के साथ साझा करेगा। आज भारत को चीन और पाकिस्तान दोनों से गंभीर चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। हिंद महासागर क्षेत्र में चीन की बढ़ती गतिविधियां भी सुरक्षा के लिए नया खतरा बन गई हैं। ऐसे में भारत और अमेरिका के बीच नए रक्षा करार से दोनों देश इस क्षेत्र में चीन के प्रसार को रोकने के लिए काम करेंगे।

भारत संतुलन बनाए रखते हुए अपनी सैन्य क्षमता को निरंतर मजबूत कर रहा है। रूस से भी भारत सैन्य मदद ले रहा है। भारत और अमेरिका के विदेश और रक्षा मंत्रियों की बैठक में सीमा पार आतंकवाद पर भी चर्चा हुई। अमेरिकी रक्षा व विदेश मंत्री ने गलवान घाटी में शहीद हुए भारतीय सैनिकों को श्रद्धांजलि देकर यह साफ कर दिया कि चीन के साथ टकराव की स्थिति में अमेरिका भारत के साथ खड़ा है। अमेरिका भी यह बात अच्छी तरह से समझता है कि चीन से निपटने के लिए भारत को साथ रखना जरूरी है और इसके लिए पहले उसे सैन्य रूप से सुदृढ़ करना होगा। दक्षिण एशिया में चीन के प्रभाव को कम करने के लिए अमेरिका, भारत, जापान और ऑस्ट्रेलिया का संगठन- क्वाड भी पूरी तरह से सक्रिय है। चूंकि सैन्य तकनीक और प्रौद्योगिकी में भारत अभी वह मुकाम हासिल नहीं कर पाया है जो रूस और अमेरिका जैसे देश कर चुके हैं, इसलिए भारत को अमेरिका का साथ चाहिए।


Date:28-10-20

क्‍वाड की रणनीति में चीन

संजीव पांडेय

चीन की घेरेबंदी के लिए चार देशों- अमेरिका, जापान, भारत और आस्ट्रेलिया का समूह ‘क्वाड’ सक्रिय है। क्वाड की अवधारणा पर विचार-विमर्श लगभग डेढ़ दशक पहले शुरू हुआ था। लेकिन इसकी सक्रियता अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के कार्यकाल में बढ़ी। इसी महीने टोक्यो में क्वाड के सदस्य देशों के विदेश मंत्रियों की बैठक के संकेत साफ थे कि चीन के बढ़ते प्रभाव को रोकने के लिए क्वाड अब तेजी से बढ़ेगा। वैसे क्वाड की जरूरत 2004 की सुनामी ने महसूस करवाई थी। तब एशिया-प्रशांत क्षेत्र में आपसी सहयोग के लिए अमेरिका, भारत, जापान और आस्ट्रेलिया ने नए सहयोग संगठन पर विचार विमर्श शुरू किया था। उस समय इसके गठन में अहम भूमिका जापान के पूर्व प्रधानमंत्री शिंजो आबे की थी। शुरुआत में भारत ने ज्यादा सक्रियता नहीं दिखाई। अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप के राष्ट्रपति बनने के बाद क्वाड की सक्रियता बढ़ी, खासतौर से 2017 के बाद। अब तो क्वाड को एक सैन्य संधि का रूप देने की दिशा में कदम बढ़ाए जा रहे हैं। क्वाड सदस्य देश अरब सागर में सैन्य अभ्यास में भाग लेने की तैयारी में हैं। इस सैन्य अभ्यास की खबर ने क्वाड सैन्य संधि की चर्चा बढ़ा दी है। टोक्यो में क्वाड विदेश मंत्रियों की बैठक और उसके बाद मालबार सैन्य अभ्यास में आस्ट्रेलिया के शामिल होने की खबर से चीन की नींद उड़ गई है। चीन ने इसे अपने खिलाफ गोलबंदी करार दिया है।

क्वाड की सक्रियता के तात्कालिक कारणों पर गौर करना होगा। पिछले कुछ सालों से अमेरिका और चीन के बीच व्यापार युद्ध चरम पर है। कोरोना महामारी को लेकर अमेरिका ने चीन के खिलाफ हमलावर रुख अपना रखा है। इधर, भारत और चीन के बीच पूर्वी लद्दाख में वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर भारी तनाव है। जापान और चीन का पुराना विवाद है ही और दक्षिण चीन सागर में चीन की बढ़ती सैन्य गतिविधियों को लेकर वह सतर्क है। इन हालात ने हिंद-प्रशांत क्षेत्र में क्वाड की सक्रियता को बढ़ाया है। अब तो इस संगठन को एशियाई नाटो में तब्दील करने पर भी जोर दिया जा रहा है। लेकिन अहम सवाल यह है कि क्वाड को लेकर एशिया और प्रशांत क्षेत्र के अन्य देशों का सोचना क्या है?

इसमें कोई संदेह नहीं कि क्वाड के सदस्य देशों के हित चीन से टकरा रहे हैं। ऐसे में अन्य एशियाई देशों ने इस नए टकराव का लाभ उठाने के लिए रणनीति बनानी शुरू कर दी है। कई एशियाई देश क्वाड की सक्रियता से खुश हैं। ये वे देश हैं जो चीन का खुल कर विरोध करने से डरते हैं और चीनी निवेश के जाल में फंसे हैं। ऐसी स्थिति में एशिया और प्रशांत इलाके में क्वाड की सक्रियता इन छोटे देशों का महत्त्व बढ़ाएगी। बेल्ट एंड रोड पहल में शामिल एशियाई देश चीन को क्वाड का भय दिखा कर लाभ उठाने की कोशिश करेंगे। आसियान के कुछ सदस्य देशों का चीन से टकराव है। लेकिन ये देश चीन से सीधा टकराव नहीं लेने से बचते रहे हैं। मेकांग नदी के पानी को लेकर आसियान के सदस्य देशों- थाईलैंड, लाओस और वियतनाम का चीन से विवाद है। दक्षिण चीन सागर में चीन लगातार वियतनाम को धमका रहा है। इन देशों को अब लग रहा है कि क्वाड की सक्रियता के कारण उनका महत्व बढ़ेगा और चीन से वे बेहतर तरीके से बराबरी के स्तर पर बातचीत करने की स्थिति में आ सकेंगे।

पूर्वी लद्दाख में चीन ने भारत के खिलाफ मोर्चा खोल रखा है। हिंद महासागर में भी चीन के विस्तारवादी कदम भारत के लिए चिंता का बड़ा कारण बने हुए हैं। नेपाल, बांग्लादेश, श्रीलंका और पाकिस्तान में चीन की मजबूत स्थिति भी भारत के लिए कम गंभीर खतरा नहीं है। ऐसे में क्वाड की सक्रियता हिंद महासागर में चीन की गतिविधियों पर अंकुश लगाने में बड़ी भूमिका निभा सकती है। क्वाड की सक्रियता का असर दिखने भी लगा है। बांग्लादेश के सोनाडिया बंदरगाह को विकसित करने का ठेका हासिल करने में चीन विफल हो गया है, क्योंकि बांग्लादेश ने इस द्वीप पर बंदरगाह विकसित करने की योजना ही रद्द कर दी है। अब बांग्लादेश जापान के सहयोग से मातरबारी में बंदरगाह बनाएगा। बांग्लादेश का यह फैसला साफ संकेत दे रहा है कि वह एशियाई भू-राजनीति में संतुलन की कूटनीति पर काम करेगा। बांग्लादेश चीन की कीमत पर कम से कम जापान और अमेरिका को नाराज नहीं करने वाला, क्योंकि जापान की लगभग तीन सौ कंपनियां बांग्लादेश में निवेश कर चुकी हैं। वहीं बांग्लादेश और अमेरिका के बीच द्विपक्षीय व्यापार बढ़ रहा है। बांग्लादेशी से होने वाले आयात में अमेरिका की हिस्सेदारी लगातार बढ़ रही है। हालांकि क्वाड के सदस्य देश चीन के विस्तारवाद को रोकने का प्रयास अपने स्तर पर पहले से ही करते रहे हैं। जापान अपनी सैन्य ताकत चीन के डर से ही बढ़ा रहा है। इसके लिए वह अपने दो पोतों को विमानवाहक बेड़े में तब्दील कर रहा है। अमेरिका ने चीन को आर्थिक रूप से नुकसान पहुंचाने के लिए व्यापार युद्ध पहले ही छेड़ रखा है। भारत अपने तरीके से चीन की सैन्य घुसपैठ को रोक रहा है।

चीन का समुद्री विस्तारवाद हिंद-प्रशांत क्षेत्र में स्थित अमेरिकी सैन्य अड्डों को भविष्य में चुनौती देगा। एशिया में अमेरिका के अपने हित हैं। इन्हें साधने के लिए ही वह जापान और भारत के साथ मजबूत गठजोड़ चाहता है। चूंकि दोनों देशों का चीन से पुराना विवाद है, इसलिए अमेरिका को गठजोड़ बनाने में कोई दिक्कत नहीं है। हालांकि चीन के खिलाफ गठजोड़ को कारगर बनाने के लिए कुछ और एशियाई लोकतांत्रिक देशों का साथ जरूरी है। अमेरिका को जापान और भारत के अलावा ताइवान और दक्षिण कोरिया को साथ लेना होगा। ताइवान और दक्षिण कोरिया का भी चीन के साथ विवाद है। लेकिन यहां भी समस्या है। चीन के घोर विरोधी ताईवान के कूटनीतिक संबंध क्वाड के सदस्य देशों के साथ नहीं हैं। वहीं, दक्षिण कोरिया और जापान के बीच पुराने मतभेद हैं।

क्वाड में सक्रिय और अग्रणी भूमिका के बाद भारत पर अमेरिकी गुट में शामिल होने के आरोप लगने शुरू हो गए हैं। क्वाड को लेकर रूस और ईरान जैसे देश संवेदनशील हैं। ईरान और अमेरिका के बीच लंबे समय से तनाव बना हुआ है। जबकि रूस एशियाई भू-राजनीति में अमेरिका का घोर विरोधी है। पश्चिम एशिया से लेकर मध्य एशिया तक रूस ने अमेरिका विरोधी अभियान जारी रखा हुआ है। ईरान और रूस जैसे देश समुद्री क्षेत्र में क्वाड की सक्रियता को संदेह की नजर से देख रहे हैं। रूस को यह डर है कि क्वाड और मालाबार सैन्य अभ्यास भविष्य में भारत के हथियार बाजार में उसे नुकसान पहुंचा सकता है। साथ ही उसे यह आशंका भी है कि क्वाड की आड़ में अमेरिका भारत में खरीदे जाने वाले हथियारों और अन्य रक्षा उत्पादों में अपनी हिस्सेदारी बढाने की कोशिश करेगा। जापान पहले से ही अमेरिकी रक्षा उत्पादों का इस्तेमाल कर रहा है। भारत ने अमेरिका के विरोध के बावजूद रूस से एस-400 मिसाइल खरीदने का फैसला लिया। फ्रांस से राफेल खरीदे हैं। चूंकि अमेरिका को पता है कि आने वाले समय में भारतीय सेना को सैन्य उपकरणों और हथियारों की जरूरत में बढ़ोतरी होगी, इसलिए अमेरिका की नजर भारत की रक्षा संबंधी खरीद पर है। ऐसे में भारत के लिए सबसे बड़ी चुनौती क्वाड में रहते हुए रूस के साथ भी संतुलन बनाने की है।


Date:28-10-20

क्लाइमेट पॉलिसी वक्त की मांग

प्रो. सतीश कुमार

एक समय था जब यह माना जाता था कि दुनिया खत्म होगी आणविक युद्ध के माध्यम से। जब शीत युद्ध का माहौल था, लेकिन अब यह दुनिया अपनी विलासिता और मूर्खता के कारण तबाह होगी, जिसके लक्षण दिखाई भी दे रहे हैं। भूराजनीतिक वर्चस्व आज भी विदेश नीति की धार बना हुआ है। चीन की बेपनाह शक्ति प्रदर्शन और शीर्ष पर पहुंचने की बेताबी ने दुनिया को एक ऐसे मोड़ पर ला खड़ा किया है, जहां से तबाही का मंजर हर किसी को नजर आ रहा है। अमेरिका अपनी जिद पर अड़ा हुआ है कि वह ग्रीन एनर्जी की प्राथमिकता को स्वीकार कर दोयम दरजे की शक्ति नहीं बनना चाहता। इसलिए अमेरिकी राष्ट्रपति ने पेरिस समझौते से हाथ खींच लिया था। अगर कार्बन जनित ऊर्जा की बात करें तो चीन इसमें सबसे अव्वल है, उसका कार्बन एमिशन (उत्सर्जन) भी सबसे ज्यादा है।

अमेरिका और चीन मिलकर तकरीबन 40 प्रतिशत से ज्यादा गंदगी वायुमंडल में फैलाते हैं। अगर उसमें यूरोपीय देशो को शामिल कर लिया जाए तो यह औसत 75 प्रतिशत के ऊपर चला जाता है। मालूम है कि 17 शताब्दी के उतरार्ध से लेकर अभी तक वायुमंडल का तापमान 1।1 सेंटीग्रेड बढ़ चुका है। इसके लिए मुख्यत: दोषी यूरोपीय औद्यौगिक देश और अमेरिका है, जिनके कारण पिछले 200 वष्रो में पृथ्वी का तापमान इस हालत में पहुंच चुका है कि समुद्री तट पर स्थित देश जलमग्न होने से आक्रांत है। इसमें भारत के भी कई शहर हैं। छोटे-छोटे देशों ने परम्परागत ऊर्जा के साधन जैसे कोयला, डीजल और पेट्रोल से हाय तौबा कर लिया है, लेकिन उनके आकार इतने छोटे हैं कि समस्या का समाधान नहीं हो सकता।

यूरोपीय देशों में भी ग्रीन ईधन की ललक बढ़ी है। उनका भी दायरा छोटा है। प्रश्न उठता है कि क्या चीन, अमेरिका और दर्जनों मध्यम दरजे की शक्तियां अपनी विदेश नीति को सीधे क्लाइमेट पालिसी (जलवायु नीति) बनाने के लिए तैयार है कि नहीं? अगर नहीं तो दुनिया की समाप्ति भी सुनिश्चित है। तीन महत्त्वपूर्ण प्रश्न हैं, जिसका विश्लेषण जरूरी है। पहला, भारत के लिए हरित ऊर्जा एक विकल्प नहीं बल्कि जरूरत है। दरअसल, यह जरूरत केवल भारत की नहीं बल्कि पूरे विश्व की है। 1992 में सम्पन्न ‘रियो सम्मलेन’ से लेकर 2015 के बीच कई अंतरराष्ट्रीय सम्मलेन सयुक्त राष्ट्र संघ के तत्वावधान में संपन्न हुए। हर बार चेतावनी दी गई। चेतावनी का वैज्ञानिक आधार था। ब्यूनर्स आयर्स में 1998 में आयोजित एक अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में वैज्ञानिकों ने कहा था कि अगर 2020 तक फॉसिल फ्यूल एनर्जी को बुनियादी रूप से कम नहीं किया गया तो 2020 में आपातकालीन स्तिथि पैदा हो सकती है, जिसका अंदाजा किसी को भी नहीं होगा। 2020 में कोरोना की अद्भुत महामारी से दुनिया सिकुड़ कर घरों में बंद हो गई। न्यूयार्क और पेरिस जैसे शहर जो कभी बंद नहीं होते थे, सन्नाटा पसर गया। 2015 के पेरिस मीटिंग में चेतावनी एक सच्चाई बन गई। कहा गया कि 2050 तक अगर कार्बन मुक्त ऊर्जा का बंदोबस्त दुनिया के बड़े और विकसित देश नहीं कर लेते तो मानवता हर तरीके से खतरे में है। विश्व को तबाह करने के लिए आणविक युद्ध की जरूरत नहीं पड़ेगी। दुनिया अपने कर्मो के भार से समाप्त हो जाएगा। आश्चर्य इस बात का है कि इतना सब कुछ होने के बाद भी दुनिया के पुरोधा इस बात को समझने की कोशिश नहीं कर रहे हैं। जिस डाली पर बैठे हैं उसी डाली को काटने की मूर्खता कर रहे हैं। दुनिया के वैज्ञानिक मानते हैं कि वातावरण के गर्म होने का खमियाजा पूरी दुनिया के लिए मुसीबत है, लेकिन भारत और भारत के पड़ोसी देशों के लिए संकट ज्यादा तीखा और बहुरंगी है। चूंकि भारत सहित भारत के पड़ोसी देश ट्रॉपिकल जोन में आते हैं। घनीभूत आबादी है। आर्थिक व्यवस्था कमजोर है। विकास की गति को भी बढ़ाना है। इसलिए भारत सहित पूरे दक्षिण एशिया के देशों में हरित ऊर्जा के अलावा और कोई विकल्प शेष नहीं है। दरअसल, सुखद आश्चर्य यह है कि भारत की वर्तमान सरकार हरित ऊर्जा को बहाल करने की जुगत में जुट गई है। यह कागजों से उतरकर जमीनी स्तर पर दिखाई भी देने लगा है।

भारत में ऊर्जा का मुख्य उपयोग के कई खंड है, सबसे बड़ा ढांचा बिजली उत्पादन का है, जिसके सहारे अन्य व्यवस्थाएं चलती है। दूसरा परिवहन का है, जिसमें रेल और रोड ट्रांसपोर्ट के साथ कार्गो और हवाई जहाज आते हैं। तीसरा फैक्टरी का है, जिसमें मूलत: लोहा और सीमेंट फैक्टरी को ज्यादा ईधन की जरूरत पड़ती है, चौथा घरेलू जरूरतें हैं और पांचवा कृषि व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने के लिए ऊर्जा की जरूरत पड़ती है। भारत ने पिछले 6 सालों में सौर ऊर्जा का आकर 17 जीबी से बढ़ाकर 78 जीबी कर लिया है। प्रधांनमंत्री नरेन्द्र मोदी की कोशिश दुनिया में एक स्मार्ट सौर ग्रिड के जरिये दुनिया को जोड़ने की है, जिसमें एक सूर्य, एक ग्रिड और एक विश्व की परिकल्पना भारत की अनोखी देन है। सबसे मजेदार बात यह भी है कि सौर ऊर्जा की कीमत फॉसिल फ्यूल से चार गुणा कम है।

हरित ऊर्जा की सबसे बड़ी मुसीबत इसकी अबाध निरंतरता है। रात में सूर्य नहीं चमकता, इसके लिए स्टोरेज की जरूरत पड़ेगी। वह एक चुनौती है, जिसे आधुनिक टेक्नोलॉजी के जरिये पूरा कर लिया जाएगा। हर तरीके से भारत 2050 तक अपनी परम्परगत ऊर्जा व्यवस्था को बदलकर हरित ऊर्जा को स्थापित करने में सक्षम है। हरित ऊर्जा हर तरीके से विकेंद्रित होगा, अगर भारत के प्रधानमंत्री ने तमाम विवशताओं के बावजूद ग्रीन एनर्जी के आधार को अपना संकल्प बना लिया है, जिसमें 2050 तक फॉसिल फ्यूल्स से स्थांतरण ग्रीन एनर्जी में हो जाएगा। नीति आयोग के द्वारा रोडमैप भी तैयार किया गया।

अगर भारत यह सब कुछ कर सकता है तो अमेरिका और अन्य देश क्यों नहीं कर सकते? चीन क्यों नहीं करना चाहता? यह संघर्ष सामूहिक है। 1998 में सयुक्त राष्ट्र संघ के तत्वावधान में सम्पान वार्षिक जलवायु अधिवेशन में यह बात कही गई थी कि अगर 2020 तक कार्बन जनित ऊर्जा में 30 प्रतिशत कमी नहीं की गई तो 2020 में आपदा की पूरी आशंका है, यह कितनी खतरनाक होगी इसका अंदाजा नहीं। देखना है कि दुनिया की महाशक्तियों के ज्ञान चक्षु खुलते भी है कि नहीं? अगर ऐसा होता है तो क्लाइमेट पॉलिसी ही विदेश नीति होनी चाहिए।


Date:28-10-20

अमेरिकी सहयोग से बढ़ती सुरक्षा

अरविंद गुप्ता, (  पूर्व डिप्टी एनएसए, डायरेक्टर, वीआईएफ )

भारत और अमेरिका के बीच मंगलवार को नई दिल्ली में 2 प्लस 2 वार्ता का तीसरा दौर पूरा हुआ। पहली वार्ता 2018 में हुई थी, तो दूसरी 2019 में। कह सकते हैं कि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के शासनकाल में अमेरिका-भारत के संबंधों में जो तीव्र विकास दिखा है, यह वार्ता एक तरह से उसकी अहम कड़ी है। इसलिए दोनों ही पक्ष इसे बहुत अधिक महत्व दे रहे हैं।

तीसरी वार्ता पिछली दो वार्ताओं में लिए गए दूरगामी निर्णयों को आगे बढ़ाने और पुख्ता करने में महत्वपूर्ण योगदान करेगी। इस वार्ता का महत्व इसलिए भी है, क्योंकि अभी चीन व भारत के बीच सीमा पर तनाव है और दोनों देशों की सेनाएं आमने-सामने खड़ी हैं। चीन का जो आक्रामक रुख है, उसे दक्षिण चीन सागर और पूर्वी सागर में भी देखा जा सकता है, जहां जापान के साथ भी चीन का तनाव चल रहा है। अमेरिका ने चीन की इस संदर्भ में कड़ी आलोचना भी की है।

डोनाल्ड ट्रंप के शासनकाल में चीन और अमेरिका के आपसी संबंधों में बहुत गिरावट आई है। दोनों देशों में व्यापार युद्ध चल रहा है। तकनीकी और व्यापार, दोनों ही मोरचों पर दोनों देशों के बीच तनाव काफी बढ़ चुका है। इसका दूरगामी असर पूरी दुनिया पर पड़ रहा है।

यह सब कोविड-19 के परिदृश्य में हो रहा है। अमेरिका ने चीन को विश्व में कोरोना वायरस फैलाने के लिए सीधे जिम्मेदार माना है। इस महामारी ने विश्व व्यवस्था पर गहरा असर डाला है। वैश्विक आर्थिक व्यवस्था चरमरा गई है। लाखों लोग मारे गए हैं। इस पूरे परिप्रेक्ष्य में देखें, तो इस तीसरी 2प्लस 2 वार्ता का महत्व बहुत बढ़ जाता है। यानी, इस वार्ता की पृष्ठभूमि में तीन बातें हैं, पहली, चीन-भारत के बीच लद्दाख क्षेत्र में भीषण तनाव, दूसरी, चीन का आक्रामक रुख, और तीसरी, कोविड-19 महामारी का वैश्विक दुष्प्रभाव।

भारत और अमेरिका के बीच पिछले कुछ वर्षों में रक्षा सहयोग काफी बढ़ चुका है, खासतौर से वर्ष 2005 के बाद से, जब दोनों देशों के बीच असैन्य परमाणु सहयोग पर सहमति बनी थी। इसके बाद दोनों देशों ने 2006 में एक रक्षा कार्य-ढांचे संबंधी समझौते पर भी हस्ताक्षर किए थे। अमेरिकी विदेशी मंत्री माइक पोम्पियो की हालिया भारत यात्रा और इस 2प्लस2 वार्ता में खास बात यह भी रही कि दोनों पक्षों ने एक बुनियादी आदान-प्रदान और सहयोग समझौता यानी बेका (बीईसीए) एग्रीमेंट पर हस्ताक्षर किए हैं। यह समझौता अपनी शृंखला में चौथा है। इस पर हस्ताक्षर के बाद अमेरिका-भारत की सेनाओं में सूचनाओं का आदान-प्रदान बढ़ जाएगा। महत्वपूर्ण सैटेलाइट डाटा और रक्षा सूचनाओं को साझा करने के लिए भी सहयोग बढ़ेगा। दोनों देशों की सेनाओं में समन्वय इस कदर मजबूत होगा कि आपसी युद्धाभ्यास की गुणवत्ता पर इसका गहरा और सकारात्मक असर पड़ेगा। यह एक बड़ी उपलब्धि है। इससे दोनों देशों को क्षेत्रीय सुरक्षा के मसलों पर सहयोग करने में मदद मिलेगी।

एक और महत्वपूर्ण बात। वार्ता के दौरान रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने कहा कि भारत चाहता है, रक्षा उत्पादन क्षेत्र में अमेरिकी कंपनियां भारत में निवेश करें। उनकी कंपनियां यहां आएं और अपने हथियार व औजार भारतीय कंपनियों के सहयोग से यहां बनाएं, ताकि भारत को फायदा हो। यहां जो निर्माण हो, अमेरिका की सेनाएं भी उनका उपयोग करें। अगर ये बातें साकार होती हैं, तो एक बड़ी कामयाबी हमारे हिस्से आएगी।

गौर करने की बात यह है, इस वार्ता से पहले कुछ महत्वपूर्ण राजनयिक घटनाएं इंडो-पैसिफिक के संदर्भ में हुई हैं। पिछले दिनों टोक्यो में क्वाड की बैठक हुई, जिसमें भारत, अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया के बीच विदेश मंत्री स्तर की वार्ता हुई और उसके बाद भारत ने ऑस्ट्रेलिया की नौसेना को मालाबार युद्धाभ्यास में शामिल होने का न्योता दिया। भारत और अमेरिका, दोनों मुक्त और खुले इंडो-पैसिफिक के पक्ष में हैं, जहां अंतरराष्ट्रीय कानूनों के मुताबिक एक व्यवस्था कायम हो और समुद्री व हवाई-मार्गों से आने-जाने में रोक-टोक न हो।

जाहिर है, चीन इन बदलते घटनाक्रम को गौर से देख रहा है। उसे थोड़ी घबराहट भी हुई है। यही वजह है कि उसकी तरफ से यह बयान आया है कि क्वाड के तहत एकत्र चारों देश नाटो का एशियाई संस्करण तो नहीं बना रहे? हालांकि, भारत की ओर से जो वक्तव्य रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह और विदेशी मंत्री एस जयशंकर ने दिए हैं, उनमें चीन की खुलकर बात नहीं की गई है। हां, अमेरिकी पक्ष ने जरूर चीन की चर्चा की है।

इस वार्ता का एक महत्वपूर्ण पहलू यह भी है कि दोनों देश मैरीटाइम डोमेन, साइबर और अंतरिक्ष क्षेत्रों में अपना सहयोग बढ़ाने पर सहमत हुए हैं। इसका मतलब यह है कि अब दोनों देशों को यह पता रहेगा कि कौन जहाज कहां है? समुद्र में कहां-क्या चल रहा है? आदि। इन सबके बारे में सूचनाएं परस्पर साझा होंगी। दोनों पक्षों ने आतंकवाद के विरुद्ध भी बात की है।

भारत का यह फैसला लेना भी दिलचस्प है कि हमारा एक नौसेना अधिकारी अमेरिका की सेंट्रल कमांड में पोस्टेड होगा, जो बहरीन में है, जबकि अमेरिका का एक सैन्य अफसर भारत स्थित इंटरनेशनल फ्यूजन सेंटर में बैठेगा, जहां हिंद महासागर में तमाम जहाजों की सूचनाएं दर्ज होती हैं।

इसमें कोई शक नहीं कि अमेरिका के साथ हमारा सहयोग बढ़ रहा है, क्योंकि चीन की हरकतों से क्षेत्र में तनाव बढ़ रहा है। सभी देश चाहते हैं कि चीन पर लगाम लगे। भारतीय विदेश मंत्री एस जयशंकर ने भी इशारा किया कि दुनिया बहुधु्रवीय हुई है और कहीं ऐसा न हो कि एशिया एकधु्रवीय हो जाए। इसलिए चीन की आक्रामकता को रोकना जरूरी है। उसे नहीं रोका गया, तो उसका सीधा असर भारत पर होगा।

बहरहाल, नवंबर में होने वाले अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में सत्ता-परिवर्तन से अमेरिका के लिए भारत के महत्व में कोई कमी नहीं आएगी और जो समझौता अभी हुआ है, वह आगे भी बहुत मायने रखेगा। इससे दोनों देशों के बीच वार्ता और सहयोग बढ़ेगा।


 

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