28-09-2017 (Important News Clippings)

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28 Sep 2017
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Date:28-09-17

आर्थिक सलाहकार परिषद के बाद क्या होगी नीति आयोग की भूमिका!

ए के भट्टाचार्य 

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आर्थिक सलाहकार परिषद का गठन किया है जो महत्त्वपूर्ण आर्थिक मामलों पर उन्हें सलाह देने के साथ अपने विचारों से अवगत भी कराएगी। लेकिन नीति आयोग के सदस्य विवेक देबरॉय की अध्यक्षता में आर्थिक सलाहकार परिषद का गठन संभवत: देर से उठाया गया कदम है। मोदी सरकार का दो-तिहाई कार्यकाल पूरा हो चुका है। बाकी बचे हुए कार्यकाल में अगले लोकसभा चुनावों की तैयारी को ही तवज्जो दिए जाने की संभावना है। चुनाव तक सरकार के कामकाज की दिशा और दशा सोची-समझी आर्थिक सलाह के बजाय चुनावी राजनीति से संचालित होने की उम्मीद करना बेमानी भी नहीं है।राजनीतिक जरूरतों को समझने में नाकाम विवेकपूर्ण आर्थिक नीतियां लोकतंत्र में कारगर नहीं हो पाती हैं। भारत का पिछला अनुभव बताता है कि सरकार की राजनीतिक बाध्यताएं इतनी बड़ी होती हैं कि वे सरकारी संस्थाओं की तर्कसंगत आर्थिक सलाह पर भी भारी पड़ जाती हैं। इस तरह चुनाव करीब होने पर अच्छी-भली आर्थिक नीतियों से संबंधित सुझावों को भी अक्सर दरकिनार कर दिया जाता है। आर्थिक नीतियों को राजनीतिक रूप से मुफीद बनाने के लिए उन्हें तोड़ा-मरोड़ा भी जाता है। यह अलग बात है कि मनचाहे नतीजे हासिल करने के लिए ऐसा करना आर्थिक रूप से गलत होता है।

 आर्थिक सलाहकार परिषद का गठन इस समय होने की शायद यह वजह है कि सरकार को लगातार आर्थिक चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। विकास की रफ्तार धीमी हुई है, कच्चे तेल की कीमतें स्थिर बनी रहने पर मुद्रास्फीति सहज दायरे को पार कर सकती है, राजस्व में कमी आने की आशंका और निवेश प्रोत्साहन पैकेज की मांग आने से चालू वित्त वर्ष में राजकोषीय घाटे को लक्षित दायरे के भीतर रखना भी चुनौतीपूर्ण लग रहा है, निर्यात अभी तक तेजी नहीं पकड़ पाया है, चालू खाते का घाटा बढ़ चुका है और धन की आसान उपलब्धता के मामले में वैश्विक परिवेश में बदलाव होने से भारतीय रुपये पर दबाव देखने को मिल सकता है। उम्मीद यही है कि परिषद का गठन इन्हीं मुद्दों पर ध्यान देने के लिए किया गया है। इस लिहाज से सरकार का इस सलाहकार परिषद को स्वतंत्र दर्जा देने का बयान आश्वस्त करता है। आर्थिक घटनाओं का स्वतंत्र आकलन और उसके लिए जरूरी नीतिगत कदमों के बारे में स्वतंत्र परामर्श देना इस परिषद की प्रभावकारिता और विश्वसनीयता तय करने में प्रमुख कारक होगा। इसे असरदार बनाने में इस पहलू का भी खासा योगदान होगा कि प्रधानमंत्री का इस परिषद के अध्यक्ष और उसके सदस्यों के प्रति कितना भरोसा बना रहता है।
अगर पिछली सरकारों के दौरान गठित सलाहकार परिषदें असरदार और भरोसेमंद तरीके से काम कर पाई थीं तो इसकी वजह यह थी कि परिषद के अध्यक्ष रहे सुखमय चक्रवर्ती, सुरेश तेंडुलकर या सी रंगराजन सभी को तत्कालीन प्रधानमंत्रियों से पूरी स्वतंत्रता मिली थी और उन्हें उनका भरोसा भी हासिल था। मोदी सरकार को यह समझना होगा कि आर्थिक सलाहकार परिषद जैसी संस्था का गठन कर देना ही काफी नहीं है, इससे भी अधिक अहम यह है कि उसे काम करने की आजादी मिले और उसके सुझावों पर ध्यान दिया जाए।वित्त मंत्रालय के लिए इसके क्या मायने हैं? अभी तक आर्थिक मामलों में प्रधानमंत्री पूरी तरह से वित्त मंत्रालय पर निर्भर रहे हैं। लेकिन परिषद के वजूद में आने के बाद इस निर्भरता में गुणात्मक बदलाव आएंगे। वित्त मंत्रालय के भीतर सलाह की गहराई को देखते हुए प्रधानमंत्री आगे भी नॉर्थ ब्लॉक से जानकारियां लेते रहेंगे। लेकिन परिषद के रूप में अब उनके पास सलाह लेने का एक नया जरिया होगा और सरकारी व्यवस्था के भीतर दूसरी राय लेने का एक अवसर भी मिलेगा।इसी के साथ परिषद बनने से आर्थिक नीतियों को तय करने में लोकसेवकों के प्रभाव और अर्थशास्त्रियों की राय के बीच जरूरी संंतुलन भी स्थापित हो सकेगा। मोदी सरकार के कार्यकाल में पहली बार अर्थशास्त्रियों को आर्थिक मामले तय करने में अहमियत मिलने की संभावना है। उनकी राय को लोक सेवक आसानी से खारिज भी नहीं कर पाएंगे। इस लिहाज से भी यह फैसला स्वागतयोग्य है।
परिषद के गठन के बाद नीति आयोग की भूमिका पर भी अहम सवाल खड़ा होता है। क्या आयोग को नए मॉडल पर काम करना होगा क्योंकि अब सरकार को आर्थिक सलाह देने के लिए एक विशेषज्ञ संस्था बन चुकी है। नीति आयोग के पास प्रधानमंत्री को राष्ट्रीय एजेंडा का प्रारूप सौंपने, राज्यों की विकास संभावनाओं का दोहन करने में उनकी मदद करने, समावेशी विकास सुनिश्चित करने और अंतर-विभागीय एवं अंतर-क्षेत्रीय मुद्दों का निपटारा कर विकास एजेंडे को लागू करने में मदद देने का दायित्व है।लेकिन ऐसा लगता है कि नीति आयोग और आर्थिक सलाहकार परिषद दोनों के ही काम एक-दूसरे का अति-व्यापन करेंगे। ऐसे में सरकार को आयोग की जिम्मेदारियों में स्पष्टता लानी चाहिए ताकि वह राज्यों के विकास, व्यापक विकास के एजेंडे और परियोजनाओं एवं कार्यक्रमों की निगरानी पर अपना ध्यान केंद्रित कर सके। आयोग के दायरे से समष्टि-अर्थशास्त्रीय विश्लेेषण और नीतिगत मामलों में परामर्श को अलग कर देना चाहिए ताकि परिषद उस पर ध्यान केंद्रित कर सके।हमें ध्यान रखना होगा कि परिषद के अध्यक्ष देबरॉय भले ही नीति आयोग के भी सदस्य हैं लेकिन परिषद से संबंधित मामलों में वह सीधे प्रधानमंत्री को रिपोर्ट करेंगे। परिषद के सदस्य-सचिव रतन वाटल अब भी आयोग के प्रमुख सलाहकार हैं। पहले यह परिषद प्रशासनिक एवं बजट संबंधी उद्देश्यों के लिए योजना आयोग का इस्तेमाल नोडल एजेंसी के तौर पर करती थी लेकिन दोनों की भूमिकाओं में कोई दोहराव नहीं होता था। परिषद अब भी नीति आयोग का इस्तेमाल अपनी नोडल एजेंसी के तौर पर कर सकती है लेकिन भ्रम और टकराव से बचने के लिए इसके अध्यक्ष एवं सदस्य सचिव की दोहरी भूमिकाओं पर भी गौर करना चाहिए।

Date:27-09-17

‘सौभाग्य’ की बिजली

संपादकीय

प्रधानमंत्री ने सोमवार को ‘सौभाग्य’ या सहज बिजली हर घर योजना नाम से विद्युतीकरण के जिस कार्यक्रम की घोषणा की, वह लक्ष्य के लिहाज से अपने आप में कोई नई बात नहीं है। यूपीए सरकार के दौरान राजीव गांधी ग्राम विद्युतीकरण योजना का मकसद भी सब तक बिजली पहुंचाना ही था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी, 2015 में अठारह हजार से ज्यादा गांवों के विद्युतीकरण का काम एक हजार दिनों में पूरा करने का लक्ष्य रखा था। एक साल बाद स्वतंत्रता दिवस पर देश को संबोधित करते हुए उन्होंने दावा किया कि जो अवधि तय की गई थी उसका आधा भी नहीं बीता है, पर आधे ज्यादा काम हो चुका है, और अठारह हजार में से दस हजार गांवों में बिजली पहुंचा दी गई है। इस दावे के मुताबिक अब बहुत थोड़ा काम बचा होना चाहिए। उस शेष को चुपचाप पूरा करने के बजाय क्या एक नए नाम से नई योजना जरूरी थी? यह कोई हैरत की बात नहीं है। कल्याणकारी योजनाओं को नए-नए रूप में या नए-नए नाम से पेश करने और चुनावी राजनीति का गहरा रिश्ता है। बहरहाल, सरकार ने विद्युतीकरण का जो नया कार्यक्रम पेश किया है उसका इस तरह की पिछली योजनाओं से एक फर्क लक्षित किया जा सकता है। पिछली योजनाओं में जोर ग्रामीण विद्युतीकरण पर, यानी वंचित गांवों तक बिजली पहुंचाने पर था, जबकि नई योजना में वंचित परिवारों या घरों तक बिजली कनेक्शन पहुंचाने का लक्ष्य तय किया गया है।

यह शायद विद्युतीकरण का आखिरी दौर होगा, और पहले की अपेक्षा कहीं अधिक चुनौतीपूर्ण भी, क्योंकि अब बिजली कनेक्शन से वही परिवार वंचित हैं जो दुर्गम इलाकों में या बहुत दूरदराज के गांवों में रहते हैं। इसलिए स्वाभाविक ही नई योजना के लिए आबंटित राशि 16,320 करोड़ रु. का बड़ा हिस्सा यानी 12,320 करोड़ रु. ग्रामीण क्षेत्रों पर व्यय होगा। केंद्र सरकार इस योजना के तहत साठ फीसद धन मुहैया कराएगी। विशेष श्रेणी के राज्यों में केंद्र की हिस्सेदारी पचासी फीसद होगी। राज्य सरकारें दस फीसद धन मुहैया कराएंगी। विशेष श्रेणी के राज्यों में उनकी हिस्सेदारी सिर्फ पांच फीसद होगी। केंद्र और राज्यों की हिस्सेदारी के अलावा बाकी धन बैंक-ऋण के जरिए जुटाया जाएगा। इस योजना के लिए पहले 2019 की समय-सीमा तय की गई थी, जिसे घटा कर दिसंबर 2018 कर दिया गया। योजना की उपयोगिता जाहिर है। बिजली की उपलब्धता घरेलू जीवन की सहूलियतों के अलावा तरक्की के लिए भी जरूरी है। फिर, पर्यावरण के लिहाज से भी यह उपयोगी है, क्योंकि इससे केरोसिन लैंप का इस्तेमाल बंद होगा। इस तरह इसे उज्ज्वला योजना की अगली कड़ी की तरह भी देख सकते हैं।

सौभाग्य योजना के तहत, गरीब परिवारों को, जिनकी पहचान 2011 की सामाजिक-आर्थिक जनगणना के आधार पर की जाएगी, कनेक्शन मुफ्त मिलेगा, वहीं बाकी लोगों को महज पांच सौ रुपए में यह मुहैया कराया जाएगा। दूरदराज या दुर्गम इलाकों में बिजली मुहैया कराने के लिए सौर ऊर्जा जैसेवैकल्पिक स्रोतों का भी सहारा लेना होगा, जिसे प्रोत्साहन देना जलवायु संकट के दौर में वैसे भी सरकार का कर्तव्य है। लेकिन बिजली का कनेक्शन मिल जाना काफी नहीं है, बिजली की आपूर्ति भी सुनिश्चित होनी चाहिए। यह किसी से छिपा नहीं है कि अनेक राज्यों में करोड़ों लोग किस हद तक बिजली की आपूर्ति बाधित रहने का रोना रोते रहते हैं। इसलिए संपूर्ण विद्युतीकरण के साथ-साथ सरकार को बिजली की आपूर्ति में संतोषजनक सुधार लाने का भी भरोसा दिलाना होगा।


Date:27-09-17

कमजोर क्यों है औरत

अमरकांत की एक कहानी है, दोपहर का भोजन।  यह है तो भारतीय तानेबाने में आर्थिक विषमताओं और विवशताओं की कहानी, लेकिन हमारे समाज के पूरे तानेबाने, खासकर महिलाओं की स्थिति पर पूरी तरह फिट बैठती है। इसकी मुख्य पात्र किस तरह परिवार को खिलाने के बाद जब खुद खाने बैठती है, तो उसके लिए सिर्फ एक रोटी बचती है। वह खाने जाती है, तो किसी और भूखे को देख लेती है, और बची हुई रोटी के भी दो टुकड़े करके महज एक टुकड़ा और लोटाभर पानी से अपना पेट भर लेती है। सबको भरपेट खिलाने वाली महिला का आधा पेट सो जाना ही कहानी का पड़ाव है। साठ साल पहले का यह सच आज भी बदला नहीं है। पहले जिसे आधा पेट खाकर सोना कहते थे, अब उसे कुपोषण कहने लगे हैं। पहले उस महिला की ओर ध्यान नहीं जाता था, अब तमाम तरह के सर्वे इस ओर इशारा कर रहे हैं। और हम तब भी बहुत सचेत नहीं थे, अब भी बहुत नहीं हैं। कई बार तो ऐसी विपरीत नतीजों वाली रिपोर्टें दबा भी दी जाती हैं। नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे- 2016 की रिपोर्ट भी कुछ ऐसे ही भयावह सच सामने रखती है। बताती है कि भारत में हर तीसरी महिला खून की कमी की शिकार है। 45 हजारमहिलाएं हर साल प्रसव के दौरान मर जाती हैं। उत्तर प्रदेश की 50 प्रतिशत गर्भवती महिलाएं एनीमिक हैं, तो बिहार में हर साल साढ़े सात हजार महिलाएं गर्भावस्था या प्रसव के दौरान दम तोड़ देती हैं। रिपोर्ट बताती है कि देश में बिहार, झारखंड और उत्तर प्रदेश की महिलाएं कद-काठी के मामले में खासी कमजोर हैं। इन तीनों राज्यों में कुपोषण के आंकड़े भी भयावह हैं। 2013-14 में भारत सरकार और यूनीसेफ ने संयुक्त रूप से एक रिपोर्ट तैयार की थी। वह बताती है कि भारत में धनवान बढ़े, लेकिन कुपोषित महिलाओं और बच्चों की तादाद किसी भी अन्य देश की तुलना में कहीं ज्यादा बढ़ी। ये सारे तथ्य, सारी रिपोर्टें और सर्वे आंख खोलने वाले हैं। इनके कारक बहुत पुराने हैं और कहीं न कहीं हमारी समाज-व्यवस्था की देन हैं।

यह हमारा सामाजिक तानाबाना ही है, जो हमें इस संकट से बाहर नहीं आने दे रहा। यह पुरातन सच कई सर्वेक्षणों में पुष्ट हो रहा है कि महिलाएं आज भी सबसे अंत में भोजन करती हैं। ग्रामीण या अपेक्षाकृत कम शहरी क्षेत्रों में यह ज्यादा भयावह रूप में दिखता है। शहरी क्षेत्र की आम महिला का हेल्थ ग्राफ भी पुरुष की अपेक्षा काफी नीचे है। सेंटर फॉर इकोनॉमिक ऐंड सोशल स्टडीज, हैदराबाद की एक रिपोर्ट ‘राइट टु फूड इन इंडिया-2013’ के अनुसार ग्रामीण भारत में आज भी कमाने वाला पर्याप्त भोजन पाता है, उसके बाद बच्चे और सबसे पीछे यानी बचा-खुचा महिलाओं के हिस्से आता है। मिड डे मील जैसी योजनाओं ने किसी हद तक गरीब बच्चों के कुपोषण की स्थिति पर काबू पाने में मदद की, लेकिन महिलाओं के लिए ऐसी पहल की कमी लगातार महसूस हो रही है। जरूरत महिलाओं को कुपोषण से बचाने के लिए जागरूकता अभियान चलाने की है। ऐसी जागरूकता, जो भोजन की सामूहिकता का मर्म और महत्व समझा सके। लेकिन यह अभियान सफल तभी होगा, जब हम महिलाओं को अपने प्रति सचेत होना सिखा पाएंगे। उन्हें बता पाएंगे कि सिर्फ कमाने वाले को ही खाने का अधिकार नहीं, घर संभालने वाला भी बराबर का भागीदार है। यह सीख पुरुषों को भी देनी होगी। दरअसल, यह लैंगिक भेदभाव का मामला भी है, जो ‘पुरुष ही पहले’ की लीक पर चलना सिखाता है। वह चाहे सामाजिक जिम्मेदारियों में भागीदारी का मामला हो या भोजन में हिस्सेदारी का। इस लीक को तोड़ने की जरूरत है।