
28-05-2025 (Important News Clippings)
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Date: 28-05-25
Urban Aquagmire
Why every Indian city watched with alarm, as a new underground station in Mumbai flooded
TOI Editorial
There is stuff one can accept in disaster movies, which one never, ever expects to encounter in real life. What happened to the Acharya Atre Chowk metro station in Mumbai on Monday felt all the more worse because it had been inaugurated just 15 days earlier. This station and the entirety of its Aqua line metro corridor is underground. In Delhi, underground stations provide shelter from intense rain. At this Worli station, the rain gushed in forcefully, people fled the platforms, the metro followed suit. MMRC says it’s because a water-retaining wall collapsed. That’s poor excuse for a ₹37,000 crore shiny new project.
As Indian cities grapple with the pain of urban flooding, this is a reminder that throwing money at it will not suffice. What good does it do to citizens to be told that India is becoming the 4th largest economy in the world, when their lived realities don’t feel like it is even ranked 40th? What help are pricey infraworks when these are badly engineered? In many ways, things seem to be getting worse. It feels like a grandma’s tale that cities used to greet the rains with hurrahs. Now, Gurgaon to Chennai, everyone dreads roads washing away, garbage wading in. Because well into the 21st century, our stormwater drains are still used as dustbins.
Building Mumbai’s underground metro has involved resetting the earlier drainage system. What we need to know is whether this has been done properly. This is where MMRC must be required to provide detailed data. Especially as several SoBo localities now experience waterlogging like they never have. Worli includes some of the world’s priciest real estate. Whitefield boasts the poshest villas in Bengaluru. It’s strange that nothing changes even after these get flooded. Years of delay in municipal elections is also strange. Meanwhile, massive financial outlays roll on. Potholes are found, remetalled, refound, in a loop. It’s as if politics has less incentive to help the city than hurt it.
That our metropolises were never planned to accommodate the millions they now do – with more on the way – was a credible defence once upon a time. With today’s tech tools and economic heft, India has no excuse for not doing right by its citywallahs. Mistakes now have to be named and shamed and righted. Flooded images of Mantralaya, Brabourne stadium and KEM hospital speak to everything being at stake in saving hydrological commonsense from drowning.
मैन्युफैक्चरिंग बिना फिर ‘महान’ नहीं बन सकते
संपादकीय
‘अमेरिका को फिर से महान बनाओ’ के नारे के साथ ट्रम्प दुबारा सत्ता में तो आ गए, लेकिन वे भूल रहे हैं कि किसी राष्ट्र को फिर महान बनाने की शर्तें समय के साथ बदल जाती हैं। आज कोई देश फिर से मात्र परम्परागत कृषि – आधारित अर्थव्यवस्था बनकर अव्वल नहीं हो सकता। मैन्युफैक्चरिंग का दौर चार सदियों तक यूरोप को और दो सदियों से अमेरिका को शीर्ष पर ले आया। वर्तमान चरण है सेवा क्षेत्र । अमेरिका ने पिछले दो दशकों में मैन्युफैक्चरिंग को गौण माना और सेवा क्षेत्र के जरिए जीडीपी का विस्तार किया। यही कारण है कि जहां 2002 तक 77% अमेरिकी मेड इन यूएसए उत्पादों का प्रयोग करते थे, वहीं 2023 में केवल 46% 90% इलेक्ट्रॉनिक उत्पाद, 50% दवाएं, 75% कपड़े बाहर से आ रहे हैं। अमेरिकी जीडीपी फिर भी इसलिए बढ़ता रहा क्योंकि उसने सेवा क्षेत्र में बढ़त बनाए रखी। बड़े मैन्युफैक्चरिंग उद्यमों का अमेरिका से हटने का कारण था वहां पर श्रम की कीमत में बेतहाशा वृद्धि- जो भारत, चीन, वियतनाम के मुकाबले 20 से 40 गुना थी। आज जब ट्रम्प उन उद्यमों को वापस अमेरिका में उत्पादन करने को कह रहे हैं तो दो ही स्थिति बन सकती हैं- या तो श्रम सस्ता करें या उत्पाद। पहले विकल्प से युवा भड़केगा और दूसरे से उद्यमी कंगाल होगा। बेहतर तो यह था कि अमेरिकी युवाओं को सुविधाभोगी और अनुत्पादक न बनाकर उन्हें बेहतर तकनीकी शिक्षा देकर इतना आगे कर देते कि कोई चीन, ताइवान या भारत उनकी तकनीकी बौद्धिक क्षमता का मुकाबला नहीं कर पाता ।
Date: 28-05-25
भारत के लिए मुद्रास्फीति के अनुकूल हालात
सोनल वर्मा
भारत की मुद्रास्फीति एक नए दौर में प्रवेश कर गई है। छह वर्षों तक लक्ष्य से ऊंची रही मुद्रास्फीति से संघर्ष करने के बाद और महामारी, जंगों और खाद्य मुद्रास्फीति के झटकों से गुजरते हुए हेडलाइन मुद्रास्फीति आखिरकार 2025-26 में रिजर्व बैंक के 4 फीसदी के लक्ष्य से नीचे रहती नजर आ रही है। यदि यह अवस्फीतिकारक दायरा बरकरार रहता है तो मौद्रिक नीति द्वारा वृद्धि को समर्थन देने की गुंजाइश उससे अधिक होगी जितनी कि लोगों को अपेक्षा है।
4 फीसदी से कम मुद्रास्फीति रहेगी बरकरार?
यह सही है कि 4 फीसदी से कम मुद्रास्फीति का टिकाऊ स्तर पर बरकरार रहना महत्त्वाकांक्षी प्रतीत होता है, लेकिन हमें मांग और आपूर्ति संबंधी कई अनुकूल कारक भी नजर आते हैं।
सबसे पहली बात यही कि हेडलाइन यानी समग्र मुद्रास्फीति 4 फीसदी से नीचे आ चुकी है और इसकी आंशिक वजह सब्जियों की कीमत भी है। परंतु उसे बाहर कर देने पर भी उपभोक्ता मूल्य सूचकांक यानी सीपीआई आधारित मुद्रास्फीति बीते वर्ष के दौरान औसतन 3.6 फीसदी रही है।
अंतर्निहित मुद्रास्फीति भी कम बनी हुई है। हमारे 20 फीसदी कटौती वाले माध्य सीपीआई मुद्रास्फीति का माप जिसमें उच्चतम और न्यूनतम मुद्रास्फीति वाले बाहरी मूल्य शामिल नहीं हैं, जनवरी 2024 में 4 फीसदी से नीचे आ गया और इस अप्रैल में यह केवल 3.3 फीसदी था। रिजर्व बैंक का कोर मुद्रास्फीति संबंधी माप 4 फीसदी ऊपर निकल गया लेकिन ऐसा मुख्य रूप से सोने की ऊंची कीमतों की वजह से हुआ। कोर बास्केट से जिंसों को निकाल दिया जाए तो तीन महीने की मौसम समायोजित वार्षिक दर 3.5 फीसदी रही।
दूसरा, खाद्य मुद्रास्फीति में आगे और गिरावट आने की उम्मीद है। आमतौर पर दालों की कीमत अधिक होने पर अधिक बोआई को प्रोत्साहन मिलता है, इससे आपूर्ति बढ़ती है और कीमतों में कमी आती है। उच्च उत्पादन और बढ़े हुए आयात के कारण दालों की कीमतों में पहले ही कमी आने लगी है और आने वाले दिनों में इनमें और कमी आएगी।
बेहतर घरेलू उत्पादन और कम मांग के कारण मसालों की कीमत में कमी आई है। रबी की अच्छी फसल, जलाशयों में बेहतर जल स्तर और इस वर्ष अनुकूल मॉनसून के कारण प्रमुख खाद्यान्नों की कीमत में और गिरावट आने की संभावना है। भारत का मुद्रास्फीति चक्र खाद्य कीमतों से संचालित होता है इसलिए यह महत्त्वपूर्ण है।
तीसरी बात, कच्चे माल या इनपुट की लागत में भी कमी आ रही है। कृषि की बात करें तो उर्वरक, डीजल और चारे की कीमतों में महंगाई कम हो रही है और ग्रामीण कृषि मेहनताने में इजाफा भी धीमा है। विनिर्माण की बात करें तो ऊर्जा और औद्योगिक धातु कीमतों में कमी आई है। इससे जिंस लागत मुद्रास्फीति कम हुई है। सेवा क्षेत्र की बात करें तो सूचीबद्ध कंपनियों के वेतन और मजदूरी में कमी, जो शहरी वेतन का संकेतक है, इनपुट की कम लागत का संकेत देती है।
चौथा, चीन भी मुद्रास्फीति में कमी का एक स्रोत है। अमेरिका और चीन के बीच हालिया समझौते के बावजूद चीन के आयात पर अमेरिकी टैरिफ, भारत पर अमेरिकी टैरिफ की तुलना में कहीं अधिक हैं। मार्च-अप्रैल में चीन से होने वाले हमारे आयात में साल दर साल आधार पर 26 फीसदी का इजाफा हुआ। इससे संकेत मिलता है कि कम कीमत वाले चीनी उत्पाद भारत में आ रहे हैं और उसके लिए अलग-अलग रास्तों का प्रयोग किया जा रहा है।
पांचवां, अर्थव्यवस्था में भी शिथिलता आई है। कमजोर होती ऋण वृद्धि, कमजोर वैश्विक मांग, निजी पूंजी निवेश पर अनिश्चितता का प्रभाव और नीतियों के लागू होने में लगने वाला समय, इन सब का अर्थ यह है कि उत्पादन में अंतराल वित्त वर्ष 26 में भी मामूली रूप से नकारात्मक बना रहेगा।
छठी बात, मु्द्रा कोई बड़ा जोखिम नहीं है। अमेरिकी वृद्धि में धीमापन आने, परिसंपत्ति आवंटन के अमेरिका से दूर होने, अमेरिकी वित्तीय स्थिति को लेकर जोखिम उत्पन्न होने और बाजार का यह नजरिया होने कि पूर्वोत्तर एशिया के साथ व्यापार वार्ताओं में विनिमय दर पर भी चर्चा हो रही है, इन सबका यह अर्थ है कि अमेरिकी डॉलर में आने वाले महीनों में नरमी बनी रहेगी।
भविष्य में कम रहेगी मुद्रास्फीति
इन कारकों को मिलाकर देखें तो हमें उम्मीद है कि महंगाई साल-दर-साल आधार पर अप्रैल के 3.2 फीसदी से कम होकर मई के बाद अगले कुछ महीनों तक 3 फीसदी के आसपास रहेगी। इस बीच सीपीआई मुद्रास्फीति का औसत 2026 में संभवत: रिजर्व बैंक के 4 फीसदी के मध्यम लक्ष्य से काफी कम हो जाएगा।
मुद्रास्फीति में गिरावट चक्रीय हो सकती है लेकिन इसके अन्य सकारात्मक प्रभाव भी हो सकते हैं। उदाहरण के लिए कम खाद्य कीमतों के कारण आम परिवारों के मुद्रास्फीति अनुमान में और कमी आएगी।
जोखिम पर नजर
अवस्फीति से संबंधित इस नज़रिये के लिए मुख्य जोखिम भू-राजनीतिक व्यवधान, मौसम संबंधी अनिश्चितताएं और वैश्विक वित्तीय बाजार में अस्थिरता के कारण उत्पन्न होने वाले बढ़त के झटके हैं। इस बीच वैश्विक मांग को गहरा झटका एक नकारात्मक जोखिम है। भारत के लिए अच्छी खबर यह है कि इनमें से किसी भी बढ़त के झटके के समायोजन के लिए पर्याप्त गुंजाइश है।
मौद्रिक नीति के लिए निहितार्थ
भारत में दरों में कटौती चक्र को वैश्विक जोखिम के आधार पर समायोजित करना होगा। बाहरी परिदृश्य चुनौतीपूर्ण है। टैरिफ की वजह से कारोबार और नीतिगत अनिश्चितता बरकरार है लेकिन यह अनिश्चितता सक्रिय घरेलू नीति संबंधी रुख को मजबूती देता है। अगर बाहरी मांग कमजोर पड़ती है तो घरेलू कारकों की भूमिका अहम होगी। खुशकिस्मती से भारत में अवस्फीति, टैरिफ के कारण अमेरिका में अनुमानित मुद्रास्फीतिजन्य झटके के एकदम विपरीत होगी। इससे रिजर्व बैंक को फेडरल रिजर्व से अलग रुख लेने में मदद मिलेगी। रिजर्व बैंक पहले ही रीपो दर में 50 आधार अंकों की कटौती कर चुका है और उसने अपना रुख बदलकर ‘समायोजन’ वाला कर लिया है। परंतु उसे 2026 में सीपीआई मुद्रास्फीति के औसतन 4 फीसदी रहने की उम्मीद है। मुद्रास्फीति दर और कम होने पर भी दरों में कटौती की गुंजाइश पहले से कहीं अधिक होगी।
रिजर्व बैंक के कर्मचारियों के एक पुराने शोध में अनुमान लगाया गया था कि वास्तविक तटस्थ दर 1.4 से 1.9 फीसदी के बीच रहेगी। मौजूदा नीतिगत सहजता चक्र गहरा रह सकता है। बहरहाल, वृद्धि के रुझान से नीचे और मुद्रास्फीति के लक्ष्य से नीचे रहने पर वास्तविक दरें तटस्थ दर से नीचे रह सकती हैं। मौजूदा नीतिगत सहजता चक्र गहरा हो सकता है। वर्ष 2026 के अंत तक दरों में 100 आधार अंक की कटौती और हो सकती है।
कम मुद्रास्फीति के अन्य सकारात्मक प्रभाव
कम मुद्रास्फीति वृद्धि के लिए बेहतर है। इससे वास्तविक खर्च योग्य आय और खपत को बढ़ावा मिलता है। कच्चे माल की लागत में कमी से कंपनियों का मुनाफा मार्जिन बढ़ेगा और कम नीतिगत दरें ऋण की लागत कम करेंगी। इससे दरों के लिहाज से संवेदनशील क्षेत्रों को मदद मिलेगी। इसी प्रकार किसानों जैसे खाद्य उत्पादकों और उपभोक्ताओं के हितों का संतुलन भी नीति निर्माताओं के लिए जरूरी होगा।
कम मुद्रास्फीति के कारण वृहद आर्थिक स्थिरता को बल मिलेगा। मौद्रिक नीति द्वारा बोझ उठाने से सरकार के पास राजकोषीय मजबूती के लिए गुंजाइश होगी। कुल मिलाकर भारत की वृहद अर्थव्यवस्था की बुनियादी बातें मसलन कम मुद्रास्फीति, बेहतर सापेक्षिक वृद्धि, राजकोषीय मजबूती, चालू खाते के घाटे में कमी, मजबूत विदेशी मुद्रा भंडार के कारण भी मौद्रिक सहजता की गुंजाइश तैयार होनी चाहिए।
वैश्विक झटकों को सहने की गुंजाइश
भारत कम मुद्रास्फीति के एक नए दौर में प्रवेश कर रहा है जो स्थिरता के साथ समझौता किए बिना घरेलू वृदि्ध का समर्थन करने के लिए नीतिगत गतिशीलता की बहुत जरूरी गुंजाइश प्रदान करता है। बढ़ती अनिश्चितता और प्रतिकूल परिस्थितियों वाली मौजूदा दुनिया में कम मुद्रास्फीति भारत के लिए मददगार है।
Date: 28-05-25
सहमति पर असहमति
संपादकीय
सहमति से बने रिश्तों में खटास आना या प्रेमी जोड़े के बीच दूरियां बन जाना आपराधिक प्रक्रिया शुरू करने का आधार नहीं हो सकता। सुप्रीम कोर्ट ने महाराष्ट्र के एक शख्स के खिलाफ दर्ज आपराधिक मामले को खारिज करते यह टिप्पणी की, जिस पर आरोप था कि शादी का झूठा वादा कर उसने महिला से बलात्कार किया। अदालत ने कहा, रिकॉर्ड से ऐसा नहीं लगता कि शिकायतकर्ता की सहमति, उसकी इच्छा के विरुद्ध शादी करने के वादे पर की गयी थी। पीठ ने कहा यह ऐसा मामला नहीं है, जिसमें शुरुआत में शादी करने का वादा किया गया हो । सहमति से बने संबंधों में खटास आना या पार्टनर के बीच दूरी आना, आपराधिक प्रक्रिया शुरू करने का आधार नहीं हो सकता। मामले के अनुसार जून 2022 से जुलाई 2023 के दौरान आरोपी ने शादी का झूठा वादा कर उसके साथ जबरन शारीरिक संबंध बनाए। आरोपी ने इनसे इनकार किया और निचली अदालत में जमानत के लिए अपील की। हालांकि भारतीय न्याय संहिता की धारा 69 के तहत अपराध है, जिसके लिए दस साल तक की सजा जुर्माना हो सकता है। मगर इस तरह के मामलों अदालत साक्ष्यों व भावनाओं की अनदेखी नहीं करती। भले ही यह सरासर धोखा है मगर सच तो यह भी है कि वयस्क महिलाओं द्वारा विवाहपूर्व शारीरिक संबंध बनाने की सहमति प्रेम व समर्पण के रूप में दी जाती है। वास्तव में विवाहोपरांत भी रिश्तों में खटास आती है, मगर ऐसे में विवाह विच्छेदन जैसी सुविधाएं हैं, परंतु बगैर वैवाहिक रस्मों, परिवार या परिचितों के संज्ञान में लाये बगैर, गुपचुप बनाए गए इस संबंध में धोखे की गुंजाइश तलाशना बेहद मुश्किल होता है। यह भी कहना अतिश्योक्ति होगी कि धोखे से या फुसलाकर महिलाओं को दैहिक संबंधों के लिए राजी करने वाले पुरुषों की मंशा में शुरू से ही खोट नहीं होता। झूठे वादों, दिखावे या सच्चे प्रेम को परखने की कोई कसौटी नहीं होती । न ही सहमति से सेक्स करने के नतीजतन विवाह अनिवार्य हो सकता है। विवाह पवित्र बंधन ही नहीं है, सामाजिक व पारिवारिक व्यवस्था में अभी भी विवाहित जोड़ों को इज्जत से देखा जाता है। दूसरे तमाम खुलेपन के बावजूद स्त्री शुचिता को लेकर चले आ रहे पूर्वाग्रह कमजोर पड़ते नहीं नजर आ रहे। जिनका समूचा खामियाजा अंततः स्त्रीको भुगतना पड़ता है। नैतिकता ही नहीं, कानूनी पाबंदियों का भी ख्याल करते हुए पुरुषों को अपनी उतावली व भावनाओं पर काबू करना सीखना चाहिए।
Date: 28-05-25
तीसरी बड़ी आर्थिक की ओर
डॉ. जयंतीलाल भंडारी
हाल ही में 24 मई को नीति आयोग ने बताया कि जापान को पीछे छोड़ते हुए भारत दुनिया की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया है और आगामी 2.5 से 3 सालों में भारत दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था के रूप में रेखांकित होते हुए भी दिखाई दे सकेगा। इस परिप्रेक्ष्य में उल्लेखनीय है कि 26 मई को दुनिया के ख्याति प्राप्त अरबपति निवेशक मार्क मोबियस ने कहा कि जापान को पछाड़ते हुए चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनना भारत की एक अविश्वसनीय उपलब्धि है।
वास्तव में भारत के विश्व की शीर्ष अर्थव्यवस्थाओं में आगे बढ़ने के पीछे जो प्रमुख कारण है, उनमें 140 करोड़ की जनसंख्या, देश के मध्यम वर्ग की बढ़ती क्रयशक्ति, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का दूरदर्शी नेतृत्व और मजबूत आर्थिक नीतियां शामिल हैं। साथ ही इस समय भारत जिस ऊंची विकास दर और आर्थिक रणनीति के साथ आगे बढ़ रहा है, उससे भारत जल्द ही दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनते हुए भी दिखाई देगा। गौरतलब है कि दुनिया की तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था बनने की डगर पर भारत को कई चुनौतियों से मुकाबला करते हुए आगे बढ़ना होगा। वैश्विक व्यापार तनाव, टैरिफ में हुई बढ़ोतरी, वैश्विक आपूर्ति श्रृंखलाओं में व्यवधान तथा बढ़ते हुए व्यापार घाटे जैसी चुनौतियों से भारत को निपटना होगा।
खासतौर से भारत के द्वारा व्यापार घाटे पर नियंत्रण के लिए रणनीतिपूर्वक आगे बढ़ना जरूरी है। चीन से वर्ष प्रतिवर्ष तेजी से बढ़ते हुए आयातों को नियंत्रित करना होगा। निश्चित रूप से इस समय सूक्ष्म, लघु और मझौले उद्यम (एमएसएमई) देश को तीसरी बड़ी आर्थिकी बनाने में अहम भूमिका निभाएंगे। जहां एमएसएमई देश से निर्यात बढ़ाने में नई भूमिका निभा सकते हैं, वहीँ आयात नियंत्रण में भी मददगार हो सकते हैं। इस समय नये व्यापार युग के बदलाव के दौर में भारत के एमएसएमई के लिए चुनौतियों के बीच दुनिया में आगे बढ़ने के ऐतिहासिक अवसर भी हैं और ये उद्योग वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला में प्रतिस्पर्धी बन सकते हैं। इसमें कोई दो मत नहीं है कि टैरिफ वार से एमएसएमई क्षेत्र को जो झटका लग रहा है, उस झटके से एमएसएमई के उबारने के लिए जहां एक ओर सरकार के द्वारा एमएसएमई के समक्ष दिखाई दे रही चुनौतियों के समाधान के लिए रणनीति बनाकर निर्यातकों को सहारा देना होगा, वहीं एमएसएमई क्षेत्र के उद्यमियों और निर्यातकों को भी नई चुनौतियों के मद्देनजर तैयार होना होगा। इस परिप्रेक्ष्य में यह बात महत्त्वपूर्ण है कि सरकार निर्यातकों को सहारा देने के लिए 2250 करोड़ रुपये के निर्यात संवर्धन मिशन को तेजी से लागू करने और बिना रेहन के कर्ज दिए जाने की योजना बना रही है। निसंदेह देश को तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था बनाने में भारत की नई वैश्विक व्यापार रणनीति अहम होगी। भारत के द्वारा विगत 6 मई को ब्रिटेन के साथ किए गए मुक्त व्यापार समझौते के बाद अब अमेरिका और यूरोपीय यूनियन के साथ मुक्त व्यापार समझौतों को 31 दिसम्बर 2025 तक पूर्ण किए जाने के लक्ष्य की ओर तेजी से आगे बढ़ना होगा। इस समय भारत और अमेरिका के बीच द्विपक्षीय कारोबार समझौते (बीटीए) के शुरुआती चरण के लिए वार्ता तेजी से आगे बढ़ रही है और 8 जुलाई से भारत और अमेरिका के बीच अंतरिम व्यापार समझौता लागू हो सकता है।
हाल ही में अमेरिका के वित्तमंत्री स्कॉट बेसेंट ने व्हाइट हाऊस में एक प्रेस कांफ्रेंस में कहा कि पूरी दुनिया में भारत एक ऐसे पहले देश के रूप में सामने आया है, जो अमेरिका के साथ सबसे पहले टैरिफ पर प्रभावी वार्ता करते हुए द्विपक्षीय कारोबार समझौते को तेजी से अंतिम रूप देने की डगर पर आगे बढ़ रहा है। भारत के द्वारा ओमान, कनाडा, दक्षिण अफ्रीका, इस्राइल, भारत गल्फ कंट्रीज काउंसिल सहित अन्य प्रमुख देशों के साथ भी एफटीए को शीघ्रतापूर्वक अंतिम रूप दिया जाना होगा। इसमें कोई दो मत नहीं है। कि भारत को दुनिया की तीसरी बड़ी आर्थिकी बनाने में देश से सेवा निर्यात (सर्विस एक्सपोर्ट) की भूमिका भी प्रभावी होगी। इस समय पूरी दुनिया में भारत सेवा निर्यात की डगर पर छलांगे लगाकर आगे बढ़ रहा है। भारत को सेवा निर्यात की नई वैश्विक राजधानी के रूप में रेखांकित किया जा रहा है। हाल ही में वाणिज्य मंत्रालय के द्वारा प्रकाशित आंकड़ों के मुताबिक पिछले वित्तीय वर्ष 2024-25 में भारत का सेवा निर्यात करीब 387.5 अरब डॉलर का रहा है। भारत में बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा ग्लोबल कैपेबिलिटी सेंटर्स (जीसीसी) की तेजी से नई स्थापनाओं के कारण भी सेवा निर्यात तेजी से बढ़ रहा है।
हाल ही में नैसकॉम और जिनोव की और से जारी इंडिया जीसीसी, लैंडस्केप रिपोर्ट के मुताबिक जीसीसी के लिए भारत दुनिया का सबसे बड़ा हब बनते हुए दिखाई दे रहा है। फिलहाल देश में 1700 जीसीसी हैं। जिनसे 20 लाख से अधिक लोगों को रोजगार मिल रहा है देश में जीसीसी का बाजार आकार 2030 तक 8.4 लाख करोड़ रुपये का होगा | निसंदेह मई 2024 में दुनिया की चौथी बड़ी आर्थिकी बने भारत को आगामी ढाई से तीन साल में तीसरी बड़ी आर्थिकी बनाने के मद्देनजर सरकार के द्वारा अर्थव्यवस्था को मजबूती देने के लिए कुछ और बातों पर ध्यान दिया जाना होगा। अब टैरिफ संरक्षण की बजाय वैश्विक प्रतिस्पर्धा, अनुसंधान व विकास (आरएंडडी) पर भी ध्यान दिया जाना होगा। कृषि तथा श्रम सहित अन्य सुधारों के क्रियान्वयन पर ध्यान देना होगा। भारत में आत्मनिर्भरता की नीति और वोकल फॉर लोकल मंत्र को बढ़ाना होगा। इससे स्थानीय और घरेलू बाजार तेजी से आगे बढ़ेंगे। जीएसटी में सरलता, निवेश के लिए अधिक अनुकूल माहौल, कुशल बुनियादी संरचना, लॉजिस्टिक लागत में कमी, गतिशक्ति योजना का तेज क्रियान्वयन, व्यवसाय करने की प्रक्रिया की सरलता जैसे रणनीतिक कदमों से भारत की आर्थिकी की चमक बढ़ाई जा सकेगी। इन सबके साथ-साथ इसी वर्ष 2025 के अंत तक अमेरिका और यूरोपीय संघ तथा अन्य प्रमुख देशों के साथ भारत के संभावित मुक्त व्यापार समझौतों के पूर्ण किए जाने पर पूरा ध्यान देना होगा। हम उम्मीद करें कि इन विभिन्न रणनीतिक प्रयासों से भारत वर्ष 2028 तक दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था के रूप में रेखांकित होते हुए दिखाई देगा।
हमें अब नए नगर बसाने ही होंगे
जगन शाह, ( नगर नियोजन विशेषज्ञ )
आंध्र प्रदेश की नई राजधानी अमरावती के विकास में केंद्र सरकार का निवेश खास है। यह कदम नए नगरों के | विकास को बढ़ावा देने में व्यापक राष्ट्रीय हित की पुष्टि करता है। यह जाहिर बात है कि नए नियोजित नगरों की जरूरत और राष्ट्रीय विकास में इन नगरों की भूमिका की ओर लोगों का कम ही ध्यान जाता है।
नए शहरों की तलाश की ओर ध्यान न जाने के पीछे कुछ वजहें हैं। जैसे, चल रहे शहरी अभियानों और योजनाओं पर लोगों का विश्वास बना रहता है। लोग सोचते हैं कि उनके पुराने शहर में ही सब कुछ ठीक हो जाएगा। सरकारें स्थानीय स्तर पर जल, स्वच्छता, ऊर्जा, आवास, परिवहन, कचरा प्रबंधन और शहरी आजीविका में निवेश के माध्यम से मौजूदा शहरों में जीवन को सुखमय बनाने के प्रयास करती रहती हैं। हाल ही में घोषित नगरीय चुनौती निधि (अर्बन चैलेंज फंड) और रचनात्मक पुनर्विकास दृष्टिकोण से अगर देखें, तो शहरों के विकास के प्रति सरकारें प्रतिबद्ध दिखती हैं। ऐसे में, सवाल है कि भारत में नए या हरे-भरे या ग्रीनफील्ड शहर की भूमिका और स्थिति क्या है?
अपने देश में साल 2024 में 12 नए औद्योगिक स्मार्ट शहरों की घोषणा की गई थी। अगर हम गौर करें, तो अनेक शहरों व उनके आसपास भूमि अधिग्रहण का काम चल रहा है। छोटे-छोटे नए शहरों या टाउनशिप की भरमार है। उदाहरण के लिए, आमबी वैली, लवासा और नया रायपुर को हम देख सकते हैं, लेकिन अगर हम ईमानदारी से देखें, तो ये नए नगर अधूरी इच्छाओं के उजाड़ रूप हैं। कई नए शहरी क्षेत्र तो ऐसे हैं, जिनका आर्थिक योगदान कुछ भी नहीं है, लेकिन वहां जमीन के भाव आसमान चढ़ते रहते हैं।
इस बीच, श्री सिटी जैसे विशेष आर्थिक क्षेत्र भी हैं, जो निवेश आकर्षित कर रहे हैं। इसी तरह, जेवर और नवी मुंबई जैसे नए क्षेत्र हवाई मार्ग और अन्य माध्यमों से पूरी तरह जुड़ रहे हैं, जिससे यहां शहर के तेजी से बढ़ने व विकसित होने की संभावना है। वैसे, ये सभी शहर पुराने बड़े शहरों के उपग्रह की तरह हैं।
अभी कोई नया शहर कहीं जंगल में नहीं बसाया जा रहा है। जो शहर बसाए जा रहे हैं, किसानों से कृषि भूमि लेकर बसाए जा रहे हैं। ऐसी ही कोशिश अमरावती में भी हुई है। हमें सावधान रहना चाहिए कि किसी शहर का अनियोजित विस्तार समाज में स्वार्थ की भावना को जन्म देता है: यहां बसने वाले लोग भूजल का दोहन करने लगते हैं, कचरे को कहीं भी फेंक देते हैं, टैक्स या शुल्कों का भुगतान किए बगैर सब्सिडी का पूरा आनंद लेना चाहते हैं। एक और बात गौर करने की है कि जब नया शहर किसी पुराने से पोषण लेता है, तो वह यह भी चाहता है कि उसके आसपास पुराने शहर या गांव का कुछ भी शेष न रहे। यहां अच्छी नागरिकता का विचार ढेर हो जाता है, जबकि यह विचार शहरों को जिंदा रखने के लिए जरूरी है।
आज भारत को उभरते नए या ग्रीनफील्ड नगरों और लगातार फैलते पुराने या ब्राउनफील्ड नगरों की मिली- जुली शक्ति से लाभ उठाना चाहिए। सवाल यह कि शहरीकरण के लिए कोई राष्ट्रीय योजना क्यों मौजूद नहीं है ? इसे ठीक से समझना होगा। शहर विकास राज्यों को सौंपा गया विषय है और केंद्र सरकार अपनी सीमा से परे जाकर शहर विकसित करना नहीं चाहती है। हालांकि, अब भारत इस तरह की सीमा, अनिच्छा या हिचक को बर्दाश्त नहीं कर सकता। देश भर में शहरीकरण के प्रबंधन के लिए एक व्यापक योजना बनाने की जरूरत है, जिसमें राज्यों की पूरी भागीदारी हो। यह देश के लिए एक प्रेरक एजेंडा हो सकता है।
कई कारण संकेत कर रहे हैं कि नगर विकास की महत्वाकांक्षी योजना के लिए यह सही समय है। पहला कारण, पिछले 10 वर्ष में हमने शहर विकास के क्षेत्र में जो भी अच्छा किया है, उसे अन्य जगहों पर दोहराने की जरूरत है। ऐसी व्यापक नगर योजना की जरूरत है, जो शहरों को समावेशी, सुरक्षित और सुविधा संपन्न बनाए। ये बातें कोई शब्दजाल नहीं हैं, ये शहरों की जरूरत हैं। दूसरा, गति शक्ति योजना के विस्तार की जरूरत महसूस की गई है। वादा किया गया है कि इसका जल्द ही निजी क्षेत्र में भी विस्तार कर दिया जाएगा। इससे गांवों और शहरों के बीच की आर्थिक विषमता को दूर करने में मदद मिलेगी। गति शक्ति के जरिये भी नगर विकास संभव हो जाएगा।
तीसरा, क्षेत्रीय विकास का दोहन करने की कला राष्ट्रीय ग्रामीण मिशन, आकांक्षी जिला कार्यक्रम और क्षेत्रीय योजनाओं की बढ़ती संख्या में साफ झलकती है। चौथा कारण सबसे महत्वपूर्ण है। हमारे दैनिक समाचार पत्र नगर नियोजन की नाकामी और नगरों के अकुशल प्रबंधन के सबूतों से अटे पड़े हैं। लोग इस बात से अनजान हैं कि नगरों का प्रबंधन बहुत मुश्किल है। तेजी से फैल रहे अनियोजित नगरों का प्रबंधन तो और भी कठिन है। शहरों का फैलाव प्रबंधन के बोझ को बढ़ाते चला जा रहा है । हमारे पुराने शहर अपनी विरासत के बुनियादी ढांचे को भी बनाए रखने में नाकाम हो रहे हैं। शहर किसी ज्यादा हठी बच्चे की तरह ही अनुशासन की सीमाओं को लांघते हुए बढ़ रहे हैं।
तय मानिए, हमें शहरी निवेश को आठ गुना बढ़ाने की जरूरत है, पर यह भी देखना होगा कि आज नगरों के लिए जो धन उपलब्ध है, उसे ठीक तरह से खर्च करने की क्षमता भी बहुत सीमित है। इसकी एक छोटी वजह यह भी है कि हमारे शहर इस सवाल से जूझ रहे हैं कि वे अपने पुराने इलाकों में ज्यादा खर्च करें या नए बस रहे इलाकों पर ज्यादा ध्यान दें। अफसोस, आज जहां भी नगर विकास प्राधिकरण हैं, वे अपने क्षेत्र विस्तार पर ज्यादा ध्यान देते हैं, इससे नगर के बेतरतीब फैलाव को वैधता मिलती है। होना यह चाहिए कि मौजूदा बसावट काही पुनर्विकास किया जाए और जब लगे कि शहर के फैलाव से विकास को बल मिलेगा, तभी शहर विस्तार किया जाए। बेशक, ज्यादा घनत्व वाले चुस्त नगर किसी भी फैले वा बिखरे हुए नगर से ज्यादा अच्छे होते हैं।
आजतय लक्ष्य के साथ शहरी निवेश के लिए राष्ट्रीय योजना की जरूरत है। अच्छी बात है कि हमने पहले भी ऐसा किया है। 1985 में स्थापित राष्ट्रीय शहरीकरण आयोग का काम फिर नई सोच का आधार बन सकता है। नई राष्ट्रीय नगर योजना तैयार करने के लिए भारतीय संविधान के अनुच्छेद 263 के तहत गठित अंतर- राज्यीय परिषद का उपयोग किया जा सकता है। एक सुनियोजित शहरी नेटवर्क ही विकसित भारत को राह दिखा सकता है, पर ऐसा तभी होगा, जब हम नए बनाम पुराने शहरों के द्वंद्व को त्यागकर आगे बढ़ेंगे।