28-03-2019 (Important News Clippings)

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28 Mar 2019
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Date:28-03-19

Win for Indigenous Research Capacity

Mission Shakti must inspire broad – based R&D

ET Editorials

With Mission Shakti, India has demonstrated its capacity to shoot down a low-earth orbit satellite in space, a variation on the capacity to shoot down an incoming missile, which India has had since 2011. With the successful demonstration of this capability, India joins an elite club of nations — US, Russia, China. What makes the success of Mission Shakti, announced by Prime Minister Narendra Modi in a televised address to the nation, particularly important is the fact that this technology was developed indigenously, when India, then not a member of the Missile Technology Control Regime, was prevented from accessing relevant foreign technology. This moment of celebration must spur the scientific community to greater action, and the government must encourage and enable scientists to redouble their efforts to develop technologies for both defence and civilian use.

Earlier this year, the government of India and Japan identified clearing of space debris as one of key areas of cooperation between the respective space agencies. The ASAT will provide for spin-offs that can be deployed for commercial civilian use in the country and abroad. Not just India’s scientific community but also our entrepreneurs must devote energy and resources to developing technological capability in artificial intelligence, robotics, efficient resource use and energy storage healthcare. India’s scientists have the capacity to develop technological responses to the most important challenges facing humanity such as climate change. The government must enable this focus on research and development across the education value chain, beginning with increasing the number of Atal Tinkering Labs, which provides space and opportunity to school students to learn skills, innovate and develop ideas.

Given it’s poll season, political parties will utilise this achievement as it suits them, including the fact that the foundations of India’s space, missile and nuclear technology were laid by Nehru and successive governments. But what’s more important is our scientists be enabled to build on this success to scale greater heights.


Date:28-03-19

दल-बदलुओं के खेल से बदरंग हुई चुनावी राजनीति

संपादकीय

लोकसभा चुनाव में इस बार दल-बदलुओं की भरमार है। एक पार्टी में जीवन खपाने वाले जमे-जमाए नेता दूसरी पार्टी में ऐसे प्रवेश कर रहे हैं जैसे उस पार्टी के बगैर उनका जीवन अधूरा ही रह जाएगा। दल-बदलुओं के इस खेल से चुनावी राजनीति का चेहरा बदरंग हो रहा है। 27 साल भाजपा में बिताकर शत्रुघ्न सिन्हा 28 मार्च को कांग्रेस का दामन थामने जा रहे हैं। 1992 में राजेश खन्ना से चुनाव हारने के बाद उन्होंने कहा था कि चुनाव लड़ना उनकी सबसे बड़ी भूल थी। वे अब चुनाव लड़ने के लिए कांग्रेस में शामिल हो रहे हैं। भाजपा में वे दो बार सांसद और एक बार राज्यसभा से मंत्री भी बन चुके हैं। देश में हर प्रदेश में इस बार भारी मात्रा में नेताओं ने चेहरा बदला है। राजस्थान में घनश्याम तिवाड़ी पूरी ज़िंदगी भाजपा में रहकर मंगलवार को कांग्रेसी हो गए। कीर्ति आजाद, जयाप्रदा सरीखे नेताओं की भाषा बदल गई है।

पश्चिम बंगाल में भाजपा ने तृणमूल कांग्रेस के बड़े नेताओं को अपने पाले में कर लिया। भाजपा आज ममता की पार्टी छोड़कर आए इन्हीं नेताओं के भरोसे चुनाव मैदान में है। मजेदार बात यह है कि हिमाचल में सुखराम जैसे नेता कांग्रेस से भाजपा में और फिर भाजपा से कांग्रेस में आ गए। उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री बीसी खंडूरी ने अपने बेटे मनीष के जरिए कांग्रेस का दामन थाम लिया। कोई भी पार्टी इसमें दूध की धुली नहीं है। सवाल यह उठता है कि पार्टी छोड़ने या नई पार्टी ज्वाइन करने की क्या कोई आचार संहिता नहीं होनी चाहिए? यह कैसे संभव है कि एक नेता कल तक जिनके जयकारे लगाता था वह अचानक उनकी खिलाफत पर उतर आए। यह हृदय परिवर्तन नहीं, मौकापरस्ती है। मौका परस्तों को अवसर न देकर राजनीति में पार्टियों को नई पहल करनी चाहिए। वह नेता जो अपने फायदे के लिए विचारधारा बदलने को तैयार हो जाता है वह अपने संसदीय क्षेत्र की जनता का कितना ध्यान रखता होगा, यह आसानी से समझा जा सकता है। अगर राजनीतिक दल फायदे के लिए दल-बदलुओं का इस्तेमाल करते हैं तो अब मतदाताओं को ऐसे उम्मीदवारों को सबक सिखाना चाहिए। टिकट कटने व टिकट देने का खेल भी बड़ा निराला है। क्षेत्रीय दलों में जब टिकट बेचने और खरीदने की चर्चा आम है तो उन्हें कैसे उम्मीदवार मिलेंगे? राजनीति का व्यवसायीकरण सबसे बड़ी चिंता है। पार्टी चाहे जो भी हो सबका एक ही पैटर्न है। बस जीत चाहिए किसी भी कीमत पर।


Date:28-03-19

असली कारणों पर बहस से वापस आएंगे जॉब

चुनाव में धर्म-जाति की बजाय रोजगार का मुद्दा होना अच्छा है पर दोषारोपण से काम नहीं चलेगा

चेतन भगत , (अंग्रेजी के युवा उपन्यासकार )

नवीनतम प्यू सर्वे के मुताबिक आगामी चुनाव में बेरोजगारी प्रमुख मुद्दों में से एक है। यहां तक कि नेशनल सैम्पल सर्वे ऑफिस (एनएसएसओ) का सर्वे डेटा (जिसके नतीजे विवादास्पद रहे हैं, क्योंकि उसके तरीकों पर कुछ आपत्तियां हैं और सरकार भी उसका समर्थन नहीं करती) भी कहता है कि पिछले 6 वर्षों में हमने 3 करोड़ से ज्यादा जॉब गंवाए हैं। इसके मुताबिक बेरोजगारी की दर 6.1 फीसदी है, जो 45 वर्षों में सर्वाधिक है। देश में यात्रा के दौरान मैंने युवाओं को जॉब को लेकर चिंतित देखा है। कई बेरोजगार और उससे भी ज्यादा अर्ध-बेरोजगार हैं यानी उनके पास पर्याप्त रोजगार नहीं है। साधारण सरकारी नौकरी के लिए आने वाले आवेदनों का सैलाब भी रोजगार की समस्या का संकेत देता है।

चुनाव में ऐसा मुद्दा होना अच्छा है, जो धर्म, जाति या पहचान से जुड़ा नहीं है, क्योंकि बेरोजगारी की समस्या किसी को भी बहुत गंभीर रूप से प्रभावित कर सकती है। व्यक्तिगत स्तर पर इसका एक ही अर्थ है कि या तो आपके पास रोजगार है अथवा नहीं है। जहां महंगाई हम सब पर थोड़ा-बहुत असर डालती है, बेरोजगारी व्यक्तिगत स्तर पर बहुत कड़ी चोट करती है। मुझे लगता है कि इस निष्कर्ष पर पहुंचना उचित है कि भारत में जॉब की समस्या है खासतौर पर उस विशाल युवा आबादी के लिए, जो हर साल वर्कफोर्स में शामिल होती है।

हालांकि, विशेषज्ञ नौकरियां पैदा न होने के कारणों का पता लगाने में गलती करते प्रतीत होते हैं। चुनावी मौसम ने स्थिति और खराब कर दी है, जिसके कारण ऐसी दलीलें दी जा रही हैं- ‘यह सब मोदी की गलती है’ या ‘यह सब कांग्रेस की नाकामी है’ जिसने उनसे पहले साठ साल शासन किया। दुर्भाग्य से इनमें से कोई भी रोजगार संकट का कारण नहीं है।

हमारी अर्थव्यवस्था को देखें तो जीडीपी तीन मुख्य क्षेत्रों से आता है, जहां सबसे ज्यादा रोजगार भी पैदा होता है। ये हैं कृषि, विनिर्माण (मैन्यूफैक्चरिंग) और सेवाएं। रोजगार न होने का इनमें से प्रत्येक का अलग कारण है। कृषि में रोजगार कम है, क्योंकि हमने वे सुधार लागू नहीं किए, जो बहुत पहले हो जाने चाहिए थे। खेत अथवा वितरक व खुदरा बाजार के स्तर पर खेती हमारे यहां संगठित नहीं है और न उसे कॉर्पोरेट स्वरूप मिला है। हमारे यहां आज भी किसान व्यक्तिगत स्तर पर जुताई करता है और उसकी जमीन पीढ़ियों के साथ बंटती चली जाती है। नतीजतन रिटर्न घटता जाता है और कभी-कभी खेती इतनी अव्यावहारिक हो जाती है कि किसान आत्महत्या कर लेता है। खेती के खुदरा क्षेत्र में एफडीआई, कृषि को बढ़ावा दे सकता था। कारगिल और मोनसैंटो जैसी कंपनियों को भारत में विस्तार करने के पहले ही खलनायक बना दिया गया। यह सब करके क्या हम वाकई किसानों की मदद कर रहे हैं? या हम आधुनिक कृषि और पूंजी को इस सेक्टर में आने से रोक रहे हैं? ऐसे में कोई अचरज नहीं कि खेती संकट में है और इस क्षेत्र में जॉब नहीं हैं।

अगला बड़ा सेक्टर है मैन्यूफैक्चरिंग का। भारत में बड़े पैमाने पर जॉब पैदा करना है तो इसमें किसी क्रांति से कम कोई चीज काम नहीं देगी। लालफीताशाही और मैन्यूफैक्चरिंग यूनिट स्थापित करने में आने वाली समस्याओं के कारण हमारे यहां मैन्यूफैक्चरिंग का वैसा विस्फोट नहीं देखा गया, जो 1990 के आगे चीन में नज़र आया। हमारी बारी भी आती यदि हम यहां सुधार करने पर फोकस करते। भू-अधिग्रहण विधेयक याद है? इसका कितना जोरदार विरोध हुआ था। इसे किसानों की जमीन हथियाने वाला बताया गया था। वास्तविक भू-अधिग्रहण देश की कृषि भूमि के 1 फीसदी से भी कम होता, क्योंकि कारखानों को देश के सभी किसानों की जमीन थोड़ी चाहिए थी। लेकिन, उससे देश में मैन्यूफैक्चरिंग की क्रांति शुरू हो जाती।

देश के भीतरी भागों में जॉब पैदा करने का एक ही तरीका है कि कारखाना ऐसी जगह पर हो, जहां तक गांव से बस द्वारा पहुंचा जा सके। यह तभी होगा जब फैक्टरी मालिक सुरक्षित ढंग से अपना प्लांट लगा सके। हर किसान का बच्चा किसान नहीं बनना चाहता। उनमें से कुछ जॉब चाहते हैं पर उन्हें मिल नहीं रहे हैं, क्योंकि रोजगार संकट पर अब हायतौबा मचा रहे लोगों ने ही तब भू-अधिग्रहण विधेयक का विरोध किया था।

सेवा क्षेत्र जॉब पैदा करने वाला तीसरा मुख्य सेक्टर है। यह ऐसा क्षेत्र है, जहां पिछले दशक में नौकरियां तुलनात्मक रूप से अच्छी बढ़ी। हालांकि, सर्वश्रेष्ठ जॉब कुछ विशेष पृष्ठभूमि वाले यानी धाराप्रवाह अंग्रेजी बोलने वाले, महानगरों में रह रहे और खास तरह की शिक्षा पाए लोगों तक सीमित है। सेवा क्षेत्र में रोजगार के अभाव का संबंध ग्रेजुएट हो रहे हमारे युवाओं में कौशल के अभाव से है। हाल के एक सर्वे में पता चला कि हमारे 80 फीसदी इंजीनियरिंग ग्रेजुएट जॉब के लायक नहीं हैं। अन्य शिक्षा क्षेत्रों के इतने ही ग्रेजुएट किसी इंटरव्यू का उचित ढंग से सामना नहीं कर सकते। शिक्षा क्षेत्र के कमजोर नियमन और शिक्षा तक निजी पूंजी के पहुंचने के लिए प्रोत्साहन का अभाव इस बात का कारण है कि हमारे यहां सपने व हसरतें रखने वाला वर्कफोर्स तो है पर दुनिया को देने के लिए वांछित हुनर ज्यादा नहीं है।

फिर कुछ ट्रेंड भी हैं, जो जॉब की स्थिति पर असर डाल रहे हैं जैसे नई टेक्नोलॉजी फिर चाहे ऑनलाइन शॉपिंग हो या ऑनलाइन ट्रैवल सेवाएं, सब नौकरियां कम कर रही हैं। इसमें कोई ज्यादा कुछ नहीं कर सकता बशर्ते एक राष्ट्र के रूप में हम अत्याधुनिक टेक्नोलॉजी के अग्रिम मोर्चे पर रहने की न ठान लें। रोजगार संकट का हल निकालने के लिए हमें हर सेक्टर की समस्याओं पर ध्यान देना होगा और वे सुधार करने होंगे जो अर्थव्यवस्था को तेजी देने के लिए जरूरी हैं। 10 फीसदी जीडीपी वृद्धि से कम (जो भारत ने कभी देखी नहीं पर चीन व अन्य एशियाई देशों ने दिखाई है) से जॉब पैदा होने में उछाल नहीं आएगा। किसी व्यक्ति या राजनीतिक दल को दोष देने से रोजगार की समस्या सुलझने वाली नहीं है, किंतु नागरिकों के रूप में खुद के साथ ईमानदार रहने और सुधार की मानसिकता अपनाने से जरूर सुलझेगी। मुझे उम्मीद है कि हम वह करेंगे, जो नौकरियां वापस लाने के लिए जरूरी है। अगली पीढ़ी के लिए यह हमारा दायित्व है।


Date:28-03-19

गगन में भारतीय ‘शक्ति’ की धमक

‘मिशन शक्ति’ के जरिए भारत ने दुनिया को दिखा दिया कि वह अंतरिक्ष में भी अपने संसाधन व संपदा की रक्षा करने में सक्षम है।

मुकुल व्यास, ( लेखक विज्ञान संबंधी मामलों के जानकार हैं )

इस बात से तो कोई इनकार नहीं कर सकता कि ‘मिशन शक्ति की सफलता के साथ अंतरिक्ष में शत्रु के उपग्रह को मार गिराने की क्षमता हासिल कर भारत अब दुनिया की एक बड़ी अंतरिक्ष शक्ति बन गया है। हमारे अंतरिक्ष व रक्षा विज्ञानियों की इस बड़ी कामयाबी से पूरी दुनिया चौंक गई है, क्योंकि अभी तक सिर्फ रूस, अमेरिका और चीन के पास ही यह क्षमता थी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बुधवार को देशवासियों को बताया कि हमारे वैज्ञानिकों ने ‘मिशन शक्ति के तहत उपग्रह-रोधी प्रक्षेपास्त्र (एंटी-सैटेलाइट मिसाइल) के जरिए 300 किलोमीटर ऊपर निम्न कक्षा (एलईओ) में एक उपग्रह को सफलतापूर्वक मार गिराया है। यह एक बहुत ही कठिन मिशन था, लेकिन इसे सिर्फ तीन मिनट के अंदर ही पूरा कर लिया गया।

नि:संदेह अंतरिक्ष के क्षेत्र में हासिल यह उपलब्धि हम सभी देशवासियों के लिए एक बड़े गौरव का पल है और इस शानदार सफलता का श्रेय भारतीय रक्षा अनुसंधान संगठन (डीआरडीओ) और इसरो (भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन) के वैज्ञानिकों को जाता है, जो पिछले कई वर्षों से इस मिशन को सफल बनाने में जुटे हुए थे। कहना होगा कि उपग्रह-रोधी मिसाइल के सफल परीक्षण के साथ भारतीय अंतरिक्ष विज्ञान ने बुलंदियों का एक और नया आयाम तय किया है। आज अंतरिक्ष में भारत के अनेक उपग्रह तैनात हैं, जो दूरसंचार, आपदा प्रबंधन, मौसम, कृषि और नेविगेशन आदि क्षेत्रों में महत्वपूर्ण योगदान दे रहे हैं।

विदेश मंत्रालय के एक बयान के अनुसार भारत के इस परीक्षण का उद्देश्य अपनी अंतरिक्ष संपदा की हिफाजत करना है। बाहरी अंतरिक्ष में देश के हितों की देखभाल करना भारत सरकार का दायित्व है। इस संदर्भ में भारत के उपग्रह-रोधी (एंटी-सैट) कार्यक्रम का महत्व और भी बढ़ जाता है। भारत ने इस अति-महत्वपूर्ण परीक्षण को तभी अंजाम दिया, जब उसे यह भरोसा हो गया कि वह इसमें पूरी तरह सफलता हासिल कर सकता है। जैसा कि प्रधानमंत्री ने कहा भी कि यह कार्यक्रम हमारी सुरक्षा को सुदृढ़ करेगा। भारत शुरू से ही अंतरिक्ष को युद्ध का अखाड़ा बनाए जाने के खिलाफ रहा है । इस स्थिति में आज भी कोई बदलाव नहीं हुआ है। भारत का इरादा बाहरी अंतरिक्ष में हथियारों की होड़ शुरू करने का कतई नहीं है।

दुनिया में उपग्रह-रोधी परीक्षण विवादास्पद माने जाते हैं और इन्हें अंतरिक्ष के सशस्त्रीकरण के रूप में देखा जाता है। वर्ष 1967 की बाह्य अंतरिक्ष संधि में अंतरिक्ष के सशस्त्रीकरण पर रोक है। प्रधानमंत्री मोदी ने स्पष्ट किया कि भारत द्वारा ‘मिशन शक्ति के तहत किया गया परीक्षण अंतरराष्ट्रीय कानूनों के दायरे में हुआ है। उन्होंने इस बात को बलपूर्वक कहा कि 27 मार्च को हासिल की गई इस सफलता से देश की सुरक्षा सुदृढ़ होगी। हमारे अंतरिक्ष कार्यक्रम का उद्देश्य शांति तथा आर्थिक और तकनीकी प्रगति है। हम हमेशा दो कदम आगे का सोचते हैं और आगे बढ़ने की हिम्मत रखते हैं। भारत अब थल, जल और वायु के अलावा अंतरिक्ष में भी अपनी हिफाजत कर सकता है।

डीआरडीओ और इसरो के संयुक्त कार्यक्रम ‘मिशन शक्ति के तहत यह उपग्रह-रोधी परीक्षण ओडिशा के बालासोर स्थित डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम प्रक्षेपण परिसर से किया गया। मिशन में प्रयुक्त उपग्रह भारत का ही अप्रयुक्त उपग्रह था। उपग्रह को मार गिराने के लिए डीआरडीओ के बैलिस्टिक मिसाइल डिफेंस इंटरसेप्टर का प्रयोग किया गया, जो इस समय चल रहे हमारे बैलिस्टिक मिसाइल कार्यक्रम का हिस्सा है। उपग्रह को नष्ट करने के बाद अंतरिक्ष में कचरा न फैले, यह सुनिश्चित करने के लिए यह परीक्षण निम्न कक्षा में किया गया। इस विस्फोट के बाद जो कुछ कचरा बिखरा है, वह क्षय के बाद पृथ्वी पर गिर जाएगा।

उपग्रह-रोधी मिसाइल सिस्टम का उद्देश्य शत्रु के उपग्रहों को नष्ट करने के अलावा शत्रु देश के अपनी फौज से संचार संपर्क को बाधित करना भी है। इससे शत्रु को अपनी फौजों की तैनाती और मिसाइलों के बारे में सूचनाएं प्राप्त करने से भी रोका जा सकेगा। चीन द्वारा वर्ष 2007 में किए गए एंटी-सैटेलाइट मिसाइल टेस्ट के बाद भारत ने इस क्षेत्र में सक्रियता दिखाई और अपनी रक्षा क्षमताओं को मजबूत करने के लिए ठोस कदम उठाए। तत्कालीन यूपीए सरकार ने उस समय कहा था कि एंटी-सैटेलाइट मिसाइल की चीन की क्षमता भारत के लिए एक गंभीर खतरा है और हम अपनी अलग टेक्नोलॉजी विकसित करने के लिए कदम उठा रहे हैं। तत्कालीन रक्षा मंत्री के वैज्ञानिक सलाहकार वीके सारस्वत ने कहा था कि बैलिस्टिक मिसाइल कार्यक्रम के तहत हमारे पास वह सारी तकनीक है, जिसके सहारे उपग्रहों की रक्षा करने या भविष्य की अन्य जरूरतों को पूरा करने के लिए सिस्टम खड़ा किया जा सकता है।

अब भारतीय वैज्ञानिकों ने वर्षों की कड़ी मेहनत के बाद उपग्रह-रोधी मिसाइल की क्षमता हासिल की है। सबसे महत्वपूर्ण यह है कि यह उपलब्धि पूरी तरह स्वदेशी प्रयासों व संसाधनों से हासिल हुई है। डीआरडीओ के अध्यक्ष जी. सतीश रेड्डी ने कहा कि अब हम उपग्रह-रोधी क्षमता में पारंगत हो गए हैं और 27 मार्च को हमने यह दिखा दिया है कि हम कुछ ही सेंटीमीटर की सटीकता के सात लंबी दूरी के उपग्रहों पर प्रहार कर सकते हैं। नई दिल्ली स्थित सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च के सुरक्षा विशेषज्ञ ब्रह्मा चेलानी के मुताबिक अमेरिका, रूस और चीन उपग्रह-रोधी हथियारों के विकास में जुटे हुए हैं। यानी अंतरिक्ष को युद्ध का अखाड़ा बनाने की कोशिशें हो रही हैं। ऐसे में अंतरिक्ष में जवाबी क्षमता हासिल करना महत्वपूर्ण हो जाता है। इस संदर्भ में उपग्रह-रोधी हथियार से एक उपग्रह को मार गिराना एक बहुत बड़ा कदम है। ऑब्जर्वर रिसर्च फॉउंडेशन के विश्लेषक अरविंद जॉन मानते हैं कि उपग्रह-रोधी हथियार अगले कुछ दशकों में सशस्त्र सेनाओं के लिए बेहद शक्तिशाली अस्त्र साबित होगा।

भारत एंटी-सैटेलाइट मिसाइल तकनीक का घरेलू उपयोग करने के अलावा यदि चाहे तो इसका अंतरराष्ट्रीय व्यावसायिक उपयोग भी कर सकता है। पिछले कुछ वर्षों के दौरान भारत के अंतरिक्ष कार्यक्रम में काफी विस्तार हुआ है। ‘मंगलयान मिशन की सफलता के बाद भारत सरकार ने ‘गगनयान मिशन को मंजूरी दी है, जो भारतीय अंतरिक्ष यात्रियों को बाहरी अंतरिक्ष में ले जाएगा। इसरो ने 102 उपग्रह मिशनों को अंजाम दिया है। इनमें संचार उपग्रह, भू-पर्यवेक्षण उपग्रह, नौसंचालन उपग्रह और अनेक प्रायोगिक उपग्रह शामिल हैं। भारत का अंतरिक्ष कार्यक्रम देश के सुरक्षा, आर्थिक और सामाजिक ढांचे का महत्वपूर्ण हिस्सा है। अब उपग्रह-रोधी मिसाइल का सफल परीक्षण कर भारत ने दुनिया को यह दिखा दिया है कि वह अंतरिक्ष में अपने संसाधनों और संपदा की रक्षा करने में पूर्ण सक्षम है।


Date:28-03-19

शानदार कामयाबी

मिशन शक्ति के तहत एंटी सैटेलाइट मिसाइल का सफल परीक्षण करना साधारण उपलब्धि नहीं इसलिए इस पर सवाल खड़े करने का कोई खास औचित्य नहीं बनता।

संपादकीय

यह सचमुच एक बड़ी उपलब्धि है कि भारतीय वैज्ञानिकों ने वह कर दिखाया जो अब तक केवल अमेरिका, रूस और चीन ही कर सके हैैं। अंतरिक्ष में उपग्रह मार गिराने की क्षमता का सफल प्रदर्शन करने के बाद भारत ने खुद को सच्चे अर्थों में अंतरिक्ष की एक बड़ी शक्ति के रूप में स्थापित कर लिया है। अब उसे बिना किसी संकोच अंतरिक्ष का महारथी कहा जा सकता है। हमारे वैज्ञानिकों ने यह उल्लेखनीय सफलता हासिल कर केवल भविष्य की चुनौतियों का जवाब देने की अपनी क्षमता का ही शानदार प्रदर्शन नहीं किया है, बल्कि यह भी साबित किया है कि वे हर तरह की बाधा पार करने में सक्षम हैैं। यदि अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन के साथ रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन के वैज्ञानिकों की मुक्त कंठ से प्रशंसा हो रही है तो यह स्वाभाविक है। आखिर उन्होंने भारत को दुनिया के शीर्ष देशों की पांत में खड़ा कर दिया है।

उपग्रह नष्ट करने की क्षमता हासिल करना इसलिए वक्त की मांग थी, क्योंकि अंतरिक्ष तकनीकी प्रतिस्पर्धा से दो-चार होने के साथ ही भविष्य में संघर्ष का भी मैदान बन सकता है। आखिर यह एक तथ्य है कि 2007 में चीन ने इसी तरह का परीक्षण करके इसी आशंका को बल दिया था। जब अंतरिक्ष के सैन्य इस्तेमाल की आशंका बढ़ती जा रही हो तब समझदारी इसी में है कि भारत भी अपने को तैयार रखे। यह सही है कि भारत अंतरिक्ष को हथियारों की होड़ से मुक्त रखना चाहता है, लेकिन अकेले उसके चाहने से हालात बदलने वाले नहीं हैैं।

चूंकि ‘मिशन शक्ति’ के तहत एंटी सैटेलाइट मिसाइल का सफल परीक्षण करना साधारण उपलब्धि नहीं इसलिए इस पर सवाल खड़े करने का कोई खास औचित्य नहीं बनता कि इस आशय की घोषणा खुद प्रधानमंत्री ने क्यों की? आखिर प्रधानमंत्री की घोषणा पर सवाल खड़े करने वाले इसकी अनदेखी कैसे कर सकते हैैं कि अंतरिक्ष विभाग का प्रभार उनके ही पास है। नि:संदेह इस पर बहस हो सकती है कि प्रधानमंत्री ने राष्ट्र के नाम संदेश के माध्यम से अंतरिक्ष में अर्जित की गई इस सफलता की घोषणा क्यों की, लेकिन यह कोई मामूली कामयाबी नहीं है। अगर इस कामयाबी को दूसरे परमाणु परीक्षण की तरह से माना जा रहा है तो फिर यह आवश्यक ही था कि उसके बारे में स्वयं प्रधानमंत्री देश-दुनिया को अवगत कराते।

यह सही है कि आम चुनाव होने जा रहे हैैं, लेकिन क्या इस तरह की असाधारण उपलब्धियों को चुनाव संबंधी आचार संहिता से बांधने की कोशिश उचित है? ऐसा लगता है कि विपक्षी दलों ने इस सवाल पर ढंग से विचार करना जरूरी नहीं समझा। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने अंतरिक्ष में हासिल कामयाबी पर वैज्ञानिकों को बधाई तो दी, लेकिन इसके साथ ही प्रधानमंत्री पर तंज भी कसा। क्या यह आवश्यक था? सवाल यह भी है कि कांग्रेसी नेता यह जानते हुए भी इस कामयाबी का श्रेय मोदी सरकार को देने से क्यों बच रहे कि इसरो ने मनमोहन सरकार के समय इस तरह का परीक्षण करने की अनुमति मांगी थी? बेहतर होगा कि कांग्रेस के नेता ही यह बताएं कि उस समय यह अनुमति क्यों नहीं दी गई थी?


         Date:27-03-19

राजनीति के केंद्र में गरीबी का लौटना

अरुण कुमार , अर्थशास्त्री

कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने कहा है कि अगर उनकी पार्टी सरकार बनाती है, तो देश के सबसे गरीब 20 फीसदी परिवारों को सालाना औसतन 72,000 रुपये दिए जाएंगे। यह वादा कुछ-कुछ यूनिवर्सल बेसिक इनकम यानी सार्वभौमिक बुनियादी आय की तरह है, जिस पर इन दिनों पूरी दुनिया में बहस चल रही है। यह बहस इसलिए है, क्योंकि बेरोजगारी के बढ़ने के कारण वैश्विक मांग कम हो गई है और विश्व की अर्थव्यवस्था को खासा नुकसान पहुंच रहा है। हालांकि राहुल गांधी के वादे में एक व्यावहारिक मुश्किल भी है। उनके लिए यह पहचान करना कठिन होगा कि किसकी कितनी आमदनी है और किसको कितनी रकम वह देंगे कि उसकी आमदनी हर महीने 12,000 रुपये हो जाए। ऐसे गरीब परिवारों की पहचान करना एक चुनौती भरा काम है। इसलिए मुमकिन है कि साल 2011-12 की सामाजिक-आर्थिक जातिगत जनगणना के आधार पर ही देश भर के पांच करोड़ गरीब परिवार चुने जाएं और कुछ निश्चित राशि उनके बैंक खाते में डाली जाए।

फिर भी, यह एक अच्छी योजना है और यदि पार्टी की मजबूत राजनीतिक इच्छाशक्ति होगी, तो इसे लागू किया जा सकता है। रही बात संसाधनों की, तो इसे जुटाना कोई टेढ़ी खीर नहीं है। न्यूनतम आय योजना के लिए हर साल 3.6 लाख करोड़ रुपये की दरकार होगी। इसमें से 75 हजार करोड़ रुपये फरवरी के बजट सत्र में मौजूदा सरकार ने प्रस्तावित कर रखा है, जिसके तहत उसने 12 करोड़ गरीब किसानों को साल में 6,000 रुपये देने की बात कही है। शेष 2.85 लाख करोड़ रुपये सरकार को इस तरह जुटाने होंगे कि राजकोषीय घाटा न बढ़े। इसके लिए वह चाहे, तो देश के धनिक वर्ग और बड़ी-बड़ी कंपनियों द्वारा येन-केन-प्रकारेण हासिल की जाने वाली चार-पांच लाख करोड़ के कर-छूट में से एकाध लाख करोड़ रुपये की कटौती कर सकती है।

फिर, पिछले कुछ वर्षों में हमने अपने यहां संपत्ति कर (वेल्थ टैक्स), उपहार कर (गिफ्ट टैक्स) और राज्य कर (स्टेट ड्यूटी) जैसी व्यवस्थाएं खत्म कर दी है, जबकि इन वर्षों में भारत में संपत्ति काफी बढ़ी है। आंकड़े बताते हैं कि देश में ‘डॉलर बिलियनर्स’ यानी धनाढ्य अरबपतियों की संख्या 150 से ज्यादा हो गई है। इतने ज्यादा अरबपति तो जापान में भी नहीं हैं, जबकि वह हमसे कहीं अधिक संपन्न देश है। इससे पता चलता है कि अपने यहां असमानता किस हद तक है। इसीलिए संपत्ति कर के रूप में यदि सरकार आधा फीसदी भी टैक्स लगाती है, तो काफी पैसे राजकोष में जमा हो जाएंगे। यदि सिर्फ शीर्ष के पांच फीसदी धनाढ्यों पर ही ये टैक्स लगाए जाते हैं, तो दो-सवा दो लाख करोड़ रुपये सरकार के खाते में आसानी से जमा हो सकते हैं। अमेरिका जैसे देशों में तो धनिकों ने खुद इस तरह की ज्यादा टैक्स देने की बात कही है। यानी राजनीतिक इच्छाशक्ति हो, तो नई सरकार के लिए 3.6 लाख करोड़ रुपये जमा करने में कोई खास अड़़चन नहीं आने वाली।

मगर सवाल यह है कि क्या ऐसी योजनाएं वाकई गरीबी कम करती हैं? हमारे देश में गरीबी काफी अधिक है, और इसे दूर करने में पिछले सात दशकों में हमने कुछ खास किया भी नहीं है। हमारे यहां विकास भले ही ‘ट्रिकल डाउन थ्योरी’ की अवधारणा पर आधारित है, लेकिन यहां ऊपरी वर्गों का तो पर्याप्त विकास हुआ, पर उसका लाभ निचले तबकों को बमुश्किल ही मिल सका है। इसी वजह से देश में गरीबी पसरी हुई है। अलबत्ता, यह जरूर हुआ है कि इन वर्षों में गरीबी का रूप बदल गया है। इस लिहाज से दीर्घावधि में तो नहीं, मगर कम समय के लिए न्यूनतम आय जैसी योजना काफी कारगर साबित हो सकती है। अगर 3.6 लाख करोड़ रुपये देश के विपन्न-वर्गों में बंटते हैं, तो वे इन पैसों से खरीदारी कर सकेंगे, जिससे अर्थव्यवस्था में मांग की स्थिति पैदा होगी। इससे उद्योगों का उत्पादन बढ़ेगा और दो फीसदी के आसपास मौजूद उनकी विकास दर तेजी से आगे बढ़ेगी। उत्पादन बढ़ने से स्वाभाविक तौर पर निवेश बढ़ेगा और रोजगार के नए अवसर भी पैदा होंगे। मेरा मानना है कि इसके साथ-साथ वस्तु और सेवा कर (जीएसटी) को भी आसान बनाना चाहिए, क्योंकि जीएसटी की उलझनों ने भी निवेश पर बुरा असर डाला है।

इस कवायद से विशेषकर निचले तबके के लोगों की खरीदारी क्षमता उल्लेखनीय रूप से बढ़ेगी। वे खाद्य उत्पाद खरीदना शुरू करेंगे, जिसकी वजह से खाद्यान्न उत्पादों की गिरती कीमत संभल सकेगी। लोगों का खान-पान बेहतर होने से उनकी सेहत पर भी अच्छा असर पड़ेगा। इससे महिलाओं और बच्चों में कुपोषण की दर कम होगी, जो फिलहाल 40 फीसदी के आसपास है। इससे खेती-किसानी के भी दिन बहुरेंगे और पैदावार में उल्लेखनीय वृद्धि हो सकेगी।

इस योजना के आलोचक यह भी कह रहे हैं कि इससे दो फीसदी तक महंगाई बढ़ जाएगी। यह तर्क बहुत ज्यादा संतुष्ट नहीं करता। अगर राजकोषीय घाटा नहीं बढे़गा, तो फिर महंगाई क्यों बढ़ेगी? असल में, अभी महंगाई दर इसलिए कम है, क्योंकि खाद्यान्न उत्पादों के दाम गिर रहे हैं। न्यूनतम आय से खाद्यान्न उत्पादों के गिरते दाम थम जाएंगे, जिससे महंगाई थोड़ी बढे़गी, लेकिन इससे कोई नुकसान नहीं होगा। अर्थव्यवस्था और उत्पादन में सुधार होने का आखिरकार हमें फायदा ही मिलेगा।

साफ है, पहले भाजपा और अब कांग्रेस ने जिस तरह गरीबों के लिए निश्चित आमदनी की बात कही है, उससे लगता यही है कि गरीबी इस चुनाव का भी एक बड़ा मुद्दा बन गई है। यह अच्छी बात है, क्योंकि जब तक इसे राजनीतिक मुद्दा नहीं बनाया जाएगा, इसका हल नहीं निकल सकेगा। राजनीतिक मुद्दा बनने से किसी मसले पर गंभीर विचार-विमर्श शुरू होता है और समाधान की राह निकलती है। अब जो भी सरकार सत्ता में आएगी, उस पर यह दबाव होगा कि वह गरीबों के लिए कुछ-न-कुछ करे। कम से कम विपक्षी पार्टियां जरूर सत्ता पक्ष पर ऐसा दबाव बनाएंगी। इससे उम्मीद जगती है कि आने वाले वर्षों में गरीबी की समस्या का हम समाधान ढूंढ़ने में सफल हो सकेंगे।